शिक्षक दिवस पर विशेष ✍ कल अख़बार में नाम छपवाने के लिए ‘प्रेस रिलीज’ लेकर दफ्तर में ‘दंड बैठकी’ करते थे, आज बिहार के लोगों को प्राणायाम सीखा रहे हैं😢

राष्ट्रीय पत्रिका 'दिनमान' का पन्ना और श्री दीनानाथ झा (अब दिवंगत)

पटना : जय प्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति बिहार ही नहीं, देश के लोगों के मगज पर चढ़ रहा था। देश के मतदाता देश की राजनितिक व्यवस्था में बदलाव चाहते थे। स्वाभाविक है। सत्तारूढ़ के अलावे विपक्ष के नेताओं को भी सत्ता का रसास्वादन करने का संवैधानिक अधिकार है। देश का क्या होगा, यह न तो उन दिनों लोगों को, राजनेताओं को चिंता थी, न आज है। पंचायत से संसद तक चाहे क्रिया-कलाप ठीक-ठाक संचालित होता भी रहे, कुर्सियों को देखकर कुकुरमुत्तों की तरह पनपते नेताओं को खुजली होने लगती है, वे चक्रव्यूह रचने लगते हैं, ताकि सतारूढ़ दल धराम से नीचे गिरे और वे मुस्कुराते शपथ लेकर कुर्सी से चिपक जायँ। यह मानव का लक्षण है। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के समय बिहार में यह बात तनिक अधिक देखने को मिला। 

वैसे तो चौथी विधान सभा से ही, लेकिन पांचवी विधान सभा काल आते-आते सरकारी महकमे में “आया-राम-गया-राम” वाली बात पटना के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड, बेली रोड, फ़्रेज़र रोड पर अधिक प्रचलित हो गया था। मंत्री से लेकर संत्री तक, अधिकारी से लेकर चपरासी तक, जिलाधिकारी से लेकर मुंशी तक सभी हनुमान चालीसा पढ़ते सोते थे और सुवह विष्णुसहस्रनाम पढ़ते जागते थे, ताकि विपत्ति का पहाड़ न टूट पड़े उनपर ।  

राजनेताओं की तो बात ही नहीं करें। उनकी गर्दन हमेशा बक्सर के पुल पर लटका होता था। कब नीचे गंगा में प्रवाहित हो जायेंगे, कब पदच्युत हो जायेंगे, कब कौन लंगड़ी मार देगा, कब कौन छिटकिनी लगाकर मुंह के बल गिरा देगा, कोई नहीं जानता था। विहार विधान सभा और विधान परिषद् में आज भी दर्जनों “सम्मानित विधायकगण” हैं, जिनकी स्थिति फ़्रेज़र रोड के कोने पर स्थित (उस समय) उडप्पी से आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के कार्यालय से दस कदम आड़े पिंटू होटल तक आते-आते भय से रक्तचाप बढ़ जाता था। वे गवाह होंगे,  सांस ले रहे हैं । कई बार ऐसी स्थिति का सामना वे सभी किये थे जब ‘प्रेस रिलीज’ निर्गत करते समय जिस पदभार का मुहर प्रेस रिलीज पर लगाए थे, समाचार बनने के समय तक पदभार से मुक्त हो जाया करते थे। बिहार विधान परिषद् में आज भी ऐसे अनेकानेक माननीय सदस्य हैं जो उन दिनों उस समय के उभरते नेताओं के पीछे-पीछे चलते थे। वे हँसते थे तो इस ठहाका लगा देते थे। 

लेकिन आज वे राजनीति में मठाधीश बने बैठे हैं। उन दिनों पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन समाचार पत्रों में अपना नाम प्रकाशित करने के लिए, अपना विज्ञप्ति छपाने के लिए, जो सुबह से शाम तक “दण्ड बैठकी” करते थे, आज उसी संस्थान के सैकड़ों-हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों को “प्राणायाम” कराते नहीं थकते। कई तो प्राणायाम करते ईश्वर को प्राप्त हो गए, कुछ कतारबद्ध हैं। लेकिन उन्हें क्या? राजनीतिक गलियारे में, मंत्री-संत्री की कुर्सियों पर चिपकने के बाद जनता के बारे में कौन सोचता है? या उन लोगों के बारे में कौन सोचता है, जो शुरूआती दिनों में ‘ऊँगली’ पकड़कर नाम, प्रतिष्ठा, शोहरत दिलाया था। खैर। 

उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे अब्दुल गफ्फूर। कहने के लिए तो छठा विधान सभा कालखंड था, लेकिन गफ्फूर साहेब 13 वें मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर बैठे थे। एक मुख्यमंत्री का कार्यकाल, जो पांच साल का (विधान सभा अवधि के बराबर) होनी चाहिए थी, औसतन ढाई-साल और उससे कम की अवधि में कुर्सी को नमस्कार कर “भूतपूर्व” हो जाया करते थे। गफूर साहब 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975 तक बिहार राज्य के तेरहवें मुख्यमंत्री के रूप में सेवा किये । वे राजीव गांधी के समय में कैबिनेट मंत्री के रूप में भी शोभायमान हुए थे। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दें गफ्फूर साहेब। 

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वैसे, 1967 और 1971 के बीच, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, चाहे पार्टी हो या सरकार। सबों को अपने नियंत्रण में ले ली थी श्रीमती गाँधी । आज की तरह ही, उन दिनों भी केंद्रीय सरकार का अर्थ केंद्रीय मंत्रिमंडल कोई नहीं था, बल्कि प्रधानमंत्री के सचिवालय ही हो गया था। सम्पूर्ण सरकार वहीँ केंद्रित थी। जो उनके भरोसे मंद थे, उनका तेवर कुछ और था, जो विश्वासभाजन नहीं थे, उनकी तो तो बात ही नहीं करें। सत्तर के दशक के प्रारंभिक महीनों, वर्षों में जो हुआ वह देश जानता है, जहां तक राजनीति का सवाल है। परन्तु जो नहीं जानता है वह यह की उन दिनों आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र समूह का सम्पादकगण न केवल अपनी कलम में ताकत रखते थे, बल्कि उस समय के मंत्रियों, चाहे मुख्यमंत्री ही क्यों न हो, पुलिसकर्मियों चाहे पुलिस महानिदेशक ही क्यों न हो, उन्हें उनकी औकात दिखने की क्षमता रखते थे। कुछ ऐसी ही ऐतिहासिक घटना हुई थी उस दिन। 

1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी । उस दिन आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।” 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में देश में आपातकाल घोषित था।

जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के तहत पटना के दो प्रमुख अख़बारों के दफ्तरों को सुपुर्दे ख़ाक करने की तैयारी हो चुकी थी। नेता से लेकर, व्यापारी तक, पुलिस से लेकर अपराधी तक, आंदोलन में कतारबद्ध लोगबाग यह निर्णय ले लिए थे कि अमुक दिन पहले सर्चलाइट-प्रदीप और फिर आर्यावर्त-इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर का दफ्तर फूंका जायेगा। सर्चलाइट-प्रदीप जलकर स्वाहा हो गया परन्तु, जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन की बात आई तो इण्डियन नेशन के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा सामने खड़े हो गए। उस दिन वैसे तो संस्थान के लगभग सभी कर्मचारी गोलबंद हो गए थे, लेकिन संध्याकाळ होते-होते संस्थान के मुख्य द्वार के बजाय पिछले दीवारों को, जो जमाल रोड से मिलती थी, लांघ कर अपने-अपने घरों की ओर बच-बचाकर कूच कर रहे थे। धीरे-धीरे सम्पूर्ण परिसर वीरान हो गया। मुख्य द्वार पर 50-60 किलो शारीरिक वजन वाले दरवान ही रह गए थे। यह स्थान प्रवेश द्वार के ठीक सामने पोर्टिको का था। दिनाबाबू वहीं बैठ गए। अब तक ‘जॉब-विभाग’ में कार्य करने वाले बागेश्वरी प्रसाद ही बच गए थे, जो दीना बाबू के बगल में खड़े थे। बागेश्वरी प्रसाद का शारीरिक वजन भले 65 किलो के आसपास रहा होगा उस शाम, लेकिन उन्होंने हज़ारों-हज़ार किलो के मानसिक वजन वाले लोग जैसा कार्य किया था। दीना बाबू उन्हें भी जाने को कहे। वे दीना बाबू का बाहर सम्मान करते थे। 

