​बिहार का सत्यानाश(6)विशेष कहानी✍कल प्रदेश ही नहीं, देश में भूमिहार ब्राह्मण की तूती बोलती थी, आज राजनीतिक गलियारे में लालू, नीतीश और अन्य के सामने नतमस्तक हैं😢

अगर भूमिहार ब्राह्मण में पंडित राजकुमार शुक्ल नहीं होते तो मोहनदास करमचंद गांधी भी महात्मा गांधी नहीं होते। चंपारण में महात्मा गांधी का आंदोलन 

मुजफ्फरपुर / पटना : भारत भूमि पर पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने पैरों, कलमों और वाक्पटुता का निशान छोड़ने वाले सर विलियम मार्क टली आज से 34-वर्ष पहले बिहार के भूमिहार ब्राह्मण समाज के श्रेष्ठतम जमींदार बाबू लंगट सिंह के राजनेता पुत्र बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के बारे में अपनी पुस्तक ‘नो फुलस्टॉप इन इण्डिया’ में कई पन्ने समर्पित किये थे। बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के बारे में हज़ारों शब्दों का उद्धरण एक दृष्टान्त था बिहार के तत्कालीन राजनेताओं का चारित्रिक गुण, खासकर जो भूमिहार ब्राह्मण समाज के थे, और आज भी है। आज लोगों की नजर में ‘विवेक’ शब्द का भले कोई मोल नहीं हो; लेकिन आज भी ‘विवेकशील’ और ‘विवेकहीन’ शब्दों के मोल में बहुत का फर्क है। मार्क टली ने उन दिनों के नेताओं में बाबू दिग्विजय नारायण सिंह को एक विवेकशील नेता के नाम से उद्धृत किया, यह भूमिहार ब्राह्मण समाज के लिए आत्मसम्मान की बात थी। उनका कहना था कि उस दौर में नेताओं के पास विवेक तो था थी, उनके सम्मान कर्ता भी विवेकहीन नहीं होते थे। 

आज भारत भूमि, खासकर बिहार में, जितने पत्रकार बन्धु बांधव हैं, लेखक-लेखिका, विश्लेषक, विशेषज्ञ हैं, उम्मीद करता हूँ सभी मार्क टुली की आवाज और कहानियों को सुनकर, पढ़कर ही बड़े हुए होंगे। परशुराम के समय से लेकर जंगे आज़ादी के बाद बनी पहली सरकार और उसके बाद प्रत्येक सांस के साथ बदलती सत्ता तक, जब भूमिहार ब्राह्मणों का प्रदेश उन्नति में योगदान को देखता हूँ, तो एक तरफ जहाँ गर्व से सर ऊँचा हो जाता है; वहीँ आज़ादी के बाद उनकी कथा-व्यथा को देखकर, पढ़कर मन व्यथित और व्याकुल हो जाता है। ब्रिटानिया हुकूमत के ज़माने में राष्ट्र की आजादी के आंदोलन में अपनी सक्रीय भूमिका अदा करने वालों की अग्रणी सूची में थे भूमिहार ब्राह्मण समाज। 

आज़ादी के बाद भारतीय राजनितिक बाज़ार में वे न अपनी जमीन को पकड़ सके, ना ही जमीर को पकड़कर रख सके और ना ही सत्ता में अपना हिस्सा बरक़रार रख सके। कल तक इस समाज का अस्तित्व तास के पत्तों में ‘इक्का’ जैसा था, आज ग़ुलाम जैसा हो गया है। इन विगत वर्षों में उनकी उन्नति का अवनति कुछ ऐसा हुआ कि आज लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार जैसे, लालू के अशिक्षित पुत्र-द्वय के सामने भुमिहार ब्राह्मण समाज के लोग सावधान अवस्था बनाये रखने को विवश हो रहे हैं। कल जिनके पूर्वजों के सामने “वे” नज़र झुकाकर दूर खड़े होते थे, आज उन्हें “वे” अपनी नज़रों के सामने निःसहाय, असहाय अवस्था में खड़े रखते हैं। यह पतन का पराकाष्ठा है, आप माने अथवा नहीं ।

भूमिहार ब्राह्मण का समाज कल न केवल पराक्रमी था, सामाजिक सरोकार के प्रति संवेदनशील, विवेकशील था, प्रदेश-देश के उत्थान के लिए, दानवीरता, दानशीलता के लिए, शिक्षण के लिए, प्रशिक्षण के लिए, प्रशासन के लिए, चिकित्सा के लिए, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जहाँ अपनी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक बल के कारण वे अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं किये थे। आज भी हैं। लेकिन आज उपस्थिति में अंतर है। 

आज जब बाबू लंगट सिंह के पौत्र यानी बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के चिकित्सक पुत्र यह कहे कि प्रदेश में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, शैक्षिक, बौद्धिक, कृषि सभी क्षेत्रों में, सभी सबके के लोगों के बीच सम्मानित यह भूमिहार ब्राह्मण समाज आज ‘पत्तल खींचवा’ हो गया है, तो सुनकर बहुत कष्ट हुआ। और जब वर्तमान स्थिति का अवलोकन करता हूँ, शोध करता हूँ तो डॉ. साहेब की ही नहीं, प्रदेश के शीर्षस्थ पत्रकारों की बात भी उसी क्रम में पाता हूँ। तभी तो बिहार के वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र कहते हैं : “कल यह समाज हस्ताक्षर था, आज परजीवी (पैरासाइट) हो गया है।”

