‘जानकारी’ और ‘सतर्कता’ जरूरी है क्योंकि ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल, मुस्की, मुख पान………’ कविता ‘अब दृष्टान्त नहीं रहा मिथिला का’

बंगाल की मछलियां मिथिला में 'मिथिला की माँछ बन रही है और कविता वाचक 'पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक' कविता पाठ कर मिथिला का गुणगान कर रहे हैं

मनीगाछी / दरभंगा / समस्तीपुर / बेगूसराय : जिस महामहोपाध्याय ने मिथिला का चित्रण ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक’ इन शब्दों में किये थे, वे बहुत दूरदर्शी थे। लगता है वे सरस्वती के वरद पुत्र थे और उन्हें ज्ञात था कि आने वाले समय में मिथिला के लोग उनकी कविता को मिथिला के चौराहों पर ‘पाठ’ करके, मिथिला का गुणगान करके अपने-अपने हिस्से की मिथिला अपने नाम लिखाएँगे। प्रदेश के लेखाकार में ‘एक खास किस्म के लोग’ दरभंगा राज का ‘मुहर’ लेकर तैयार भी रहेंगे जो आतंरिक-बाहरी माफिआओं के साथ मिलकर मिथिला (दरभंगा राज और उसकी गरिमा) को बेचकर, उसे मिट्टी पलीद करेंगे और स्वयं ‘संभ्रांत’ और ‘धनाढ्यों’ की श्रेणी में सूचीबद्ध हो जायेंगे, नेता, अभिनेता भी हो सकते हैं।

कवि महोदय यह भी जानते थे इस कविता में वे जिस ‘संज्ञा’, ‘सर्वनाम’, ‘विशेषण’ ‘क्रिया’ का इस्तेमाल कर रहे हैं, आने वाले दिनों में वह ‘अपभ्रंश’ ही नहीं, ‘विध्वंस’ का रूप ले लेगा। मानसिक रूप से समाज के कुछ सम्मानित लोगों के लिए यह शब्द बाजार अवश्य देगा, उनकी ‘रोजी-रोटी’ का साधन अवश्य बनेगा। वे यह भी जानते थे कि मिथिला के समाज में ‘विद्या’ महत्वहीन हो जायेगा। ‘वैभव’, ‘लक्ष्मी’ को प्राप्त करने, उन पर अपना-अपना अधिपत्य ज़माने की होड़ में ‘विद्या’, ‘विद्यालय,’, ‘गुरुकुल’, ‘गुरुजन’, जो समाज का पथ-प्रदर्शक थे, मिथिला की सड़कों पर उनकी वही स्थिति होगी जैसी भारत के नगरों, महानगरों में मुख्य सड़क के दाहिने-बाएं ‘पगडण्डी’ नुमा सड़क होती है और जहाँ लिखा होता है ‘साईकिल और पैदल चलने वालों का रास्ता। यानी ‘साईड लाईन’ हो जायेंगे। इतना ही नहीं, दुर्भाग्य का पराकाष्ठा तब होगा जब उस रास्ते को भी समाज के ‘वैभवशाली’, ‘बाहुबली’, ‘पहलवान’, ‘दबंग’, ‘लाठीधारी’, ‘बंदूकधारी’, ‘कट्टाधारी’ व्यक्ति, जो तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था से संरक्षित, पोषित रहेंगे (इसमें मिथिला वासी भी सम्मिलित रहेंगे), कब्ज़ा किये बैठे होंगे। समाज में ‘अशिक्षा’ के कारण मूक-बधिर लोगों का, चापलूस-चाटुकारों का बोलबाला हो जायेगा।

अगर ऐसा नहीं होता तो आज मिथिला की सड़कों से लेकर पटना के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड के रास्ते दिल्ली के राजपथ और जंतर-मंतर तक इस कविता का पाठ नहीं किया जाता – ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक'” । लोगों को स्वयं समझने की, सोचने की, मंथन करने की, विवेचना करने की, विश्लेषण करने की शक्ति होते हुए भी, वह ‘दिग्भ्रमित’ होना, ‘गुमराह’ होना, ‘बरगलाना’ अधिक श्रेयस्कर समझता है तो हम क्या कर सकते हैं।

