कोशी का काशी : पानी “आँख” का हो या “पोखर” का, सभ्यता और संस्कृति के प्रति हमारी ‘वेदना-संवेदना’ का जीवंत दृष्टान्त है (भाग-1)

'पानी' आँख' का हो या 'पोखर' का सभ्यता/संस्कृति के प्रति हमारी वेदना-संवेदना का जीवंत दृष्टान्त है , बाबा लक्ष्मी नारायण गोसाईं के मंदिर से बीस हाथ दूर स्थित इस ऐतिहासिक पोखर का किनारा आप सभी से कुछ कह रहा है

बनगाँव (सहरसा, बिहार): राजा दक्ष का काशी और कोशी का काशी में एक आधारभूत अंतर है। दक्ष के काशी में गंगा-तट के सभी चौरासी घाट (अस्सी घाट से राजघाट तक) एक-दूसरे का हाथ मुद्दत से पकड़े हैं, ताकि दर्शनाभिलाषी सहित ईश्वर को गंगा तट पर भ्रमण-सम्मलेन करने में कोई कष्ट नहीं हो। आने वाले समय में अपनी इसी ‘चारित्रिक विशेषता’ के कारण काशी का यह गंगा-किनारे का दृश्य यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साईट में दर्ज होने वाला है। जबकि कोशी का काशी में कोई तीन सौ साल से अधिक पुराना इस ऐतिहासिक पोखर का चारो किनारा आज तक एक-दूसरे का हाथ थामने के लिए तरस रहा है। अब तो पोखर का ‘अस्तित्व’ पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहा है। किनारों का विश्वास भी चकनाचूर होने लगा है।

वजह: बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं की ईश्वरीय कुटिया के सामने उस पोखर में लोग दीर्घशंका के बाद स्वयं को निवृत्त करने लगे हैं। यह बनगाँव की संस्कृति और आध्यात्म नगरी के चरित्र के विपरीत है। ऐसा होना नहीं चाहिए था। कोशी का काशी के लोग माने अथवा नहीं, हकीकत तो यह है कि आज बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं के ‘बनगाँव’ का जो भौगोलिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, धार्मिक स्थिति है, वह स्थिति नहीं होनी चाहिए थी।

बनगाँव का स्थान आज न केवल मानवीय दृष्टि से भारत के मानचित्र के उत्कर्ष पर होना चाहिए था, बल्कि धार्मिक-बौद्धिक-आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के 130 करोड़ लोगों का ‘कष्ट निवारक’, ‘पथ-प्रदर्शक’ स्थान भी होना चाहिए था। इसे तो आधुनिक भारत का सबसे उच्च श्रेणी का आध्यात्मिक-केंद्र होना चाहिए था। हठ-योगियों का बिंदु-स्थल होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

यह लिखते अन्तःमन में पीड़ा महसूस कर रहा हूँ कि इस स्थान में जन्म लिए बच्चे विगत तीन शताब्दियों में ‘मानव’ से ‘महामानव’ हो गए हों, शिक्षा के क्षेत्र में, प्रशासन के क्षेत्र में, ज्ञान के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में, विधि के क्षेत्र में, विज्ञान के क्षेत्र में भले ही हस्ताक्षर तो हो गए हों; लेकिन बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं की भूमि के प्रति उनका जो लगाव होना चाहिए था, इस भूमि का जो ऐतिहासिक विकास होना चाहिए था, वह नहीं दिखा। बाबा गोसाईं के कुटिया से कोई बीस हाथ की दूरी पर स्थित पोखर का यह क्षत-विक्षत किनारा इसका गवाह है।

समय दूर नहीं है जब भारत के मतदाता इस बात की अपेक्षा करेंगे कि चुकी वे राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को मत देते हैं, जिससे वे चुनाव जीतकर मंत्री-मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री बनते हैं; अतः उनका (राजनेताओं) कर्तव्य है कि वे चुनाव के बाद, विजय होने के बाद भारत के मतदाताओं के घरों में, गांवों में, प्रखंडों में, कस्बों में, अंचलों में, जिलों में घुम-धुमकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करें। और वे (मतदाता) खैनी-गुटका खाते, सड़कों-दीवारों पर थूकते सरकारी कार्यों, क्रियाकलापों पर आलोचना करते रहें, बिना किसी बाधा के।

