यह तो एक गहन शोध का विषय है ✍ आखिर ‘मिथिला के मिथिलेश’ अपने ही प्रांत के पूर्वी क्षेत्र को अपने योगदान और समर्थन से वंचित क्यों रखे?😢 (भाग-2)

चम्पानगर ड्योढ़ी

पूर्णियाँ :दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह का हँसता-मुस्कुराता शरीर को पार्थिव हुए विगत 1 अक्टूबर, 2022 को 60-वर्ष हो गया। अपने जीवन काल में उन्होंने न केवल मिथिला, बल्कि भारत के अनेक क्षेत्रों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक विकास में अपना भरपूर योगदान दिया, यह सत्य है। यही कारण है कि मिथिला के लोग उन्हें ‘मिथिलेश’ शब्द से भी सम्बोधित करते हैं, आज भी सम्मान के साथ उन्हें ‘मिथिलेश’ कहते हैं।  

आध्यात्मिक विद्वानों का मानना है कि ‘मिथिलेश’ राजा जनक को कहा जाता था। ‘मिथिलेश’ का ‘स्वामी’ ‘सूर्य’ होता है और राशि ‘सिंह’ तथा सूर्य का प्रभाव होने के कारण ऐसे व्यक्ति दूसरों के आदेश-निर्देश को अमल करने के बजाय अपने मन के स्वामी होते हैं। निष्ठा और आत्म-विश्वास उनकी पूंजी होती है। ऐसे व्यक्तियों की सोच समाज के प्रति ‘सकारात्मक’ होती है। उन्हें मान-सम्मान बहुत प्राप्त होता है। ‘मिथिलेश’ ‘महत्वाकांक्षी’ भी बहुत होते हैं। ऐसे व्यक्ति का ‘शुभ अंक’ ‘प्रथम’ यानी ‘1’ होता है। दरभंगा के ‘मिथिलेश’ के बारे में जितनी भी सकारात्मक व्याख्या की जाए, कम होगा। 

लेकिन, दरभंगा के मिथिलेश का ‘शुभ अंक 1’ उनके लिए ‘शुभ’ ‘नहीं’ रहा जीवन के अंतिम सांस में भी, जब पहली अक्टूबर, 1962 को उनका हँसता-मुस्कुराता शरीर दरभंगा के नरगौना पैलेस के स्नानगृह में ‘पार्थिव’ पाया गया। ‘सिंह’ राशि वाले दरभंगा के ‘मिथिलेश’ के पार्थिव शरीर को ‘आनन-फानन’ में अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया। निष्ठा के साथ समाज तथा राष्ट्र के विकास के प्रति सकारात्मक सोच रखने वाले, आत्मविश्वासी और अपने मन के सुनने वाले दरभंगा के मिथिलेश के शरीर को पार्थिव होने के साथ ही, मिथिला का क्या हश्र हुआ, यह भी सर्वविदित है और मिथिला की भूमि आज भी चश्मदीद गवाह है ।

यह बात यहाँ इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ क्योंकि आप माने या नहीं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दरभंगा के “मिथिलेश” देश में अनेकानेक सामाजिक-शैक्षिक कल्याणकारी कार्य सम्पादित किये, जिसके लिए इस क्षेत्र के लोग आज भी उन्हें ‘नमन’ करते हैं; लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि ‘मिथिला के मिथिलेश’ मिथिला के ही पूर्वी क्षेत्र को कभी नहीं देखा, उस क्षेत्र में उनका योगदान “नगण्य” ही रहा। 

इतना ही नहीं, यह भी कहा जाता है कि सन 1793 ई. में लार्ड कार्नवालिस के स्थाई प्रबंध के समय पूर्णिया के जमींदारों में राजा माधव सिंह एक प्रमुख व्यक्ति थे। माधव सिंह का मुख्यालय दरभंगा था। माधव सिंह ने पूर्णिया के नशीरा क्षेत्र में बसे ‘बुद्धिजीवी श्रोत्रिय’ को ‘आर्थिक-सामाजिक’ प्रलोभन देकर दरभंगा की ओर प्रवासित करा लिए। परिणाम यह हुआ कि मिथिला का यह पूर्वी क्षेत्र, यानी पूर्णिया ‘बौद्धिकक्षरण” का कारण बना – आप माने या नहीं, आपकी मर्जी। कहते हैं कि माधव सिंह का धर्मपुर परगने के जमींदार के रूप में पूर्णिया की भूमि पर लगभग 1000 वर्ग मील में आधिपत्य था।महाराजीय अहाते में उनका भव्य महल भी था जो सन 1934 के भूकंप में धराशायी हो गया। 

