चाहे राजनीति हो, समाजनीति हो, संस्कृत हो, कला हो, पत्रकारिता हो, प्रशासन हो, मानवीयता हो ✍ कुमार गंगानंद सिंह का व्यक्तित्व बहुआयामी था 🙏 (भाग – 6)

कुमार गंगानन्द सिंह, आदित्यनाथ झा और सरिता झा

पूर्णिया / पटना : सत्तर के दशक के मध्य से अस्सी के दशक के उत्तरार्ध तक, जब तक पटना से प्रकाशित ‘आर्यावर्त-इण्डियन नेशन’ पत्र समूह में कार्य करता था, शायद ही कोई दिन ऐसा रहा होगा तब तत्कालीन सम्पादकों – दीनानाथ झा, हीरानंद झा ‘शास्त्री, परमानन्दन ‘शास्त्री’, रामजी मिश्र ‘मनोहर’, ‘काशीकांत झा, भाग्य नारायण झा, सीता शरण झा, ज्वालानंदन सिंह, कृष्णानंद झा, गजेंद्र नारायण चौधरी आदि और सम्पादकीय विभाग के शीर्षस्थ पत्रकारों के मुख से दो व्यक्तियों का नाम नहीं सुनते थे।

एक: कुमार गंगानन्द सिंह और दो: सुरेंद्र झा ‘सुमन’

सत्तर के दशक में जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘इंदिरा हटाओ – कांग्रेस हटाओं – गाय बछड़ा भगाओ – का नारा बुलंद हो रहा था, दरभंगा संसदीय क्षेत्र से कट्टर कांग्रेसी’, जो बाद में ‘जनसंघी’ हो गए, शिक्षक से पत्रकार हो गए, पत्रकार से फिर नेता, छठे लोक सभा में मिथिला के लोगों का नेतृत्व करने दरभंगा लोक सभा क्षेत्र से दिल्ली के लोक सभा में पहुंचें। उन दिनों अख़बार के पन्नों पर शायद ही कोई दिवस ऐसा रहता होगा, जब ‘सुरेंद्र झा ‘सुमन’ के बारे में, उनकी उक्तियाँ, उनकी छवि प्रकाशित नहीं होती थी। एक तो मैथिली साहित्य के हस्ताक्षर थे, दूसरे दरभंगा राज घराने से बेपनाह मजबूत सम्बन्ध रखते थे।

कुमार गंगानन्द सिंह एक कार्यक्रम में

सुरेंद्र झा ‘सुमन’ को दिल्ली के लाल कोठी और दरभंगा के लाल किला से जब भी समय मिलता था, पटना के मजहरुल पथ, यानी फ़्रेज़र रोड में केंद्रीय कारा के सामने ऐतिहासिक ‘दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड’, जो ‘आर्यावर्त’, ‘द इण्डियन नेशन’, ‘मिथिला मिहिर’ का प्रकाशक भी था; के प्रवेश द्वार से दूध जैसा सफ़ेद धोती, कुर्ता, पहले, कंधे पर द्वितीय-वस्त्र रखे, पैर में काले रंग का हाफ़ जूता, कभी-कभार हाथ में छाता लिए प्रवेश लेते थे। उनके प्रवेश के साथ ही, दफ्तर के अहाते में उनके गाँव, मोहल्ले के लोगबाग ‘आपका दर्शनाभिलाषी’ होने के लिए दोनों तरफ के भवनों के बरामदों पर एकत्रित दिखाई भी देते थे। “सुमन जी” आये हैं, “दरभंगा के सांसद हैं”, बहुत ‘विद्वान हैं’, ‘मैथिली साहित्य के हस्ताक्षर’ हैं ….. आदि-आदि बातें सुनने को मिलता था। मैं उन दिनों प्रूफ-रीडर-अनुवादक के पद पर कार्य करता था और ‘द इण्डियन नेशन’ के सम्पादकीय विभाग में मन-ही-मन एक बेहतर पत्रकार बनने का जीवंत-स्वप्न देख रहा था।

