झरिया (धनबाद), झारखंड: आज के झारखंड और कल के दक्षिण बिहार के धनबाद लोकसभा क्षेत्र के छः विधानसभा क्षेत्रों में एक झरिया विधानसभा क्षेत्र आज फिर गर्म है। इस क्षेत्र से चार बार विजयश्री का प्रमाण पत्र लेकर प्रदेश के विधानसभा में बैठे थे कोयला सरगना सूर्यदेव सिंह। बलिया के एक साधारण पहलवान से देश के एक असाधारण विधायक होने वाले सूर्यदेव सिंह देश के बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं, मंत्रियों, अधिकारियों, पदाधिकारियों, विशेषज्ञों को अपने शब्दों और आर्थिक ताकतों से वसीभूत करने की क्षमता रखते थे। वचन के पक्के थे। मिलनसार थे। जिन पर विश्वास जम गया, उनके जीवन पर्यन्त हो गए। कुछ खास और कुछ अलग गुणों के स्वामी थे सूर्यदेव सिंह। आज उन गुणों की घोर किल्लत है सिंह मैन्सन में भी और झरिया विधानसभा क्षेत्र में भी – आप माने अथवा नहीं, आपकी मर्जी।
आज सूर्यदेव सिंह की बातें झरिया में गलत सिद्ध होते देख रहा हूँ। वे कहते थे कि उनके सभी भाइयों में आपसी तालमेल, सम्बन्ध खून से भी अधिक गहरा था और जीवन पर्यन्त गहरा रहेगा। अपने राजनितिक जीवन काल में घर-परिवार, गाँव, मोहल्ला, क़स्बा, अंचल की महिलाओं को राजनीति से मीलों दूर रखने वाले सूर्यदेव सिंह जैसे ही अंतिम सांस लिए, गाँव-परिवार के लोग झरिया पर कब्ज़ा करने, सत्ता ज़माने के क्रम में एक दूसरे से न केवल अलग हो गए, बल्कि एक दूसरे के खून के प्यासे भी हो गए। कुछ प्यास भी बुझाये। दोस्ती, मित्रता, विश्वास, अपनापन मीलों दूर चली गयी।
सूर्यदेव सिंह की मृत्यु के बाद, विगत तीन दशकों में उनके ऐतिहासिक ‘सिंह मैन्सन’ की एकीकृत शक्ति का सहस्त्र खंड होना, भाई-भाई का दुश्मन होना, दुश्मनी से झरिया का लहू-लहान होना, परिवार में पुरुषों की संख्या का उत्तरोत्तर कम होते जाना, झरिया विधानसभा क्षेत्र के साथ-साथ अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए परिवार की महिलाओं का राजनीतिक कुरुक्षेत्र में उतरना, उनकी बहुओं द्वारा सत्ता में वर्चस्व बनाने के लिए चाणक्य की नीतियों को व्यावहारिक रूप देना – आज एक गहन शोध का विषय हो गया है। बातों और तथ्यों को जब एक साथ देखता हूँ तो सूर्यदेव सिंह का अपने परिवार, परिवार के लोगों पर उनका विश्वास खंडित दिखता है। वे गलत थे, आज महसूस होता है।
इसका ज्वलंत दृष्टांत है विगत दस वर्षों में आये तूफ़ान और उस तूफ़ान के कारण सूर्यदेव सिंह की बहु श्रीमती रागिनी सिंह और सूर्यदेव सिंह के भाई राजन सिंह की बहु श्रीमती पूर्णिमा सिंह का झरिया विधानसभा चुनाव में आमने-सामने होना। यह दूसरी बार है जब झरिया विधानसभा क्षेत्र में सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए सिंह परिवार की दो बहुएं आमने सामने हैं। आज झरिया का काला पत्थर भी भयभीत है कहीं सत्ता पर बर्चस्वता ज़माने के क्रम में उसके अपने रंग पर भी आंच न आ जाय। एक समय था जब सूर्यदेव सिंह से बात करने सिंह मैंशन जाते थे तो उन दिनों महिलाएं सामने वाले बैठकी में नहीं आती थी। प्रवेश ‘वर्जित’ नहीं था, परन्तु सम्मान के कारण महिलाएं कक्ष में नहीं आती थी। आज समय बदल गया है। आज मुंबई सीनेमा उग्योग के साहूकार भी कलम खोले धनबाद कोयलांचल पर आधुनिक दृष्टि से कहानियां गढ़ रहे हैं। आखिर पैसे का सवाल है, नाम का सवाल है, शोहरत का सवाल है। इसे कहते हैं – समय। खैर।
