दरौड़ी (कल्याणपुर), समस्तीपुर (बिहार): विगत दिनों एक टेलीविजन चैनल पर साल 1991 में पद्मश्री और 2022 में पद्मभूषण से अलंकृत गायिका शारदा सिन्हा का बक्सर प्रवास के दौरान संत स्वामी रामभद्राचार्च से मुलाकात सम्बन्धी वीडियो दिखाया जा रहा था। उस वीडियो में शारदा सिन्हा मिथिला के तरफ से “अपना” प्रसिद्द गीत “रामजी से पूछे जनकपुर की नारी, बता दे बबुआ लोगवा देत काहे गारी…” सुना रही थी। उस गीत को सुनकर स्वामी रामभद्राचार्य “प्रसन्नतावश” अपना मुंह छिपाकर ऐसे हंस रहे थे, जैसे उन्हें भी ज्ञात हो कि आखिर इस गीत कर “गीतकार” सच में कौन थे? गायिका शारदा सिन्हा यहाँ अंतर्राष्ट्रीय संत समागम में भाग लेने आयी थी जहाँ उनकी मुलाकात स्वामी रामभद्राचार्य से हुई थी।
बिहार के लोगों के साथ-साथ भारत और विश्व के लोगों को, जो संगीत की दुनिया से ताल्लुक रखते हैं, ज्ञात नहीं होगा कि जिन गीतों को “अपना गीत” कहकर, उसकी गायकी कर पद्मश्री-पध्मभूषण शारदा सिन्हा जी विगत कई दशकों में संगीत की दुनिया में अपना हस्ताक्षर की, उनमें सैकड़ों चर्चित गीतों का गीतकार “कोई और था, कुछ जीवित हैं, कुछ अनंत यात्रा पर निकल गए।” शब्द बहुत कटु है, लेकिन सच यही है, यदि उन गीतकारों और उनके परिवार, परिजनों की बात को माने।
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि सत्तर के दशक और उसके बाद, बिहार में मशहूर गायिका विंध्यवासिनी देवी के बाद कोई दूसरी महिला गायिका क्षितिज पर नहीं आ पायी, जितना शारदा सिन्हा संगीत की दुनिया में पञ्चम लहराई। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उन्होंने राम भक्त और सन तीस के दशक में जनकपुर में अपने संगीत, शब्द और गायिकी से हस्ताक्षर करने वाले सम्मानित श्री कपिलदेव ठाकुर ‘स्नेहलता’ का भी नहीं हुई जिनके गीतों को गाकर श्रीमती शारदा सिन्हा कदम बढ़ाना शुरू की थी – “रामजी से पूछे जनकपुर की नारी” गीत भी गवाह है ।
“रामजी से पूछे जनकपुर की नारी, बता दे बबुआ लोगवा देत काहे गारी,” विश्वविख्यात गीत ही नहीं, बल्कि “मोहि लेलिखिन सजनी मोरा मनवा पहुनमा राघो,” “जिया बसु धिया बसु … तोरे मंद मुस्कानवा हिय बसि गेल “प्रतिपाला, रखवाला, तू है लाल लंगोटे वाला,” “आज माता हमें पुत्र का प्यार दे,” आदि अनेकों अवस्मरणीय, कर्णप्रिय, संवेदनात्मक, भावात्मक, समर्पित गीतों के गीतकार कोई और नहीं बल्कि भगवान् राम और सीता की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले, शब्दों से क्षण-प्रतिक्षण पुष्पांजलि करने वाले बिहार के समस्तीपुर जिले के कल्याणपुर प्रखंण्ड के दरौड़ी गाँव के श्री कपिलदेव ठाकुर थे। इन्हें ईश्वर के प्रति शब्द वंदना के कारण ही सं 1936 में सीतामढ़ी में आयोजित अखिल भारतीय संकीर्तन सम्मेलन में मंच का सञ्चालन कर रहे थे अयोध्या के तत्कालीन महान संत श्री बेदान्ती जी महाराज ने “स्नेहलता” उपनाम से अलंकृत किया था। श्री ठाकुर जी जीवन पर्यन्त कागज-कलम और दवात के बीच “स्नेहलता” बन कर अंतिम सांस लिए।