​मार्क टुली, वरिष्ठ पत्रकार

वैसे मार्क टली का जनम कलकत्ता में हुआ था और आज से 30 वर्ष पहले ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन से तीन दशक तक सेवा करने के बाद स्वतंत्र हो गये। बिहार ही नहीं, भारत का शायद ही कोई हिस्सा रहा होगा, जहाँ टली अपनी पत्रकारिता के शब्दों से, अपनी आवाज से अपना छाप नहीं छोड़ा। भारत सरकार के पद्मश्री, पद्मभूषण नागरिक सम्मान से सम्मानित मार्क टली भारत विगत छह दशकों और अधिक समय से भारतीय राजनीतिक गलियारे में होने वाले उठापटक, नेताओं के उन्नति से उनकी अवनति तक, पार्टियों के बनने से उसके तिल-तिल बिखरने तक, राजनेताओं की छवि को उत्कर्ष पर जाने से उसे मिट्टी पलीद होने तक के सभी अवसरों का चश्मदीद गवाह रहे हैं। 

अपने शिक्षण काल में कभी पादरी बनने की सोच रखने वाले मार्क टली सन 1964 में बीबीसी में एक भारतीय संवाददाता के रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में यात्रा आरम्भ किये। साठ के दशक में मध्य से आज तक हज़ारों, लाखों कहानियां किये और उन्हीं कहानियों में एक कहानी अपने मित्र और बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बाबू दिग्विजय नारायण सिंह पर किये जो एक दस्तावेज के रूप में किताब में भी उद्धृत हुआ। एक आम बात न उन दिनों थी, और ना ही आज है। 

भूमिहार ब्राह्मण समाज और समाज के प्रति उनके समर्पित लोगों को जानने पहले मुजफ्फरपुर चलते हैं। वैसे आधुनिक भारत का इतिहास के ज्ञाता ‘तर्क-वितर्क’ भले करें, जातिवाद-सम्प्रदायवाद की राजनितिक अखाड़े में कुस्ती लड़ते रहें अपने-अपने हितों के लिए। लेकिन इतिहास गवाह है कि भारत में रेलवे की शुरुआत के दो दशक बाद, जिस समय दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह सन 1874 में उत्तर बिहार में तिरहुत रेलवे के रूप में निजी रेल सेवा की शुरुआत किये थे, उसी कालखंड में हाजीपुर-मुजफ्फरपुर रेल खंड के धरहरा गांव का एक बीस-वर्षीय बालक समस्तीपुर-दरभंगा रेल लाइन की पटरियों के बगल में टेलीफोन लाइन जोड़ने का काम शुरू किया था। कार्य सीखने और जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्तर बिहार का वह गरीब बालक ब्रितानिया सरकार के तत्कालीन अभियंता जेम्स विल्सन को अपना जीवन समर्पित कर दिया। 

उन दिनों उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था। तिरहुत सरकार के द्वारा एक ओर जहाँ पूरे उत्तर बिहार में रेल लाइन की जाल बिछाई जाने लगी थी, ताकि सरकार-पदाधिकारियों, राजनेताओं, राजा-महाराजों, धनाढ्यों, समाज के संभ्रांतों के साथ-साथ आम नागरिकों को सुविधा उपलब्ध हो सके, वहीँ धरहरा गाँव के उस बालक जी जीवन-रेखा भी रेल की पटरियों की तरह चिकनी होती गयी। तत्कालीन समाज के लोग शायद इस बात से अनभिज्ञ थे कि रेल लाइन के बगल में टेलीफोन का तार खींचने वाला वह नवयुवक आने वाले दिनों में उत्तर बिहार के शैक्षिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बनेगा, जहाँ भारत के श्रेष्टतम अध्यापक-प्राध्यापक विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करेंगे एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए । नाम था – लंगट सिंह और वे भूमिहार ब्राह्मणों में एक हस्ताक्षर थे ।  

बिहार की शैक्षिक व्यवस्था को स्वस्थ रखने के लिए, विकास करने में अगर दरभंगा के महाराजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अथवा उनके पूर्वजों का योगदान अपने उत्कर्ष पर है (उसके बाद क्या हुआ यह तो दरभंगा और मिथिला के लोग अधिक जानते हैं); तो हमें इस बात को कभी नजरअंदाज नहीं करना होगा की बाबू लंगट सिंह और भूमिहार-ब्राह्मण समुदाय के लोगों की क्या भूमिका थी। हम इस बात पर कोई पर्दा नहीं डाल सकते हैं कि बाबू लंगट सिंह और तत्कालीन समाज के अन्य भूमिहार-ब्राह्मण समुदाय के लोगों के कारण बिहार का मुजफ्फरपुर-वैशाली-हाजीपुर का इलाका ‘सामाजिक-राजनीतिक क्रांति का क्षेत्र है,’ ‘अध्यात्म का इलाका’ है। 

तभी तो डॉ. सिन्हा कहते हैं: “गंगा पार का यह इलाका मुजफ्फरपुर शिरोमणियों की भूमि है। यह अलग बात है कि आज की व्यवस्था और सत्ता में बैठे लोग, राजनेता ‘शिरोमणि ‘ शब्द के अर्थ को भी जान पायेंगे अथवा नहीं। बिहार के विभिन्न इलाक़ों में जन्म लिए, पले, बड़े हुए भूमिहार ब्राह्मणों का योगदान पठन-पाठन से लेकर समाज के सभी क्षेत्रों में, मसलन प्रशासन, चिकित्सा, न्यायिक, राजनीति सभी क्षेत्रों में विलक्षण रहा है। यह कहना बिलकुल ग़लत होगा कि भूमिहार ब्राह्मण समाज के ये सभी विलक्षण लोग अपनी जाति अथवा अपने समाज के उत्थान तक सीमित रहे। वे समाज के प्रत्येक धाराओं के लोगों को समान रूप से सेवा कर मुख्यधारा में लाए। उसके पीछे उनका स्वार्थ नहीं, बल्कि उनका त्याग और समाज के प्रति उनका दायित्व था। बाबू लंगट सिंह का नाम या बाबू दिग्विजय सिंह का काम आज ही नहीं आने वाले कई दशकों तक सम्मान से लेंगे।

