​बिहार का सत्यानाश (भाग-1) विशेष कहानी : चारा चोर-चारा चोर चिल्लाते, नारा लगाते सभी विधानसभा, लोकसभा, राज्य सभा में बैठते गए, मतदाता बाएं के स्थान पर दाहिनी तर्जनी पर अमिट स्याही लगाते गए​

आपको अच्छा लगा खाना नीतीश बाबू PHOTO: प्रभादीक्षा के सौजन्य से

पटना / नई दिल्ली : विगत पाँच, दस, पंद्रह वर्षों में बिहार के मतदाता अपने अपने प्रदेश में यदि भ्रष्टाचार का कोई मामला देखे हों, क़ानून-व्यवस्था में गिरावट की बात सुने हों, रोज़ी-रोज़गार का कोई मामला सामने आया हो, शिक्षा के पतन के बारे में घरना-जुलूस निकला हो, महिलाओं का बलात्कार हुआ हो, गरीब-गुरबा को गोली से छल्ली किया गया हो, रिश्वत या फिरौती नहीं देने पर अपहरण हुआ हो, तो सभी मुद्दों को ज़मीन में दफ़ना दीजिए, संदूक में बंद कर दीजिए। भारत का चुनाव आयोग बिहार में विधान सभा चुनाव के लिए तारीख़ की घोषणा करने जा रहा है। अगर उन मामलों को दफ़नाने में आप चूक गये, संदूक में बन कर चाभी गंगा मैया को देना भूल गये तो यक़ीन कीजिए आप मतदाता फिर से चुनावी जाल में, नेताओं की चाल में फँसने जा रहे हैं।

यकीन नहीं होता तो उदहारण पर नजर दीजिये। सबसे बड़ा दृष्टांत यह है कि पिछले दो दशक में चारा चोर – चारा चोर का चिचियाकर नारा देने वाला अनपढ़, अशिक्षित, बदमाश, दबंग सभी विधायक बन गए। मंत्री बन गए। संत्री बन गए। लोक सभा और राज्य सभा का सांसद बन गए। इतना ही नहीं, जिसे भारत का कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका भ्रष्टाचार का नेता घोषित कर लाखों-करोड़ों रुपये का दंड ठोका, उनके घर में दो विधायक और दो सांसद बन गए और आप मतदाता फिर से अपने दाहिने और बायें हाथ की तर्जनी उँगली में नहीं छूटने वाला रोशनाई लगाने के लिए सज्ज हो रहे हैं।

कभी सोचे कि चारा घोटाला का मामला नब्बे के दशक के उत्तरार्ध पुलिस के पास और न्यायालय में आया और उसी कालखंड में जन्म लिए कभी मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ने वाले अभियंता नीतीश कुमार। उसी कालखंड में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के पूर्व निदेशक (अब दिवंगत) जोगिन्दर सिंह का किताब INSIDE CBI का प्रकाशन हुआ जिसमें चारा घोटाला का वर्णन सिंह साहब चौपाई में किये। इनसाइड सीबीआई के रचयिता और कुमार साहेब का यह जन्म-जन्मांतर वाला सम्बन्ध आने वाले दिनों में एक वृहत शोध का विषय होगा।

