“ब्लैक वारंट” ‘निर्गत’ और ‘निष्पादित’ करने वालों के बीच ‘सामाजिक खाई’ 😢 आखिर वह भी तो न्यायालय द्वारा प्रदत कार्यों को ही निष्पादित करता है (तिहाड़ जेल कथा-व्यथा-3)

पवन जी

जेल रोड (तिहाड़ जेल), नई दिल्ली: आज से 30-वर्ष पहले 15 सितम्बर, 1995 को टी.एल.वी. प्रसाद के निर्देश में ‘मणिवानां’ की कहानी पर आधारित पहले तमिल फिल्म “अमिधिपड़े” बनी। बाद में उसका हिंदी संस्करण “जल्लाद” के नाम से बनी थी। “जल्लाद” फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती, मौशुमी चटर्जी, रम्भा, माधो और कई अन्य अदाकार और अदाकारा काम किये थे। फिल्म में संगीत दिया था आनंद मिलन। “जल्लाद” फिल्म ने मिथुन चक्रवर्ती को शानदार नाम दिया। मिथुन चक्रवर्ती दो किरदारों की भूमिका निभाए थे और उस किरदार के लिए नेशनल अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। इतना ही नहीं, इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी कमाल का प्रदर्शन किया। उस साल कमाई के मामले में वह फिल्म 11वें नंबर पर थी। 

मिथुन चक्रवर्ती आज भारतीय अभिनेता, निर्माता और राजनीतिज्ञ बन गए हैं। उनके घर के दीवारों पर तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और चार फिल्मफेयर पुरस्कार का सम्मान लटका होगा। इतना ही नहीं, विगत 8 अक्टूबर, 2024 को उन्हें 70वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया जो भारतीय फिल्म जगत में सबसे सम्मानित पुरस्कार माना जाता है।

यहाँ मिथुन चक्रवर्ती के बहाने, उनकी फिल्म ‘जल्लाद’ के बहाने जिसने कमाई, नाम और शोहरत में मामले में उस कालखंड में हस्ताक्षर किया था, विगत तीन दशकों में क्या मिथुन चक्रवर्ती कभी भारत के वास्तविक “जल्लादों” के बारे में सोचे कि वह कैसे जी रहा है? उसकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्थितियां कैसी हैं? शायद नहीं। अगर देखे होते, पूछे होते तो शायद भारत लें ‘वास्तविक जल्लादों’ की स्थिति आज ऐसी नहीं होती। वह भी इसी समाज का हिस्सा है और वह भी न्यायालय द्वारा प्रदत कार्यों को की निष्पादित कर रहा है।

भारत सरकार में तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली को प्रस्तुत अपनी 187 वीं रिपोर्ट में, भारतीय विधि आयोग ने कहा था कि वर्तमान में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354(5) के अनुसार मृत्युदंड के निष्पादन की विधि ‘मृत्यु तक फांसी’ है। उच्चतम न्यायालय ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1982) 3 एससीसी 25 में कहा है कि मृत्यु दंड की सजा के निष्पादन में होने वाली शारीरिक पीड़ा और कष्ट भी कम क्रूर और अमानवीय नहीं है। इसलिए आयोग ने मृत्यु दंड के निष्पादन का मानवीय तरीका उपलब्ध कराने के लिए अध्ययन किया। भारतीय विधि आयोग का वह रिपोर्ट (डीओ संख्या 6(3)/85/2003-एलसी(एलएस) 17 अक्टूबर, 2003) मृत्यु दंड के निष्पादन विधि और आकस्मिक मामलों से संबंधित था। 

न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव (अब दिवंगत)