बाबू लंगट सिंह के पौत्र यानी बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के​ पुत्र डॉ. प्रगति सिन्हा

आज़ादी के पूर्व, या यूँ कहें कि जंगे आज़ादी के दौरान मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए भूमिहार ब्राह्मणों का जितना योगदान रहा, उसे शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकत है। उन दिनों इस समुदाय के जितने भी लोग थे, औसतन 99 फीसदी से अधिक लोग जमींदार तो थे ही, अर्थ, सामर्थ और दानशीलता, चाहे प्राणों का ही क्यों न हो, मशहूर थे। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देना उनके लिए आम बात थी। 

शुरुआत क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल से करते हैं जो देश के सबसे महान राष्ट्रवादियों में से एक और जिन्होंने सेलुलर जेल, अंडमान (काला पानी) में भी सेवा की। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापकों में से एक योगेंद्र शुक्ल और उनके भतीजे बैकुंठ शुक्ल बिहार के तत्कालीन मुजफ्फरपुर और अब वैशाली जिले के जलालपुर गांव से थे। योगेंद्र शुक्ल ने 1930 और 1942 के बीच बिहार और उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी आंदोलन में भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपना सबसे बड़ा योगदान दिया। वे भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के करीबी सहयोगी थे। उन्हें अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए कुल मिलाकर साढ़े सोलह साल से अधिक समय तक जेल की सजा काटनी पड़ी। भारत की विभिन्न जेलों में कारावास के दौरान, उन्हें अत्यधिक यातनाएं दी गई, लेकिन उन्हें फक्र था कि वे भूमिहार ब्राह्मण हैं। 

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महान राष्ट्रवादी जिन्हें फणींद्रनाथ घोष की हत्या करने वाले बैकुंठ शुक्ल, जो बाद में फांसी पर लटके, भूमिहार ब्राह्मण समाज का एक मिसाल थे। फणीन्द्र नाथ घोष के सरकारी गवाह बनने के कारण ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। योगेंद्र शुक्ल के भतीजे बैकुंठ शुक्ल भी युवावस्था में ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए थे और 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ में सक्रिय रूप से भाग लिया था। वे हिंदुस्तान सेवा दल और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े थे। 

1931 में ‘लाहौर षडयंत्र मामले’ में उनके मुकदमे के परिणामस्वरूप महान भारतीय क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई, जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। बैकुंठ को वैचारिक प्रतिशोध के तौर पर घोष की हत्या की योजना बनाने का काम सौंपा गया था, जिसे उन्होंने 9 नवंबर 1932 को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हत्या के लिए मुकदमा चलाया गया। बैकुंठ को दोषी ठहराया गया और 14 मई 1934 को गया सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। वह केवल 28 वर्ष के थे।

फणींद्रनाथ घोष की हत्या में बैकुंठ शुक्ल के साथ सहयोगी होने के लिए आजीवन कारावास की सजा काटने वाले राष्ट्रवादी विचारक चन्द्रमा सिंह का नाम भी स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। इसी तरह, विश्व प्रसिद्द प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कालेज (पटना विश्वविद्यालय), दरभंगा मेडिकल स्कुल की शुरुआत करने वाले सर गणेश दत्त सिंह के नाम से अगर आज पटना के कदमकुआं इलाके में विद्यालय नहीं होता, पटना विश्वविद्यालय में महिला छत्रावास उनके नाम से अंकित नहीं होता, तो शायद आज उस व्यक्ति को भी आज की पीढ़ी नहीं जानता। उसी तरह राष्ट्रवादी और समाजवादी नेता राम नंदन मिश्र उस समय प्रसिद्ध हुए जब उन्होंने जेपी के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हजारीबाग केंद्रीय जेल की दीवारें फांदी। स्वतंत्रता के बाद वे संत बन गए। राम मनोहर लोहिया ने हमेशा उन्हें अपना गुरु माना।

अगर भूमिहार ब्राह्मण में पंडित राजकुमार शुक्ल नहीं होते तो मोहनदास करमचंद गांधी भी महात्मा गांधी नहीं होते। चंपारण में महात्मा गांधी का आंदोलन 

पंडित राज कुमार शुक्ला को कौन भूल सकता है। लेकिन आज तो किताबों के पन्नों से गांधी का अध्याय भी मिट रहा है, फिर पंडित राजकुमार शुक्ल को कौन पूछता है। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, महात्मा गांधी ने राज कुमार शुक्ला के अनुरोध पर बिहार के चंपारण जिले में अपने सत्याग्रह से भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत की – अंग्रेजों के खिलाफ, जो स्थानीय किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर कर रहे थे, जो स्थानीय मिट्टी के लिए बहुत हानिकारक था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में “चंपारण सत्याग्रह” एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव है। राज कुमार शुक्ला ने महात्मा गांधी का ध्यान, जो दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे, यूरोपीय नील उत्पादकों द्वारा स्थापित दमनकारी व्यवस्था के तहत पीड़ित किसानों की दुर्दशा की ओर आकर्षित किया। यह गांधीजी के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश का प्रतीक था। 