उस दिन जमीन पर चतुर्दिक फैला कोयला भी धीरे-धीरे अपने शीत को समाप्त कर तप रहा था। अक्टूबर महीना का अंत हो गया था और कैलेण्डर पर नवम्बर महीने का पन्ना लटक गया था। मौसम में चुनावी हवा तो चल ही रहा था, प्राकृतिक हवा में भी बदला-बदला था। पुरुषों की मानसिक दशा में बदलाव नहीं हुआ था। भाई-भाई दुश्मन नहीं बने थे। गोलियों की बौछार नहीं होती थी। सबों के चेहरों पर मुस्कान था – प्रेम का, सम्मान का, आदर का।
उन दिनों मैं कलकत्ता से प्रकाशित ‘दी टेलीग्राफ’ अखबार के लिए कार्य करता था। दफ्तर से नित्य फोन की घंटी बजती थी यह पूछने के लिए कि आज क्या-क्या कहानी है? अगर कोयलांचल और धनबाद में उन दिनों सूर्यदेव सिंह और उनके भाइयों की तूती बोलती थी, तो कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ अखबार के शब्दों का सम्मान भी अपने उत्कर्ष पर था। अगर सूर्यदेव सिंह से लोग डरते थे, तो उस अखबार के शब्दों से भी बड़े-बड़े सूरमाओं की हेंकड़ी समाप्त हो जाती थी, चाहे कोयला माफिया हों, पुलिस अधिकारी हों, प्रशासन के लोग हों या कॉल इण्डिया के पदाधिकारी, दलाल हों।
धनबाद जैसे शहर में मेरा निजी तौर पर कोई वजूद नहीं था। समाचार ढूंढने के क्रम में पैदल चल-चलकर दर्जनों चप्पल सड़क के किनारे फेंका था। हीरापुर स्थित धनबाद बुक डिपो में श्री गौतम की दूकान से दर्जनों कलम खरीदता था ताकि लिखते समय कलम बंद न हो जाय। उन दिनों कंप्यूटर महाशय का आगमन हुआ तो था, लेकिन हम जैसे पत्रकारों की पहुँच उन तक नहीं हुयी थी। कलम, कागज, टाइपराइटर, टेलीप्रिंटर, टेलेक्स यही साधन थे समाचार भेजने के लिए या फिर ट्रंक कॉल। अख़बार के पन्नों पर प्रकाशित समाचार के साथ मेरा नाम ही मेरा वजूद था, मेरी पहचान थी। और यही कारण था कि तत्कालीन समय में कोयलांचल के पर्यायवाची, जिनके पीठ पर लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के साथ-साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का भी हाथ था, मुझे बहुत सम्मान करते थे क्योंकि दी टेलीग्राफ अखबार में सच प्रकाशित होता था।
उस दिन झरिया में सूर्यदेव सिंह के दफ्तर के बाहर कंधे पर आधुनिक बन्दूक और कमर में गोलियों का डरकश से सज्ज चौकन्ना सुरक्षाकर्मी और पहलवान जैसा व्यक्ति मुझे देखकर मुस्कुराये। उनकी हंसी में अनुशासन भी था और प्रशासन भी। मैं भी मुस्कुराकर अभिवादन किया । अपने सहयोगियों से घीरे सूर्यदेव सिंह सामने की कुर्सी पर बैठे थे। वही शारीरिक भाषा। वही तेवर। चेहरे पर वही चमक। बाएं हाथ की कलाई पर चमकती घड़ी। सफ़ेद धोती, कुर्ता पहने धनबाद के सैकड़ों-हज़ारों कोयला मजदूरों के मसीहा बैठे थे। अपने दाहिने हाथ की पहली और बूढ़ी उँगलियों को एक साथ सटाते – जैसे हम सभी एक चुटकी का संकेत देते हैं – दिखाते मुझे बैठने का इशारा किये। आज समय और सोच में इतना बदलाव है कि झरिया कुरुक्षेत्र के चुनावी मैदान में खड़ी महिला अभ्यर्थीद्वय फोन और संवाद का भी जवाब नहीं देते। शायद इसी को परिवर्तन कहते हैं। खैर।
