‘संपादक स्टोरी मांगे – चवन्नी उछाल के’, यानी पटना के पाटलिपुत्र टाइम्स अखबार के पत्रकारों को, कर्मचारियों को ‘रेजकी’ (सिक्के) में वेतन 

पत्रकार, कवि, उपन्यासकार श्री संजय कुंदन और पृष्ठभूमि में रेजकी

पटना: कल ही की तो बात है। कल ही तो कोई सैंतीस साल बाद पटना के एक पत्रकार के बारे में लिखा था – नाम था अंजनी विशाल (अब दिवंगत) जो हिंदी भाषा के पत्रकार थे और पटना से प्रकाशित ‘पाटलिपुत्र टाईम्स’ में कार्यरत थे उन दिनों। हिंदी भाषा में प्रकाशित अखबार और अपनी कहानी से वे प्रदेश के सिंहासन को ही नहीं, देश की राजधानी और राजधानी के रायसीना हिल पर अंग्रेजों के ज़माने में बना भवन का नींव तक हिल गया था। प्रदेश के पत्रकारों में उस कहानी को लेकर भारत-पाकिस्तान जैसा युद्ध छिड़ा, विभाजन हुआ। कुछ ‘सम्मानित’ पत्रकार अंजनी विशाल के खेमे में आये तो कुछ मुंह मोड़ लिए। खैर अब तक तो खबर का प्रकाशन हो गया था। लोग-बाग़ “भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद क्यों” को मैदान के बीचोबीच रखकर कोई “डिफेंसिव” हो रहे थे, तो कोई “ओफ्फेंसिव।” खैर।

कल की कहानी को मगध की राजधानी की सड़कों पर लुढ़कने के बाद शहर के ज्ञानी-महात्मा कोई फोन पर बधाई दे रहे थे, तो कोई व्हाट्सट्सएप पर लिख रहे थे – तुस्सी ग्रेट हो आर्यावर्तइण्डियननेशन, शब्दों से लेखक को श्रद्धांजलि दिए सैंतीस साल बाद। आज भी एक-एक शब्द ह्रदय को हिला दिया।” सबसे अच्छा तब लगा जब दिवंगत अंजनी विशाल की विधवा श्रीमती कुसुम विशाल जी लिखी: “बहुत-बहुत धन्यवाद इस आलेख के लिए।”

लेकिन जब पटना के महान पत्रकार सम्मानित विमलेन्दु सिंह से बात किये तो पाटलिपुत्र टाईम्स की एक और कहानी जीवित हो गयी। शायद भारतीय पत्रकारिता के जन्म के बाद ऐसी घटना कभी नहीं हुई होगी, यहाँ तक कि वर्तमान प्रधानमंत्री सम्मानित नरेंद्र मोदी जी द्वारा भारतीय मुद्रा का ‘विमुद्रीकरण’ किये और 500 तथा 1000 रुपये के नोटों को ‘चलन से उठाकर बाहर फेंक’ दिए। अगर आप पत्रकार हैं, यह किसी मीडिया घराने से जुड़े हैं, तो शायद आप के लिए भी यह कहानी अजूबा होगी और आप पढ़कर लोटपोट हो जायेंगे।

विमलेन्दु बाबू की आवाज कान में गुंजी। दो शब्दों का एक नाम गूंजा। ऐसे जैसे यज्ञोपवीत संस्कार में ‘गुरुवार’ अपने शिष्य के कानों में ‘बीजमंत्र’ पढ़ते हैं। विमलेन्दु बाबू जीना नाम लिए वे साहब भी पत्रकार ही हैं, लेकिन आजकल पत्रकारिता, लेखन के अलावे हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर हो गए हैं। कविताएँ लिखते हैं, कहानियां लिखते हैं, उपन्यास लिखते हैं। ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार, ‘हेमंत स्मृति’ कविता सम्मान, ‘विद्यापति पुरस्कार’ और अनेकानेक पुरस्कारों से अलंकृत हैं मान्यवर।