राज कुमार शुक्ल को गांधीजी ने अपनी “आत्मकथा” में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, जिसके दुख ने उसे बाधाओं के खिलाफ उठने की ताकत दी। गांधीजी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा “आदरणीय महात्मा, आप हर रोज दूसरों की कहानियाँ सुनते हैं। आज कृपया मेरी कहानी सुनें… मैं आपका ध्यान लखनऊ कांग्रेस में आपके द्वारा किए गए वादे की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि आप चंपारण आएंगे। आपके लिए अपना वादा पूरा करने का समय आ गया है। चंपारण के 19 लाख पीड़ित लोग आपसे मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं।” 

गांधीजी 10 अप्रैल, 1917 को पटना पहुंचे और 16 अप्रैल को वे राज कुमार शुक्ल के साथ मोतिहारी पहुँचे। गांधीजी के नेतृत्व में ऐतिहासिक “चंपारण सत्याग्रह” शुरू हुआ। राज कुमार शुक्ला का योगदान भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी और निश्चित रूप से महात्मा गांधी के लेखन में परिलक्षित होता है। राज कुमार शुक्ला ने एक डायरी रखी जिसमें उन्होंने नील की खेती करने वालों के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष का लेखा-जोखा दिया है, दीन बंधु मित्रा ने “नील दर्पण” नामक नाटक में इस अत्याचार को बहुत ही मार्मिक ढंग से दर्शाया है, जिसका अनुवाद माइकल मधुसूदन दत्त ने किया था। 

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पूर्व वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र जिन्होंने पिछले पाँच दशकों से बिहार के भूमिहार ब्राह्मण समाज के लोगों पर गहन अध्ययन किया है, कहते हैं कि “पहले जहां इस समाज के लोगों की अपनी पहचान, उनकी सामाजिक सरोकार वाली विधाएँ  केवल पूरे प्रदेश के लिए होता था, समयांतराल वे पंचायत, कस्बा और जिला स्तर पर सिमटते गया। राजनीतिक दृष्टि से बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह के बाद प्रदेश में जीतने भी भूमिहार ब्राह्मण समाज के नेता हुए, वे व्यावहारिक दृष्टि से सार्वभौमिक राजनेता नहीं बन पाये । जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद प्रदेश में हुए राजनीतिक बदलाव में भूमिहार ब्राह्मण के नेताओं का वर्चस्व, जो भी कुछ था, बह गया और क्रमशः वे पैरासाइट हो गये। पिछले पचास वर्षों में बिहार में कोई भी पैन भूमिहार ब्राह्मण नहीं बन सके, अलबत्ता स्वयं को राजनीति में जीवित रहने के लिए दूसरों के पैर और पूँछ पकड़ते चले गये।”

लव कुमार मिश्र की बातों पर प्रकाश डालने के लिए तनिक पीछे चलते है इस समाज के लोगों का सामाजिक सरोकार को देखने के लिए। भूमिहार ब्राह्मण समाज में पंडित यमुना करजी का जन्म 1898 में बिहार के दरभंगा जिले में पूसा के पास देवपार नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता अनु करजी एक सीमांत किसान थे, जिनकी मृत्यु तब हुई जब जमुना करजी सिर्फ 6 महीने की थीं। अपने स्कूली दिनों से ही वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान आंदोलन की ओर आकर्षित हो गए थे। उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज गए और कानून की डिग्री भी हासिल की। कलकत्ता में वे कई स्वतंत्रता सेनानियों और कांग्रेस नेताओं जैसे डॉ. बीसी रॉय, डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा, राहुल सांकृत्यायन आदि के संपर्क में आए।कई सरकारी नौकरियों के प्रस्तावों को ठुकराकर वे एक प्रतिष्ठित हिंदी पत्रकार बन गए। वे कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक भारत मित्र के संपादकीय विभाग में शामिल हो गए। 

उन्होंने 1920-21 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया और 1929-30 में सविनय अवज्ञा आंदोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण जेल गए। उन्होंने 1937 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बिहार और उड़ीसा विधानसभा के लिए पहला चुनाव जीता। वे स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में बिहार में किसान आंदोलन के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक थे। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन और अन्य हिंदी साहित्यकारों के साथ मिलकर 1940 में बिहार से हिंदी साप्ताहिक हुंकार का प्रकाशन शुरू किया। हुंकार बाद में बिहार में किसान आंदोलन और कृषि आंदोलन का मुखपत्र बन गया। वे 1947-48 में बिहार पत्रकार संघ के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए। अक्टूबर 1953 में 55 वर्ष की कम उम्र में कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई। उनके असामयिक निधन के बाद बिहार में किसान आंदोलन की गति कम हो गई और वह दिशाहीन हो गया। उनका नाम बिपिन चंद्रा की उत्कृष्ट कृति भारत का स्वतंत्रता संग्राम में भी आता है।

बिहार के एक उग्र स्वतंत्रता सेनानी के रूप में शीलभद्र याजी को कौन भूल सकता हैं, जो अहिंसक और हिंसक दोनों ही तरह के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे। स्वतंत्रता संग्राम में याजी की भागीदारी 1928 में शुरू हुई, जब एक छात्र के रूप में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया। चार साल बाद वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और किसान आंदोलन में शामिल हो गए। बाद में, वे सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए। 1939 में उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। वे आईएनए आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े थे। याजी ने जातिगत पूर्वाग्रहों और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। वे समाज के परिवर्तन के संघर्ष में किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग की सक्रिय भागीदारी में दृढ़ विश्वास रखते थे। उन्होंने ‘ए ग्लिम्प्स ऑफ द इंडियन लेबर मूवमेंट’, ‘फॉरवर्ड ब्लॉक एंड इट्स स्टैंड’, ‘इज सोशलिज्म ए नेसेसिटी टू इंडिया’ और ‘ट्रू फेस ऑफ मोनोपोलिस्टिक अमेरिकन डेमोक्रेसी’ जैसी कई किताबें लिखीं। 