उस नवम्बर के पहले सप्ताह में कुछ क्षण में सबों से बातचीत कर उन्हें विदा किये और फिर मेरी और मुखातिब हुए। फिर एक क्षण रुके और कहे थे : “झाजी !!! उस दिन आप सवाल पूछे थे कि मैं संसद का चुनाव क्यों नहीं लड़ता जबकि धनबाद में मुझे चाहने वाले, समर्थकों की कमी नहीं है। संभव है कुछ प्रेम से वोट देंगे, कुछ भय से – लेकिन वोट तो आपको ही देंगे।” आपका प्रश्न बहुत ही सटीक था। आप उस प्रश्न में मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व का चित्रण कर दिया। फिर वे कहे कि धनबाद में छः विधानसभा क्षेत्र हैं और एक लोक सभा क्षेत्र। लेकिन जब चुनाव आता है, पटना से दिल्ली तक सभी लोगों की निगाहें झरिया पर ही टिकी होती है।
सूर्यदेव सिंह का कहना था कि उनके लिए झरिया महज विधान सभा क्षेत्र नहीं है, बल्कि एक जीवन मुकाम है। एक घर है। एक परिवार है। यहाँ की मिट्टी में उन्हें, उनके परिवार, गाँव के लोग, समाज के लोग, सगे-सम्बन्धी ही नहीं, बल्कि कोयला क्षेत्र में सांस लेने वाला प्रत्येक मजदुर, उसका परिवार, उसके बाल-बच्चे पला है, बड़ा हुआ है, बड़ा हो रहा है। उनकी यह दुनिया भले झरिया विधान सभा के नाम से जाना जाता हो, लेकिन यही दुनिया उन सबों के लिए ब्रह्माण्ड है। इस ब्रह्माण्ड पर हज़ारों लोगों की निगाहें टिकी है। सभी झरिया पर राज करना चाहते हैं और हम चाहते हैं कि हम सभी, परिवार के लोग, झरिया के लोग, घनबाद के लोग मिलजुल कर, हंसी-ख़ुशी अपना-अपना कार्य कर जीवन यापन करें।
लेकिन आप ही बताएं कि जहाँ की मिट्टी में हम सभी पले, बड़े हुए, उसे छोड़कर सांसद क्यों बने? वैसे भी मैं भारतीय संसद के लिए नहीं बना हूँ। हम बिहार विधान सभा के लिए ही ठीक हैं, संतुष्ट हैं। सन 1990 के विधानसभा चुनाव के समय झरिया विधानसभा के अभ्यर्थी सूर्यदेव सिंह भी थी। सूर्यदेव सिंह तत्कालीन चुनाव से पूर्व तीन बार – 1977, 1980 और 1985 – में झरिया विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके थे। सन नब्बे के विधानसभा चुनाव में भी वे विजय अभ्यर्थी के रूप में चुनाव का आधिकारिक रस्म पूरा कर रहे थे।
सूर्यदेव सिंह का कहना था कि उनके सभी भाइयों में बहुत एकता है। उनके लिए बिक्रमा सिंह, रामधारी सिंह, बच्चा सिंह, राजन सिंह सभी भाई ही नहीं, भाई से बढ़कर हैं। ह्रदय का रिश्ता है सबों में। सभी एक दूसरे के प्रति समर्पित हैं। हमारा खून का सम्बन्ध तो है ही, उससे भी बढ़कर भावनात्मक और संवेदनात्मक सम्बन्ध है। अगर हम सभी झरिया को छोड़ देंगे तो कोई और लपक लेगा। प्रकृति का यही नियम है। झरिया हमारी कर्मभूमि है। हम सबों की पहचान है। झरिया में हम सबों की परछाई साथ नहीं छोड़ती, बल्कि दिखती थी।
