संसद मार्ग के नुक्कड़ पर चाय की दूकान पर बैठा वह 80 वर्षीय वृद्ध नरेंद्र मोदी को कहता है: सांसद निधि बंद करें, परिजीवियों को हटाएँ, तभी 2029 और 2034 का सपना देख सकते हैं…

हे राम

संसद मार्ग (नई दिल्ली) : विगत वर्ष 2023 तक दिल्ली सल्तनत में ही नहीं, भारतवर्ष की सडकों पर, गली-कूचियों में, सामाजिक क्षेत्र के मीडिया घरानों पर चतुर्दिक पढ़ने, सुनने को मिलता था “मोदी है तो मुमकिन है।” परन्तु विगत 4 जून, 2024 को जब 18 वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम आया तो अचानक एक सवाल आया कि “मोदी जी अकेले कितना मुमकिन कर सकते हैं? उनके चारो तरफ तो ‘परजीवी’ चिपके हैं। यहाँ तो उनके चेहरे पर परजीवी के रूप में नेताओं के साथ-साथ लाखो-करोड़ों लोग चिपके हैं, जिनका अपना कोई वजूद नहीं है मतदाताओं की नजरों में। यही कारण है कि 17वीं लोकसभा में जो सम्मानित सांसद महोदय इत्र-परफ्यूम से नहाकर नए संसद भवन में विराजे थे, नया संसद भवन में उनका पैर ‘शुभ’ नहीं हुआ उनके लिए। कई दर्जन कर्तव्यपथ से दूर फेंके चले गए। उनके नामों के आगे ‘भूतपूर्व’ लग गया। हाँ, उन्हें ‘सेवानिवृति कोष’ (पेंशन) अवश्य मिलता रहेगा। 

लेकिन कल संसद मार्ग पर पर स्थित प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया और श्रमशक्ति भवन के पीछे ‘आम आदमियों के मुख से जब सुना’ तो “मोदी है तो मुमकिन है” का नारा एक बार फिर “प्रश्नवाचक चिन्ह” लगा दिया। क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर  पत्थर पर बैठकर, दो बिस्कुट और चाय पीकर अपना और अपने परिवार का जीवन यापन करने वाला भारत का एक ‘आम मतदाता’ कभी गलत नहीं हो सकता है। यह बात अलग है कि दिल्ली ही नहीं, भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यालयों में वातानुकूलित कक्षों में बैठकर ‘अशिक्षित’, ‘अनपढ़’, ‘सामाजिक सरोकार से मीलों दूर’ रहने वाले समाज के तथाकथित संभ्रातों की बातों पर सम्मानित प्रधानमंत्री अधिक विश्वास करते रहे हैं, कर रहे हैं। इतना ही नहीं ये सभी लोग ‘ठेकेदारी’ प्रथा के तहत ‘कार्य करने’ और ‘गुणगान’ करने हेतु लाये होते है। अब सम्मानित मोदी जी को कहाँ इतनी फुर्सत है कि वे इस बात की तहकीकात करें कि कौन ‘अपना’ है और कौन ‘ठेका’ पर आया है। 

Rs. 65,315Cr. ‘भ्रष्टाचारी घोटाला’ है, 4549 विधायक/793 सांसद ‘निधि’ के रूप में

बहरहाल, कोई अस्सी वसंत देखे, या यूँ कहें कि स्वतंत्र भारत के प्रथम आम चुनाव से 18 लोकसभा चुनाव तक उत्तर प्रदेश और दिल्ली सल्तनत में मतदान का साक्षात्कार किये एक वुजूर्ग के मुख से जब सुना कि “किसी काम को संपन्न करने के लिए ‘संख्या’ नहीं ‘कलेजा’ चाहिए और सम्मानित प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को अगर 2029 और 2034 लोकसभा का चुनाव जीतना है तो उन्हें भारत के सांसदों और विधायकों को उनके संसदीय और विधानसभा क्षेत्र के विकास के नाम पर दी जाने वाली निधि को बंद करना होगा। उन्हें वास्तविक रूप से अपना कलेजा दिखाना होगा। स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में वे अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिए हैं, तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेकर गोदना गोदा दिए हैं। इस अभिलेख (रिकार्ड) को तोड़ने में भारत के नेताओं को कई दशक लग जायेंगे। अतः देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए शुरुआत उन्हें संसद से करना होगा, सांसदों को मिलने वाली निधि को समाप्त करना होगा। 543 संसदीय क्षेत्रों से आने वाले सांसदों को अपने-अपने क्षेत्रों में अपना चेहरा बनाना होगा। यह न केवल भ्रष्टाचार को समाप्त करेगा, बल्कि एक मजबूत प्रजातंत्र का भी निर्माण करेगा। इतना ही नहीं, मोदीजी को सबसे पहले भाजपा के नाम पर, उनके नाम के साथ, चेहरे के साथ चिपके परजीवियों को हटाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो 2029 क्या 2034 तक भी रहेंगे, अन्यथा……..”