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उसी तरह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के साथ सक्रीय कार्यकर्त्ता के रूप में जीवन शुरू करने वाले बसावन सिंह बहुत बड़े मजदुर नेता भी रहे। उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ते हुए ब्रिटिश भारत में जेल में साढ़े अठारह साल बिताए थे। अपने जीवन के शुरुआती दौर में वे एक क्रांतिकारी थे, लेकिन बाद में लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर मुड़ गए। महान राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी राम विनोद सिंह जिन्हें आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी ने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल किया था, जब वे मुजफ्फरपुर के लंगेट सिंह कॉलेज में पढ़ाते थे। वास्तव में, आचार्य जी ने अपनी आत्मकथा “माई टाइम” में भी उनका उल्लेख किया है। राय हृदय नारायण सिंह के परपोते राय जगन्नाथ सिंह ब्रिटिश प्रशासन के करीबी परोपकारी व्यक्ति। वे एक स्वतंत्रता सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनकी संपत्ति जब्त कर ली थी।

उसी तरह, बुद्धिजीवी वर्ग का जब भी जिक्र होगा भूमिहार ब्राह्मणों की तायदात लम्बी रहेगी। चाहे महापंडित राहुल सांकृत्यायन राहुल सांकृत्यायन हों या रामधारी सिंह दिनकर, सैकड़ों वुद्धिजीवी रहे जो इस समाज को उत्कर्ष पर सम्मान दिलाया। आज स्थिति कैसी है यह इस समाज के लोग स्वयं जानते हैं । राहुल सांस्कृत्यायन भारत के सबसे व्यापक रूप से यात्रा करने वाले विद्वानों में से एक थे, जिन्होंने अपने जीवन के पैंतालीस साल यात्रा और घर से दूर बिताए। वे एक बौद्ध भिक्षु (बौद्ध भिक्षु) बन गए और अंततः मार्क्सवादी समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्हें महापंडित (महान विद्वान) की उपाधि दी गई। 

​राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी के सबसे महान कवियों में से एक और राष्ट्र कवि के रूप में जाने जाते हैं। वे भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार के कुलपति थे। उन्हें उनकी प्रसिद्ध कविता उर्वशी के लिए प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार और उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्हें तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘कुरुक्षेत्र, नील कुसुम, रश्मिरथी, हमारी सांस्कृतिक एकता, दिनकर की डेयरी हैं और यह सूची अंतहीन है।

मुजफ्फरपुर के बेनीपुर गांव के रामवृक्ष बेनीपुरी प्रख्यात हिंदी भाषा के लेखक हैं। वे एक महान राष्ट्रवादी पत्रकार और राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘जनता’ के संपादक थे। वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण के निकट सहयोगी थे। वे महान हिंदी नाटक ‘अम्बपाली’ के लेखक थे। उसी तरह गोपाल सिंह “नेपाली”, उत्तर-छायावाद काल के एक प्रख्यात कवि और गीतकार। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफ़ेसर एमेरिटस राम शरण शर्मा जिन्हों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाये और फिर टोरंटो विश्वविद्यालय में। वे भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। वे भारत के प्राचीन इतिहास में विशेषज्ञता रखने वाले सबसे प्रसिद्ध इतिहासकारों में से एक रहे हैं। 

इसी तरह, प्रो. आर.एन. राय (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) ने भारतीय अंग्रेजी साहित्य को पोषित करने के लिए महान कार्य किया है। डॉ. मधुसूदन मिश्र एक विश्व प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान हैं, जिन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि को समझा है और उनके नाम लगभग 20 से अधिक प्रकाशन हैं। प्रख्यात हिंदी आलोचक और भाषा वैज्ञानिक प्रो. देवेंद्र नाथ शर्मा, जिन्होंने पटना और भागलपुर विश्वविद्यालयों के कुलपति के रूप में कार्य किया। प्रख्यात हिंदी आलोचक प्रो. विजेंद्र नारायण सिंह जो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कानून के प्रसिद्ध प्रोफेसर कैलाश राय, जिन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में कानून पर दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी हैं और उनकी 13 पुस्तकों के लिए राष्ट्रपति ने उन्हें पुरस्कार दिया गया, जिसमें भारत के संवैधानिक कानून और अनुबंध पर उनकी पुस्तकें शामिल हैं। मूल रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के सुहावल गांव के निवासी डॉ. गिरिजा नंदन सिंह को भूगोल के क्षेत्र में और रामदास राय को संस्कृत के क्षेत्र में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता है। समस्तीपुर जिले के प्रख्यात शिक्षाविद् और विद्वान डॉ. रामसूरत ठाकुर बिहार में शिक्षा मनोविज्ञान में पीएचडी और डी. लिट. प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति थे । सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो. दिग्विजय नारायण सिन्हा, कुबेर नाथ राय का योगदान भी अविस्मरणीय है। 