हम टकटकी निगाहों से उन्हें देख भी रहे थे और उनकी बातों को सुनते कागज पर लिख भी रहे थे। ‘दी टेलीग्राफ’ अखबार की सम्पादकीय विभाग की एक खास विशेषता थी कि कहानी लिखने के क्रम में व्यक्ति विशेष की कुछ बातों को उन्हीं की भाषा में, उनके ही शब्दों में लिखा जाता था। फिर मैं बहुत ही शालीनता से उनसे पूछा कि अगर आप संसदीय चुनाव कभी नहीं लड़ना चाहते, तो यह मान लूँ की आप अरुण बाबू (अरुण कुमार रॉय @ए के रॉय) को मदद कर रहे हैं? वे क्षणभर रुके और लंबी उच्छ्वास के साथ कहे: “रॉय साहब बहुत ही सम्मानित हैं। शिक्षित हैं। एक अभियंता है। एक अधिवक्ता के पुत्र हैं। आज के युग में पढ़ा लिखा आदमी कहाँ किसी मजदुर के हक़ के लिए लड़ता है।” मैं सूर्यदेव सिंह का इशारा समझ गया था।
बीच-बीच में लोगों का, मजदूरों का, उनके शुभचिंतकों का, उनके समर्थकों का, आतंरिक-सूचना देने वालों का, खाकी वस्त्र पहने लोगों का, सफ़ेद कुरता-पैजामा पहने मूछों की निकलती रेखाओं जैसी नए-नए नेताओं का, मदद मांगने वालों का आना-जाना जारी था। कुछ पास जाकर अपनी बात कहते थे, तो कुछ कान में फुस-फुसाकर। सूर्यदेव सिंह उनके कार्यों को निष्पादित करने में तनिक भी बिलम्ब नहीं करते थे। लेकिन जैसे ही वह कार्य समाप्त होता था, मेरे साथ उनकी बातचीत का सिलसिला उन्ही शब्दों के साथ प्रारम्भ होता था, जहाँ के उसे छोड़े होते थे। सूर्यदेव सिंह का कहना था कि रॉय साहेब के साथ उनकी बहुत अधिक सैद्धांतिक मतभेद है और जीवन पर्यन्त रहेगा। लेकिन इस बात को भी तो इंकार नहीं किया जा सकता है वे उनके सामने अशिक्षित थे । रॉय साहब कोयला अंचल में बहुत शिक्षित मजदूर नेता थे । उनकी भाषा और शब्द बहुत सुसज्जित थी । आप लिख लीजिये इस संसदीय चुनाव में राय साहब ही जीतेंगे।
ज्ञातव्य हो कि राय साहब के माता-पिता ब्रिटिश विरोधी कार्यकर्ता थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। कारावास की सजा काटे थे। सन 1966-1967 में श्रमिकों की हड़ताल हुई और उस हड़ताल के समर्थन में राय बाबू नौकरी छोड़ मजदूरों के समर्थन में राजनीति में कदम रखे। राय साहब कभी विवाह नहीं किये। कोयला क्षेत्र का मजदुर और उसका परिवार ही उनका परिवार था। वे झारखंड की क्षेत्रीय पार्टी मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) के संस्थापक तो थे ही, वे 1967, 1969 और 1972 में बिहार विधानसभा में सिंदरी सीट का प्रतिनिधित्व किया तथा 1977, 1980 और 1989 में भारतीय संसद (लोकसभा) में धनबाद लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया जब तक राम का नाम लिखा ईंट धनबाद में नहीं पदार्पित हुआ था और तत्कालीन पुलिस अधीक्षक आतंकवादियों के गोली के निशाने पर नहीं आये थे। उसके बाद तो राजनीति का भी राजनीतिकरण हो गया।
आज 34-वर्ष बाद जब सूर्यदेव सिंह की अन्तःमन की बातों को याद करता हूँ, उन शब्दों पर विचार करता हूँ, शोध करता हूँ और सोचता हूँ तो समस्त बातें, एक-एक शब्द गलत लगता है। यह भी सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि अपनी अंतिम सांस के बाद सूर्यदेव सिंह अपने सभी रिश्तों के साथ अनंत यात्रा पर निकल गए। वेदना, संवेदना, भावना सभी उनके वियोग में सिंह मैन्सन में मिट्टी में मिल गए। अगर ऐसा नहीं होता तो सूर्यदेव सिंह की मृत्यु के बाद झरिया विधानसभा सहस्त्र विचारधाराओं के लोगों के हाथों नहीं फिसलता। करोड़ों आलोचना के बाद भी झरिया कोयला क्षेत्र के मजदूर, शिक्षित, अशिक्षित लोग सूर्यदेव सिंह के तरफ आशा की नजर से नहीं देखते। आज सिंह मैंशन की सोच बिलकुल भिन्न है। आज झरिया के मतदाता, लोग दुःखी हैं।