लम्बी सांस लेते भारत का वह मतदाता कहता है: “चलो, 2014 में भले जनता के बैंक लेखा में 15-15 लाख रूपये काला धन नहीं आया हो …. सम्मानित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली 18 लोकसभा में राष्ट्रहित में सबसे बड़ा फैसला उन्हें लेना होगा – लोकसभा और राज्यसभा के सभा सांसदों को उनके संसदीय क्षेत्र के विकास के नाम पर जो 25 करोड़ प्रत्येक मिलता था, बंद कर दें। साथ ही, राज्यों के मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्षों से भी कहें कि वे इस दिशा में ठोस कदम उठायें। राज्यों सहित देश के सभी संसदीय एयर विधान सभा क्षेत्रों के सम्पूर्ण विकास का जबाबदेही सरकार की होनी चाहिए और सरकार सभी 806 जिलों के जिलाधिकारियों के माध्यम से विकास का कार्य कराये – विश्वास के साथ। सोचने लगा की देश में भ्रष्टाचार रोकने का यह सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र होगा। 

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उस मतदाता की बात को मुद्दत पहले लोकसभा के पूर्व (अब दिवंगत) अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि सांसद निधि भ्रष्टाचार का जड़ है, इसे तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया जाय। लेकिन कौन सुनता है।आखिर संसद में, चाहे लोकसभा हो या राज्य सभा, या फिर राज्यों के विधान सभाओं और विधान परिषदों में बैठे सम्मानित विधायकगण हों, कोई क्यों चाहेगा ‘सरकारी धन के स्रोतों को बंद करना ?”

देश के सभी राज्यों में से सिर्फ छह राज्यों में विधान परिषद है। मसलन आंध्र प्रदेश में 58 विधान परिषद के विधायक हैं। बिहार में 75, कर्नाटक में 75, महाराष्ट्र में 78, तेलंगाना में 40 और उत्तर प्रदेश में 100 विधायक विधान परिषद के हैं। यानी इन छह राज्यों को मिलकर विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 426 है। यानी 426+4123 = कुल 4549 विधायक हैं। राज्यों में विधायकों को प्रतिवर्ष अपने-अपने विधान सभा क्षेत्रों के विकास के लिए 2 करोड़ रुपये मिलते हैं। यानी सरकारी कोषागार से 4549 x 2 करोड़ प्रतिवर्ष = 9098 करोड़ प्रतिवर्ष। देश में कितना भी राजनितिक उठापटक होता है, राज्यों का विधान सभा जोड़-तोड़ कर पांच साल चलता ही है। अतः 9098 करोड़ रुपये x 5 वर्ष = 45,490 करोड़ रुपये विकास के नाम पर विधान सभा और विधान परिषद् के सम्मानित सदियों को दिया जाता है। 