स्वामी रामभद्राचार्य आँख से दृष्टिहीन है बचपन से। लेकिन विद्वता इतनी है कि आज 22 भाषाओं में, विशेषकर संस्कृत, हिंदी, अवधी, मैथिली जैसी भाषाओं में महारत हैं। अब तक कोई 240 से अधिक पुस्तकें और 50 शोध पत्र लिखे हैं। ये सहज कवी, जिसमें तुलसीदास के रामचरितमानस या हनुमान चालीसा पर हिंदी टिकाएं, अष्टाध्यायी संस्कृत टिकाएं शामिल हैं। कहते हैं शारदा सिन्हा के पिता सुखदेव ठाकुर बक्सर के एमपी हाई स्कूल में शिक्षक थे और शारदा सिन्हा अपना बचपन बक्सर में गुजारी थी। लेकिन उस क्षण स्वामी रामभद्राचार्य भी मन ही मन अपने आराध्य भगवान राम के भक्त ‘स्नेहलता’ को श्रद्धांजलि दे रहे होंगे। खैर।
चलिए वापस समस्तीपुर चलते हैं। उधर, जिस दिन तीन नई दिल्ली में शारदा सिन्हा अंतिम सांस ली, कई पुराने टीवी के फुटेज विभिन्न्न चैनलों पर चलने गए। उन कहानियों को, उनके नाम से “हस्ताक्षरित” गीतों के बोलों को सुनकर दरभंगा-कल्याणपुर चौक से करीब 10 किलोमीटर दूर पूसा के करीब समस्तीपुर जिला के दरौड़ी (कल्याणपुर) गाँव के लोग स्वामी रामभद्राचार्च की तरह ही मुस्कुरा रहे थे। नखरिया मूल के वत्स्गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मण समाज के करीब 60 से अधिक परिवारों के पुरुष, महिलाएं मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। एक ओर ग्रामीण सांस्कृतिक परिवेश की सुसज्जित महिलाएं अपने मुख पर आँचल रख कर हंस रही थी, तो पुरुष कंधे की गमछी या घोती की खूंट को मुख के पास रखकर हंस रहे थे। सभी जानते थे की “हकीकत” क्या है। उन गीतों के वास्तविक गीतकार कौन हैं।
शारदा सिन्हा की मृत्यु से सभी दुखी थे, परन्तु जिस कदर उनके द्वारा गाये गीतों के बोल, मुखरा और अंतरा को उनके नाम से ठप्पा लगा रहे थे प्रदेश और राष्ट्रीय अख़बारों और चैनलों के पत्रकार बन्धुबांधव और अपने – अपने दर्शकों को बता रहे थे – दरौड़ी गाँव के बड़े-बुजुर्गों को हजम नहीं हो रहा था, खासकर सम्मानित (अब दिवंगत) कपिलदेव ठाकुर ‘स्नेहलता’ के परिवारों की महिलाओं को, बच्चों को, पोता-पोतियों को। स्वाभाविक भी है। सन 1909 में समस्तीपुर के इसी गाँव में जन्म लिए, यहीं की मिट्टी में खेल-पले-बड़े होने वाले, अपने जीवन पर्यन्त विवाह, संकीर्तन, विनय पदावली, शिववाणी, झूला-कीर्तन, लोक-मंगल अनुष्ठानों में तन-मन-धन से समर्पित, लोक संस्कृति को गढ़ने वाले, ईश्वर वंदना को शब्दों में ढालने वाले सम्मानित कपिलदेव ठाकुर अपने अंतिम साँसों की गिनती में शारदा सिन्हा का इंतज़ार करते कोई 31 वर्ष पहले, यानी 1993 में आँख मूंद लिए, लेकिन शारदा जी उनके द्वारा लिखित दस गीतों को लेने के बाद कभी स्नेहलता को याद नहीं की। यह भी सच है।