आइए, वापस झरिया चलते हैं। सूर्यदेव सिंह की मृत्यु के बाद 1995 में श्रीमती आबो देवी (जनता दल) 45271 मतों से जीतकर विधायक हुई। अगले विधानसभा के चुनाव यानी 2000 चुनाव में सूर्यदेव सिंह के भाई बच्चा सिंह समता पार्टी के टिकट पर 56401 मतों से जीतकर झरिया विधानसभा के विधायक बने। इस चुनाव में आबो देवी (राष्ट्रीय जनता दल) को महज 14577 मत मिले। सन 2005 और 2009 के विधानसभा चुनाव में झरिया बच्चा सिंह के हाथ से फिसलकर सूर्यदेव सिंह की पत्नी श्रीमती कुन्ती सिंह के हाथ आ गयी। श्रीमती सिंह को क्रमश 43% और 40 % मत मिले थे। सन 2014 विधानसभा चुनाव में झरिया का भार माता कुंती अपने पुत्र संजीव सिंह को दे दी।
अब तक सूर्यदेव सिंह का सिंह मैन्सन, जो कभी ‘जनता मजदूरों’ के ‘संघ’ के रूप में जाना जाता था, ‘भारतीय जनता पार्टी’ के नाम से अंकित हो गया था। यह पहला ‘वैचारिक’ और ‘राजनीतिक’ पतन था सिंह मैंशन का। सूर्यदेव सिंह के कालखंड में जहाँ सिंह मैंशन सत्ता के गलियारे में एक निर्णायक भूमिका अदा करता था, कालांतर में अशिक्षा, बेहतर सोच, बेहतर लोगों के साथ बात-विचार की कमी के कारण अपने अस्तित्व को समेटने लगा, टकटकी निगाहों से प्रदेश और देश के राजनेताओं की ओर देखने लगा। श्रीमती कुंती सिंह दोनों बार भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर ही चुनाव जीती थी। इतना ही नहीं, सूर्यदेव सिंह के पुत्र संजीव सिंह भी 2014 में भाजपा के नाम पर ही चुनाव जीते थे।
इधर समय बदल रहा था। सन 2014 के चुनाव में भाजपा के संजीव सिंह का टकराव कांग्रेस के अभ्यर्थी नीरज सिंह के साथ हुई थी। नीरज सिंह श्री राजन सिंह के पुत्र थे और श्री राजन सिंह सूर्यदेव सिंह के अपने सगे भाई थे। उस चुनाव में कांग्रेस के नीरज सिंह को भले 26 % मत पड़े थे और भाजपा के संजीव सिंह को 48 % मत, लेकिन टकराव आमने-सामने था। राजनीतिक लड़ाई इस कदर बढ़ी कि भाई-भाई का दुशमन हो गया। 21 मार्च 2017 को नीरज सिंह की हत्या हो गयी । कहते हैं उन्हें 67 गोलियां मारी गई थी। संजीव सिंह अपने चचेरे भाई नीरज सिंह की हत्या करने में दोषी पाए गए। वर्तमान में वे कारावास में हैं।
नीरज सिंह धनबाद के डिप्टी मेयर भी थे। उनकी हत्या के साथ साथ चार और लोगों की हत्या हुयी थी। विगत दिनों झारखण्ड उच्च न्यायालय ने संजीव सिंह की जमानत याचिका को रद्द कर दिया।झारखंड हाईकोर्ट के जस्टिस रंजन मुखोपाध्याय की अदालत ने संजीव सिंह की ओर से दायर जमानत याचिका पर तीन दिन पहले सुनवाई की थी। सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों को सुनने के बाद संजीव सिंह की जमानत पर फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। अदालत इस मामले में 28 अक्टूबर को अपना फैसला सुनाने की बात कही थी। सूर्यदेव सिंह की बात यहाँ गलत सिद्ध हो गयी – सभी भाई संवेदनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं।