अब गणित पर ध्यान दें :
लोक सभा के सम्मानित सदस्य : 543 + राज्य सभा के सम्मानित सदस्य : 250 = 793 सम्मानित सदस्य गण।  एक सदस्य को प्रतिवर्ष 5 करोड़ मिलता है यानी 793 x 5 करोड़ = 3,965 करोड़ प्रतिवर्ष और पांच वर्ष के संसदीय अवधि में (वसर्ते सम्मानित सांसद या सम्मानित विधायक की मृत्यु नहीं हो जाय) एक सांसद को 25 करोड़ और कुल 793 सांसदों को 793 x 25 करोड़ = 19, 825 करोड़ रुपये केन्द्री कोषागार से संसद के आदेश से निकलता है। यानी 19, 825 करोड़ + 45, 490 करोड़ (विधान सभा/परिषद् के सामनित सदस्यों के लिए) = 65,315 करोड़ रुए देश के 5342 लोगों को दिया जाता है ‘कर-रहित’ और यह राशि सरकारी कोशों से उनके वेतन, रखरखाव, आवास, भ्रम-सम्मेलन, भत्ता, गाड़ी, घोड़ा आदि सुख-सुविधाओं के अलावे हैं। तभी तो लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने कहा भी था कि सांसदों को मिलने वाली राशि से देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है। अतः राष्ट्रहित में इसे तक्षण प्रभाव से निरस्त कर देना चाहिए। 

पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ऐसे ही नहीं कहा था इसे निरस्त करने के लिए। वे जानते थे कि यह राशि देश में भ्रष्टाचार बढ़ने के लिए बुनियाद को बहुत मजबूत बना रहा है। एक दृष्टान्त देते हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी लिखते हैं: “मोदी की पहली सरकार में श्रम राज्य मंत्री रहे गंगवार से साल 2014 में किसी कार्यक्रम का वक्त मांगने एक सुबह कुछ लोग पहुंचे। गंगवार के पास लोगों की भीड़ लगी थी। लोगों के बीच ही साधारण से कप में चाय पीते हुए उन्होंने कार्यक्रम के दिन की बाबत पूछा। वह दिन शनिवार था। गंगवार ने हाथ खड़े कर दिए। उनका कहना था कि वे हर शुक्रवार की रात अपने निर्वाचन क्षेत्र बरेली के लिए निकल जाते हैं और बहुत जरूरी काम नहीं रहा तो सोमवार की सुबह ही वे दिल्ली लौटते हैं। हर हफ्ते के आखिरी दिन चुनाव क्षेत्र के लोगों के साथ सुबह से लेकर रात तक बीतता है। यही उनकी पूंजी है और इसी के दम पर वे 1989 से लगातार सांसद हैं। सवाल यह है कि बीजेपी में ऐसे कितने सांसद रहे, जो जनता के सुख-दुख के साथी बने रहने का दावा कर सकते हैं?” 

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वरिष्ठ पत्रकार श्री उमेश चतुर्वेदी

श्री चतुर्वेदी आगे कहते हैं : “जानकार इस बात पर एकमत हैं कि मौजूदा चुनाव नतीजों में बीजेपी की हालत खराब होने की एक बड़ी वजह उसके ज्यादातर सांसदों के खिलाफ एंटीइनकंबेंसी भी रही है। आंकड़े भी इस तथ्य की गवाही देते हैं। पार्टी के पास बीती लोकसभा में 300 सांसद रह गए थे, जिनमें से पार्टी ने 168 सांसदों को दोबारा मैदान में उतारा, उनमें से 66 फीसद यानी 111 सांसदों को जनता ने नकार दिया, सिर्फ 57 ही दोबारा लोकसभा का मुंह देख पा रहे। पार्टी ने जिन 132 जगहों पर नए उम्मीदवार उतारे थे, उनमें से 95 को जीत मिली। हारे हुए सांसदों में से ज्यादातर के बारे में धारणा है कि 2014 में चली मोदी लहर के सहारे ही एक बार फिर अपनी चुनावी नैया पार होने की उम्मीद लगाए हुए थे। उन्हें लगता था कि जिस तरह दो आम चुनावों में सिर्फ और सिर्फ उनके नेता मोदी के नाम का उन्हें फायदा मिला था, वैसा ही एक बार फिर होगा। मोदी के चेहरे के दम पर अपने वोटरों को ठेंगे पर रखने के उनके रवैये की वजह से इस बार का चुनाव उनके लिए काठ की हांड़ी साबित हुआ।”