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते ‘स्नेहलता’ के पोता श्री कन्हैया ठाकुर कहते हैं कि “सम्मानित श्री नथुनी ठाकुर के पुत्र श्री कपिलदेव ठाकुर मिथिला में सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार के रूप में प्रसिद्ध थे। दरौड़ी गाँव के वे अनुपम विभूति थे। श्री नथुनी ठाकुर को चार पुत्र थे जिसमें कपिलदेव ठाकुर दूसरे पुत्र थे। कपिलदेव ठाकुर का बचपन निर्धनता में व्यतीत हुआ। गाँव के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि जब कपिलदेव ठाकुर किशोरावस्था में थे, दरौड़ी गाँव में साधुओं का एक जत्था आया था। ठाकुर उसी जत्था का एक अंग बनकर गाँव से निकल गए और अपना जीवन भगवान के भजन-कीर्तन में समर्पित कर दिए। अपनी जीवन यात्रा के दौरान अनेकों तीर्थ यात्रा करते – करते जनार्दन पुर मठ पहुंचे। उस मठ के तत्कालीन महंथ जी से सभी साधु संत विनती किये कि यह बालक बहुत होनहार है, अतः अपने सानिग्ध में रखकर इसकी शिक्षा यात्रा प्रारम्भ की जाए । समय और ईश्वर शायद यही चाहता था । जनार्दन पुर मठ के महंथ साधु-सन्यासियों की बात को स्वीकार किये। यहीं उनकी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त हुई। बाद में बल्लीपुर के जमींदार दामोदर चौधरी के संरक्षण में बल्लीपुर को अपना कर्मभूमि बनाये। यह कहा जाता है कि उस अल्प आयु में भी वे श्री दामोदर चौधरी के बच्चों को पढ़ने का कार्य शुरू किये।
बल्लीपुर में ही कपिलदेव ठाकुर को श्री भुवनेश्वर झा “भुवनेश” जी का सानिध्य मिला। ‘भुवनेशजी’ उच्च कोटि के विद्वान, कवी और लेखक थे उन दिनों। गाँव के बड़े-बुजुर्ग यह भी कहते हैं कि दामोदर चौधरी का एक समृद्ध पुस्तकालय था जिसमें कपिलदेव ठाकुर को शास्त्र, पुराण के अलावे अन्य कई ग्रंथों को पढ़ने, लिखने, समझने और ग्राह्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। समयांतराल बल्लीपुर में लोग ठाकुर जी को मास्टर साहेब के नाम से जानने लगे। यहीं उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा से सम्बंधित ज्ञान भी अर्जित किया और फिर स्थानीय लोगों के कल्याणार्थ अपने चिकित्सीय ज्ञान को व्यावहारिक रूप में इस्तेमाल करने लगे। मिथिला के लोग इस बात से अवगत भी होंगे (आज की पीढ़ी के बारे में नहीं कह सकता) श्री भुवनेश जी के ही पुत्र थे आचार्य सुरेंद्र झा “सुमन” जो श्री ठाकुर जी के अभिन्न मित्र थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ठाकुर जी – सुमन जी की जोड़ी को गाँव के लोग मास्टर साहेब-डाक्टर साहेब की जोड़ी से अलंकृत कर दिए। ये दोनों इसी नाम से जाने जाने लगे।