नीरज सिंह की हत्या के बाद उनकी पत्नी पूर्णिमा नीरज सिंह ने राजनीति में कदम रखा। उन्हें उनके दादा गिरीश नंदन सिंह भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी का आशीष मिला अपने जीवन निर्माण में। वे एक शिक्षिका भी रहीं। संचार-संवाद के क्षेत्र में स्नातकोत्तर की उपाधि भी ली। अपने पति के जीवनकाल में शायद अपने जीवन के बारे में कुछ और सोची होंगी, लेकिन समय कुछ और चाहता था। कहते हैं कि 38-वर्षीय पूर्णिमा सिंह सामाजिक क्षेत्र में स्वामी विवेकानंद और ईश्वरचंद्र विद्यासागर को भी अपना आदर्श मानती हैं। वहीं साहित्य के क्षेत्र में विलियम वडर्सवर्थ , रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, विलियम शेक्सपीयर, जॉन मिल्टन और रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनके आदर्श हैं।
2019 के चुनाव में झरिया विधानसभा में पहली बार दो महिला यानी सिंह मैन्सन की दो बहुएं – जेठानी और देवरानी – एक साथ झरिया की राजनीति में अपनी-अपनी किस्मत आजमाई थी – रागिनी सिंह और पूर्णिमा नीरज सिंह। सूर्यदेव सिंह के ज़माने में झरिया में महिला मतदाता तो थी, बहुत सम्मान करते थे सूर्यदेव सिंह और उनके सभी भाई, कार्यकर्त्ता; लेकिन महिला राजनीति में नहीं थी। पुरुषों का प्रभुत्व था। सन 2019 के चुनाव में ही झरिया में सूर्यदेव सिंह गलत सिद्ध हो गए। परंपरा आज भी जारी है। अगर सांख्यिकी को देखा जाय तो 2019 के चुनाव में कांग्रेस की पूर्णिमा नीरज सिंह को 79786 मत मिले थे (50.34 फीसदी), जबकि भाजपा के श्रीमती रागिनी सिंह को कुल 67732 मत (42.73 फीसदी) मिले थे। 2014 विधानसभा चुनाव में संजीव सिंह 74062 मत प्राप्त कर विजय हुए थे। अब सवाल यह है कि क्या आगामी 20 नवम्बर, 2024 को होने वाले चुनाव में श्रीमती रागिनी सिंह अपने प्रतिद्वंदी को हराने के लिए पिछले चुनाव का 8+ फीसदी कम मत को पूरा कर आगे बढ़ पाएंगी? क्या पूर्णिमा नीरज सिंह पिछले पांच वर्षों में कुछ ऐसे कार्य किये जिससे झरिया के मतदाता पुनः उन्हें चुने ? सवाल बहुत बड़ा है।
बैंक मोड़ पर बैटरी से संचालित ऑटो चलने वाले ड्राइवर का कहना है कि ”आखिर सिंह मैन्सन के लोग ही झरिया से चुनाव क्यों जीतें ? क्या अन्य समुदाय के लोग इस योग्य नहीं हैं? सन 1977 से 2024 तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तो सिंह मैन्सन के लोग, कभी पुरुष, कभी महिला, कभी पुत्र तो कभी बहु – यही तो चुने गए हैं? ऐसा क्यों ? हम पिछले चार दशक से कभी रिक्सा चला रहे हैं, कभी चाय की दूकान चलकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने में सक्षम नहीं हो पाए। तभी वह मोबाइल पर उन लोगों के द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए संपत्ति का ब्यौरा दिखाते कहता है कि हम गलत हो सकते हैं, क्या यह दस्तावेज गलत है ?
