इधर नानाजी देशमुख तिहाड़ के महिला वार्ड में राजमाता सिंधिया को योग सिखाने पहुंचे, उधर 13 आजीवन कारावास के कैदी सुरंग खोदकर जेल से भाग गए​ (तिहाड़ जेल कथा-व्यथा- 4)

जेल रोड (तिहाड़ जेल), नई दिल्ली :  आपातकाल के दौरान जब तिहाड़ जेल में जनता पार्टी का गठन होने के लिए तत्कालीन इंदिरा हटाओ अभियान वाले नेतागण अपने आपसी राजनीतिक भेद-भाव वाले छिद्रों को बंद करने, मतभेद और मनभेद को समाप्त कर एक होने का प्रयास कर रहे थे, उन नेताओं की गुफ्तगू सुनकर दिल्ली के तिहाड़ जेल से आजीवन कारावास की सजा काट रहे तेरह कैदी कारावास का दीवार लाँघ कर स्वतंत्र होने का योजना बना रहे थे। इतना ही नहीं, कहते हैं कि जनता पार्टी के निर्माण में तिहाड़ कारावास में उन दिनों बंद ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया योग विशेषज्ञ नानाजी देखमुख से मिलने का रास्ता ली और नानाजी महिला वार्ड में दस्तक दे दिए। 

वैसे आज से दो दशक पूर्व 13 नवम्बर, 2005 को घटित जेल ब्रेक की घटना भारत ही नहीं, एशिया महाद्वीप के लिए सबसे बड़ी घटना थी जब जहानाबाद (बिहार) जेल से 389 कैदी भाग निकले, भारत में, जेलब्रेक का इतिहास बहुत पुराना है चाहे एकल हो या सामूहिक। उच्च सुरक्षा वाले जेल ब्रेक में 1986 में तिहाड़ जेल भी शामिल है, जहाँ 17 कैदी सुरंग खोदकर भाग गए थे।  उस कालखंड में तिहाड़ जेल की वह घटना तत्कालीन सुरक्षा संबंधी खामियों को उजागर की थी। साल 2016 में ब्यास जेल में दो आतंकवादियों सहित सात कैदियों ने पुलिस एस्कॉर्ट टीम को काबू में कर मोटरसाइकिल पर भाग गए। सामूहिक जेलब्रेक में 2007 में दंतेवाड़ा जेल पर नक्सली हमला और 2016 में भोपाल सेंट्रल जेल ब्रेक शामिल हैं जहाँ कुख्यात सिमी कार्यकर्ताओं सहित आठ कैदी एक गार्ड की हत्या कर जेल की दीवार फांद कर भोपाल सेंट्रल जेल से भाग गए। बाद में पुलिस ने उन्हें गोली मारकर मार डाला। 

@अखबारवाला001 (233) ✍ दिल्ली के तिहाड़ कारावास में वह सब कुछ होता है जो कारावास में नहीं होनी चाहिए 😢

व्यक्तिगत भागने वालों में चार्ल्स शोभराज शामिल है, जो 1986 में गार्डों को नशीला पदार्थ देकर तिहाड़ जेल से भागने में सफल रहा था। प्रसिद्ध जेल ब्रेक प्रयासों में 2010 में अजमल कसाब का प्रयास शामिल है, जहाँ उसने मुंबई की आर्थर रोड जेल में जेल ब्रेक करने का प्रयास किया था, लेकिन जेल कर्मचारियों द्वारा उसे विफल कर दिया गया था। बाल यौन शोषण के लिए कैद रेमंड एंड्रयू वर्ली ने 2005 में जेल की दीवार फांदकर कोलकाता की अलीपुर सेंट्रल जेल से भागने का साहस किया।