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय में भी न्यायाधीश बने, न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव (अब दिवंगत) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि “आयोग ने दुनिया भर में प्रचलित मृत्यु दंड के निष्पादन के विभिन्न तरीकों पर विचार किया। इस परामर्श पत्र पर कई प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं। आयोग ने सिफारिश की है कि सीआरपीसी, 1973 की धारा 354(5) में संशोधन करके अभियुक्त की मृत्यु होने तक घातक इंजेक्शन द्वारा मृत्यु दंड के निष्पादन का वैकल्पिक तरीका उपलब्ध कराया जाए। मृत्युदंड के निष्पादन के तरीके के बारे में उचित आदेश पारित करना न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होगा। मृत्युदंड के निष्पादन के तरीके के प्रश्न पर दोषी को अवश्य सुना जाएगा, इससे पहले कि ऐसा विवेक प्रयोग किया जाए। इसके अलावा, वर्तमान में, ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है, जहां उच्च न्यायालय सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित मृत्युदंड की पुष्टि करता है या जहां उच्च न्यायालय सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित सजा को बढ़ाता है और मृत्युदंड देता है।”

@अखबारवाला001 (233) ✍ दिल्ली के तिहाड़ कारावास में वह सब कुछ होता है जो कारावास में नहीं होनी चाहिए 😢

न्यायमूर्ति एम.जगन्नाथ राव ने कहा था कि “आयोग, विभिन्न प्रतिक्रियाओं और विचारों पर विचार करने के बाद, मृत्युदंड की पुष्टि या देने वाले उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील का वैधानिक अधिकार प्रदान करने की सिफारिश करता है। तदनुसार, सर्वोच्च न्यायालय (आपराधिक अधिकार क्षेत्र का विस्तार) अधिनियम, 1970 को सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार प्रदान करने के लिए उपयुक्त रूप से संशोधित किया जाना चाहिए। सशस्त्र बलों के संबंध में एक और पहलू महत्वपूर्ण है। अभी तक सेना अधिनियम, 1950, नौसेना अधिनियम, 1957 और वायु सेना अधिनियम, 1950 के तहत कोर्ट मार्शल द्वारा पारित मौत की सजा के खिलाफ अपील के अधिकार का कोई प्रावधान नहीं है। आयोग ने प्रतिक्रियाओं और विचारों पर विचार करने के बाद सिफारिश की है कि ऊपर वर्णित कोर्ट मार्शल द्वारा पारित मौत की सजा के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की जानी चाहिए।”

विधि आयोग का का सुझाव था कि “कानूनों में मौत की सजा के निष्पादन के मौजूदा तरीकों में से एक यानी ‘गर्दन से लटकाना’ को ‘आरोपी के मरने तक घातक इंजेक्शन लगाने’ से बदल दिया जाना चाहिए। एक और प्रावधान होना चाहिए कि घातक इंजेक्शन कोर्ट मार्शल द्वारा पारित मौत की सजा के निष्पादन का एक वैकल्पिक तरीका होना चाहिए। इसलिए आयोग ने सिफारिश की है कि इन उद्देश्यों के लिए इन अधिनियमों में उपयुक्त संशोधन किए जा सकते हैं। अंत में,  मौत की सजा के मामलों की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच द्वारा की जानी चाहिए। यह भी सिफारिश की गई है कि इन उद्देश्यों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के नियमों में उचित संशोधन किया जा सकता है।”

भारत विधि आयोग के एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 से 2015 के मध्य न्यायालयों ने 1790 लोगों को मौत की सजा सुनाई थी। उसमें 63  प्रतिशत अभियुक्तों की सजा कम कर दिया गया था और 29 प्रतिशत अभियुक्त उच्च न्याययालयों द्वारा रिहा कर दिए गए थे। शेष मामले लंबित पड़े हैं, क्योंकि उनके निर्णयों की प्रतियां खोजी नहीं जा सकी थी। इसलिए विधि आयोग ने निष्कर्ष दिया कि 95 प्रतिशत मामलों में मृत्युदंड गलत तरीके से दिया जाता था।