चम्पानगर ड्योढ़ी

अब सवाल यह है कि चाहे राजा माधव सिंह का कालखंड हो या मिथिला के मिथिलेश का, मिथिला के पूर्वी क्षेत्रों के साथ मिथिला के मिथिलेश का ऐसा व्यवहार क्यों रहा – यह एक गहन शोष का विषय है। यदि बिहार सरकार के क्षेत्राधिकार अथवा दरभंगा राज या बनैली राज के क्षेत्राधिकार में रखे पुराने दस्तावेजों पर जमी मिट्टी की परतों को साफ़ कर आधुनिक मिथिला के विद्वान, विदुषी, छात्र, छात्राएं, शोधार्थी इस विषय पर गहन अध्ययन करें तो मिथिला के मिथिलेश का मिथिला के पूर्वी हिस्से के क्षेत्रों के नागरिकों के प्रति सोच सामने आ सकता है – चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक। 

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खैर। पूर्णिया क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और सर्वांगीण विकास के लिए बनैली राज कभी न अपना हाथ उठाया और ना ही अपना पैर पीछे किया और यही कारण है कि पूर्णिया के बारे में कुछ भी लिखने के क्रम में बनैली राज के बारे में लिखे बिना अधूरा होगा। इस मैथिल ब्राह्मण-वंश के शासकों और ज़मीन्दारों ने 250 वर्ष के अपने कालखंड में पूर्णिया की भूमि की न केवल अविस्मरणीय सेवा की बल्कि पूर्णिया के राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास के प्रति अपनी जबाबदेही और प्रतिबद्धता पर कभी आंच नहीं आने दिया। 

कहते है बनैली घराने का नाम 1700 ई0, के आसपास इतिहास के पन्नों पर उभर कर आया और कालक्रम में बनैली राजवंश और श्रीनगर राजवंश के रुप में विख्यात हुआ। पूर्णिया जिलांतर्गत स्थित प्राचीन बनैली नामक ग्राम से ही इस इस्टेट का नामकरण हुआ। इस राजघराने का मुख्यालय बनैली में, रामनगर में, चम्पानगर में, गढ़बनैली में, श्रीनगर में, सुल्तानगंज में था। इन स्थानों पर इस राजवंश की पुरानी ड्योढ़ी-हवेली और भव्य मंदिर आज भी बीते युग की याद दिलाते हैं। बनैली राज का विस्तार अविभाजित बिहार, (अब झारखण्ड) बंगाल और उड़ीसा तक था। ऐसा कहा जाता है कि बनैली राज को जमींदारी के अलावे, शैक्षिक स्तर में देश की सबसे बड़ी ज़मीन्दारी रियासतों में एक माना जाता था। बनैली राज में आज भी तत्कालीन स्थापत्य कला के अनूठे नमूने देखे जा सकते हैं। 

गिरिजानंद सिन्हा

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध और अस्सी के दशक के पूर्वार्ध पटना विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले गिरिजानंद सिन्हा, जो अपने पूर्वजों के घरोहरों को अपने अगली पीढ़ियों को प्रस्तुत करने को प्रतिबद्ध हैं, कहते हैं: “समय से कोई लड़ नहीं सकता। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वे हमें, हमारी अगली पीढ़ियों को स्वस्थ्य रखें, साथ ही, मानसिक रूप से इतना सज्ज रखें ताकि वे अपने पूर्वजों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक धरोहरों के महत्व को समझे और फिर उसे अपनी अगली पीढ़ी को सुरक्षित सौंपें।”