वैसे अधिकारियों ने सुधारात्मक सुविधाओं में सुरक्षा में सुधार के लिए अनेकेनेक उपाय किए हैं, कर रहे हैं, लेकिन कभी-कभी कैदियों की कुशलता और दृढ़ संकल्प या विद्रोही समूहों द्वारा हमलों जैसे बाहरी कारकों के कारण जेलब्रेक होते रहे हैं। सांख्यिकी के अनुसार 2004 से 2013 के बीच 1661 कैदी जेल के अंदर से भागे। इस अवधि में कुल 3459 कैदी पुलिस हिरासत से भागे। पुलिस हिरासत से भागने वाले कैदियों का प्रतिशत कुल भागने वालों की संख्या का लगभग 59% है।  2004 से 2013 तक 10 साल की अवधि में औसतन 587 कैदी जेलों से भागे। इन 10 सालों में सबसे ज़्यादा कैदी 2007 (913) में भागे, उसके बाद 2005 (635) में भागे। सबसे कम कैदी 2013 (417) में भागे। तीन अलग-अलग सालों (2005, 2007 और 2008) में भागने वालों की संख्या 600 से ज़्यादा थी।

तिहाड़ जेल

कहते हैं कि सबसे ज्यादा भागने की घटनाएं आमतौर पर पुलिस हिरासत से होती हैं, जब विचाराधीन कैदियों को कोर्ट आदि में ले जाया जाता है। भागे गए 5879 कैदियों में से केवल 1847 को ही दोबारा गिरफ्तार हो सका । यह कुल भागने वालों की संख्या का लगभग 31% है। कुल भागने वालों में से 69% अभी भी फरार हैं। 2006 और 2012 दोनों में कुल भागने वालों में से लगभग 39% को दोबारा गिरफ्तार किया गया। यह किसी भी साल के लिए सबसे ज्यादा है। सबसे कम बार फिर से गिरफ्तार होने वाले कैदी 2007 (22%) में थे। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि उस साल भागने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी। तीन अलग-अलग सालों (2004, 2006 और 2009) में दोबारा गिरफ्तारी का प्रतिशत 30% से कम था। 2021 के दौरान कुल 312 कैदी भागे, जिनमें से 77 (24.7%) पुलिस हिरासत से भागे और 235 न्यायिक हिरासत से भागे। 2021 के दौरान कुल 120 भागने वालों को फिर से गिरफ़्तार किया गया। 2021 के दौरान जेल से भागने की 17 घटनाएं हुईं।

जहाँ तक दिल्ली सरकार द्वारा नियंत्रित केंद्रीय कारा तिहाड़ का सवाल है यहाँ से साल 1976 में लगभग 13 आजीवन कारावास के कैदी जेल की बाहरी दीवार के पास एक सुरंग खोदकर जेल से भाग गए। इसके पांच साल बाद, 1983 में लगभग 10 कैदी फर्जी जेल पहचान पत्र का उपयोग करके और जेल अधिकारी बनकर जेल से भाग गए। इस घटना के तीसरे साल, यानी 1986 में सीरियल किलर चार्ल्स शोभराज जेल के एक गार्ड को नशीला पदार्थ खिलाकर भाग निकला। साल 2004 में डकैत से राजनेता बनी फूलन देवी की हत्या के लिए दोषी ठहराए गए शेर सिंह राणा ने अपने सहयोगी को पुलिस अधिकारी बताकर जेल से भाग निकला। इसके सात साल बाद 2011 में दो विचाराधीन नशेड़ी आठ अन्य कैदियों के साथ गेट नंबर 3 की ओर भागे, जब उन्हें एक वैन में ले जाया जा रहा था। वे भाग निकले, लेकिन पकड़े गए। साल 2013 में जेल के अंदर से भागने की कोशिश करते समय एक कैदी चलती ट्रक से गिरकर मर गया। ट्रक सब्जियों की मासिक आपूर्ति लेकर जेल आया था। इसी तरह, 27 जून, 2015 को सुबह की हाजिरी के बाद जेल नंबर 7 से दो कैदी भाग गए। एक को पकड़ लिया गया, जबकि दूसरा भागने में सफल रहा।

ये भी पढ़े   मधुबनी जिले के 'सरिसब-पाही' और दरभंगा जिले के'उजान' गाँव के 'दो झा की कहानी', एक ने पिता को सम्मानित किया, दूसरे ने पुत्र को नया जीवन
तिहाड़ जेलFor Photo Thanks to India Today