समय दूर इसमें भी नहीं है कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था, चाहे जिला सत्र न्यायालय हो अथवा प्रदेश का उच्च न्यायालय या फिर देश का सर्वोच्च न्यायालय, देश के विधान पालिका, कार्यपालिका और सरकार के प्रशासनिक कार्यों का दैनिक-आधार पर दिशा-निर्देश करते, आदेश पारित करते थक जाय; लेकिन ‘हालात’ सुधरने का नाम नहीं ले। लोगों की सोच ‘स्वहित’ में भले आसमान छू ले, सामाजिक तौर पर उत्तरोत्तर कुंठित होता जाय।

वजह यह है कि मतदाताओं से लेकर, व्यवस्था में बैठे लोगों से लेकर, व्यवस्था और कानून के अधीन कार्यों को सम्पादित करने वाले अधिकारियों तक, सभी प्रदेश और देश के विकास की अपेक्षा ‘स्वहित के विकास’ पर अधिक ध्यान देते हैं। परिणाम यह होता है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग उपेक्षित रह जाता है, जिसका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाज की आर्थिक, राजनीतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के अतिरिक्त धरोहरों पर पड़ती है और हम, हमारी सोच मजबूत होने के बजाय, कमजोर और कुंठित होती चली जाती है। यह पोखर गवाह है।

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बाबा लक्ष्मी नारायण गोसाईं मंदिर

बिहार में कोशी का काशी कहा जाने वाला ‘बनगाँव’ स्थित बाबा लक्ष्मी नारायण गोसाईं मंदिर के बाएं हाथ पर सदियों से स्थित यह पोखर चश्मदीद गवाह है। यह पोखर तीन सौ साल पहले बाबा के क्रिया-कलापों का जहाँ एकमात्र चश्मदीद गवाह है, वहीँ आज अपनी अपेक्षाओं को भी देख रहा है। बाबा के मंदिर परिसर में एक ओर जहाँ चतुर्दिक बड़े-बड़े बैठकी, मंदिर का निर्माण संगमरमर पत्थरों से हो रहा है, कोई बीस कदम बाएं हाथ पर स्थित यह पोखर अपने पौराणिक अस्तित्व के साथ चारो तरफ से पानी में समाहित हो रहा है – यह दुखद है। अगर बाबा के परिसर में इतने ‘विशालकाय मंदिर’ का निर्माण हो सकता था, तो इस सांस खींचते पोखर का भी भाग्योदय हो सकता था।

लेकिन विगत दिनों तीस वर्ष बाद जब इस पोखर के पास बैठा तो स्वयं पर ग्लानि हुई – हम किस उत्थान की बात कर रहे हैं।साठ-सत्तर के दशक में बाबूजी जब पटना से ट्रेन के रास्ते सहरसा, सुपौल के पुस्तक विक्रेताओं को किताब देने आते थे, वे बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं का दर्शन कर, तारापीठ में भगवती का दर्शन कर अपनी दुःखद कथा-व्यथा सुनाते थे।

कहते हैं परंपरा और संस्कृति को जीवित रखने के लिए पोखर-तालाब और पानी को बचाना नितांत आवश्यक है। क्योंकि ‘पानी’ चाहे ‘आँख’ का हो या पोखर और तालाब या कुआँ का, सभ्यता और संस्कृति के प्रति हमारी वेदना-संवेदना का जीवंत दृष्टान्त होता है। समय बदल रहा है – तालाब, पोखर, कुआं अब ‘चापा कल’ में तब्दील हो रहा है। चापा कल से भी आगे की पीढ़ियां लोगों के रसोईघरों में ‘नल’ के रूप में विराजमान हो गया है। पानी अब सार्वजनिक न होकर, ‘एकल’ हो रहा है।