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मैं बिना देर किये उनके मोबाईल की घंटी टनटना दिए। साहब दूसरे छोड़ से बहुत ही शालीनता से मेरा परिचय पूछे। आम तौर पर दिल्ली ही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ही नहीं, पटना के पत्रकारों को भी अगर फोन करते हैं तो पहले मेरा पूरा जन्मकुंडली पूछते हैं। अब फोन पर उम्र तो मालूम नहीं होता (वैसे जो क्राईम के क्षेत्र में रिपोर्टिंग किये होंगे और देश की दो पुलिस – दिल्ली पुलिस और मुंबई पुलिस – के अन्वेषण और फोरेंसिक साइंस विभाग से जुड़े होंगे, उनके वैज्ञानिक तकनीकों के प्रयोग चाहे ब्लड के मामले में हो, फिंगरप्रिंट के मामले में हो, आवाज के मामले में हो, से अवगत होंगे तो ‘आवाज से औसतन 90 फीसदी से अधिक उस व्यक्तिविशेष के शारीरिक बनाबट को आंक सकते हैं।” अब गूगल के युग में, ट्विटर के युग में इतनी मेहनती कौन करता हैं। इण्डियन एक्सप्रेस में नब्बे के ज़माने में कार्य करते समय हम लोगों ने तो सीखा था। खैर।

दूसरे छोड़ से जो महाशय फोन पर थे वे सम्मानित महान पत्रकार, लेखक, कवि, उपन्यासकार संजय कुंदन साहब थे। मेरी उनसे पहली बातचीत थी। मैं तक्षण सम्मानित विमलेन्दु जी का नाम का पत्ता फेक दिया और कहा की मैं इसी नाम के व्यक्ति को ढूंढ रहा हूँ जिनका सम्बन्ध भारतीय रेजगारी (सिक्के) से है, जो उन्हें किसी समाचार पत्र में नौकरी करने के दौरान मासिक तनखाह में दिया गया था। वे जोर से ठहाका मारे और कहे : ‘आप सही स्थान पर है। वह मैं ही हूँ और किताब में उद्धृत भी किया हूँ।” आपको जानकर आश्चर्य होगा की पटना से प्रकाशित ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ में एक समय पत्रकारों को, कर्मचारियों को भारतीय रेजगारी (सिक्के) में मासिक तनख्वाह दी गयी थी।

बहरहाल, आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते संजय कुन्दन कहते हैं: “यूं तो मैंने ग्रेजुएशन के बाद ही अखबारों में फ्रीलांसिंग शुरू कर दी थी पर अखबारों में नौकरी की बाक़ायदा शुरुआत 1994 में धनबाद के ‘आवाज़’ से हुई जहां मैं प्रशिक्षु उप संपादक बनकर गया। लेकिन वहां मन नहीं लगा इसलिए एक ही महीना में पटना लौट आया। कुछ दिनों  के बाद पाटलिपुत्र टाइम्स के निकलने की जानकारी मिली। इस बार इसे कांग्रेस के नेता भरत राय ने निकाला था। अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले थे और उनका मकसद चुनावी लाभ लेना रहा होगा। हालांकि कहा यह गया कि अख़बार का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। वैसे भरत राय चुनाव हार गए और कुछ ही दिनों के बाद अख़बार बंद कर दिया गया।”

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कुंदन बाबू आगे कहते हैं: “बहरहाल एक रोचक इंटरव्यू के बाद उसमें मेरी नियुक्ति हुई। मेरे ज़्यादातर सहकर्मी मेरे मित्र ही थे। उसके संपादक पहले मणिकांत ठाकुर बने, जिन्होंने एक दिन हम लोगों के साथ बैठक भी की लेकिन बाद में पता नहीं क्यों उन्होंने छोड़ दिया। फिर कुछ दिन हम सब संपादक विहीन रहे। फिर विजय भास्कर आए। हम सब नए थे, युवा थे, बहुत कुछ करना चाहते थे। अखबार भी नया था। हम सबको मनमुताबिक काम मिला। मुझे संपादकीय लिखने से लेकर एक साझा कॉलम में लिखने का अवसर भी मिला। हम लोगों को जो सूझा, उस हिसाब से हमने खूब प्रयोग किए। वह एक तरह से स्व प्रशिक्षण था। उन दिनों काम का ऐसा उत्साह था कि छुट्टी के दिन भी आकर काम करते थे। वह करीब सात-आठ महीने का समय बड़ा मज़ेदार रहा। इस दौरान कई नाटकीय घटनाएं हुईं। कर्मचारियों के बीच मारपीट हुई, एक महिला पत्रकार अपने प्रेमी के साथ गुम हो गई।”