बहरहाल, चलिए जेल रोड स्थित केंद्रीय कारा तिहाड़ पहुँचते हैं। जेल तोड़ के मामले में तिहाड़ एक प्रतिमान स्थापित की थी। लोगों ने तिहाड़ से भागने में जो जो कार्य पद्धति अपनाई थी, उसी की नक़ल अनेक जेलों में की गयी, और इसकी शुरुआत शोभराज  की लेज तोड़ने की घटना से हुई। जेल से कैदियों के भागने की ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना सं 1976 में हुयी थी। वह घटना आपत्काल के दौरान घटी थी, जब अनेक विपक्षी नेताओं को इंदिरा गाँधी द्वारा मीसा के अंतर्गत जेल में बंद कर दिया गया था। उस समय तिहाड़ जेल में विजयाराजे सिंधिया, नानाजी देशमुख, चौधरी चरण सिंह, जार्ज फर्नांडिस, अरुण. जेटली, प्रकाश सिंह बादल, लाला हंसराज, और प्रेम सागर गुप्ता जैसे लोगों को बंद किया गया था। विजयाराजे सिंधिया एवं नानाजी देशमुख जनसंघ के थे, जबकि जॉर्ज फर्नाडिस एक ट्रेड यूनियन नेता था समाजवादी पार्टी से थे। 

चूँकि तत्कालीन जेल परिसर में बहुत भीड़ हो गयी थी, इसलिए उच्चस्तरीय राजनितिक कैदियों की सुविधा के लिए तिहाड़ के खुले क्षेत्रों में अनेक खुली जेलों का निर्माण किया गया था। यदि किसी को अस्प्ताल की सुविधा की आवश्यकता होती तो उसके लिए जेल के निकट ही अस्पताल का विस्तार किया गया था। जेलकर्मी उस इतिहास के साक्षी बने, जिसका निर्माण तिहाड़ के अंदर हो रहा था; क्योंकि नानाजी देखमुख और अन्य लोगों ने कम्युनिस्टों के साथ बातचीत की पहल की, जिसके परिणामस्वरूप तिहाड़ जेल में जनता पार्टी का गठन हुआ। 

पार्टी के गठन में विजयाराजे सिंधिया ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। वार्ड नंबर तीन में रहते हुए उन्हें नानाजी से मिलने के लिए कोई उपाय खोजना था, जो वार्ड नंबर 18 में थे। वह जानती थी कि नानाजी योग के विशेषज्ञ थे, इसलिए उन्होंने एक डाक्टर से योग करने की सलाह लिखवा ली, जिसे उन्हें रोजाना एक घंटा योग करने का सुझाव दिया। जेल के कर्मचारियों के पास कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने देशमुख को रोजाना महिला वार्ड में जाकर राजमाता को योग सिखाने की अनुमति दे दी। तिहाड़ जेल के पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता लिखते हैं : “मुझे यह तो नहीं मालूम की वे दोनों कितना योग करते थे, परन्तु उनकी चर्चाओं के दौरान ही जनता पार्टी का बीजारोपण अवश्य हुआ था।”

ये सभी जब इंदिरा गांधी को उखाड़ फेंकने की योजना नहीं बना रहे होते थे तो वे जेल में अपनी बोरियत दूर करने के लिए अन्य गतिविधियों में भाग लेते थे। अरुण जेटली जेल कर्मियों के साथ बैडमिंटन खेलते थे। जॉर्ज फर्नांडीस  बहुत लिखते रहते थे और अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण चरण सिंह हवन किया करते थे। प्रकाश सिंह बादल जनसंघी नेताओं एवं कम्युनिस्टों के बीच की कड़ी थे और वही उन्हें एक दूसरे के करीब लाय थे। वे लोग आपसे में कैरम खेलते और  राजनितिक चर्चाएं करते थे। इन सभी उत्तेजनाओं के मध्य एक अवसर पाकर आजीवन कारावास की सजा काट रहे 13 लोगों ने उनकी बातों के बीच से एक सुरंग खोदी और १६ मार्च, १९७६ को तिहाड़ से भाग गए। 

सुनील कुमार गुप्ता, पूर्व जेलर तिहाड़

सुनील गुप्ता कहते है “यह घटना शोभराज के जेल से भागने की घटना से ठीक एक दशक पहले हुयी थी। उसमें से अधिकतर भगोड़े पकड़ लिए गए थे; परन्तु आगे चलकर सजा समीक्षा बोर्ड द्वारा अनेक कैदियों को रिहा कर दिया गया था। यह बोर्ड आज भी मौजूद है और समय पूर्व रिहाई रिहाई का आदेश देने के अधिकार से लैस है। अनेक सजायाफ्ता कैदी, जो महसूस करते हैं कि वे सुधर गए हैं और जेल में निरंतर अच्छे आचरण का प्रदर्शन करते हैं, उन्हें यह विकल्प दिया जाता है।”