आज़ादी से पहले प्रकाशित ‘आर्यावर्त’, ‘इण्डियन नेशन’ अख़बारों को ढूढ़ना, पढ़ना आज की तारीख में तो मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है जिससे यह आँका जाए कि उन दिनों उन अख़बारों में तत्कालीन विद्वान और विदुषी लोग मिथिला के भविष्य के बारे में क्या चर्चा किये थे। इसका कारण यह भी है कि सन 1960 के अक्टूबर महीने में जब दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह का निधन हुआ, उसके बाद औरों के बारे में तो नहीं कह सकता, यह दोनों अखबार ‘टुगर’, ‘अनाथ’ ‘पितृहीन’ अवश्य हो गया। और इसका जीवंत उदाहरण यही दिया जा सकता है कि महाराजाधिराज के मरणोंपरांत यह अख़बार क्या, सम्पूर्ण दरभंगा राज ही रसातल की ओर उन्मुख हो गया। क्योंकि ‘धन’ होने से ‘गरिमा’ बरक़रार रहेगा ही, यह ‘चापलूस-चाटुकारों’ की नजर में ‘सच’ हो सकता है। ‘निर्धन’, ‘प्रतिष्ठित’, ‘चरित्रवान’ मनुष्य के लिए यह सिद्धांत ‘गलत’ है क्योंकि दूसरे का धन उसके लिए मिट्टी स्वरुप होता है।

मिथिला के किसी भी स्थान पर खड़े होकर मिथिला के बाबू, बबुआइन और बौआसिन लोग अगर “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” कविता पाठ करते मिल जायँ, तो समझ लीजिये वे ‘सरेआम झूठ’ बोल रहे हैं। अपने-अपने हितों के रक्षार्थ वे स्थानीय लोगों को बरगला रहे हैं। इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि वे राजनीति में प्रवेश करने के लिए मिथिला की कविता पाठ करना प्रारम्भ कर दिए हों जो उनके अनेकानेक प्रयासों में, एक यह भी प्रयास हो। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिस समय इस कविता की रचना हुई होगी, उस कवि के नजर में मिथिला और उसकी गरिमा अपने उत्कर्ष पर रहा होगा। मिथिला के सभी क्षेत्रों में, प्रत्येक कदम पर, प्रत्येक घरों के सामने-पीछे छोटा-बड़ा पोखर रहा होगा। तत्कालीन राजा-महाराजा-महाराजाधिराज स्थानीय लोगों के सम्मानार्थ, तत्कालीन पानी की समस्याओं के निदानार्थ अपने खर्च पर पोखर, तालाब बनबाये होंगे। यह सच भी है।

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अब जब मिथिला में असंख्य पोखर / तालाब रहा होगा तो उसके महार (इम्बैंकमेंट) पर पान की खेती, मखान की खेती होती होगी, जिसका उपयोग अपने-अपने घरों में, आगंतुकों के लिए, सगे-सम्बन्धियों के लिए किया जाता होगा। कोई सौ वर्ष पहले तक मिथिला में ‘शिक्षा’ चाहे ‘प्राथमिक’ हो, ‘माध्यमिक’ हो या ‘उच्च शिक्षा हो – पढ़ने वालों के साथ-साथ पढ़ाने वालों की किल्लत नहीं थी। अपने-अपने क्षेत्र के अनेकानेक आचार्य, प्राचार्य, महामहोपाध्याय समाज में उपलब्ध थे। शिक्षा के मामले में बनारस और इलाहाबाद की दूरियां मिथिला से अधिक नहीं थी। पाटलिपुत्र में भी मिथिला के लोग आकर शिक्षित होते थे। लेकिन, दुर्भाग्य यह रहा कि शिक्षा प्राप्ति के बाद उन्हें समाज को जो वापस करना था, वह नहीं कर सके। मिथिला के ग्रामीण इलाकों से खेतिहर-परिवारों से लेकर विद्वानों के परिवारों तक, जो भी शिक्षा के लिए शहर की ओर उन्मुख हुए, कभी वापस नहीं आये। और वापस भी आये तो वृद्धावस्था में। परिणाम यह हुआ कि मिथिला की जो अपनी पारम्परिक शिक्षा और शिक्षा पद्धति थी, उसका सर्वनाश हो गया।

समय बदल रहा था। समाज बदल रहा था। सोच बदल रहे थे। स्वाभाविक है शिक्षा का स्वरूप भी में बदलेगा ही। लेकिन तकलीफ इस बात की है कि आज भी हम उसी कविता पाठ को दोहरा रहे हैं और कहते थक भी नहीं रहे है कि “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” – खासकर तब जब बिहार के ग्रामीण इलाकों में शैक्षिक दर पुरुषों में 57 फीसदी और महिलाओं में 29 फीसदी है। बिहार का यह ग्रामीण इलाका, चाहे गंगा के उस पार का हो या गंगा के इस पार का। मिथिला भी इसी आकंड़े के अधीन है। पूरे प्रदेश में औसतन शैक्षिक दर 69 फीसदी है। इसमें पुरुषों के हिस्से 70 फीसदी और महिलाओं के हिस्से 53 फीसदी है। यानी दोनों के बीच आज भी 17 फीसदी का फासला है और यही 17 फीसदी का फासला, चाहे मिथिला में पंचायत का चुनाव हो, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, भागलपुर, मुंगेर, आदि शहरों में जिला परिषद् का चुनाव हो या बिहार के विधान सभा और विधान परिषद का चुनाव हो – निर्णायक होता है। ‘वे’ विजय ‘घोषित’ हो जाते हैं और ‘आप’ अपनी किस्मत को कोसते जीवन पर्यन्त ‘हार’ का सामना करते “पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” कविता पाठ सुनते रहते हैं।