लेकिन लोग शायद इस बाद को नजर अंदाज कर रहे हैं कि पानी के इन आधुनिक स्रोतों से हम प्यास बुझा सकते हैं, दैनिक क्रिया-कलापों से निवृत हो सकते हैं – संस्कृति और सभ्यता नहीं बचा सकते हैं। दादी-नानी की कहानी, बाप-पुरखों की कहानी कहने के लिए पोखरों, तालाबों, कुओं की ही जरुरत होगी, अगर अपनी अगली पीढ़ियों को उनके बारे में बताना चाहें। क्योंकि आज गाँव से शहरों में बसे लोग अपने गरीब, अशिक्षित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी अथवा अन्य सगे-सम्बन्धियों के बारे में चर्चा करना अपने ‘आधुनिक व्यक्तित्व के विरुद्ध’ समझते हैं। शहरी बाबू और उनके आधुनिक परिवार के लोग इस बात को भूल जाते हैं कि ‘उनके अशिक्षित माता-पिता-परिजनों के कारण ही वे शिक्षा के उत्कर्ष पर पहुँच पाए हैं।” खैर।

ज्ञानी-महात्माओं से लेकर प्रशासन और समाज के विद्वान-विदुषीगण तक, सभी ‘जल की महत्ता’ को बताते आज भारत के गांव में, शहरों में थकते नहीं। कोई कहते हैं ‘जल ही जीवन है’ तो कोई ‘हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है – पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश – और किसी भी सजीव के लिए जीवन के लिए इन पांच तत्वों की आवश्यकता होती है। कहीं इन ‘पञ्च तत्वों’ का ‘राजनीतिकरण’ हो रहा है तो कहीं ‘संस्कृतिकरण’; कोई ‘आध्यात्म’ से जोड़कर ‘स्वयंभू विधाता’ बन रहा है तो कोई इन शब्दों का बाजारीकरण कर अर्थोपार्जन कर रहा है।

बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं के बारे में लिखने का सामर्थ मुझमें नहीं है। लेकिन अगर लोग-बाग़ का माने तो सनातन धर्म का दृष्टान्त देते कहते नहीं थक रहे हैं वे कि हम जल को ही नहीं, उन सभी पांच तत्त्व कि पूजा करते है जिससे हमारा शरीर बना है। हम सभी को इन पांच तत्वों की पूजा और संरक्षण करना चाहिए। हम एक दूसरे के पूरक है। यह भी कहते सुनते हैं कि हम जल से ही जीवन प्राप्त करते हैं। जल ही आधार है जीवन का । जल के बिना हम जीवन की कल्पना भी नही कर सकते । लेकिन तीन पंचायत और तक़रीबन 50000 से अधिक आवादी वाले कोशी की काशी में, वह भी बाबा गोसाईं के आश्रम से बीस कदम की दूरी पर स्थित इस ऐतिहासिक और पुरातात्विक पोखर की वर्तमान दशा को देखकर मन दुःखी हो गया।

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बाबा लक्ष्मी नारायण गोसाईं मंदिर से बीस हाथ दूर स्थित इस ऐतिहासिक पोखर

बाबा के मंदिर और पोखर के बीच सहरसा और कोशी पर बने नए पुल को जोड़ने वाली सड़क, जो भारत राष्ट्र के द्वितीय शंकराचार्य मंडन मिश्र-भारती की महिषी और तारापीठ को भी जोड़ती है; के किनारे एकत्रित गंदगियों के पास सब्जी बेचती महिला के पास खड़े कुछ लोग तो यह भी कह दिए कि “इस पोखर का पानी का उपयोग बाबा के मंदिर अथवा सामने नवनिर्मित राधा-कृष्ण मंदिर में नहीं किया जाता है। चापा कल अंदर है। उसी पानी का इस्तेमाल लोग करते हैं।”