कहानियों को कहने-सुनने में, मैथिली साहित्य और भाषा को मजबूत बनाने में, चित्रकला में, शास्त्रीय संगीत में अभिरुचि रखने वाले गिरिजानंद सिन्हा आर्यावर्तइण्डियन(डॉट)कॉम को कहते हैं: “मैं अपने भर एक प्रयास किया हूँ, कर रहा हूँ कि बनैली राज के इतिहास को, अपने पूर्वजों के कार्यों को, उनके धरोहरों को एक दस्तावेज के रूप में बना दूँ। यह एक श्रद्धांजलि भी होगा उन महान आत्माओं के प्रति। आने वाले समय में इस ऐतिहासिक दस्तावेज में और भी पन्ने जुड़ते जाएंगे और बनैली राज की गाथा अनंत काल तक जीवित रहेगा।”

गिरिजानंद सिन्हा कहते हैं कि बनैली राज के मूल संस्थापक दीवान देवानंद थे जिनका जन्म 1690 ई0 के आसपास हुआ था।वे पहसरा के राजा रामचंद्र नारायण राय के दीवान थे। एक समर्थ और बुद्धिमान राजपुरुष के रूप में उनकी पहचान थी।उनका प्रभाव-क्षेत्र इतना व्यापक था कि पूर्णिया का नवाब सैफ़ खाँ उन्हें मित्रवत आदर देता था। जिस प्रकार नवाब की अनुमति से 1751 ई0 में, राजा रामचंद्र ने असजाह और तिरखारदह नामक दो सीमावर्ती परगने उन्हें दिए थे और स्वयं नवाब ने उनके बेटे परमानंद चौधरीको हजारी मनसबदार के खिलअत से नवाज़ा था, उससे नवाब के दरबार में दीवान देवानन्द के प्रभाव स्पष्ट पता चलता है। ज़ाहिर है कि देवानन्द सरीखे राजपुरुष की मंत्रणा से ही सैफ़ खाँ ने मोरंग के राजा से उपरोक्त भूमि अपहृत की थी। 

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फ्रांसिस बुकानन ‘ए रिपोर्ट ऑन द डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ पूर्णियाँँ’ में लिखते हैं: “Tirakharda is a fine estate in the divisions of Matiyari and Arariya. This also was taken from Morang, and given to the Rajas of Puraniya, but Ramchandra, the last Raja except one, gave this and Asja as already mentioned to his Dewan Devananda.”

इतना ही नहीं, सैफ़ खान ने सरकार मुंगेर के कुछ हिस्सों को भी जबरन पूर्णियां में मिला लिया था और उस क्षेत्र के शासक, तुर्हूत के राजा राघव सिंह पर अत्यन्त कुपित थे। उस समय लाचार होकर राघव सिंह को दीवान देवानन्द की मदद लेनी पड़ी थी।दीवान साहब ने सैफ़ खाँ से राघव के पक्ष में पैरवी की जिसके फलस्वरूप कुछ अंशों को छोड़कर ‘धर्मपुर परगना’ उन्हें लौटा दिया गया । फ्रांसिस बुकानन आगे लिखते हैं –  “It is alleged that Raghav Singha had incurred the heavy displeasure of the Nawab, whose wrath was averted by the intercession of Ramchandra of Puraniya, or rather of his agent Devananda, who had great influence with the Muhammedan Noble”

इस प्रकार घर्मपुर और सीमावर्ती तीराखारदह इत्यादि इलाकों के जुड़ जाने से पूर्णिया का क्षेत्रफल बढ़कर 5000 वर्गमील हो गया।इन सभी अभियानों में देवानन्द ने सक्रिय भाग लिया था। दस्तावेजों के अनुसार, गिरिजानंद सिन्हा कहते हैं, तिरहुत के राजा माधव सिंह को बाल्यावस्था में दीवान देवानन्द चौधरी पनाह दी थी और माधव सिंह, चौदह वर्ष तक उन्हीं के संरक्षण में पले बढ़े थे।बनैली से ही ले जाकर 1775 ई0 में उन्हें तिरहुत की राजगद्दी पर बिठाया गया था।