तनते भृकुटि से मानस पटल पर जोर डालते, जैसे उन दिनों की बातों को, वार्तालापों को याद कर रहे हों, महिला-पुरुष कहते हैं कि कोई सन 1932 में श्री ठाकुर जी अपने गाँव वापस आये। गाँव के तत्कालीन बड़े-बुजुर्ग उन्हें देखकर एक ओर जहाँ प्रसन्न हुए, वहीँ उन्हें ईश्वर, शिक्षा, चिकित्सा के प्रति भावनात्मक रूप से समर्पित बच्चा को देखकर आह्लादित भी हुए। उसी कालखंड में दरौड़ी गाँव मे कीर्तन समाज नाम से एक मंडली का गठन हुआ। मंडली में श्री सूर्यदेव ठाकुर “बाबा”, श्री राजाराम ठाकुर “गुरुजी”, श्री अनिरुद्ध ठाकुर “संत जी, श्री जगदीश ठाकुर “रामप्रिया”, श्री कपिलदेव ठाकुर “स्नेहलता” सभी श्री दुखा ठाकुर के दरवाजे पर रामायण गोष्ठी प्रारम्भ किये । धीरे धीरे संकीर्तन समाज द्वारा नाटक और संकीर्तन दोनों को गति मिला।
सन 1935 में जनकपुर यात्रा करने का विचार आया। उस कालखंड में सवारी-गाड़ी के अभाव के मद्दे नजर यह विचार आया कि यात्रा ज्यादातर पाव-पैदल किया जा। कहीं कहीं बैलगाड़ी की सुविधा ली जाए । दिन भर यात्रा करने के बाद संध्याकाळ और रात्रि में किसी मंदिर अथवा मठ में भजन कीर्तन, रात्रि विश्राम करते अपने गंतव्य पर पहुंचा जाए । यह भी विचार किया गया कि कीर्तन के संमोहन आ भगवान कृपा सत्कार मे भी कोई कमी नहीं रहे। अपने संकल्प के साथ ठाकुर जी का पूरा मंडली एक दिन जनकपुर पहुंचा गया।
परिणाम यह हुआ कि कालांतर में इस मंडली को जनकपुर में अपन विशिष्ट पहचान मिला। ठाकुर जी का भगवान राम और सीता के प्रति अगाथ प्रेम था। समर्पित थे वे उनके प्रति। बड़े वुजूर्ग तो यह भी कहते हैं कि कई बार अर्धरात्रि में ठाकुर जी (स्नेहलता) के समक्ष सोलह-श्रृंगार की जगत जननी किशोरीजी का दर्शन प्राप्त हुआ। लोग कहते हैं कि स्नेहलता ओपन जीवन काल में जगत जननी की साक्षात्कार को शब्दों में लिखे, जिस रात उन्हें देखते थे।
* कवने नगरिया से एलै बरियतिया हे रस प्रीति माती – कवने नगरिया भेलै शोर हे रस प्रीति माती
अबध नगरिया से एलै बरियतिया हे रस प्रीति माती – मिथिला नगरिया भेलै शोर हे रस प्रीति माती
* परीछन चललनि सखियाँ सहेलिया हे रस प्रीति माती – रोशनी से भईल ईजोर हे रस प्रीति माती
गावथि कपिलदेव महल दुअरिया हे रस प्रीति माती – देखि देखि भ गेल विभोर हे रस प्रीति माती
मंडली जनकपुर से एक संकल्प के साथ वापस आया। संकल्प यह था कि अगले वर्ष अपने गाँव में श्री सीताराम विवाह समारोह मनाया जाए । दिनों दिन मंडली के ख्याति समाज में बढ़ता गया। इसका मुख्य कारण था मंडली का अपना रचनाकार। कहते हैं जिस मंडली का अपना रचनाकार होता है, नया-नया गीत लिखा जाता है, भाव-भंगिमा, शब्दों का सृजन, शब्दों में भक्तिरस का समावेश फिर मंडली क्यों न आगे बढे। इस मंडली में गीतों के रचनाकार थे कपिलदेव, कपिलेश, बाबा सूर्यदेव ठाकुर का मधुर गायन।