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कहते हैं कि प्रत्येक देश में समाज को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए कानून बनाए जाते हैं ताकि लोगों के मन में डर बना रहें और वह किसी भी गलत काम को करने से पहले दो बार सोचे। जो जैसा जुर्म करता है कानून उसको उसके किए की सजा जरूर देता है। जब इंसान जघन्य और विरल किसी अपराध को अंजाम देता है, तो ऐसे में मौत की सजा दिए जाने का प्रावधान है। विभिन्न देशों में कई अलग-अलग तरीके से इंसान को मौत के घाट उतारा जाता है। कहीं गोली मार दी जाती है तो कहीं पत्थर मार-मारकर मुजरिम को मार दिया जाता है। 

हालांकि ज्यादातर देशों में मौत की सजा के रूप में फांसी दे दी जाती है। बात अगर अपने देश भारत की करें तो भारत में फांसी की सजा का चलन ब्रिटिश काल से पहले से है। यद्यपि देश में फांसी की सजा बहुत ही कम लोगों को दी जाती है। हिन्दुस्तान में रेयर ऑफ रेयरेस्ट केस में ही अपराधी को फांसी की सजा सुनाए जाने का प्रावधान है। मौत की सजा सर्वोच्च दंड है जिसे भले ही अदालत सुनाती हो, लेकिन उसे अंजाम तक पहुंचाने का काम जल्लाद ही करता है।

विडम्बना यह है कि आजादी के 78-साल बाद भी आज तक किसी ने इस काम को अंजाम देने के लिए नौकरी की दरख्वास्त तक नहीं दी है। इन वर्षों में दो परिवारों के लोग खानदानी पेशे के रूप में इस काम को कर रहे हैं, लेकिन देश और विश्व में बदलती आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक, सांस्कृतिक और अन्य सोच के कारण अब इन परिवारों की अगली पीढ़ियां इस पेशे को अपनाने के लिए तैयार नहीं है। तमिलनाडु की वेल्लोर सेंट्रल जेल में आखिरी बार 1983 में फांसी लगाई गई थी, जबकि तमिलनाडु राज्य में आखिरी बार 1995 में सलेम सेंट्रल जेल में सीरियल कीलर शंकर को फांसी दी गई थी।

मुंबई पर आतंकी हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब की सुरक्षा पर सरकार करीब 36 करोड़ रुपए खर्च की, लेकिन उसे फांसी पर चढ़ाने वाले जल्लाद को इस काम के लिए कितने पैसे मिले, यह तो सरकारी क्षेत्र में कुर्सियों पर बैठे अधिकारी से लेकर मंत्रालय में बैठे राजनेता बेहतर जानते हैं। महाराष्ट्र में फिलहाल जल्लाद का कोई पद नहीं है।महाराष्ट्र के 1970 के जेल नियमों के मुताबिक किसी को भी जल्लाद के लिए ट्रेनिंग दी जा सकती है। फिर भी पूरे महाराष्ट्र में एक भी रजिस्टर्ड जल्लाद नहीं है। असम में भी कोई जल्लाद उपलब्ध नहीं है। यही स्थिति दिल्ली की तिहाड़ जेल, उत्तर प्रदेश, पंजाब और पश्चिम बंगाल की जेलों की है। 

चलिए तिहाड़ कारावास चलते हैं और आपको मिलाते हैं कालू और फकीरा से । उसकी त्वचा काला होने के कारण उसका नाम कालू रखा गया होगा, परन्तु फकीरा तो कालू से भी अधिक काला था, इसलिए लोग उसे ‘भूत’ कहते थे। उसकी बड़ी बड़ी मूंछें थी और वह हमेशा पंजाबी में चुटकुले सुनाता रहता था, जिसे सुनकर हम सभी लोग हंस पड़ते थे। कालू अत्यंत विशाल कद काठी वाला गोल आदमी था और दोनों में सर्वाधिक शांत स्वाभाव वाला था। वे दोनों अत्यंत निपुण पेशेवर जल्लाद थे। जैसे ही उनकी सुरक्षा में गई कारण उन्हें लेकर जेल के अंदर आती थी, वे डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट के विश्राम कक्ष में अपना डेरा जमा लेते थे। उनका विश्राम कक्ष उनके कार्यालय से जुड़ा हुआ एक अन्य कमरा होता था। 