आफ़ताब-ए-मौशिकी उस्ताद फैज़ खां साहब, साल 1942 और स्थान चम्पानगर ड्योढ़ी

गिरिजानंद सिन्हा कहते हैं कि “1750 ई0 के आसपास, पूर्णिया के असजाह परगने के अमौर गाँव में इस राजवंश की पहली ड्योढ़ी बनी जिसे अमौरगढ़ के नाम से जाना जाता था। हजारी परमानंद चौधरीने अमौरगढ़ में कई वर्षो तक राज्य किया। ‘ए रिपोर्ट ऑन द डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ पूर्णियाँँ’ में फ्रांसिस बुकानन लिखते हैं: ‘Asja (Assownja, Gladwin) is a fine estate containing about 128,000bighas, of which perhaps 24,000 have been alienated free of rent, and of the remainder between 63 and 64 thousand may be occupied. It is scattered through the divisions of Dangrkhora, Dulalgunj, Nehnager, Haveli and Arariya. In the year 1158 A.D. 1751) this was alienated by Chandra Narayan, the father of the last puraniya Raja, to Devananda, a Mithila Brahman, who at the same time procured another estate called Tirakharda, which will afterwards be mentioned.’

असजाह और तीराखारदह, दोनों ही उत्तरी सीमा के निकट अवस्थित होने के कारण अशांत और असुरक्षित थे। अतः उन इलाकों में अमन और सुलभ राजस्व प्राप्ति के लिये सैनिक-सहायता की आवश्यकता पड़ती थी। देवानन्द और उनके पुत्र परमानन्द ने बड़ी कुशलता से उक्त परगनों में अमन और शान्ति स्थापित की। कहते हैं कि अमौरगढ़, वक्र नामक एक पहाड़ी नदी के किनारे बसा था जो अमौर को, एक ओर नेपाल और दूसरी ओर सुदूर कलकत्ते से जोड़ती थी। नदी के मुहाने पर पत्थरों से निर्मित सीढ़ीयाँ थीं जिनसे होकर नगर में प्रवेश किया जा सकता था। प्रवेशद्वार से राजमहल तक चौड़ी सड़कें थी और ड्योढ़ी के इर्द गिर्द कई तालाब खुदवाये गये थे। हवेली के भीतर ही भीतर एक ऐसी जमींदोज सुरंग बनायी गई थी जो महल के अंदरूनी हिस्सों को एक ऐसे तालाब से जोड़ती थी जो स्त्रियों के, नहाने के काम आती थी और गढ़ी के बाहर स्थित थी। कई तहखाने भी थे। गढ़ी के बाहर देविघरा नामक एक पूजा-स्थल में मृण्मयी दुर्गा की वार्षिक पूजा की जाती थी।माना जाता है कि इस प्रांत में सर्वप्रथम यहीं पर मिट्टी की मूर्ति बना कर देवी की पूजा आरंभ की गई। इतना ही नहीं, मुसलमानों के लिए पीरबाबा के मज़ार की देखरेख भी की जाती थी। उक्त देविघरा और पीरबाबा का मज़ार आज भी विद्यमान है । 

देवानन्द, परमानन्द, राजा दुलार एवं बाबू हरिलाल से संरक्षण में अमौर, एक समृद्ध व्यवसायिक केन्द्र और बाज़ार के रूप में विकसित हुआ और समीपस्थ बालूगंज, दुलालगंज और कुट्टीगोला में अच्छे बाज़ार पनप आये। अमौर में निर्मित छुरी, चम्मच और अन्य प्रकार के बर्तनों की मांग सुदूर बाज़ारों में थी और इन बर्तनों पर की गई बीदरी शैली की नक्काशी दूर-दूर तक  मशहूर थी। गिरिजानंद सिन्हा कहते हैं कि “हजारी परमानंद चौधरी के पुत्र, राजा बहादुर दुलार (दुलाल) सिंह चौधरी के समय में बनैली घराने का अधिक उत्कर्ष हुआ। दुलार सिंह {1750-1821) ने कम उम्र में ही आम जन जीवन से संपर्क से स्थापित किया और एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी बने। वे पूर्णिया और दिनाजपुर के कानूनगो के पद पर नियुक्त किये गए। 