दो मित्र-दो नेता-दो मुख्यमंत्री-एक बहुत – एक वर्तमान

चारा घोटाला में भले हज़ारों करोड़ रुपये का चपत लगा हो सरकारी कोषों को, उस मुकदमें पर सरकारी कोष से भले कई सौ करोड़ रूपये खर्च किये गए हों; अंततः चारा घोटाला में लिप्त वे सभी व्यक्ति लाभान्वित हुए तो इस कांड में लिप्त थे, जो चारा-चोर, चारा-चोर का नारा लगाए, जो विभिन्न भारतीय भाषाओँ में किताबों का प्रकाशन किये। कभी सोचे कि नीतीश कुमार के अलावे प्रदेश में मुख्यमंत्री पद पर कोई अन्य व्यक्ति क्यों नहीं आसीन हो पाए? नहीं न। आप आगामी चुनाव में फिर नया नारा सुनने की प्रतीक्षा करें, ठगने-ठगाने का इंतज़ार करें, तर्जनी वाली ऊँगली पर कभी नहीं छूटने वाला रोशनाई लेपने की प्रतीक्षा करें और फिर सामाजिक क्षेत्र के संचार साधनों पर तस्वीर चिपकाएं। वैसे भारत में तथाकथित रूप से बड़े-बड़े लोग, मतदाता, चाहे पुरुष हों तय महिला, नहीं जानते की किस हाथ की किस ऊँगली में रोशनाई लगनी चाहिए मतदान के समय।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सरदार पटेल चौक के बाएं भारत का निर्वाचन आयोग के प्रवेश द्वार पर संतरियों का मानना है कि बिहार में राजनीतिक गतिविधियां शीघ्र ही कछुए की चाल से चीता की चाल में तब्दील होने वाली है। आगामी चुनाव में अपनी-अपनी टोपी उछालने वाले दिन-रात मेहनत कर, निजी क्षेत्र लोगों को नियोजन देकर ‘झूठ-सच’ बातों का पुलिंदा चुनाव प्रचार-प्रसार में लाउडस्पीकर पर चिल्लाने के लिए तैयार हो रहे हैं। ‘फलनमा’ डकैत है, फलनमा ‘जनता का अहित किया है’, फलनमा प्रदेश को लूट लिया है – जैसे नारों से पटना का गाँधी मैदान जल्द ही गूंजने वाला है। दिल्ली के कई शैक्षणिक संस्थानों में राजनीतिक शास्त्र, सांख्यिकी के छात्र-छात्राओं का विशाल समूह आंकड़ों के साथ सज्ज हो रहा है, आखिर कैसे मतदाताओं को ठगा जाए । जाति के आधार पर गणित का गुणनफल निकाला जाए। अल्पसंख्यकों को उनके झोले से निकालकर अपने झोले में डाला जाए।

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2020 के चुनाव के बाद एक विश्लेषण में कहा गया कि बिहार विधानसभा के 243 नवनिर्वाचित सदस्यों में से 162 करोड़पति हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और बिहार इलेक्शन वॉच द्वारा किए गए विश्लेषण में कहा गया था कि “इस साल बिहार विधानसभा में कुल 67 प्रतिशत निर्वाचित प्रतिनिधि करोड़पति हैं, जबकि 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान विश्लेषण किए गए 228 विधायकों में से 45 विधायक, यानी 20 प्रतिशत, करोड़पति थे।” 243 नवनिर्वाचित विधायकों के हलफनामों के अध्ययन के अनुसार, 162 में से 14 विधायकों के पास 10 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति है। राजद के 80 में से 51 विधायक, जदयू के 71 में से 53 विधायक, भाजपा के 53 में से 32 विधायक, कांग्रेस के 27 में से 19 विधायक, रालोसपा के दो में से एक विधायक और लोजपा के दोनों विधायक करोड़पति हैं।

बिहार की सबसे अमीर विधायक खगड़िया से पूनम देवी यादव के पास 41 करोड़ रुपए से ज़्यादा की संपत्ति है, जो मौजूदा विधायकों की औसत संपत्ति से लगभग 14 गुना ज़्यादा है। सूची में दूसरे नंबर पर भागलपुर के अजीत शर्मा हैं, जिनके पास 40 करोड़ रुपए की संपत्ति है। उनकी चल संपत्ति 3.7 करोड़ रुपये है, जबकि उनकी अचल संपत्ति जैसे भूमि, संपत्ति और संपदा 36.7 करोड़ रुपये की है। मोकामा विधायक अनंत कुमार सिंह ने कुल 28 करोड़ रुपये की संपत्ति दर्ज की, जिसमें भूमि और संपत्ति लगभग 25 करोड़ रुपये है। शेष 2.8 करोड़ रुपये चल संपत्ति हैं। अनंत कुमार सिंह 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में चुनाव लड़ रहे सबसे अमीर उम्मीदवार भी हैं, जिनकी कुल संपत्ति तीन गुना बढ़कर 68 करोड़ रुपये हो गई है। कुमार के खिलाफ सबसे ज्यादा आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। इसके विपरीत, रानीगंज के विधायक अचमित ऋषिदेव ने सबसे कम 9.8 लाख रुपये की संपत्ति दर्ज की।

पिता-पुत्र यानी एक पूर्व मुख्यमंत्री, एक पूर्व-उप-मुख्यमंत्री एयर एक पूर्व स्वास्थ्य मंत्री