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इसी बीच लाइनों विभाग में कार्य करने वाला जयप्रकाश, जो शरीर से कोई छः फिट लम्बा था, कुछ पल दीना बाबू और बागेश्वरी प्रसाद के पास खड़े रहे, लेकिन तक्षण संस्थान के पिछले दीवार की ओर भागे, जिधर से सभी कर्मचारी अपने-अपने घरों की ओर उन्मुख थे। 

जयप्रकाश जोर से आवाज लगाया : “रुक जाओ…रुक जाओ कहीं दीना बाबू अपना दाह नहीं कर लें। वे कह रहे हैं अगर संस्थान बचेगा तभी हम सभी कर्मचारियों का जीवन है, अन्यथा कोई अस्तित्व नहीं है।

सभी कर्मचारियों के कदम वापस हो गए। परिसर में अखबार बेचने वालों की साईकिल लगी थी, संख्या सैकड़ों में थी। सभी साईकिल सामने के भवन के छत पर क्षणभर में चले गए। ईंट, पत्थर आदि भी एकत्रित हो गए। चतुर्दिक आंदोलनकारी भी भर गए थे फ़्रेज़र रोड पर। लेकिन ऊपर से साइकिलों, पत्थरों और ईंटों के प्रहार से वे संस्थान के अंदर प्रवेश नहीं ले सके। इस बीच, दिनाबाबू तत्कालीन पुलिस महानिदेशक वाई.एन. झा से संस्थान की सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल मुहैया करने को कहा। पुलिस महानिदेशक, बिहार में प्रचलित उस कहावत को चरितार्थ कर दिए जब एक व्यक्ति के पेशाब की जरूरत हुई और वह व्यक्ति कहने लगा की वह पिछले छः माह से पेशाब किया ही नहीं और अगले एक वर्ष तक लघुशंका करेगा भी नहीं। अब तक पोर्टिको में कर्मचारियों का बैठक बन गया था। टेलीफोन भी लग गए थे। 

दूसरे दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर अपने चेला-चपाटियों के साथ आर्यावर्त-इण्डियन नेशन कार्यालय में धमके। प्रांगण के अंदर प्रवेश के साथ ही कार्यालय परिसर के समस्त कर्मचारी गोलबंद हो गए। मुख्यमंत्री अपने काफिले के साथ पोर्टिको तक पहुंचे। दीनाबाबू वहीँ थे । अब्दुल गफूर को देखते ही दीनानाथ झा का रक्तचाप बढ़ गया। वे जब गुस्स में होते थे तो उनका सम्पूर्ण शरीर कांपने लगता था। दृश्य बहुत संवेदनशील था। दीनानाथ जी बाहर गेट के तरफ अपनी ऊँगली से इशारा करते अब्दुल गफूर को बाहर निकलने को कहा। स्थिति बद से बत्तर हो रही थी। एक पत्रकार और मुख्यमंत्री आमने सामने था। तभी फोन की घंटी टनटनायी – “हेल्लो !!! रेस्पेक्टेड दीना बाबू, मैडम विश तो टॉक तो यु…. प्लीज सर।” 

फोन के दूसरे छोड़ पर दिल्ली से श्रीमती इंदिरा गाँधी थीं। अब्दुल गफूर उलटे पैर वापस अपने कार्यालय में आ गए। फ़्रेज़र रोड पर बड़े-बड़े बसों में लदे तक़रीबन 50 बन्दुक, राइफलों से लैश केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लोग कार्यालय परिसर में प्रवेश लिए और बिहार के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक तत्काल प्रभाव से हस्तानांतरित हो गए। इसके बाद विद्याचरण शुक्ल – अब्दुल गफूर के साथ फिर एक बार रूबरू बकझक हुआ। और दोनों नेता पुनः मुंह के बल गिरे। पत्रकारिता में सम्मान था। पत्रकार भी सम्मानित थे। 