गुप्ता जी के अनुसार, “मेरे कार्यकाल के दौरान पहला  बड़ा जेल ब्रेक सं 1983 की गर्मियों में हुआ था, जिसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र शामिल थे। उस छात्र आंदोलन की शुरुआत जेएनयू के तत्कालीन उपकुलपति पी.एन. श्रीवास्तव के विरोध से हुयी थी, जिन्होंने एक अनुशासनात्मक कार्रवाई के अंतर्गत एक छात्र को छात्रावास से स्थानांतरित करने का आदेश दिया था।  इसके परिणामस्वरुप समूची छात्र संस्था ने शिक्षकों के घेराव प्रारम्भ कर दिया था। छात्रों द्वारा उप-कुलपतिऔर प्राचार्यों के कार्यालयों में बिजली और पानी का कनेक्शन काट दिए जाने के कारण अप्रैल और मई के दौरान स्थितियां और बिगड़ गयी तथा 10 मई की घटना की ओर बढ़ गयी, जिसमें पुलिस ने परिसर में प्रवेश करने 250 छात्रों को आगजनी और दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। सम्पूर्ण संख्या में 170 छात्र एवं 80 छात्र गिरफ्तार की गयी थी और उन्हें अलग अलग जेलों में रखा गया था।”

ये भी पढ़े   ​123 लाख रुपये​ का भुगतान किया था सहारा प्रमुख सुब्रत राय तिहाड़ कारावास को 'सुख-सुविधा' के लिए, सहारा के 'दो कर्मचारी' भी राय के साथ बंद थे जेल में ​(तिहाड़ जेल कथा-व्यथा-1)

एक दिन बाद, अर्थात 11 मई तक सब कुछ सामान्य रहा, परन्तु शाम को तालाबंदी के समय जब उनकी गिनती की गयी तो 55 छात्राएं और 125 छात्र गायब पाए गए। बड़ी नारकीय स्थिति बन गयी थी। तनाव से न निपट पाने के कारण जेलों के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट एम. एस. रितु अपनी पत्नी की बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी पर चले गए। यहाँ तक की उस दिन उन्होंने जेल को बंद करने वाले कागजात पर हस्ताक्षर भी नहीं किये (वह ऐसा नियम था, जिसका आपात स्थिति में पालन करना जरूरी होता है और वह घटना उससे कम नहीं थी ), क्योंकि वह जिम्मेदार ठहराए जाते। वह काम उनके सहायक शिवराज यादव (यह वही आदमी था, जिसे शोभराज के फरार होने के बाद दण्डित किया गया था ) के कन्धों पर आ पड़ा। 

भगाने की उस घटना की सुचना शीघ्र ही मिडिया में पहुँच गई। फरार छात्र-छात्राओं के विरुद्ध एक नई प्राथमिकी दर्ज की गई। जांचकर्ता जेल से फरार सभी भगोड़े विद्यार्थियों की जांच करने के लिए वारंट लेकर जेएनयू परिसर पहुँच गए। उन लोगों की परेशानी तब और बढ़ गई, जब वहां ठहरे छात्र-छात्राओं के नाम भगोड़ों की सूची में दर्ज नामों में नहीं मिले। गिरफ़्तारी के समय लोगों ने अपने काल्पनिक या गलत नाम बताये थे। उसके बाद पुलिस ने प्रणाली विद्यमान खामियों को महसूस किया – कोई भी अपना झूठा नाम बता सकता था, क्योंकि उस समय कोई सत्यापन की प्रक्रिया मजूद नहीं थी। 