बहरहाल, आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए बाबू लंगट सिंह के पौत्र यानी बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के पुत्र डॉ. प्रगति कुमार सिंह के मन में अपने ही समाज के प्रति बहुत वेदना है। आज समाज के लोगों का जो व्यवहार देखा रहे हैं, वे हताश हैं।डॉ प्रगति कुमार सिंह के प्रत्येक शब्द उनकी अन्तः वेदना को बता रही थी। सहस्त्र फांकों में फटे ह्रदय की आवाज, वेदना, संवेदना को दर्शा रहा था। बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबु दिग्विजय नारायण सिंह दो पुत्रों है – श्री अलख कुमार सिंह और डॉ प्रगति कुमार सिंह । डॉ सिंह का किसी भी राजनीतिक दल से या राजनीति से सम्बन्ध नहीं है। चिकित्सा के क्षेत्र में विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त करने के बाद डॉ प्रगति कुमार सिंह पटना में रेडियोलॉजी के एक विख्यात डॉक्टर हैं। आज अपने, अपने पिता का, अपने दादा का, अपने परदादा के प्रदेश को, जिसे वे अपने खून-पसीने से सींचे थे, वर्तमान दशा को देखकर विह्वल हो गए। 

हाजीपुर मुजफ्फरपुर रेल खण्ड के सराय स्टेशन से 5 किमी पश्चिम वैशाली जिले के धरहरा ग्राम के गोउनाइत् मूल के भूमिहार ब्राह्मण किसान बाबू बिहारी सिंह के पुत्र के रूप में लंगट सिंह का जन्म 10 अक्टूबर सन 1850 के अश्विन माह में हुआ। इनके दादा उजियार सिंह पढ़े लिखे किसान थे। गांव में कोई स्कूल नही होने की वजह से उनकी शिक्षा प्राइमरी तक हुई और सम्भवतः 15-16 वर्ष में ही उनकी शादी हो गई। लंगट सिंह  के परिवार के पास कोई ज्यादा भूमि नही थी जिस वजह से लंगट सिंह आजीविका के लिये समस्तीपुर आ गए। उन दिनों समस्तीपुर- दरभंगा रेल लाइन का काम चल रहा था, वहाँ इनको रेल पटरी के बगल में टेलीफोन लाइन में लाइनमैन का काम मिल गया। रेल लाइन का काम कर रहे अंग्रेज अभियंता जेम्स विल्सन इनके काम के लगन से प्रभावित होकर इनको मजदूरों का सुपरवाइजर बना दिया और लंगट सिंह जेम्स साहब के साथ दरभंगा में रहने लगे।

कहा जाता है कि जेम्स साहब की पत्नी की बहन मुजफ्फरपुर रहती थी जिसके पति विलियम विल्सन मुजफ्फरपुर के निलहे जमींदार थे। उन दिनों मुजफ्फरपुर-दरभंगा टेलीफोन से ज़ुरा हुआ नहीं था, जिस वजह से जेम्स साहब की पत्नी का जरूरी पत्र लेकर लंगट सिंह पैदल मुजफ्फरपुर आये और 18 घंटे में जवाब लेकर लौट आये। जेम्स साहब की पत्नी लंगट सिंह को काफी मानने लगी और लंगट सिंह को अंग्रेजी लिखना बोलना सिखाई। जेम्स साहब से पैरवी कर दरभंगा- नरकटियागंज रेल लाइन निर्माण में ठेकेदारी दिलवा दी और लंगट सिंह मजदूर से ठेकेदार हो गए। इस बीच रेल लाइन निर्माण के क्रम में ट्राली से जाते समय लंगट सिंह का ट्राली मालगाड़ी से टकरा गया जिसके चलते इनको अपना एक पैर गवाना पड़ा। लेकिन लंगट सिंह ने हार नहीं मानी और न अंग्रेज जेम्स ने लंगट बाबु का साथ छोड़ा। ठेकेदार के काम में इनके लड़के श्यामानन्द प्रसाद सिंह उर्फ आनन्द बाबू सहयोग देने लगे। 

दरभंगा से जेम्स साहब कलकत्ता महानगर निगम के अभियंता बनकर कलकत्ता आ गए तब जेम्स दम्पति के अनुरोध पर लंगट सिंह भी अपने पुत्र आनन्द बाबु के साथ 1880 के लगभग कलकत्ता आ गए और कलकत्ता महानगर निगम  में ठेकेदारी करने लगे। ठेकेदार और काम में ईमानदारी के लिये लंगट सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता था। मैकडोनाल्ड बोर्डिंग हाउस के निर्माण के दौरान लंगट सिंह का पंडित मदन मोहन मालवीय से सम्पर्क हुआ। मालवीय जी के अलावे वहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वरचंद विद्यासागर, सर आशुतोष बनर्जी से भी सम्पर्क हुआ। इन महापुरुषों के सम्पर्क में आने के बाद लंगट सिंह का झुकाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर हो गया। लंगट सिंह स्वदेशी के समर्थक हो गए। कलकत्ता में स्थापित प्रथम स्वदेशी बिक्री केंद्र, स्वदेशी स्टोर, बंग कॉटन मिल्स के लंगट सिंह भी एक निर्देशक थे।लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर में भी पहला स्वदेशी तिरहुत स्टोर खुलबाया। सन 1890 के आस-पास लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर जिला परिषद के अंदर भी बड़े- बड़े कार्यो का ठेका मिलना शुरू हो गया। मुजफ्फरपुर में जो आज सुतापट्टी है, वहां से कल्याणी तक लंगट सिंह ने करीब 50 बीघा जमीन खरीदी तथा बहुत से मौजे की जमींदारी भी खरीदी।