इतना ही नहीं, इस कविता में “मधुर बोल और मुस्की” शब्द का इस्तेमाल भी किया गया है। आधुनिक समाज शास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि “मधुर बोली और मुस्कराहट” हमेशा ‘सकारात्मक’ नहीं होता, यह ‘प्राणघातक’ भी होता है। इतिहास गवाह है अगर ऐसा नहीं होता तो आज कोई 20 राजा-महाराजाओं वाला दरभंगा राज का चार शताब्दी पुराना सल्तनत भी मिट्टी में नहीं मिलता। अगर ‘मधुर बोली और मुस्कराहट’ बेहतर के लिए होता, तो प्रदेश की नीचली अदालतों में (उत्तर बिहार सहित) कोई सोलह लाख मुकदमें लंबित नहीं होते। उन मुकदमों में अस्सी से अधिक फीसदी ‘दीवानी’ मुकदमें हैं, जो परिवार-दर-परिवार पैतृक संपत्ति पर, किसी और की संपत्ति पर कब्ज़ा करने के मामले से सम्बंधित है। कहीं मुकदमा ‘दीवानी’ है तो कहीं ‘फौजदारी’, कहीं कोई पुत्र अपनी माँ पर मुकदमा किये हुए है, तो कहीं कोई पौत्र अपनी दादी पर। कहीं कोई भाई अपने दूसरे सगे भाई पर मुकदमा ठोके हुए हैं तो कहीं कोई पुत्र अपने वृद्ध पिता पर। कहीं वृद्ध माता-पिता प्रत्येक पल परमात्मा से अपनी अंतिम सांस की गुहार लगा रहे हैं तो कहीं कोई सास-ससुर अपनी बेटी-पतोह-पुत्र-दामाद पर। इसलिए “मधुर बोली और मुस्कराहट” शक के दायरे में आ जाता है।

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सबसे महत्वपूर्ब बात तो माँछ (मछली) से सम्बंधित है। माँछ की कथा-व्यथा बनारसी पान जैसी है। बनारस में पान की खेती नहीं होती, लेकिन हज़ारों-हज़ार पान की दुकानें हैं। प्रत्येक चार दुकान या चार मकान के बाद पान की दुकानें मिलेंगी। लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ, जगन्नाथ जी, गया और कलकत्ता आदि स्थानों से आते हैं। पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मुहल्ले बसे हुए हैं। केवल शहर के पान विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय इस जगह पान खरीदने आते हैं।

बस इतना ही समझ लें कि आज मिथिला में माँछ का उपलब्धता जितना है वह मिथिला के दो फीसदी लोगों की आवश्यकता पूरी नहीं कर सकता। मिथिला के बाज़ारों में जो माँछ आप देख रहे हैं वह सन 1911 से पहले देश की राजधानी जिस प्रदेश में थी, वहां से और आंध्र प्रदेश से आती है। मिथिला में महज ‘ठप्पा’ लगता है। अब सोचिये खाते हैं बंगाल की – आंध्र की मछली और आज भी कविता पाठ किये हैं “पग-पग पोखर माँछ ,,,,” जब इस कविता की रचना की गयी थी माछ, पान और मखान मिथिला की शान, पहचान अवश्य थी। लेकिन समय के साथ मिथिला अपनी इस पहचान को न सिर्फ खो दिया है, बल्कि इन सभी चीजों पर अब दूसरे प्रदेशों द्वारा कब्जा भी हो गया है। इस दृष्टि से मिथिला की पहचान खतरे में है और लोग बाग़ है कि इस खतरे में भी खतरा उठाना चाहते हैं ‘मिथिला को अलग राज्य का दर्जा दो” – गजब है।