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तिहाड़ जेल के पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता कहते हैं: “एक जल्लाद का काम बड़े अनोखे रिवाजों वाला होता है। हमें प्रत्येक नियमों का बड़े सावधानी से पालन करना होता था, क्योंकि यमराज के द्वारपलों से कौन मिलना जुलना चाहेगा। ऐसी ही एक प्रथा दोनों जल्लादों में से प्रत्येक को एक-एक शराब की बोतलें देने की थी – हम उन्हें ओल्ड मोंक रम देते थे। जेल परिसर के अंदर मद्यपान कठोरता पूर्वक निषिद्ध है, परंतु नियमों का उल्लंघन केवल कैदियों द्वारा ही नहीं, अपितु जेलरों द्वारा भी किया जाता था। इस खास परंपरा में फांसी से पहले शराब का उन्मुक्त सेवन स्वीकार्य था।” 

गुप्ता का कहना है कि उन्हें बंगाल के एक जल्लाद नाटा मल्लिक का साक्षात्कार याद है जिसमें उसने कहा था की फांसी देने से पहले जमकर शराब पिता था। वह फांसी देने से घटनों पहले खाना छोड़ देता था और केवल शराब पिता था, ताकि उसकी कोई भावना शेष नहीं रहे। “मुझे नहीं मालूम की क्या कालू और फकीरा भी वैसा ही करते थे, परन्तु जब उन्हें उनकी रम को बोतल मिल जाती थी तो वे अत्यंत प्रसन्न हो जाते थे।” नाटा मल्लिक एक अन्य रिवाज का भी पालन करता था – अपना काम पूरा करने के बाद बाद फांसी के तख्ते पर भी थोड़ी शराब उड़ेल देता था। वह कहता था की वह शराब उस व्यक्ति की आत्मा के लिए होती थी, जिसे उसने फांसी पर लटकाया था। 

गुप्ता का कहना है कि “फांसी से पहले एक बड़ा खतरा इस बात का होता था कहीं जल्लादों का अपहरण न हो जाय। मैं आस्वस्त होकर यह बात नहीं कह सकता कभी जल्लाद गायब हुए थे या नहीं, परन्तु जेल अधिकारी इसे लेकर इतने अधिक चिंतित रहते थे की वे जल्लादों को कभी जेल परिसर छोड़ने की अनुमति नहीं देते थे। यह भय उस समय और अधिक बढ़ जाता था जब किसी आतंकवादी या किसी बहु-प्रसंसित व्यक्ति को फांसी दी जानी होती थी, क्योंकि उसके समर्थक उतावलेपन में कुछ भी कर सकते थे। यही कोई उन्हें वहां से लेकर चला गया तो क्या होगा? ऐसा विचार ही अपने आप में अत्यंत डरावना था। यदि वैसा हुआ तो कैदी को फांसी पर कौन लटकाएगा ? इन्हीं सब कारणों से जल्लादों की गतिविधियों को इस हद तक परदे के अंदर रखा जाता था की उनके बारे में जेल कर्मियों को भी कोई जानकारी नहीं होती थी।” 

कहते हैं कालू और फकीरा एक साथ क्यों काम करते थे, इसका भी एक कारण था। यदि किसी एक जल्लाद के हाथ-पाऊँ सुन्न हो जाते तो दूसरा जल्लाद आगे बढ़कर उस काम को पूरा कर देता था। बहरहाल, तिहाड़ जेल में ऐसा कभी नहीं हुआ। जल्लाद यह मानते हैं कि वे अत्यंत मूल्यवान हैं, इसलिए नाटा मल्लिक की भांति कालू ने उसे पारिवारिक कारोबार का रूप देने का प्रयास किया। उन दोनों ने अपने पुत्रों को अपना दायित्व सौंपने के लिए प्रशिक्षित किया। 