गिरिजानंद सिन्हा आगे कहते हैं कि “1775 ई0 के आसपास तिरखारदह अपने हिस्से में लेने के बाद दुलार सिंह चौधरी ने हवेली  पूर्णिया स्थित बनैली नामक पैतृक स्थान में अपना मुख्यालय बनाया। फ्रांसिस बुकानन के अनुसार: “Tirakharda is a fine estate in the divisions of Matiyari and Arariya. This also was taken from Morang, and given to the Rajas of Puraniya, but Ramchandra, the last Raja except one, gave this and Asja as already mentioned to his Dewan Devananda. This man left Asja to one son, Manikchandra, and gave Tirakharda to Puramananda, another son, who has left it to Dular Singha, a person whom I have had frequent occasion to mention as proprietor of a portion of Kotwali, of Mahinagar Sujanagar in Serkar Jennutabad, Akburabad in Serkar Urambar, and of Sujanagar, of Dehatta, and of Shahpur in Serkar Tajpur, all of which I believe he has purchased; as he has also done a part of Dhapar which will be afterwards mentioned. He also has lands in Tirahut, Bhagalpur and Dinajpur, and is a very thriving man.” “I have entered into this detail to explain the proper management of an estate, in which the only defect is the perpetuity of the leases. Being very active and intelligent, he has also had the sense to perceive that his real interest is inseparably connected with fair dealing and kindness to his tenants.”  

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बहरहाल, गिरिजानंद सिन्हा आगे कहते हैं कि राजधानी के रूप में बनैली का चयन हर प्रकार से उपयुक्त था। बनैली सौरा नदी के किनारे बसा था। इस नदी के द्वारा बनैली को न केवल एक नैसर्गिक किलाबंदी प्राप्त थी बल्कि, एक तरफ नेपाल और दूसरी तरफ काढ़ागोला के निकट गंगा से जोड़ती हुई नदी मार्ग भी सुलभ थी। नगर से सटे पश्चिम में ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा निर्मित 10 नंबर पल्टनियाँ सड़क, नेपाल तक जाती थी। सड़क और नदी मार्ग से जुड़े होने के साथ-साथ दुलार सिंह का संरक्षण पाकर बनैली एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र में परिणत हो गया। थोड़े समय में ही दुलार अत्यधिक धनाढ्य और शक्तिशाली हो गए और उन्हें एक स्थानीय राजा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। 

संयोगवश उन्होंने अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स से दोस्ती भी कर ली। गवर्नर जनरल इनके बढ़ते हुए प्रभाव से परिचित था और उसे दुलार सिंह के रूप में एक महत्वपूर्ण राजनैतिक साथी प्राप्त हुआ। 1814 ई0 में जब नेपाल और ब्रिटिश भारत के बीच युद्ध छिड़ा तब दुलार सिंह ने अंग्रेजों की बहुत मदद की। कहा जाता है कि उन्होंने ब्ब्रिटिश सेना के लिए एक लाख मन रसद की आपूर्ति की और इस क्रम में उनके 17 हाथी मारे गये। जब युद्ध विराम हुआ और सुगौली की संधि की गयी तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1816 ई. में राजा बहादुर के खिताब से नवाजा और इस्टेट का सामूहिक रूप से ‘बनैली राज’ नामकरण किया गया। जब 1821 ई. में उनकी मृत्यु हुई उस समय वे पूर्णियां और भागलपुर के सबसे बड़े ज़मींदार थे।वे अपने पीछे जो इस्टेेेट छोड़ गये जिसकी वार्षिक आमदनी 7 लाख के आसपास थी।

फ्रांसिस बुकानन के अनुसार: “Dular Choudhary, an active landlord has a house becoming his station, in the division of Haveli Puraniya.” उन्होंने एक दुर्गा स्थान बनवाया था जिसे देवीधरा के नाम से जाना जाता है।इससे सटे पश्चिम में, एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया था जिसमें सुदूर राजस्थान से मंगवा कर माँ काली की सुंदर प्रस्तर मूर्ति की स्थापना तांत्रिक विधियों द्वारा की गयी थी। आज यह मंदिर न केवल बनैली राजवंश के प्राचीनतम प्रतिक के रूप में विद्यमान है बल्कि जिले के सबसे पुराने भवनों में से एक है। 