अब उन महाशयों को कौन समझाए कि “चापा कल के पानी से बनगाँव के लोग, दर्शनाभिलाषी, पुजारी-पुजारन अपने इष्ट के सामने पूजा-अर्चना कर सकते हैं; लेकिन इस गाँव की ऐतिहासिक महत्व को, यहाँ की आध्यात्मिक संस्कृति को, बाबा के गौरव गाथा को बचाने की शक्ति चापाकल के पानी में नहीं है।” सुनते हैं इस गाँव में ‘शिक्षित, विचारवान, धर्मशास्त्रियों, समाज-सुधारकों की किल्लत नहीं नहीं।

शायद बनगाँव के लोगों को यह ज्ञात होते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी भारत भर में झीलों और अन्य सार्वजनिक पोखरों, तालाबों, कुओं की वर्तमान भयानक स्थिति से पीड़ित है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार यह माना है कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए, संस्कृति, सभ्यता और मानवता को बचाने के लिए ऐसे ऐतिहासिक तालाबों, पोखरों को संरक्षित किया जाना अति-आवशयक है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए न केवल जल सुरक्षा का निर्माण किया जा सके, बल्कि पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत को भी बरकरार रखा जा सके। लेकिन यह ज्ञात नहीं हो पाया कि संस्कार, आचरण, सामाजिक कर्तब्य-बोध हेतु विगत 130 वर्षों से चली आ रही बनगाँव धर्मसभा में इन विषयों पर चर्चा होती है अथवा नहीं। इस धर्मसभा का प्रारम्भ सन 1891 में हुआ।

हिंच लाल तिवारी बनाम कमला देवी व अन्य (अपील-सिविल 2001/4787) के मामले में माननीय न्यायालय ने कहा था कि “यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि समुदाय के भौतिक संसाधन जैसे जंगल, तालाब, पहाड़ी, आदि प्रकृति की देन हैं। वे नाजुक परिस्थिति का संतुलन बनाए रखते हैं। उन्हें एक उचित और स्वस्थ वातावरण के लिए संरक्षित करने की आवश्यकता है जो लोगों को एक गुणवत्तापूर्ण जीवन का आनंद लेने में सक्षम बनाता है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकार का सार है।”

इसी तरह जगपाल सिंह और अन्य वनाम पंजाब राज्य और अन्य (सिविल अपील संख्या 1132/2011) में माननीय न्यायालय ने झीलों/तालाबों के प्रबंधन और संरक्षण के संबंध में कानून और व्यवहार की व्याख्या को सार्वजनिक रूप से मौलिक रूप से निर्धारित किया है। इसके अलावा, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए ऐसे जल निकायों के संरक्षण के कार्य पर विचार करते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि : “इस आदेश की एक प्रति भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सभी मुख्य सचिवों को भेजी जाए जो इस आदेश का कड़ाई से और शीघ्र अनुपालन सुनिश्चित करेंगे और समय-समय पर इस न्यायालय को अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।”

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न्यायालय ने आगे निर्देश दिया है कि “… इस न्यायालय के समक्ष समय-समय पर (हमारे द्वारा निर्धारित तिथियों पर) सूचीबद्ध किया जाए, ताकि हम यहां अपने निर्देशों के कार्यान्वयन की निगरानी कर सकें।” अब सवाल यह है कि अगर देश के पेड़-पौधे, जल, पहाड़, तालाब, पोखर, कुआं, खेत-खलिहान, मंदिर, मस्जिद, चर्च, गिरजाधर आदि के रख-रखाव के बारे में भी लोगों को, प्रशासन को आदेश दे, हिदायत दे – फिर भारत में प्रचलित शिक्षा का क्या अर्थ?