14 अगस्त 2004 को बलात्कारी और हत्यारे धनञ्जय चटर्जी को फांसी देने के पूर्व मल्लिक ने अपने अपने साक्षात्कार के दौरान कहा था: “एक बार मैंने अपने साथ एक सहायक रखने का प्रयास किया था। चटर्जी ने वर्ष 1990 में एक किशोरी का बलात्कार कर हत्या की थी। जब उसकी सजा के बारे में समाचार चैनलों में बहुत अधिक बहस हुयी थी तो इस जल्लाद के ऊपर भी समाचार जगत ने विचारणीय मात्रा में ध्यान दिया था। 83-वर्षित नाटा मल्लिक ने फांसी की दुनिया में लोगों के समक्ष पहली बार उससे जुड़े रहस्य्मय तरीकों को उजागर किया था। ‘जैसे ही हम फांसी के फंदे पर पहुंचे, मेरा सहायक मूर्छित हो गया।  लेकिन मेरा पुत्र पूरी तरह ठीक था। मैं जानता था कि वह अच्छा प्रशिक्षु सिद्ध होगा।’ नाटा मल्लिक के पिता भी अंग्रेजों के जमाने में जल्लाद थे। नाटा के बारे में माना जाता है कि उसने 25 से ऊपर फांसी पर लटकाने का कार्य किया था। अब उसका लड़का मेहताब भी जल्लाद है.

तिहाड़ के पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता

पूर्व जेलर कहते हैं: “कालू इतना आश्वस्त था कि  उसका पुत्र उसके बाद वह जिम्मेदारी संभाल लेगा। उसने काम पाने के लिए हमारी तथा अन्य अनेक जेलों में इश्तिहार छपवा कर भेजे थे – विशेषज्ञ जल्लाद की सेवाएं किराये पर उपलब्ध।  वास्तव में हम उसकी सेवाएं कभी नहीं ले सके, क्योंकि अपने पिता की भांति वह कोई सरकारी कर्मचारी नहीं था, जो की एक पूर्व शर्त थी। हमें यह काम करने के लिए किसी अपने व्यक्ति की आवश्यकता थी, क्योंकि वे मामले को गोपनीय रखने हेतु विश्वसनीय एवं कानून से बंधे हुए थे। निश्चय ही, संगणना के बाद कालू के मौत के इस कारोबार को अपने पुत्र के लिए अपने पदचिन्हों पर चलने हेतु आकर्षक एवं लाभदायक पाया होगा।” 

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बहरहाल, प्रवीण शर्मा क्वोरा पर लिखते हैं कि सभी देशों में मृत्युदंड अलग अलग तरीके से दिया जाता है। विकसित देशों में जल्लाद को प्रतिमाह लगभग 5000 अमेरिकी डॉलर के बराबर वेतन दिया जाता है। परंतु हमारे देश में जल्लादों को विकसित देशों के जल्लादों के बनिस्पत बहुत कम वेतन मिलता है। बावजूद इसके भी जल्लाद फांसी देने का कार्य करते हैं। 1980 से पहले जल्लाद को प्रतिमाह जेल प्रशासन (जिस जेल में जल्लाद की नियुक्ति की गई होती है) द्वारा 100 रुपये प्रतिमाह दिया जाता था। 1980 कि बाद यह रकम बढ़कर 3000 प्रतिमाह कर दी गई। परंतु यह भी वक्त के लिहाज से बहुत कम थी इसलिए अब उन्हें 5000 रुपये प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। निर्भया कांड के दोषियों को फांसी देने के लिए मेरठ के पवन जल्लाद को नियुक्त किया गया है जिसकी चार पीढ़ियों द्वारा यह कार्य किया जा रहा है। पहले पवन जल्लाद अपने दादा कालू की फांसी देने में सहायता किया करता था। बाद में उसने अपने पिता की भी मदद की। परंतु अब वह स्वतंत्र रूप से यह कार्य करता है और मिलने वाले 5000 रुपये प्रतिमाह वेतन से खुश हैं। आमतौर पर वो साइकल पर कपड़े की फेरी लगाते हैं.