समय बदल रहा था। वर्ष 1936 में सीतामढ़ी में अखिल भारतीय संकीर्तन सम्मेलन में रजत द्वार मंदिर में स्नेहलता अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किये। उनका विनयपद् झांकी कीर्तन आ वैवाहिक गीत पर श्रोता झूम उठे थे। उपस्थित श्रोतागण की ताली की गड़गड़ाहट से आकाश गुंजायमान हो उठा था। उस मंच का सञ्चालन कर रहे थे अयोध्या के तत्कालीन महान संत श्री बेदान्ती जी महाराज। श्री कपिलदेव जी की प्रस्तुति और भगवान राम-सीता के प्रति समर्पित शब्दों को सुनकर श्री वेदांत जी स्वयं चलकर कपिलदेव ठाकुर के हृदय से लगाते कहते हैं: “कपिलदेव !! हम भगवान का दिन-रात पूजा करते हैं, शास्त्र पुराण अध्ययन करते हैं, अनेक तीर्थ स्थलका दर्शन करते हैं, परन्तु दुलहा सरकार श्री किशोरी जी का (भगवान् राम) का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं प्राप्त हुआ। तुम्हें कहां मिले जो इतना सजीव, जीवंत, चित्ताकर्षक वर्णन किये। यहीं सम्मानित बेदान्त जी महाराज उसी मंच पर कपिलदेव ठाकुर के नव नामाकरण “स्नेहलता ” किये। नव नामकरण का अनुमोदन वहां उपस्थित हज़ारों-हज़ार दशकों की तालिक की गूंज थी। और उसी दिन से श्री ठाकुर जी अपनी रचना में स्नेहलता, लतिका स्नेह, सनेहिया, स्नेह आदि भनिता के साथ अपनी रचना करते रहे। स्नेहलता के प्रारंभिक गीत में कपिल, कपिलेश, ठाकुर कपिलदेव आदि भनिता संग देख सकते हैं ।
इसके एक साल बाद 1937 में छठ पारन दिन यज्ञ के संरक्षक बजरंगी के ध्वजारोहण के साथ विवाहोत्सव की तैयारी प्रारम्भ हुआ। धर्म गाछी के नाम से प्रसिद्ध मैदान में सम्मेलन के पाण्डाल निर्माण का जबाबदेही त्रिवेणी ठाकुर “बजरंगबली” संभाले। विवाह पंचमी से दो दिन पहले सूर्योदय के समय गणेश वंदना के साथ संग महामंत्र ”श्री सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम” प्रारंभ हुआ। चौबीस घंटे बाद श्री रामचरितमानस के नाम महात्मपाठ, रात्रि में फुलवारी धनुष यज्ञ, श्री किशोरी जी की झांकी आदि के साथ कीर्तन मंडली गाजा-बाजा के साथ नाचते, गाते किशोरी जी के मटकोर, विवाह कार्यक्रम आदि प्रस्तुत किया गया। इस अवसर पर स्नेहलता रचित मंगल गीत था : “मंगल आजु जनक पुर मंगल मंगल हे - आहे मंगल सिया के विवाह जनक घर मंगल हे।” “चलु हे नवेली आली सुमुखि सुनैनी चलु हे सजनी हे – दुअरे पर आयल बरियात”, “जादू भरे नैन तोरे जादू भरे नैन – ओ हमारे मोहना जुलुम तोरे नैन।”
“स्नेहलता” के पोता श्री कन्हैया ठाकुर कहते हैं : “सत्तर के दशक के उत्तरार्थ इधर नानाजी का भक्ति-संगीत में, खासकर राम-सीता के प्रति समर्पण वाले गीत, शिव वंदना, सीता विवाह, भगवान् राम की सुंदरता, जनकपुर वंदना, विवाह – विधि जैसे परिछन, गोसउन गीत, महादेव गीत और भक्ति संगीत से सम्बंधित सभी रचनाएँ मंडली के कारण उत्कर्ष पर थी। उसी कालखंड में शारदा सिन्हा भी संगीत की दुनिया में कदम रखी थी। उस समय बिहार में महिला कलाकारों की किल्लत थी और बेहतरीन गीतकार भी नहीं थे (मैं समझता हूँ) जिनके गीतों में, शब्दों में ईश्वर के प्रति