कुंदन जी कहते हैं: “उससे जुड़ा एक प्रसंग बड़ा ही दिलचस्प है। एक बार हम लोगों को तनख्वाह सिक्के में दी गई। असल में पाटलिपुत्र टाइम्स के प्रेस में दूसरे छोटे अख़बार भी छपते थे जैसे सांध्य टाइम्स, जिसे जेवीजी निकालती थी। जेवीजी एक पैरा बैंकिंग कंपनी थी, जिसके छोटे-छोटे बचतकर्ता थे। वे रोज़ अपनी बचत का कुछ पैसा जमा करते थे। आम तौर पर वे सिक्के जमा करते थे। इस तरह जेवीजी के पास सिक्कों का भंडार हो जाया करता था। एक बार जेवीजी ने सांध्य टाइम्स के प्रकाशन के शुल्क का भुगतान सिक्कों में किया। पाटलिपुत्र टाइम्स  के व्यवस्थापक इतने सिक्के लेकर क्या करते। उन्होंने हमारा वेतन इन्हीं सिक्कों में देने का फ़ैसला किया।”

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मैं अपनी हंसी को रोक नहीं रहा था। उन दिनों मेरे कई जानकार उस अखबार में कार्य करते थे। उन्हें भी फोन घुमाया, घंटी टनटनाया, लेकिन जैसा मैं पहले लिखा हूँ, “हम स्वयं को बहुत भाग्यशाली समझते हैं जब पटना के कोई पत्रकार अनजान नंबर देखकर भी उठा लेते हैं। औसतन लोग नहीं उठाते। इतना ही नहीं, वे भी नहीं उठाते जो उस अखबार में कार्य भी किये थे। हाँ, रेजगारी में तनखाह लिए थे या नहीं, इसी को जानने के किये उन्हें भी फोन किया। वे नहीं उठाये। खैर। 

संजय कुन्दन साहब आगे कहते हैं: “उन दिनों मेरी तनख्वाह पंद्रह सौ रुपये थी। इस तरह पंद्रह सौ सिक्के मिले। हालांकि इससे भी ज़्यादा रहे होंगे क्योंकि कुछ अठन्नी भी थी। वे पैसे एक छोटी सी बोरी में मिले। लेकिन हमारे कई वरिष्ठों की तनख्वाह तीन से चार हज़ार के बीच थी। उन्हें कई बोरियां मिलीं। मैंने एक वरिष्ठ पत्रकार को देखा कि वे रिक्शे पर बोरियां लादकर ले जा रहे हैं। कोई स्कूटर पर ले गया।  मैं भी साइकिल के पीछे रखकर अपना वेतन लाया।”

उनकी बातों का अंतिम पैरा चल रहा था। दोनों हंस रहे थे। भारतीय हिंदी साहित्य के गद्य-पद्य लेखक को, उपन्यासकार को इस कदर हँसते मुद्दत बाद महसूस का रहा था, क्योंको दोनों फोन पर ही थे। वे हँसते आगे कहते हैं: “मुझे कैशियर के कमरे का दृश्य भूलता नहीं। कैशियर बेचारा बीच में खड़ा था और चारों तरफ़ उसके घुटने भर सिक्के ही सिक्के पड़े थे। एक-दो कर्मचारी किनारे बैठकर सिक्के गिन रहे थे। हमलोग जब भी चाय पीने या कुछ खाने जाते तो बिल का भुगतान सिक्कों में करते और एक-दूसरे को देखकर हंसते। कई दिनों तक हमारे बीच यही चर्चा रही कि हमारे सिक्के ख़त्म हुए या नहीं और हुए तो कैसे। किसी ने दूधवाले को दे दिया तो किसी ने पास के किराने वाले के पास खपाया। पाटलिपुत्र टाइम्स की जब भी याद आती हैं, आंखों के सामने सिक्के चमक उठते हैं।”

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