चतुर्वेदी जी का मानना है कि “हार को लेकर सांसद कई बातें बना रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि लोक की सेवा के लिए उनके पास तमाम अवसरों के अलावा एक अहम जरिया सांसद निधि भी है। कुछ सांसदों ने जहां इस निधि को ठीक से खर्च भी किया है तो कई ने इसे खर्च करने को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई। बहरहाल मोटे तौर पर मान लेते हैं कि अपनी सांसद निधि को तमाम सांसदों ने संतोषजनक ढंग से खर्च किया है। यह रकम भी कोई छोटी-मोटी नहीं है। साल 2011-12 के वित्तीय वर्ष से हर सांसद के हिस्से पांच करोड़ सालाना रकम खर्च करने का अधिकार होता है। इस लिहाज से हर लोकसभा सांसद को अपने पांच साल में 25 करोड़ खर्च करने का अधिकार है। लोकसभा में 543 सदस्य होते हैं। इस लिहाज से एक साल में सांसद निधि में ही 2515 करोड़ रूपए मिलते हैं। लोकसभा के कार्यकाल में यह रकम 12 हजार 575 करोड़ रुपए होती है। सवाल यह है कि अगर यह रकम हर सांसद के जरिए खर्च हो जाए तो आम लोगों की तमाम छोटी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना 23 दिसंबर, 1993 को लागू किया गया। प्रारंभ में, इस योजना का प्रशासन ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन था लेकिन बाद में, अक्टूबर 1994 में, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय इस कार्य को देखने लगा। इतिहास को तनिक पीछे रखकर यदि वर्तमान को ही देखें तो लोकसभा के सांसद 543 x 25 करोड़ = 13,575 करोड़। इसी तरह राज्यसभा के सांसद 250 x 25 करोड़ = 6,250 करोड़। २८ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मिलकर विधानसभा के विधायक 4123 x 10 करोड़ = 41,230 करोड़ और विधान परिषद् के विधायक 426 x 10 करोड़ = 4260 करो। यानी पांच वर्षों में 793 सांसद/4549 विधायक निधिपर कुल 65315 करोड़ रूपया खर्च होता है। 

वैसे सांसदों और विधायकों के मामले में उनके संसदीय या विधान सभा क्षेत्र के विकास के निमित्त यह राशि दी जाती है जो सैद्धांतिक रूप में भागीदारी विकास के सिद्धांत पर आधारित विकेंद्रीकृत विकास के चरित्र के रूप में पेश करता है। लेकिन यह सभी कागज पर शोभायमान है। भागीदारी के स्तर को मापने के लिए कोई संकेतक उपलब्ध नहीं है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) – एक निकाय जो केंद्र और राज्य सरकारों और उनके द्वारा वित्त पोषित निकायों की प्राप्तियों और व्यय का लेखा-जोखा करता है – ने अपनी 2010 की रिपोर्ट में पाया कि स्थानीय जरूरतों को समझने के लिए सांसदों के निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न घटकों जैसे कि निवास मंच या स्थानीय गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी को नजरअंदाज किया गया।

श्री चतुर्वेदी जी का कहना है कि “भौगोलिक क्षेत्रफल के लिहाज से छोटे लोकसभा क्षेत्रों के लिए यह रकम बड़ी साबित हो सकती है। अगर हर सांसद नियमित रूप से गहन चर्चा के बाद ईमानदारी से अपने हिस्से की रकम खर्च करे तो अपने इलाके की जनता की छोटी-मोटी समस्याओं का निदान कर सकेगा। बदले में उसे लोक सहयोग की अनमोल निधि मिलेगी। लेकिन लगता है कि इस फंड की जमीनी हकीकत कुछ और ही है। अगर सांसद महज इसी रकम को ईमानदारी से अपने क्षेत्र विशेष में संतुलित रूप से खर्च कर रहे होते तो बीजेपी के मौजूदा सांसदों की हार के आंकड़ों की चर्चा की जरूरत ही नहीं रहती। ऐसे में सवाल यह है कि इस निधि को जारी ही क्यों रखा जाए। क्यों न इतनी बड़ी रकम को सरकार की दूसरी विकास योजनाओं में समाहित कर दिया जाए। ताकि उसका फायदा जमीनी स्तर तक पहुंच सके। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि इस निधि को जारी ही क्यों रखा जाए? 