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सत्तर के दशक या उससे पूर्व की पत्रकारिता की तुलना नब्बे के दशक के बाद से लगातार, आज तक, हम नहीं कर सकते हैं। उन दिनों की पत्रकारिता, या पत्रकारों के प्रति, पत्रकारिता के प्रति तत्कालीन राजनेताओं का जो सम्मान था, पत्रकारों की कलम में जो ताकत थी, उनकी जो सोच थी, समाज के प्रति उनकी जो प्रतिबद्धता थी; आज की तुलना नहीं कर सकते हैं। आज सब कुछ बदल गया है। मालिकों की सोच बदल गयी है। कर्मचारियों की सोच बदल गयी है। लेकिन बाबूजी कहते थे: “अंतिम दम तक लड़ना सीखो, क्या पता अंतिम चाल में ही कामयाबी मिल जाय।” 

आज आर्यावर्त – इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अखबार बंद हो गया, नामोनिशान मिटा दिया पटना के फ़्रेज़र रोड पर। कुछ कर्मचारी भी दोषी थे, कुछ प्रबंधन भी, मालिक तो थे ही। प्रबंधन के लोगबाग ‘बूढ़ी संस्थान’ से छुटकारा पा कर, अपना हाथ धोकर गंगा नहाना चाह रहे थे, इसलिए जिधर लाभ का दीपक दिखा, गर्दन धुसा लिए। हताश कर्मचारियों के पास कोई विकल्प नहीं था। वह “भागते भूत को लंगोट ही सही’, में विस्वास करने लगे और मालिक तो “निरीह”, “कमजोर” “दूर दृष्टिहीन” हो ही गया था। वह चाह भी रहा था की किसी तरह इस जंजाल से, इस पीड़ा से मुक्ति मिले। वजह भी था: जिंन्हें पटना के इस स्थान पर एक-गज जमीन खरीदने की ताकत थी नहीं थी, मुफ्त में मिली सम्पत्तियों का कद्र करना नहीं जानते थे, चापलूसों, चाटुकारों, लोभियों, चमचों, अवसरवादियों के चक्रव्यूह में रहना पसंद करते थे, सभी गिद्ध की तरह मौका की तलाश में थे – अवसर मिलता गया, नोचते गए। 

सन 1975 में जब आर्यावर्त-दी इण्डियन नेशन पत्र समूह में मैट्रिक उत्तीर्ण कर नौकरी शुरू किया था, दी इण्डियन नेशन के तत्कालीन संपादक श्री दीनानाथ झा पहले सर पर हाथ रखकर ‘आशीष’ दिए, फिर कहे: ‘गरीब के बच्चों को पत्रकारिता में नहीं आना चाहिए। लेकिन तुम अपवाद हो। तुम अपने जीवन में इतना ज्ञान एकत्रित करना, इतनी मेहनत करना, अपनी सोच को इतना मजबूत बनाना कि आने वाले समय में पत्रकारिता जगत के ही लोग तुम पर कहानी करने लगें। कल तुम अख़बार बेचे थे, हम गवाह हैं। आज उसी अखबार में नौकरी शुरू किये हो, हम गवाह हैं। कल इसी अखबार में तुम लिखोगे भी और मैं संपादक भी रहूँगा । मेरा आशीष है कि तुम पटना ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, विश्व के बेहतरीन अख़बारों में लिखो। लोग तुम्हें तुम्हारे नाम से, काम से जाने। तुम्हारी पहचान कुछ अलग हो। जिस दिन ऐसा होगा मैं समझ लूंगा कि मुझे दक्षिणा मिला गया। उस दिन मैं रहूं या नहीं रहीं, तुम्हारे माता-पिता रहें अथवा नहीं, लेकिन तुम्हारे माता-पिता को गर्व होगा और सबसे महत्वपूर्ण तुम अपनी नज़रों में अव्वल दिखोगे।”

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