समर्पण दीखता हो। शारदा सिन्हा के पति के मित्र थे श्री बालेश्वर ठाकुर जो समस्तीपुर महिला कालेज में थे। शारदा सिन्हा नाना जी से मिलने आ गयी। मिलने-जुलने-बोली-चाली में बहुत आकर्षण था, समर्पण भी दिखा। वे नाना जी से उनके द्वारा लिखित गीत मांगी जो उन दिनों भक्ति मंडली और उसकी प्रस्तुति के कारण बिहार-नेपाल में बहुत प्रसिद्ध् हो गया था। नानाजी ह्रदय के बहुत साफ़-सुथरा व्यक्ति थे। शारदा जी नाना जी से कुछ गीत मांगी गाने के लिए। जिस पोथी में नानाजी गीत, भजन, वंदना लिखा करते थे, दस गीत उन्हें दे दिए गाने के लिए, साथ ही, यह भी कहे कि जीवन में दरौड़ी को नहीं भूलना। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नानाजी लिखित सभी दस गीत विश्वविख्यात हुआ। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि गीत हस्तगत होते ही शारदा जी दरौड़ी क्या नाना जी को भी भूल गयी। जीवन पर्यन्त वे उन गीतों में नानाजी को कभी याद नहीं की, नाम भी नहीं लीन।”
कन्हैया ठाकुर कहते हैं: “मेरी माँ श्रीमती राजेश्वर देवी और मेरी मौसी महेश्वरी देवी मेरे नाना के अतिप्रिय संतान थीं। मेरे पिता श्री सीताराम ठाकुर एक किसान थे। यह नहीं कहूंगा कि संगीत की दुनिया से उनका कोई लगाव नहीं था उन दिनों, अगर लगाव नहीं होता तो अपनी पत्नी यानी मेरी माँ को और अपनी साली (मेरी मौसी) जो बाद में मेरी चाची बनी, को संगीत की दुनिया में आने ही नहीं देते। मेरे नाना जी के व्यक्तित्व में एक अलग आकर्षण था। मैं उन्हें देखा हूँ, उनकी सेवा किया हूँ। जीवन के अंतिम बसंत में भी उनके वचन में ईश्वर के प्रति जो सम्मान, प्रेम दीखता था, उस दिव्य प्रेम को जब वे शब्दों में उतारते थे, लिखते थे तो साक्षात् देवी का दर्शन होता था। मेरे नाना जी जब भी लिखते थे अपनी दोनों बेटियों को गीत का बोल और भास बताते थे। वे अक्सरहां, दोनों को उस भास पर गाने को भी कहते थे। माँ और मौसी में यह ईश्वरीय गुण था कि एक बार उनके गीतों को उस भास पर गुनगुना लेने के बाद जीवन पर्यन्त कभी नहीं भूली। उस कालखंड में गोपालपुर (मुजफ्फरपुर) के तबला वादक होते थे श्री लालजी राय।”
कन्हैया जी आगे कहते हैं: “भक्ति संगीत में विवाह पंचमी मेरे नाना जी ने प्रारम्भ किया था। सन सत्तर के दशक के उत्तरार्ध एक कार्यक्रम में तत्कालीन शिक्षामंत्री श्री ललितेश्वर प्रसाद शाही विशेष अतिथि के रूप में मंच पर थे। शारदा सिन्हा भी उपस्थित थी। आयोजकों के साथ-साथ श्री शाही जी द्वारा उन्हें कहा गया कि स्नेहलता लिखित “रामजी से पूछे जनकपुर की नारी” या “मोहि लेलखिन सजनी मोरे मनवाँ” गीत गाकर सुनाएँ। शारदा जी कुछ पल शांत रहीं फिर कहती हैं कि वे किसी भी गीतों को सार्वजनिक रूप से नहीं गा सकती हैं। जब उनसे पूछा गया तो वे कहीं कि टी-सीरीज के साथ हुए अनुबंध के अनुसार वे ऐसा नहीं कह सकती हैं, नहीं गा सकती हैं। वे नहीं गायी। मंच पर ही नहीं, उस कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोग क्षुब्ध हो गए।”