“हम अभी तक यह नहीं जान पाए कि इतनी उच्च सुरक्षा वाली वाली जेल से 180 छात्र-छात्राएं गायब कैसे हो गए ? वास्तव में वह हमारे लचर तंत्र और विद्यार्थियों की पहचान की संयुक्त खामी थी। छात्रों के रूप में उन्हें ‘बी’ श्रेणी संभ्रांत कैदियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जिसका अर्थ यह था कि उन्हें बिना किसी शारीरिक बाधा के अपने मुलाकातियों से बार बार मिलने की अनुमति थी और उनके तथा आगंतुकों के बीच किसी प्रकार की शीशे या लोहे के सरियों वाली दीवार भी नहीं थी। 

अनेक विद्यार्थी प्रभावशाली लोगों के बच्चे थे और तिहाड़ लाये जाने के बाद पहले दिन बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आये थे। उस समय आगंतुकों के लिए यह नियम था कि उनकी कलाइयों पर एक मुहर लगा दी जाती थी और जेल के दरवाजों से बाहर निकलते समय उस मुहर की जांच करके यह सुनिश्चित किया जाता था कि असली मुलाकाती बाहर आ गया। यह मन में बैठने वाली बात है की वह मई का महीना था और दिल्ली की गर्मियां अपने उफान पर थी। चतुर विद्यार्थियों ने इस तथ्य का लाभ उठाया की गर्मी के कारण कलाई पर लगी मुहर दूसरे व्यक्ति की कलाइयों पर आसानी से स्थानांतरण योग्य थी। पसीने और गर्मी को धन्यवाद। मुलाकातियों ने अपनी कलाइयों पर लगी मुहर को छात्रों की कलाइयों पर छाप दिया और 180 विद्यार्थियों को जेल से बाहर निकाल ले गए , जिन्हे बाद में कभी खोजा नहीं जा सका। 

यह अलग बात थी कि यदि द्वारपाल सतर्क होता तो इस बात पर अवश्य ध्यान देता कि मुलाकात के लिए अंदर आने वालों की सख्या से तीन गुना लोग तिहाड़ से बाहर जा रहे थे। मुझे बताया गया कि उन जेएनयू के छात्रों में से अनेक छात्र आज स्वयं उच्च श्रेणी के राजनायिक हैं। उनमें से एक छात्र तो कालांतर में तिहाड़ का अधीक्षक भी बना था। इस घटना के बाद कैदियों और आगंतुकों की आमने-सामने अथवा उनके वार्ड में होने वाली मुलाकात पूरी तरह बंद कर दी गई। लेकिन फरारी फिर भी नहीं रुकी। 

सुनील गुप्ता कहते है: “साल 1988 में जेल तोड़ की एक घटना हमारे जेलरों की उस आदत की परिणाम थी, जिसके तहत कैदियों से वे दोपहर में मालिस करवाते थे। डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट एल.पी. निर्मल को रोज दोपहर मालिस करवाना पसंद था और कई बार वह मालिस करवाते-करवाते बीच में सो भी जाते थे। उनके एक निश्चित मालिश करने वाला ने महसूस किया की मालिश का दौरान उसके वहां से फरार होने का अच्छा अवसर है, जिसे उसे खोना नहीं चाहिए। अतः जैसे ही उसने अपनी जादुई उंगलियों के करतब से उन्हें सुला दिया, उसने ध्यान दिया की मालिश से पहले अधिकारी द्वारा उतारे गए कपड़ों को पहनकर वह आसानी से बाहर जा सकता था। उसने उनकी वर्दी पहनकर अपने आप को एल.पी. निर्मल के रूप में सज्जित किया और जेल अधिकारियो से सलामी लेने के बाद तिहाड़ के मुख्य द्वारा से बाहर निकल गया। 

ये भी पढ़े   जी7 शिखर सम्मेलन: वैश्विक चुनौतियों के बीच वैश्विक कल्याण और समृद्धि को आगे बढ़ाने पर चर्चाएं 

इस घटना से ज्ञात होता है कि तिहाड़ का प्रत्येक कर्मचारी या अधिकारी कितना लापरवाह था कि अपने ऑफिसर को भी नहीं पहचानता। उन्होंने किसी को वर्दी पहने और उसके कंधो पर दो सितारे लगे देखे और सलामी ठोक दी। वास्तव में हमने उसे उसके भागने के थोड़ी देर बाद पकड़ लिया था क्योंकि वह अधिक दूर नहीं गया था। वह एल.पी. निर्मल की वर्दी पहने हुए अपनी बहन के घर सोया हुआ पाया गया था। 