‘सुमन जी’ पत्रकारिता के क्षेत्र में मेरे गुरुदेव दुर्गानाथ झा (अब दिवंगत) को बहुत स्नेह करते थे। दुर्गानाथ जी ‘द इण्डियन नेशन’ अख़बार के बेहतरीन संवाददाता थे और वे दरभंगा के सी.एम. कालेज में पहले अंग्रेजी विभाग के और बाद में स्नातकोत्तर मैथिली विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर रमानाथ झा के पुत्र थे । ‘सुमन जी’ और रमानाथ बाबू की मित्रता उत्कर्ष पर थी। वे शिक्षक थे, लेखक थे, पत्रकार थे, राजनेता थे, मिथिला मिहिर के मुख्य संपादक भी थे, भारत छोडो आंदोलन के दौरान ‘स्वदेश’ मासिक पत्रिका में, फिर दैनिक स्वदेश में, वैदेही में पत्रकारिता में भी अपना योगदान दिए थे ।

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ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में मैथिली विभाग में ‘रीडर’ और विभागाध्यक्ष थे। बिहार राज्य साहित्यकार-कलाकार कल्याण समिति के सदस्य थे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में ‘परीक्षा और पाठ्यक्रम समिति के सदस्य थे। मैथिली अकादमी, साहित्य अकादमी के कार्यकारी सदस्य थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दरभंगा जिला संचालक थे। बिहार विधान परिषद्स के सदस्य थे .. न जाने क्या क्या थे। यह बात इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ कि बनैली राज पर लिखने के क्रम में जब श्रीनगर ड्योढ़ी के कुमार गंगानंद सिंह की चर्चा हुई, तो सुरेंद्र झा ‘सुमन’ की लेखनी को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है।

रंग, गुलाल, होली, हारमोनियम और कुमार गंगानन्द सिंह

वजह यह है कि 1987 में उन्हें साहित्य अकादमी की मैथिली परामर्श समिति द्वारा मैथिली साहित्य के उन्नेता-प्रणेता के रूप में कुमार गंगानंद सिंह के जीवन परिचय पर एक पुस्तक प्रस्तुत करने का प्रस्ताव दिया गया, जिसे वे गृहीत किये। उनके निकटस्थ होने के कारण यह दायित्व उन्हें सौंपा गया। अपनी ‘लेखकीय’ में उन्होंने जिक्र किया है कि ‘तत्काल स्वीकार तो कर लिया लेकिन जब लिखने की मनःस्थिति में आया तब चरित्र नायक के व्यक्तित्व-कृतित्व की व्यापकता देख सांख्यकारिका के कथनानुसार ‘अतिदुरात सामीप्यात’ अर्थात जिस तरह दूर-दराज रहने से बस्तु-बोध बाधित होता है, उसी तरह अत्यंत निकट होने पर भी प्राकृत निरूपण जटिल हो जाता है। क्या कहें, कितना कहें कितना छोड़ जाए, कितना जोड़ा जाए इसका निश्चय करने में मन द्विविधाग्रस्त (इतस्तत) हो शिथिल रहा।”

सुरेंद्र जी आगे कहते हैं: “दूसरी कठिनाई यह थी कि कुमार गंगानंद सिंह का व्यक्तित्व इतना बहुआयामी – राजनीति, समाजनीति, संस्कृत-कला, पत्रकारिता एवं प्रशासन में विकीर्ण था कि कुछ समेटते, छाँटते, सहितोन्मुखी प्रवृति को अलग करने में मन उलझा (अपस्यांत) रहा। उनका कृतित्व कुछ इस तरह की विविधता से, विस्तार की जटिलता से बोझिल था कि उस सुलझाकर कहने में कम परेशानी नहीं थी। इसी उधेड़बुन में समय बीतता गया। जब भी परामर्श समिति की बैठक हो, अगली बैठक से पूर्व प्रस्तुत करने की प्रतिश्रुति करते हुए भी पीछे रहा। इसके बावजूद अकादमी के बारम्बार अनुरोध से सारी शिथिलता को श्थल कर लिखने को विवश किया।”