अगर प्रदेश के राजनेता अपने-अपने कलेजे पर हाथ रखकर स्वयं से पूछें तो इस बात से इंकार नहीं कर सकेंगे की सन 1975 जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद अभी तक जितने भी नेता, मंत्री, संत्री, विधायक, सांसद बने, प्रदेश के विकास की तुलना में स्वयं का विकास अधिक महत्व दिए। भारत के चुनाव आयोग को दिए गए शपथ पत्र और संपत्ति विवरण इस बात का गवाह है कि राजनीति इनके लिए सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ शायद व्यवसाय भी है, अन्यथा इतनी संपत्ति की प्रचुरता के बाद प्रदेश का, विधानसभा क्षेत्र के उनके मतदाताओं की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक स्थिति इतनी दरिद्र क्यों है ? क्या वे सच में चाहते हैं कि उनके विधानसभा अथवा संसदीय क्षेत्र के मतदाता सच में समृद्ध हों, विकसित हों, शिक्षित हों, विचारवान हों। शायद नहीं।

जिन लोगों ने ‘भ्रष्टाचार’ का नारा बुलंद कर, गिरती, लुढ़कती विधि-व्यवस्था को अपने नारों में प्रमुखता देकर मतदाता को बरगलाये, चुनाव जीते, वे तो समाज और राजनीतिक व्यवस्था में ‘संभ्रांत’ हो गए, मतदाता वहीँ का वहीँ कहीं पांच तो कहीं तीन डिग्री के तापमान में, पेट-पीठ एक किये, कल भी कलपती थी, कराहती थी, आज भी कलाप रही है, कराह रही है। यही उसका प्रारब्ध है क्योंकि शहरों में 60-65 % और ग्रामीण क्षेत्रों में 35-45 % साक्षरता दर पर, 90 % बेरोजगारी पर – इससे अधिक सोच भी नहीं सकते हैं।

चलिए जब भ्रष्टाचार की बात उठी तो नई दिल्ली के सीजीओ परिसर चलते हैं जहाँ केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) का दफ्तर है। नब्बे के दशक में ब्यूरो में जो अधिकारी थे, वे सभी अवकाश प्राप्त कर लिए क्योंकि वे सभी साठा हो गए। यह बात ब्यूरो में ही नहीं, देश और प्रदेश के किसी भी संस्था में काम करने वाले कर्मी से लेकर अधिकारी के लिए लागु होता है। जैसे ही साठा होते हैं, वे काम करने लायक नहीं रहते। उन्हें अवकाश ग्रहण करना पड़ता हैं। अपवाद छोड़कर (जो नेताओं चाहे मुख्यमंत्री हों या प्रधानमंत्री, के नीली आँख वाले अगर हैं तो साठ ही नहीं, जीवन के अंतिम सांस तक काम करने लायक रहते हैं, चाहे हाथ-पैर थरथराये या बोली लड़खड़ाए। विश्वास नहीं है तो चश्मा लगाकर, आँख फाड़कर देख लीजिये।

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ब्यूरो के एक अधिकारी कहते हैं कि ‘स्वतंत्र भारत में दर्जनों भ्रष्टाचार कांड हुए लेकिन नब्बे के दशक में पशुओं के चारा के नाम पर जो गबन हुआ, शायद इतिहास में काले अक्षर में ही दर्ज रहेगा। बहु-अरब डॉलर का पशुपालन विभाग घोटाला, जिसे आम तौर पर चारा घोटाला के रूप में जाना जाता है, 1990 के दशक के मध्य में उजागर हुआ था, जिसमें कथित तौर पर स्कूटर और मोटरसाइकिल पंजीकरण संख्या वाले ट्रकों और लॉरियों पर पशु चारा की आपूर्ति की गई थी। इस मामले में कई राजनेताओं को दोषी पाया गया और उन्हें विधानसभा और संसद में अपने पदों से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इतना संवेदनशील होने के बावजूद कि यह घोटाला 1996 में सामने आया था।

लालू प्रसाद यादव मंत्रिमंडल में तत्कालीन पशुपालन मंत्री रामजीवन सिंह ने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया और सीबीआई जांच का प्रस्ताव रखा। हालांकि, लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले प्रशासन, जिनके पास वित्त मंत्रालय भी था, ने कुछ नहीं किया। बाद में, जनवरी 1996 में, तत्कालीन वित्त आयुक्त वी.एस. दुबे ने अमित खरे को चाईबासा में जिला कोषागार से अत्यधिक और धोखाधड़ी से निकासी की जांच करने का काम सौंपा।