एक अन्य अवसर पर एक नशेड़ी ने भागने की कोशिश की थी। उसने आधी रात को जेल संख्या 3 की दीवार पर चढ़कर छलांग लगा दी। जेल संख्या 1, 2 और 3 के अंदर से आपस में जुडी हुयी है। यानि कूदने के बाद वह जेल सख्या 2 में पहुंचग गया। उसने अपनी तात्कालिक दशा से सोचा की वह जेल के बाहर आ गया है। उसने वहां खड़े गार्ड से पूछा की बस स्टॉप कहाँ है ? सन 2015 में दो लड़कों ने जेल संख्या पांच की दीवार से छलांग लगायी और एक अन्य जेल में पहुँच गए। यह महसूस करते हुए कि दूसरी जेल की दीवार कूदना संभव नहीं था, उन्होंने दीवार में एक सुराख करने का निर्णय किया और उनकी वह तरकीब कामयाब भी हो गयी। वहां ऐसे अनेक मामले हुए थे, जिसमें कैदी लोक निर्माण विभाग के अस्थायी श्रमिकों के साथ भागने में सफल हो गए थे। 

सुनील कुमार गुप्ता जी कहते हैं: “शोभराज के भागने की घटना के अलावा जिस एक घटना ने तिहाड़ को सर्वाधिक अपमानित किया, वह दस्यु सुंदरी और संसद फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राण की फरवरी 2004 में हुयी फरारी। जब किसी कैदी को किसी अन्य शहर के कोर्ट में पेशी के लिए जाना होता है तो उसे उस राज्य की पुलिस ले जाती है, न की तिहाड़ जेल के कर्मचारी, जो कैदियों से परिचित हो गए होते हैं। इसके पीछे यह तर्क था कि चूँकि राज्य के पुलिस स्थानीय मार्गों से अधिक परिचित होती है, इसलिए वह कैदियों को सड़क मार्ग से अधिक कुशलता पूर्वक ले जा सकती है। कैदियों के परिवहन का अनुरोध वायरलेस प्रणाली से होता था और इस खामी का लाभ आसानी से उठाया जा सकता था।”
 
“5 फरवरी को वायरलेस से सन्देश प्राप्त होने के फ़ौरन बाद शेर सिंह राणा को हरिद्वार के कोर्ट में ले जाने के लिए एक टीम तिहाड़ पहुँच गयी। प्रणाली के अनुसार, हमने सुरक्षा कर्मियों को भोजन राशि दी – ऐसा यह भत्ता था, जो यात्रा के दौरान कैदी के खाने के लिए दिया जाता था और वारंट तथा अन्य जरुरी दस्तावेजों के साथ आई टीम को सौंप दिया जाता था। उसके जाने के कुछ देर बाद एक अन्य पुलिस टीम आई। हमने राणा को किसी पुलिस टीम को नहीं, बल्कि एक सुसमन्वियत भगोड़ों की टीम को सौंप दिया था। जो पुलिस टीम राणा को लेने आई थी, हमने उसके दस्तावेजों को भी सावधानी पूर्वं जांच नहीं की थी, परन्तु हमने उन्हें जाने दिया, क्योंकि उसका दावा था यदि उसे अधिक बिलम्ब हुआ तो अदालत नाराज हो सकती है। हमारे लिए उनका इतना कहना ही पर्याप्त था और हमने तत्काल राणा को सौंप दिया। समस्या की असली जड़ वही थी – जेलकर्मी अदालत की ओर से की जाने वाली खिंचाई से इतने भयभीत होते हैं कि वे उस परेशानी से बचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।” 

लेकिन इस प्रणाली को जल्द ही बदल दिया गया। राज्य पुलिस के बजाय दिल्ली पुलिस ने कैदियों को दूसरे शहरों में पेशी के लिए ले जाना प्रारम्भ कर दिया। एक बार तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो शेर सिंह राणा की फरारी के कारण एक वरिष्ठ अधिकारी की नौकरी चली जाएगी। महानिदेशक को दिल्ली के उपराज्यपाल विजय कपूर की और से फटकार लगायी गयी और उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू करने की धमकी भी दी गयी। 

क्रमशः …. ✍

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here