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सांसदों की नाकामी और कारगुजारियों पर चर्चा से पहले इस योजना के बारे में भी जान लेते हैं। इसकी शुरुआत नरसिंह राव शासनकाल में साल 1993-94 में लागू की गई थी। तब इसके तहत सांसदों को हर साल पांच लाख रूपए अलॉट किए जाते थे। जिसे सांसदों ने तब नाकाफी बताया था। उनकी मांग के बाद इसे अगले ही साल यानी वित्तीय वर्ष 1994-95 में बढ़ाकर एक करोड़ रुपये सालाना कर दिया। बिना किसी बाधा के स्थानीय विकास के छोटे-मोटे कार्यों को करने के लिए शुरू की गई इस योजना में जल्द ही भ्रष्टाचार बढ़ने लगा। तब सांसदों ने सरकार से दबाव समूह के तौर पर एकजुट होकर काम शुरू किया। फिर इस रकम को बढ़ाने की मांग हुई और वाजपेयी सरकार के दौरान साल 1998-99 के वित्तीय वर्ष में इसे दोगुना करके सालाना दो करोड़ रुपए कर दिया गया। फिर मनमोहन सरकार ने वित्तीय वर्ष 2011-12 से इसे पांच करोड़ रुपये प्रति वर्ष पर कर दिया गया।

बाद में एआईएडीएमके सांसद थंबीदुरई की अध्यक्षता में बनी सांसदों की एक समिति इसे बढ़ाकर पच्चीस करोड़ सालाना करने की मांग कर चुकी है। यहां याद रखने की बात है कि कोविड महामारी के चलते इस फंड को 6 अप्रैल 2020 से 9 नवंबर 2021 तक निलंबित किया गया था। साल 2020-21 के लिए योजना के लिए कोई धन आवंटित नहीं किया गया था। वित्त वर्ष 2021-22 की बाकी अवधि यानी 10 नवंबर 2021 से 31 मार्च2022 के लिए हर सांसद महज दो करोड़ रुपए दिए गए। दिलचस्प यह है कि इस योजना में जारी भ्रष्टाचार के चलते लोकसभा का स्पीकर रहते सोमनाथ चटर्जी ने 2008 में इसे बंद करने की बात कही थी। कांग्रेसी सांसद वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाला दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग भी इस योजना को बंद करने का सुझाव दे चुका है। 

चतुर्वेदी जी का कहना है की “सवाल यह है कि जिस योजना का जनता को कोई फायदा नहीं मिल रहा, जिसे लागू करने की रस्म सांसद निभा रहे हैं, अगर वे चाहते तो महज इसी योजना के ईमानदार क्रियान्वयन के जरिए संसद लौट सकते, उन्हें अपने केंद्रीय नेतृत्व के चेहरे की जरूरत नहीं होती, उस योजना को क्यों जारी रखा जाए? सवाल यह भी उठता है कि सांसद और प्रशासनिक गठजोड़ के जरिए जिस फंड का मनमाना निजी इस्तेमाल होता है, जिसके जरिए लोकसेवा के बुनियादी लोकतांत्रिक सहयोग का उद्देश्य पूरा ना हो पा रहा हो, उस योजना को जारी रखने की जरूरत क्या है? जब सांसदों को अपनी बजाय किसी और के काम पर भरोसा हो, जो काम करना ही नहीं चाहते हों, जो एक बार जीतकर सत्ता की हनक का इस्तेमाल करते रहे हों, उन्हें यह फंड क्यों दिया जाना चाहिए। जनता की गाढ़ी कमाई की इस रकम का इस्तेमाल लोक के लिए किसी और जरिए से क्यों नहीं किया जाना चाहिए। कितने ऐसे सांसद हैं, जिन्हें गंगवार की तरह जनता के बीच रहना पसंद है, कितने सांसदों के दरवाजे उनके वोटरों के लिए हमेशा खुले रहते हैं..इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। लोक से दिल से तार जब सांसद जोड़ नहीं सकते, लोक निधि उनके लिए इसका बेहतर जरिया हो सकती थी तो फिर इस निधि की निरंतरता क्यों? 

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