अगर शिक्षा के प्रचार-प्रसार से, पढ़ने-लिखने से हमारी सोच में ‘सकारात्मक बदलाव’ नहीं आए, हम ‘स्वहित’ के स्थान पर ‘सार्वजनिक’ सोच को नहीं चुनें (बिना किसी राजनीतिक लाभ के), अपनी संस्कृति, अपनी विरासत, अपने समाज के घरोहरों को बचाने की दिशा में अग्रमुख नहीं हो – तो फिर वैसी शिक्षा या शिक्षित होना किस काम का। अब चाहे जिला-स्तर से लेकर पटना स्थित सचिवालय के दफ्तरों में रखे फाइलों में बिहार में पुरुषों साक्षरता 73% लिखा रहे, महिला की साक्षरता 60% लिखा रहे – सब बेकार है। तभी तो देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा: “सोच बदलो – देश बदलेगा।”

बहरहाल, मिथिला को तालाबों की भूमि कहा जा सकता है। दरभंगा जिले में 9115 और मधुबनी जिले में 10,746 तालाब था । इसी तरह, उत्तरी बिहार के सहरसा, सुपौल, सीतामढ़ी, समस्तीपुर और अन्य जिलों में तालाबों की संख्या 5000 से 9000 तक थी । तालाब का क्षेत्रफल लगभग 1 एकड़ से 150 एकड़ तक था । तालाब की खुदाई एक बहुत ही पवित्र और धार्मिक कार्य माना जाता है। एक तालाब की खुदाई के बाद, उसके उत्खनन द्वारा सभी जीवित प्राणियों को उनके अस्तित्व और पानी की आवश्यकता के लिए समर्पित किया जाता है। सभी जीवित प्राणियों के लिए एक तालाब के उत्सर्ग के समय, खुदाई करने वाला स्पष्ट रूप से और विशेष रूप से मानव, पशु, पक्षी, कीट और प्रजातियों के नाम का जाप करता है जो पानी में जीवित रहते हैं।

इस तरह, समुदाय कृषि भूमि की सिंचाई, नहाने और धोने के लिए, और सुरक्षित पीने के पानी के साथ-साथ अपने मवेशियों को स्नान करने के लिए पानी उपलब्ध कराने के लिए एक तालाब पर प्रथागत अधिकारों की सदियों पुरानी परंपरा का प्रयोग करता है। वर्धमान उपाध्याय ने तालाब के धार्मिक अनुष्ठान के लिए ‘तारगमृतलता’ और ‘जलाशयदिवस्तुपद्धति’ लिखे। इन किताबों के अनुसार किसी को अपनी परंपरा और संस्कृति किआ चची प्रथाओं और विचारों को न केवल संरक्षित करने की आवश्यकता है, बल्कि कालांतर तक उसे बढ़ावा भी देना चाहिए। तालाब-पोखर बनाने वाले हमेशा ही त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश – को साक्षी मानकर संसार के सभी जीवित प्राणियों को समर्पित करता है।

परन्तु, हालात आज कष्टदायक है। मिथिला में आज तालाबों, पोखरों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। तालाब-पोखरों का अस्तित्व आज भूमि/तालाब माफियाओं, अपराधियों, लालची और भ्रष्ट व्यक्तियों के बीच गठजोड़ के कारण खतरे में है। आज पचास से अधिक फीसदी तालाबों को पूरी तरह से समतल कर दिया गया है।  उस स्थान पर आज मकान, होटल, दुकानें, व्यावसायिक परिसर, निजी अस्पताल, कोचिंग सेंटर और कार्यालय बनाए गए हैं।

एक तालाब का जल क्षेत्र विभिन्न प्रकार की मछलियों, केकड़ों, घोंघे, कीड़े, कछुआ, सांप और मेंढक के अलावा, जल-खरपतवार और घास के रहने और जीवित रहने के लिए जगह प्रदान करता है। कहा जाता है कि तालाब द्वारा प्रदान की जाने वाली छोटी मछलियों और कीड़ों से 70 से 80 प्रकार के पक्षी भोजन करते हैं। अंततः सवाल यह है कि अगर बनगाँव की आवादी 50000 है, सभी धनाढ्य हैं, शिक्षित हैं, विचारवान हैं – तो अगर 100 ईंट, सीमेंट, बालू, लोहे का ‘दान’ कर देते तो बाबा लक्ष्मीनारायण गोसाईं का, बनगाँव का यह ऐतिहासिक पोखर जीवित हो जाता – उन्हें आशीष तो देता ही। 

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