अपने दादा जी के एक और महत्वपूर्ण रचना का जिक्र करतेश्री कन्हैया जी कहते हैं कि “द्वार के छेकाई देके पहिले चुकइयौ हे दुलरुआ भैया – तब जहियौ कोहबर अपन, हे दुलरुआ भैया” गीत शारदा सिन्हा को मैथिली-भोजपुरी संगीत के क्षेत्र में उत्कर्ष पर पहुंचा दिया । यह गीत महज एक गीत नहीं है बल्कि एक संस्कृति हैं हमारे क्षेत्र में खासकर जब एक बेटा विवाह का अपनी नई नवेली पत्नी को मायके से ससुराल (अपने घर लाता है), वहां उसके पति के अलावे उसका उस क्षण कोई नहीं होता। जब उस वधु का पति या उस घर का बेटा अपनी पत्नी से पहली बार मिलने कोहबर जाने लगता है तो उस समय उस वधु के सम्मानार्थ यह नानाजी का पारम्परिक रचना है। स्वाभाविक है इस गीत को जब लिखे होंगे उस क्षण नानाजी के मन में भगवान राम और सीता विवाह, सीता का कोहबर में होना, भगवान राम का कोहबर की ओर अग्रसर होना, दरवाजे पर अयोध्या की नारियों का होना दृश्य अवश्य रहा होगा। वे सोचे होंगे कैसे भगवन राम जब कोहबर जाने लगे होंगे तो घर के लोग उन दोनों की मर्यादा के सम्मानार्थ शब्दों का सृजन किये होंगे। परन्तु शारदा जी कभी नानाजी का नाम तक नहीं लीं इस गीत में । हम सभी को इस बात की पीड़ा कल भी थी, आज भी है और रहेगी भी ।”
“इतना ही नहीं,” कन्हैया जी आगे भी कहते हैं की ‘इसका घातक प्रभाव समाज पर यह पड़ा की नाना जी सं 1993 में अंतिम सांस लेकर इस लोक को विदा कर दिए। उनकी मृत्यु के बाद मेरे मामा, यानी स्नेहलता जी के पुत्र श्री श्रीकांत ठाकुर अपने पिता द्वारा लिखित समस्त दस्तावेजों को बक्से में बंद कर रख दिए, भगवान् राम को समर्पित कर दिए। उनके मन में ऐसी कौन सी बात घर कर गई यह तो किसी को वे आज तक नहीं बताये। लेकिन जीते जी माँ, मौसी सभी यही सोचती रही कि नाना जी की कीर्तियों का बाजारीकरण कर दिया गया। उस घटना के बाद, खासकर नानाजी की मृत्यु के बाद उन दस्तावेजों से किसी को भी एक शब्द नहीं मिला, और शायद मिलेगा भी नहीं।”
“सं 2010-11 में,” कन्हैया जी कहते हैं, “दादा जी के पुण्यतिथि पर हमारे परिवार के अलावे गाँव के कई गणमान्य लोगों ने शारदा सिन्हा से कहे भी थे कि वे नानाजी के सम्मानार्थ (कोई उनकी कीर्तियों को सार्वजनिक रूप से कहेगा तभी तो लोग जान पाएंगे, सभी अपने-अपने हितों में इस्तेमाल किये) राज्य सरकार से चर्चा करें। उस घटना के कोई उन्नसी वर्ष पूर्व शारदा सिन्हा को भारत सरकार के तरफ से पद्मश्री नागरिक सम्मान से अलंकृत किया जा चुका था। कुछ दिन बाद पटना और अन्य जिलों से प्रकाशित स्थानीय समाचार पत्रों में दो-पैरा की एक छोटी से कहानी प्रकाशित हुई शारदा सिन्हा के नाम से कि स्नेहलता को भी सम्मान मिलना चाहिए। दुःख़द है।”
क्रमशः