‘सुमन जी’ के अनुसार: “कुमार गंगानंद सिंह एक रोबदार व्यक्तित्व के धनी थे और परिचय के बिना भी उन्हें एक प्रज्ञासम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में दूर से ही पहचाना जा सकता था। राज नेताओं से घिरे होने के बावजूद उनकी साहित्यिक छवि तथा अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए भी वे सामान्य समाज के लिए निरंतर आत्मीय बने रहे। वे एक बहुआयामी प्रतिभा संपन्न एवं दूर-दृष्टि कृति व्यक्तित्व थे। शिक्षा, राजनीति, समाज शास्त्र और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उनकी सेवाओं को सदैव याद किया जाता रहा है। मिथिला तथा मैथिली का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहाँ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की छाप नहीं पड़ी हो। बिहार के अभिजात वर्ग के अंतिम प्रतिमान के रूप में विख्यात कुमार साहेब के बारे में यह मिथक प्रचलित रहा कि उन्होंने जो कुछ लिखा वह साहित्यिक थाती बन गई। साथ ही, यह धरना भी व्यक्त की जाती रही कि विभिन्न क्षेत्रों में उन जैसी लोकप्रियता देश के कम ही लोगों को प्राप्त हुई है।”

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कुमार गंगानन्द सिंह एक कार्यक्रम में

बहरहाल, बनैली राज के गिरिजानन्द सिंह जी के अनुसार, राजा कमलानन्द सिंह के बड़े पुत्र कुमार गंगानंद सिंह का जन्म 24 सितम्बर, 1898 को हुआ। परिवार की बिगड़ती आर्थिक दशा देखकर कुमार साहब ने दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के सचिव का पद ग्रहण करना स्वीकार किया। सं 1923 में कुमार गंगानंद सिंह ने राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश किये । उस समय वे भारतीय-व्यवस्था-सभा में पूर्णियां, भागलपुर और संथाल परगना के प्रतिनिधि सदस्य के रुप में चुने गये। सन 1928 ई0 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस के मंत्री पद पर चुने गये। सन 1939-1941 के बीच हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बाद में, 1954 ई0 में वे बिहार विधान परिषद के नामांकित सदस्य बने और 1960 ई0 में एम0 एल0 ए0 के रुप में प्रतिष्ठित हुए। 1962 ई0 में वे बिहार के शिक्षा मंत्री बने।”

गिरिजानंद सिंह कहते हैं : “अपने चाचा कुमार कालिकानंद सिंह, राजा कीर्त्यानंद सिंह और मालद्वार के राजा टंकनाथ चौधरी के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैथिली भाषा की पढाई आरम्भ करवायी और उसका पोषण किया वह सदैव अविस्मरणीय रहेगा। श्रीनगर का बुनियादी विद्यालय जो बाद में उच्च विद्यालय में परिणत हुआ और संस्कृत विद्यालय कुमार गंगानंद सिंह की देन है।

कुमार गंगानंद सिंह विशेषकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा के लिये जाने जाते हैं। हिन्दी में उनके द्वारा लिखित ‘युकिलिप्टस’, ‘द्वितीय भोज’, साहित्य सरोज कवि कुलचंद्र श्रीनगर राज्याधिपति राजा कमलानंद सिंह, भारतेन्दु स्मृति, महाराजाधिराज के साथ, बाल्मीकि का अपने काव्य में आत्मप्रकाश और विद्यापति के काव्य का ‘भक्तिपक्ष’ नामक आलेख प्रसिद्ध हुए। मैथिली में उनकी निम्नलिखित रचनायें हैंः जीवन संघर्ष, आमक गाछी, पंच परमेश्वर, पंडित पुत्र, मनुष्यक मोल, बिहाड़ि, विवाह, अगिलहि, आह्वान, निबन्धक प्रगति, मैथिली साहित्यक विकास, राष्ट्रीय एकताक महत्व और सतरहम ओ अठारहम शताब्दीक मैथिली नाटक।

गिरिजानंद सिंह

गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि कुमार गंगानंद सिंह सन 1966 ई0 में दरभंगा के कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति बने। परन्तु इस कालखंड के महज चार साल बाद, जान गणतंत्र भारत अपने गणतंत्र की स्थापना का 20-वर्ष मनाने वाला था, कुमार गंगानंद सिंह १७ जनवरी, 1970 को अंतिम सांस ले लिए।