1886 में संपन्न कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में कलकत्ता प्रवास के दौरान मदन मोहन मालवीय और अन्य विद्वानों के सानिध्य में लंगट सिंह ने देश दुनिया का ज्ञान अर्जित किया और अपना समय समाज सेवा में देने लगे और लंगट सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में भाग लिया। फिर, सं 1895 में मालवीय जी के अनुरोध पर लंगट सिंह भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पहली बार बनारस में सम्मिलित हुई । काशी नरेश की अध्यक्षता में हुई इस महासभा में तमकुही नरेश, दरभंगा महाराज, हथुआ महाराज, टेकारी महाराज, माझा स्टेट सहित भूमिहार जमींदार  सम्मिलित हुए। 

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महासभा में मालवीय जी के प्रयास से बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव पास हुआ। सभी राजाओं ने चंदा देने की बात कही लेकिन जब चंदा के रूप में लंगट सिंह ने एक लाख टका की अपनी बोरी रखी तो सभी चकित हो गए की एक बैसाखी से चलने वाला साधारण व्यक्ति इतना बड़ा चंदा दे सकता है तब मालवीय जी ने लंगट सिंह का सभा मे परिचय कराया। उक्त महासभा में लंगट सिंह को काफी सम्मान मिला। सभा में ही लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज खोलने का विचार आया और लंगट सिंह ने इसी उद्देश्य से मुजफ्फरपुर में भूमिहार-ब्राह्मणों की सभा बुलाने का काशी नरेश से आग्रह किया जिसे सभा ने स्वीकार किया।

बाबू लंगट सिंह के प्रयास से जनवरी 1899 में भूमिहार-ब्राह्मण सभा का मुजफ्फरपुर में अधिवेशन हुआ जिसमें काशी नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह, दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह, तमकुही नरेश, हथुआ महाराज, टेकरी नरेश, माझा स्टेट के अलावे मुजफ्फरपुर के आस पास के सभी जमींदार और विद्वान जन सम्मिलित हुए। महासभा में लंगट सिंह द्वारा मुजफ्फरपुर में डिग्री कॉलेज खोलने के प्रस्ताव को महासभा द्वारा पास किया गया और कॉलेज निर्माण के लिये सभी ने चंदा देना स्वीकार किया। 

​चंपारण में नील की खेती करने वाले किसान

महासभा की समाप्ति के बाद हथुआ महाराज और दरभंगा महाराज ने मुजफ्फरपुर में कॉलेज खोले जाने को लेकर बाबू लंगट सिंह को सहयोग नहीं दिया क्योंकि दरभंगा महाराज  दरभंगा में कॉलेज खोलने चाहते थे जबकि हथुआ महाराज छपरा में, जिस वजह से लंगट सिंह को परेशानी होने लगी। तब लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर के सभी जमींदारों की मुजफ्फरपुर में बैठक बुलाई, जिसमें सभी ने मुजफ्फरपुर में हाई स्कूल के साथ कॉलेज खोलने का प्रस्ताव दिया, क्योंकि मुजफ्फरपुर में जो जिला स्कूल था जिसमें गरीब बच्चों का प्रवेश नहीं हो पाता था। इस बैठक में हाई स्कूल और कॉलेज खोलने और उसका खर्च और संचालन का जिम्मेवारी उठानेवाले एक 22 सदस्यों की प्रबन्ध समिति गठित की गई जिसमे बाबू लंगट सिंह के अलावे शिवहर नरेश शिवराज नन्दन सिंह, हरदी के जमींदार बाबू कृष्ण नारायण सिंह, जैतपुर स्टेट के रघुनाथ दास, यदुनन्दन शाही, महंत प्रमेश्वर नारायन, महंत द्वारिक नाथ, योगेंद्र नारायन सिंह थे। इसी बैठक में बाबू लंगट सिंह ने स्कूल और कॉलेज खोलने के लिए अपनी सरैयागंज वाली 13 एकड़ जमीन दान दे दिया ।

बाबू लंगट सिंह के नेतृत्व में गठित प्रबन्ध समिति के सदस्यों द्वारा 3 जुलाई 1899 को सरैयागंज में बाबू लंगट सिंह द्वारा दी गई भूमि 13 एकर भूखंड में भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कूल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की नींव रखते हुए शुभारम्भ किया। बाबू लंगट सिंह के प्रयास से सन 1900 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉलेज को प्री-डिग्री कॉलेज के रूप में मान्यता मिल गई और बाद में लंगट सिंह के मित्र और सहयोगी जेम्स साहब के सहयोग से कॉलेज को डिग्री तक मान्यता मिल गई। सन 1906 में बाबू लंगट सिंह कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लेने गए जहाँ उनकी मुलाकात बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई और लंगट सिंह ने राजेन्द्र प्रसाद को कॉलेज में पढ़ाने के लिये राजी कर लिया और राजेंद्र प्रसाद सन 1908 में प्रोफेसर के रूप में कॉलेज में आ गए। 

जिसके बाद बाबू लंगट सिंह और प्रबन्ध समिति के सदस्यों ने खबरा के जमींदार के सहयोग से दामू चक और कलमबाग चौक के बीच 22 एकर जमीन खरीद किया और इस भूमि में 1911 से कॉलेज के लिए मकान बनना शुरू हुआ इसी बीच 15 अप्रैल 1912 को बाबू लंगट सिंह का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु के बाद लगा की कॉलेज का काम ठप हो जायेगा लेकिन लंगट बाबू के पुत्र अनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए इस कॉलेज के भवन का कार्य पूरा करवाया और कॉलेज अपने नए भवन में 1915 में आ गया। सन 1915 में सरकार ने इस कॉलेज को अपने हाथों में ले लिया और इस कॉलेज के विकास में तिरहुत कमिश्नर  ग्रीयर साहब ने लंगट बाबू की मृत्यु के बाद काफी सहयोग किया जिस वजह से कॉलेज के नाम के आगे ग्रीयर का नाम भी जोड़ा गया और कॉलेज का नाम ग्रीयर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज हो गया और बाद में इस  कॉलेज का नाम लंगट सिंह कॉलेज हो गया और पटना विश्वविद्यालय के गठन के बाद लंगट सिंह कॉलेज 1917 में पटना विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया ।