कहा जाता है कि यह घोटाला सरकारी अधिकारियों द्वारा गलत व्यय रिपोर्ट दाखिल करने के छोटे पैमाने पर गबन से शुरू हुआ था, लेकिन समय के साथ यह बढ़ता गया और राजनेताओं और व्यापारियों सहित और भी प्रतिभागियों को इसमें शामिल किया गया, जब तक कि यह एक पूर्ण माफिया नहीं बन गया। घोटाले के बारे में जानने का आरोप लगने वाले पहले मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा थे, जो 1970 के दशक के मध्य में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। सीबीआई ने चाईबासा कोषागार मामले में पहली एफआईआर 27 मार्च 1996 को दर्ज की थी। केंद्रीय जांच ब्यूरो की विशेष अदालत द्वारा अनेक लोगों के विरुद्ध कार्रवाई हुए लेकिन इस काण्ड में लालू प्रसाद यादव को दोषी ठहराया गया।

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अधिकारी कहते हैं कि तब आइए, नतीजा पर। जब से इस काण्ड में लालू यादव का नाम आया, ब्यूरो, अदालत उन्हें दोषी पाने लगा, उनकी कुर्सी गयी। वे सत्ता के शरीर से बाहर हो गए। लेकिन पिछले दो दशकों में अगर प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था पर नजर डालें तो प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (जिनका नाम भी आया था प्रारम्भ में) हों, या दिवंगत सुशील कुमार मोदी हों, या वर्तमान में जनतादल यूनाइटेड के राज्यसभा सदस्य संजय झा हों, चारा घोटाला से भले मौद्रिक लाभ नहीं हुआ हो, लेकिन सत्ता की गलियारे में कुर्सी पर विराजमान होना – इत्तिफाक नहीं, बल्कि उसी का परिणाम है।

इतना ही नहीं, आज के बिहार की अनुमानित जनसख्यां 132,790,000 में सिर्फ लालू प्रसाद यादव और उनका ही परिवार इतना दक्ष है कि विधान सभा से लेकर संसद तक उनकी पत्नी, उनके बाल-बच्चे, सगे सम्बन्धी बैठें – यह मूलतः तमाचा है सम्पूर्ण व्यवस्था पर, चाहे राजनीतिक हो विधि-विधान हो, न्यायिक हो। लालू यादव तो 29 वर्ष की आयु में संसद पहुंचे थे, लेकिन उनका छोटका पुत्र तेजस्वी यादव 26 साल की आयु में प्रदेश का उप-मुख़्यमंत्री बन गया। यह कार्य न तो प्रदेश का या केंद्र का मंत्रिमंडल कार्यालय अधिसूचना निकालकर उन्हें रखा, बल्कि प्रदेश के लोग ही चुने – पूरे परिवार को। फिर दोषी कौन है?

चारा घोटाला के मामले में कई जनहित याचिकाएं दायर की गयी, जिसमें तीन व्यक्ति – सुशील मोदी, सरयू राय और शिवानंद तिवारी – प्रमुख थे । याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए पटना उच्च न्यायालय ने 11 मार्च, 1996 को अपने आदेश में कहा, “राज्य के अनुसार, विभाग में अतिरिक्त निकासी 1977-78 से हो रही है। मेरा मानना है कि प्रस्तावित जांच और जांच 1977-78 से 1995-96 तक की पूरी अवधि को कवर करनी चाहिए। मैं सीबीआई को उसके निदेशक के माध्यम से निर्देश देता हूं कि वह 1977-78 से 1995-96 की अवधि के दौरान बिहार राज्य में पशुपालन विभाग में अतिरिक्त निकासी और व्यय के सभी मामलों की जांच और छानबीन करे तथा जहां निकासी धोखाधड़ी की प्रकृति की पाई जाए, वहां मामला दर्ज करे और उन मामलों में जांच को यथाशीघ्र, बेहतर होगा कि चार महीने के भीतर, तार्किक निष्कर्ष तक ले जाए।” एजेंसी ने राज्य पुलिस द्वारा पहले से दर्ज 41 मामलों की जांच शुरू की, और पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद खुफिया रिपोर्टों और शिकायतों के आधार पर 23 मामले दर्ज किए गए। कुल मिलाकर, सीबीआई ने चारा घोटाले के चौसठ मामलों की जांच की। 27 मार्च, 1996 को, सीबीआई ने चाईबासा कोषागार मामले में पहली प्राथमिकी दर्ज की।

क्रमशः

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