रागिनी सिंह और पूर्णिमा सिंह कुछ आधारभूत फ़र्क़ है, शैक्षिक, पारिवारिक आदि। सबसे बड़ा फ़र्क़ है सामाजिक। एक तरफ़ पूर्णिमा सिंह जिस परिवार से आती हैं वह बहुत शिक्षित है। स्वयं भी अच्छी पढ़ी लिखी हैं। लेकिन रागिनी सिंह के साथ ऐसी बात नहीं है। वे सामान्य परिवार से आती हैं। शिक्षा में भी हाथ कमजोर है। सामाजिक दृष्टि से दोनों के पति हादसे के शिकार हुए। रागिनी सिंह के साथ हुई घटना – उनके पति राजीव रंजन सिंह संदिग्ध अवस्था में गायब हुए, पुलिस जांच-पड़ताल हुई, सीबीआई की भी जांच हुई, लेकिन नहीं मिले – के बाद सूर्यदेव सिंह का पूरा परिवार खड़ा हो गया। अपनी भाभी के सम्मानार्थ घर के सभी लोग उनका विवाह राजीव रंजन के छोटे भाई संजीव के साथ करा दी। संजीव सिंह झरिया के विधायक रह चुके हैं। साथ ही, वर्तमान में वे अपने चचेरे भाई नीरज सिंह की हत्या के मामले में जेल में हैं।
जबकि रागिनी सिंह साधारण किसान परिवार की बेटी हैं। वैसे लोगों का कहना है कि पिछले हार के बाद रागिनी सियासत के हर रंग को समझने लगी है। अपने पति के छोटे भाई सिद्धार्थ गौतम को मजदूर की राजनीति में पिता जैसा सबल बनाने की कोशिश कर रही है। इतना ही नहीं, रामाधीर सिंह की पत्नी इंदू देवी का आशीर्वाद लेने में भी कामयाब रही हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे अपनी जेठानी की राजनीतिक शतरंजी चाल को चुनाव में पछाड़ सकने में सक्षम हैं? क्योंकि सूर्यदेव सिंह और आज के समय में बहुत परिवर्तन हो गया है। दूसरी और तीसरी पीढ़ी के लोग मतदाता बन गए हैं। कागज पर ही सही, शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है, झरिया के लोग जब दूसरे शहरों में रोजी-रोजगार के लिए ही आते-जाते हैं तो उनकी सोच में बदलाव आया है। वैसी स्थिति में एक शिक्षित महिला और अशिक्षित महिला में प्रतिनिधि का चुनाव करना महत्वपूर्ण हो जाता है।
पीकेरॉय महाविद्यालय के एक पूर्व प्राध्यापक कहते हैं कि झारखंड में ८० विधान सभा की कुर्सी है। आप तो पुराने पत्रकार हैं, धनबाद के चप्पे चप्पे से वाक़िफ़ हैं। आख़िर भारत के संसद के लोग, राजनेता मंत्री धनबाद ही क्यों आते हैं? क्योंकि यहाँ पैसा है। चाहे विधायक हों या सांसद, सभी मतदाताओं को ठग रहे हैं। मतदाता भी निरीह है, गरीब है, अशिक्षित हैं। कोई भी नेता यह नहीं चाहता है. चाहे महिला हो या पुरुष, कि उसके क्षेत्र में शिक्षा को विकास हो। अगर शिक्षित होगा तो सोच बदलेगा – संभव है वह उनके पक्ष में मतदान नहीं करे।
जिला समाहरणालय में एक अधिवक्ता कहते है की जब तक हम वेदना और संवेदना राजनीतिक बाजार में बेचते रहेंगे राजनीति का यही हश्र होगा। उनका कहना है कि हम मतदाता की संवेदना के साथ खिलवाड़ करते आ रहे हैं। मतदाता के सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ते। उसे अपने मत का सही उपयोग करने का भी अधिकार नहीं देते। हम कब तक ऐसे ही प्रतिनिधि को चुनते रहेंगे जिनका क्षेत्र के विकास में शून्य का योगदान हो। नब्बे के दशक में रणधीर वर्मा की शहादत को भुनाया गया लोक सभा के चुनाव में। आज झरिया में हत्या की संवेदना को भुनाया जा रहा है। झरिया हो या धनबाद या अन्यत्र, हत्याएं सभी जगह होती है लेकिन क्या सभी हत्यारे को सजा मिल पाती है या भुक्तभोगी के परिवार को चुनाव में टिकट दिया जाता है। नहीं ना !! राजनीतिक पार्टियां गिद्ध जैसा देखती रहती है कब किसी नामी व्यक्ति की हत्या हो जिससे उसके घर के किसी सदस्य को पार्टी का टिकट देकर विधानसभा और संसद में अपनी संख्या बधाई जाय।
क्रमशः भाग-2