बाबू लंगट सिंह को 7 दिसंबर 1910 में हुई इलाहाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में मुजफ्फरपुर का प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया। इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद द्वारा बाबू लंगट सिंह को बिहार रत्न से सम्मानित किया गया साथ ही, इंग्लैंड के राजा द्वारा लंगट बाबू को बिहार का शिक्षा स्तम्भ घोषित किया गया। पिता की मृत्यु के बाद अनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए कॉलेज को भव्य बनाने के उद्देश्य से अपने अंग्रेज मित्र से सम्पर्क किया और इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेलियोल कॉलेज के भवन के समान कॉलेज भवन बनाने के लिये प्रयास शुरू किया। वर्तमान में जो लंगट सिंह कॉलेज का भवन है वह 1912 में बनना शुरू हुआ जिसका उद्घाटन 22 जुलाई, 1922 को राज्य के गवर्नर द्वारा किया गया और अनन्दा बाबू के प्रयास से कॉलेज को सरकार ने ले लिया। एक भूमिहार ब्राह्मण होने के नाते अनन्दा बाबू ने अपने गांव में एक हाई स्कूल के अलावे कई संस्था का निर्माण किया। अनन्दा बाबु देश के स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को आर्थिक सहयोग दिया करते थे। फणीन्द्र नाथ घोष हत्या में फंसे क्रांतिकारी बैकुंठ शुक्ल और उनके साथियों को बचाने के लिये प्रिवी कौंसिल तक कानूनी खर्च किये। 

प्रख्यात समाजसेवी बाबू लंगट सिंह द्वारा स्थापित अनेक शिक्षण संस्थाओ की श्रृंखला में लंगट सिंह महाविद्यालय एक प्रमुख माना जाता है। सं 1899 में स्थापित यह महाविद्यालय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आंदोलनकारियों का केंद्र बिंदु था।डॉ. राजेंद्र प्रसाद, प्रथम राष्ट्रपति इसके संस्थापक प्राध्यापकों में से एक थे। महात्मा गांधी चंपारण आंदोलन के क्रम में ड्यूक हॉस्टल में ठहरे थे तथा सुबह में आम जनता और विद्यार्थियों के सामने संकल्प लिया था – किसानों को मुक्त करने का। इसी महाविद्यालय के प्राध्यापक आचार्य जे .बी.कृपलानी स्वतंत्रता के समय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। आचार्य मलकानी, जो उस समय ड्यूक हॉस्टल के वार्डन थे। रामधारी सिंह दिनकर इसी महाविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक थे तथा यही से राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित होकर संसद पहुंचे थे। कहा जाता है की ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कृति उर्वशी का अधिकांश हिस्सा उन्होंने यही लिखा था। 

बाबू दिग्विजय नारायण सिंह

बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबु दिग्विजय नारायण सिंह राजनीतिक संत हुए 1930 में कांग्रेस से जुड़े और आजादी के बाद सन 1952 से 1980 तक कुल 28 वर्ष तक लगातार मुजफ्फरपुर और वैशाली से सांसद रहे ।1980 में चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया। दिग्विजय बाबू ने समाज सेवा में अपने पुरखों की संपत्ति बेच कर लगा दिया। सं 1952 में बिहार विश्वविद्यालय के लिये करीब 70 बीघा जमीन दान दे दी । अलख कुमार सिंह और उनकी पत्नी नीलम सिंह जी द्वारा धरहरा दरबार के प्रवेश द्वार पर बाबू लंगट सिंह की प्रतिमा स्थापित होने को है।

लोग माने अथवा नहीं। लेकिन सत्य तो यही है कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से बिहार की राजनीतिक गलियारे में जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह राजनेताओं का जन्म हुआ, वे सभी विगत चार दशकों में बिहार को ध्वस्त ही नहीं, विध्वंस की ओर उन्मुख कर दिया – चाहे गंगा के इस पार का आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, बौद्धिक इत्यादि वातावरण हो अथवा गंगा के उस पर का। चाहे मध्य बिहार का इलाका को या फिर बाबा विश्वनाथ की नगरी देवघर-भागलपुर-सुल्तानगंज का – विध्वंस चतुर्दिक है और विकास रसातल में विलीन हो गया है। 

आज बिहार में महज ‘वोट की राजनीति’ होती है। किसी भी राजनेता को, चाहे पंचायत के स्तर के हों, जिला के परिषदों में बैठे हों, प्रदेश के विधानसभा या विधान परिषद में बैठे हों या फिर दिल्ली के संसद में कुर्सी तोड़ रहे हों; प्रदेश के विकास के प्रति रत्तीभर चिंता नहीं है। यह विकास चाहे आर्थिक हो या शैक्षिक। आज अगर प्रदेश के सभी शैक्षिक संस्थाओं को बंद कर ‘राजनीतिक पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय खोल दिया जाय तो यकीन मानिये इन नव-निर्मित राजनीतिक शैक्षिक संस्थाओं में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या महिला, क्या पुरुष सभी पंक्तिबद्ध हो जायेंगे क्योंकि स्वहित की चिंता अधिक है, ‘सामाजिक हित’ की तुलना में। 

क्रमशः …✍

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