जल्लाद पवन का कहना है कि वो केवल अपना काम कर रहे हैं। जब वो किसी को फांसी देते हैं तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता। क्योंकि उन्हें मालूम है कि जिसे वो फांसी देने जा रहे हैं, उसने जरूर कोई ऐसा अपराध किया होगा कि उसे अदालत ने मृत्युदंड की सजा दी है। इसी तरह, जब अजमल कसाब को फांसी की सजा दी जाने वाली थी तो उसे फांसी देने के लिए तमाम आवेदन जेल में पहुंचे थे। लेकिन ये जिम्मा उत्तर प्रदेश के जल्लाद मम्मू सिंह को दिया गया, जो पवन के पिता थे। मम्मू की खास बात थी कि वो फांसी की सजा देते समय रस्सी को मुलायम और तेजी से सरकाने लायक बनाने में एक्सपर्ट थे। जिस समय कसाब को फांसी देने का काम मम्मू को दिया गया, तब वो 66 साल के हो चुके थे। बीमारी की वजह से कसाब की फांसी से पहले उनकी मौत हो गई।  

तिहाड़ जेल के मुख्य द्वार पर

मम्मू ने दाता राम से लेकर कामता प्रसाद तक अपने जीवनकाल में 15 लोगों को फांसी पर लटकाया था। साल 1973 में उसने बुलंद शहर के रहने वाले दाता राम को सबसे पहले मेरठ जेल में फांसी दी थी। साल 1982 में उसने तिहाड़ जेल में बंद शातिर अपराधी रंगा और बिल्ला को पिता कालू जल्लाद के साथ मिलकर फांसी पर लटकाया था। साल 1997 में जयपुर में कामता प्रसाद तिवारी को फांसी दी थी। साल 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों सतवंत सिंह और केहर सिंह को फांसी पर लटकाया था। मम्मू को भी फांसी देने के लिए कई राज्यों में बुलाया गया था। वर्षों तक वह परिवार ख़राब आर्थिक स्थिति से जूझता रहा, लेकिन न समाज, न प्रशासन और ना ही व्यवस्था और ना ही जेल के अधिकारी कभी मदद का हाथ बढ़ाये। उसी दुःख के कारण एक इंटरव्यू में वह कहा भी था कि वो नहीं चाहता कि उसके परिवार से अब कोई इस पेशे में आए लेकिन उसका बेटा पवन भी उसके बाद अब जल्लाद है। 

इसी तरह, मुंबई हमले के गुनहगार और पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी देने का जिम्मा बाबू जल्लाद को सौंपा गया था। हालांकि बाबू की पहचान कभी उजागर नहीं हो पाई। बाद में बताया गया कि वो पुलिस का ही कोई कांस्टेबल, जिसे फिर नागपुर जेल में याकूब मेमन को वर्ष 2015 में फांसी देने के लिए बुलाया गया था। इन दोनों फांसियों के लिए उसे 5000-5000 रुपए दिए गए थे। फिर, अहमदुल्ला लखनऊ के जल्लाद थे। जल्लाद का काम उनके पिता से उन तक 1965 में आया। उन्हें लगा कि जल्लाद का काम मानवता के खिलाफ है, अतः उन्होंने इस कार्य को छोड़ दियाधार्मिक हो गए। महाराष्ट्र का एक जल्लाद था अर्जुन भीका जाघव जो इस कार्य को नब्बे के दशक में छोड़ दिया। 

क्रमशः

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