गिरिजानंद सिंह के अनुसार, राजा वेदानंद सिंह कुमार रुद्रानंद सिंह और राजा वेदानंद सिंह के आपसी बंटवारे के बाद रुद्रानंद सिंह अपने पिता की बनैली-ड्योढ़ी में ही रहते रहे। उनकी मृत्यु के कुछ दिनों के बाद ही बनैली बाढ़ ग्रसित हुआ और उसके पश्चात् भयंकर महामारी फैली जिसके फलस्वरूप रुद्रानंद सिंह के एकमात्र बेटे श्रीनंद सिंह को बनैली छोड़कर एक नए स्थान पर जाना पड़ा जिसका नाम श्रीनगर रखा गया। बनैली घराने की यह शाखा श्रीनगर राज कहलायी।

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गिरिजानंद जी कहते हैं कि “1880 ई0 में 34 वर्ष की अल्पायु में ही श्रीनंद सिंह की मृत्यु हो गयी। जिस समय उनकी मृत्यु हुई, उनके इस्टेट की वार्षिक आय 2 लाख 68 हजार थी। श्रीनंद सिंह के तीन पुत्र हुए, नित्यानंद सिंह, कमलानंद सिंह और कलिकानन्द सिंह । आपसी अनबन के कारण कुमार नित्यानंद सिंह अपना हिस्सा लेकर दोनों सौतेले भाइयों से अलग हो गए और बगल के गाँव तारा नगर में उन्होंने अपनी ड्योढ़ी बनायी। वे अत्यधिक खर्च करने लगे और गले तक कर्ज में डूब गये। अंत में उनका इस्टेट नीलामी के कगार पर पहुँच गया। शुरु में कुमार कमलानंद सिंह और कुमार कालिकानंद सिंह का इस्टेट कोर्ट ऑफ़ वार्डस के अधीन था और दोनों कुमारों के बालिग होने पर जब इस्टेट, कोर्ट से मुक्त हुआ तब उसकी आर्थिक हालत काफी अच्छी थी। लेकिन कमलानंद सिंह बड़े खर्चीले स्वभाव के थे । अपने मैनेजर मिस्टर वेदरॉल के मना करने के बावजूद उन्होंने 1900-01 ई0 में दरभंगा राज्य से 3.5 लाख का कर्ज लिया।

कुमार गंगानन्द सिंह

कहते हैं, इतना ही नहीं, यह जानते हुए कि कर्जे से लदा हुआ नित्यानंद सिंह का इस्टेट निलामी के कगार पर खड़ा था, कुमार कमलानंद सिंह और कालिकानंद सिंह ने कर्ज सहित वह इस्टेट खरीद लिया और उक्त इस्टेट खरीदने के लिए इन लोगों ने राज बनैली से और कर्ज ले लिया। बाद में मुंगेर के राजा रघुनंदन प्रसाद सिंह से भी एक बड़ी रकम कर्ज में ली गयी। इस प्रकार कर्जो का एक सिलसिला चला जो अंततः श्रीनगर इस्टेट के लिए घातक सिद्ध हुआ।

राजा कमलानंद सिंह हिन्दी के प्रख्यात लेखक और कवि थे। राजा कमलानंद सिंह और उनके अनुज कुंवर कालिकानंद सिंह के दरबार में तत्कालीन युग के लगभग सभी कवियों और लेखकों को संरक्षण और अर्थाश्रय प्राप्त था । उनकी रचनाओं में प्रमुख हैः व्यास शोक प्रकाश, दुष्यन्त के प्रति शकुन्तला का प्रेमपत्र, आलोचक और आलोचना, महामहोपाध्याय कविवर विद्यापति ठाकुर, वीरांगना काव्य, वोट पचीसी, एडवर्ड बतीसी और हैजा स्तोत्र।

कहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य काल में उन्होंने एक जमींदार होने के बावजूद बंकिमचन्द्र के क्रांतिकारी उपन्यास आनंद-मठ का हिंदी में अनुवाद किया था। कानपुर की रसिक कवि सभा ने इन्हें साहित्य-सरोज की उपाधि दी थी। कुमार कालिकानंद सिंह ने, निलामी के कगार पर खड़े अपने इस्टेट को अपने अथक प्रयास से अधिक समय तक बचाकर रखने की कोशिश की। 1930 ई0 में कुमार कालिकानंद सिंह की मृत्यु हो गयी।

क्रमशः

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