राजा कीर्त्यानंद सिंह 

1821 ई0 में दुलार सिंह की मृत्यु के बाद राजा वेदानन्द सिंह ने राज्यारोहण किया। कुछ ही दिनों के बाद सौतेले भाई कुमार रुद्रानंद सिंह से अनबन होने लगी और रुद्रानंद ने बंटवारा का मामला दायर कर दिया। बाद में दोनों भाइयों में संधि हुई और इस्टेट का दो हिस्सों में बंटवारा हो गया। वेदानंद के हिस्से का नाम ‘बनैली राज’ बरकरार रहा, जबकि रुद्रानंद अपने पैतृक स्थान पर बने रहे और वेदानंद ने बनैली की उत्तरी सीमा के निकट अपने लिये एक भव्य ड्योढ़ी का निर्माण किया। कहा जाता है कि वेदानन्द सिंह की गढ़ी के पश्चिम तरफ में पथरघट्टा पोखर नाम से मशहूर एक तालाब, वैसे तो राजमहल की स्त्रियों के लिए खुनवाया गया था परंतु इसका वास्तविक उपयोग था राजकीय गुप्त खजाने  के रूप में। धन से भरे हुए लोहे के संदूकों को जंज़ीरों से बांध कर जल के भीतर सुरक्षित रखा जाता था। समूचा तालाब पत्थर के चैकोर टुकड़ों से पाटा हुआ था।आज यह स्थान भग्नावस्था में हो कर भी दर्शनीय है।

वेदानंद को आर्युवेद का बड़ा शौक था और उन्होंने बनैली में, ‘वैद्यकीय बाड़ी’ नामक, जड़ी-बूटियों का एक उद्यान लगवाया था।आयुर्वेद पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी ‘वेदानंद विनोद’। सन 1831 ई. में जब सरकारी कार्यालय, समाहरणाय, न्यायालय आदि भवनों के लिए उपयुक्त ज़मीन की तलाश शुरू हुई तब वेदानन्द ने मात्र 491 रुपये के दर से वार्षिक राजस्व लेकर कुल 1203 एकड़ ज़मीन सरकार को दी। इसी के फलस्वरूप पूर्णिया सिटी से अलग एक नया पूर्णिया शहर बसाया जा सका राजा वेदानंद सिंह के एकमात्र पुत्र राजा लीलानन्द सिंह (जन्म 1816), जिनका राज्याभिषेक 1851 को हुआ, अपने वंश की गरिमा को अक्षुण्ण रखा और अपना दान वीरता के लिए इस प्रकार मशहूर हुए कि लोगों ने उन्हें ‘कलिकर्ण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। 

गिरिजानंद सिन्हा आगे कहते हैं कि सन 1855 ई0 के आसपास, बनैली बार-बार बाढ़ और महामारी के चपेट में आने लगा और राजधानी को हटा कर दूसरी जगह ले जाना अत्यावश्यक हो गया। अतः इन्होंने ने बनैली का परित्याग किया और ड्योढ़ी रामनगर में नई राजधानी बनाई । बाद में एक बार फिर लीलानन्द ने राजधानी बदली। रामनगर अपने ज्येष्ठ पुत्र कुँवर पद्मानन्द के जिम्मे छोड़कर  चंपानगर नामक नई राजधानी का नींव रखा। यह घटना 1868-69 ई0 के आसपास की है। कहा जाता है कि राजा लीलानंद के दरबार में बुद्धिजीवियों का जमघट लगा रहता था और विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाता था जिसमें आर्य समाज के संस्थापक, मूर्तिपूजन विरोधी स्वामी दयानन्द सरस्वती, चंपानगर पधारे  और धर्मधुरीण महामहोपाध्याय कृष्ण सिंह ठाकुर द्वारा शास्त्रार्थ में पराजित हुये। लीलानन्द मूर्तिपूजन के समर्थक थे और धर्मधुरीण ने इसी मत के पक्ष में शास्त्रार्थ किया था……. (क्रमशः)

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