पूरे मिथिला में स्थित पोखरों की संख्या को अगर तनिक बाद में अध्ययन करें तो सिर्फ दरभंगा के महाराजा के साम्राज्य में तक़रीबन 9113 पोखर और तालाब थे। इसमें दरभंगा शहर में ही 350 के आस-पास थे। आज अगर अवकाश है (वैसे मिथिला के लोग वेवजह व्यस्त होते हैं। मोबाईल पर घंटी आज बजायेंगे तो तीसरे दिन हेल्लो ट्यून सुनाई देदा) तो शहर में धूम लें और पोखरों, तालाबों की संख्या, उसकी स्थिति, उसमें दौड़ती मछलियों से, खिलते माखन से, महारों पर लगे पानों की खेती की स्थिति से अवगत हो लें। यकीन मानिए ‘भोकार’ नहीं, ‘चीत्कार’ मारकर रोने लगेंगे, अगर आखों में पानी होगा तो।

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वास्तविकता यह है कि मिथिला की पहचान पर, माँछ पर, पान पर, मखान पर ग्रहण लग गया है और ‘अवसरवादी’ लोगों का हाल यह है कि दिन-रात-सुबह-शाम अपने-अपने हितों के लिए ‘पग-पग पोखर, पान , मखान ..” कविता पाठ करते थक नहीं रहे हैं। इन कविता वाचकों को शायद यह मालूम भी नहीं होगा कि पान की खेती करने के लिए दो-रस मिट्टी की जरूरत होती है। न ज्यादा पानी और न ज्यादा धूप की जरूरत होती। पानी इतना हमेशा चाहिए, ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे। यहां तो लोगों की आखों में नमी नहीं है, बेचारी मिट्टी क्या करे। यही कारण है कि कलकत्तिया पान दरभंगिया बनाकर मिथिला के बाज़ार पर अधिपत्य जमा लिया है, कब्ज़ा कर लिया है यानी ‘सुतल छी आ वियाह होईत अछि’ वाली कहावत सिद्ध हो रही है और कविता वाचक पाठ करते नहीं थक रहे हैं “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” – पूरी मिथिला की सांख्यिकी आप निकालें, यहाँ दरभंगा जिले में रोज तकरीबन 8 टन मछली की खपत है, लेकिन दरभंगा ज़िले से मात्र 500 किलो तक भी मछली बाजार में नहीं पहुंच पाती है।

एक बात गर्दन से नीचे नहीं उतरता वह यह कि जब पोखर और तालाबों की संख्या उत्तरोत्तर शून्य की ओर अग्रसर है, फिर पानी में पैदा होने वाला मखान कहाँ से आ रहा है? मखान को सुपर फूड का दर्जा मिला है। ‘जी-टैग’ भी मिला है। कई तरह के कंपनियां अपने अपने नाम की ब्रांडिंग भी कर लिए हैं। कहा जाता है कि मल्लाह जाति के लोग ही मखाना की खेती करते थे/हैं। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में निषाद समाज की करीब 21 उपजातियां हैं। करीब चार दर्जन ‘सरनेम’ लगाए बैठे हैं। प्रदेश की सम्पूर्ण आबादी में करीब एक करोड़ 70 लाख लोग निषाद जाति के हैं। लेकिन सवाल यह है कि जो समाज के लोग, उनका परिवार, बाल-बच्चा बिहार के, तालाबों-पोखरों में पहले गर्दन भर पानी में डूब कर मखान की खेती करने में अपना सौभाग्य समझते थे, आज ठेंघुने और घुटने पर पानी नहीं है उन तालाबों और पोखरों में। स्थानीय लोगों के कूड़ों – कचरों से भरा उन तालाबों और पोखरों पर आज आलीशान भवन और धन अर्जित करने वाले अन्य ‘निर्जीव’ संस्थानें बन गयी है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं। रोजी-रोटी-शिक्षा-चिकित्सा की तलाश में लोग पलायन कर रहे हैं और मिथिला के लोग बाग़ हैं की कविता पाठ कर रहे हैं “पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” ।

बहरहाल, मिथिला में स्थित पोखरों, तालाबों की वर्तमान स्थिति को देखते यह कह सकते हैं कि “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” महज एक ढोंग है और इन कहावतों को व्यापारीकरण कर रहे हैं। इतना ही नहीं, अब तो मिथिला के पाग पर भी धावा बोल दिया गया है। ‘पाग’ तो अब रंगबिरंगा हो गया। सफ़ेद पाग कहीं दीखता नहीं। लाल-पाग और हल्दी-रंग नुमा पाग महज अवसर पर ही लोग माथे पर रखते हैं। अब तो ‘पान’, मखान, माँछ, मुस्की, आम, लताम (अमरुद), लीची सभी मिथिला के पाग पर दिखेंगे और राष्ट्रीय ही नहीं, अंतराष्ट्रीय बाजार में मिथिला पेंटिंग के नाम पर बेचे जा रहे हैं, जाएंगे और फिर कहते भी नहीं थकेंगे “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान…..” ।

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