सहरसा के नेता लोग गजबे हैं, ‘काम भी नहीं करते और चुनाव में वोट भी मांगते हैं’

काश !! बिहार के कोई नेता, दिल्ली के कोशी प्रमण्डल के मुख्यालय सहरसा पर शोध करते।
काश !! बिहार के कोई नेता, दिल्ली के कोशी प्रमण्डल के मुख्यालय सहरसा पर शोध करते।

सहरसा के तेजस्वी ठाकुर

बिहार के नेता लोग सहरसा के मतदाताओं का मज़ाक उड़ाए, खिल्ली उड़ाए, रौंदते कर, काटकर मधेपुरा-सुपौल संसदीय क्षेत्र बना दिए, न अस्पताल दिए और न विद्यालय। रोजगार की बात तो कोसों दूर। लेकिन चुनाव आते ही फिर कहते हैं: “चुनाव में वोट जरूर दीजियेगा”, फलनमा ठाढ़ है। उसी को जिताना है।

सहरसा के लोग बहुत दुःखी हैं। दुःखी होना स्वाभाविक भी है। लेकिन दुःख का सिर्फ चुनाव के समय बाहर आना ‘समस्या का समाधान’ नहीं हो सकता । इस बात से शायद कोई इन्कार नहीं करेंगे की सहरसा के लोगों के साथ, मतदाताओं के साथ, न केवल स्थानीय नेताओं ने, विधान सभा सदस्यों ने, लोक सभा के सांसदों ने “राजनीति” किये, बल्कि उन सीधे-साधे, अशिक्षित, बेरोजगार लोगों, उद्योगविहीन लोगों, शरीर से अस्वस्थ लोगों की “क्षमता” का “मजाक” भी उड़ाए। लेकिन जनता तो कमजोर होती ही है, तभी तो सभी उसे “रौंदते” हैं – क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित, क्या पढ़े-लिखे तो क्या अनपढ़ – सबों ने मतदाताओं का खिल्ली ही उड़ाए।

“समय आ गया है। आत्म चिन्तन करने का। आत्म मन्थन करने का। गूंगी और बहरी सरकार को जगाने के लिए सहरसा की जनता को आगे आना होगा। लोगों को यह सोचना होगा की वे क्या खोए ? क्या पाए ? यही वक्त है आकलन करने का। आज ना बेहतर बच्चों के लिए भविष्य दिख रहा है, ना स्वयं देख पा रहे हैं। आखिर कब तक अंधकार में जिंदगी कटेगी कोसी प्रमंडल मुख्यालय सहरसा का ? सवाल बहुत सटिक है ।

अपने जिले के प्रति, जिले की उपेक्षा के प्रति, विकाश के प्रति संवेदनशील होना स्वाभाविक है। स्थानीय लोगों का कहना है कि विगत 15 वर्षों से सहरसा के साथ हो रहे सौतेला व्यवहार किसी से छुपा हुआ नहीं है, सहरसा में वर्षो से बंद बैजनाथपुर पेपर मिल? क्यों नहीं चालू हो पाया इसके लिए जिम्मेदार कौन ? जनता या स्थानीय नेता इसके लिए कौन उठाएगा सवाल ?

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हई देखिये सहरसा-मधेपुरा मुख्य सड़क। "लौक रहा है?" कहीं। बिहार में इसे "पीच-रोड" कहते हैं।
हई देखिये सहरसा-मधेपुरा मुख्य सड़क। “लौक रहा है?” कहीं। बिहार में इसे “पीच-रोड” कहते हैं।

सबसे बड़े बात है “सहरसा को भारत के संसदीय मानचित्र से काटना” और स्थानीय लोगों, मतदाताओं के साथ साथ, विधायकों, सांसदों और प्रदेश की सरकार का चुप रहना। सहरसा जिला से काटकर मधेपुरा और सुपौल जिला बना! मधेपुरा और सुपौल से जब सहरसा की तुलना करते हैं, चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो, शैक्षिक हो, सभी दृष्टि से मधेपुरा और सुपौल “सहरसा से आगे है” और यह पिछड़ते-पिछड़ते बिलकुल पिछड़ गया। लेकिन किसी कोने से आवाज तक नहीं आया, जबकि सहरसा कोशी प्रमंडल का मुख्यालय है।

25 वर्षों से एक ही रट ओर मांग करती आ रही सहरसा की जनता बंगाली बाजार ओवरब्रिज का । लेकिन इन वर्षों में पांच बार विधायकों का चुनाव हुआ, पांच बार यहाँ के मतदाता सांसदों को चुने – लेकिन चुनाव जितने के बाद किसी का चुनाव क्षेत्र पर ध्यान नहीं आया। क्या वजह है कि इन २५ वर्षों में अब तक यह ओवरब्रिज बनकर तैयार नहीं हुआ। झूठ का शिलान्यास कब तक देखती रहेगी सहरसा की जनता ? इसके लिए जिम्मेदार कौन जनता या स्थानीय नेता?

इतना ही नहीं, सहरसा को एम्स मिला क्या..? क्यों नहीं मिला इसका जिम्मेदार कौन है अगर सरकार चाहती तो सहरसा की जनता को भी खुश कर सकती थी, दरभंगा को एक साथ दो सौगात एम्स और एयरपोर्ट। कोशी का पीएमसीएच कहे जाने वाला सदर अस्पताल सहरसा को मेडिकल कॉलेज का दर्जा दे सकती थी सरकार। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इससे भी दर्दनाक स्थिति तो तब हुआ जब पहले यूनिवर्सिटी छीन लिया गया और उसके बाद सहरसा लोकसभा क्षेत्र। जबकि सबसे पहला जिला बना सहरसा। सहरसा से ही अलग मधेपुरा और सुपौल जिला बना आज दोनों लोकसभा के नाम से जाना जा रहा है। सहरसा लोकसभा क्यों नहीं? यह जनता के लिए न्याय सांगत नहीं है। यह “जनता का जीभ काटने” जैसा है। मूक-वधिर बनाने जैसा है। सवाल यह है कि जब कोसी प्रमंडल का मुख्यालय सहरसा है। तो फिर सहरसा लोकसभा को काटकर मधेपुरा लोकसभा में क्यों जोड़ दिया गया।

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2009 से पूर्व सहरसा लोकसभा सीट था, अब कोसी में 2 लोकसभा सीट है मधेपुरा ओर सुपौल। 2009 के परिसीमन में काटकर सहरसा को मधेपुरा लोकसभा में जोड़ दिया गया और सहरसा लोकसभा को समाप्त कर दिया गया। सहरसा का अब कोई सांसद नामक चीज भारत के राजनीतिक मानचित्र पर कभी दिखाई नहीं देगा। अब तो एक ही चीज बचा है कि प्रदेश की सरकार और केंद्र सरकार मिलकर कोशी प्रमंडल के मुख्यालय को उठाकर या तो मधेपुरा ले जाय या फिर सुपौल।

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