जिसके नाम से अखण्ड भारत में ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत में ‘शेरशाह सूरी द्वार’ लोहे के शिकंजे में बंद हैं; कहीं ‘गिरने’ का इंतज़ार तो नहीं कर रहे हैं ‘रक्षक’?

शेर शाह सूरी' द्वार

नई दिल्ली : अखंड भारत के कुशल प्रशासक, दिल्ली सल्तनत (पुराना किला) के निर्माता, ग्रैंड ट्रंक रोड के तत्कालीन जीर्णोद्धार करने वाले सम्राट शेर शाह सूरी द्वारा निर्मित ‘शेरशाह सूरी का दिल्ली गेट” आज ‘आधुनिक भारत के निर्माताओं द्वारा लोहे के मोटे-मोटे शिकंजे में जकड़ दिया गया है। कहते हैं उस रास्ते से जाना खतरे से खाली नहीं है। शेर शाह सूरी गेट की दीवारें, मीनारें कमजोर हो गई है। विगत कई दशकों और शताब्दियों में प्राकृतिक घटनाओं के कारण वह इलाका और ‘सुरक्षित’ नहीं है। बहाना और वजह जो भी हो, हालात यही है कि शेर शाह सूरी द्वार आज उपेक्षा का शिकार हो गया है और उसे देखकर यही कह सकते हैं कि ‘सभी इसके गिरने का इंतज़ार’ कर रहे हैं। 

वैसे भारत की सांस्कृतिक विरासतों के पुरातत्‍वीय अनुसंधान और संरक्षण की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पर है, चाहे दिल्ली स्थित हो, या भारत भूभाग पर कहीं भी, लेकिन देश के लोगों से अधिक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आला-अधिकारी, सरकार के लोग, मंत्री अधिक बताएँगे कि आज के समय में ऐसी ऐतिहासिक पुरातत्वों, भवनों का क्या हाल है। अगर भारत का न्यायालय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा देखरेख करने वाले दस्तावेजों को खंगाले, यकीन कीजिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ‘चारो खाने चित्त’ हो जायेगा। यकीं नहीं हो तो आजमा कर देखिये। 

अगर बिहार के सासाराम में शेरशाह सूरी का मकबरा आज भी ‘जीवित’ दिखता है तो दिल्ली सल्तनत में ‘शेर शाह सूरी’ द्वार को मौत की ओर क्यों धकेला जा रहा है ? आज के इस वैज्ञानिक युग में इसे मरम्मत कर अत्याधुनिक बनाया जा सकता है। आने वाले समय में भारतीयों के लिए, देश-विदेश से भ्रमण-सम्मेलन करने वाले पर्यटकों के लिए, शोधार्थियों के लिए, नई पीढ़ियों के लिए धरोहर सुरक्षित दिया जा सकता है। लेकिन मथुरा रोड की ओर से मुख्य द्वार पर लटके ताले, अंदर के परिसर में कूड़े-कचरों का ढ़ेर, प्रवेश द्वार पर अधिकारियों के द्वारा बनाये गए ‘शौचालय’, दिल्ली उच्च न्यायालय की दिशा से परिसर के अंदर जंगल का होना, जीता-जागता दृष्टान्त है कि “सभी शेर शाह सूरी द्वार को मृत्यु के द्वार’ तक ले जाना चाहते हैं।   

शेर शाह सूरी द्वार आज उपेक्षा का शिकार हो गया है और उसे देखकर यही कह सकते हैं कि ‘सभी इसके गिरने का इंतज़ार’ कर रहे हैं।

दिल्ली के आईटीओ चौराहे से प्रगति मैदान, सर्वोच्च न्यायालय, पुराना किला से आगे निकलने वाली सड़क “मथुरा रोड” से पुराना किला के सामने से जब दाहिने हाथ दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर उन्मुख होते हैं – इस सड़क के इस बिंदु से आगे इण्डिया गेट गोल चक्कर तक – इस रास्ते को ‘शेर शाह सूरी’ के नाम समर्पित किया गया है। वैसे दिल्ली सल्तनत में जिस कदर ‘रास्तों, सड़कों, गलियों की राजनीति होती आ रही है, कब शेर शाह सूरी मार्ग का नाम बदल जाए, कहा नहीं जा सकता। इसी मार्ग के आरंभिक कोने पर बाएं हाथ कोई आठ सौ वर्ष पुराना द्वार है जिसे ‘शेर शाह सूरी द्वार’ कहा जाता है। इस द्वार के बाएं हाथ एक “ख़ैर-उल-मजाजिल है, जिसका निर्माण (कहा जाता है) अकबर ने कराया था अपनी दूसरी माँ के सम्मान में। “ख़ैर-उल-मजाजिल” और “शेर शाह सूरी द्वार” के कुछ दीवारें दोनों के लिए एक ही हैं। 

‘शेर शाह सूरी द्वार’ कुछ वर्ष पहले तक खुला था। यानी दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर से मुख्य मार्ग से अलग होकर भी कोई पैदल यात्री शेर शाह सूरी द्वार से चलकर मथुरा रोड और ख़ैर-उल-मजाजिल पहुँच सकता था। परन्तु अब वो बात नहीं है। शेर शाह सूरी द्वार का पिछला हिस्सा जहाँ समाप्त होता था/है, दिल्ली उच्च न्यायालय का परिसर (बीच के रास्ते को छोड़कर) वहीँ से आरम्भ होता है। आईटीओ की ओर आने वाला मथुरा रोड भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रास्ते निकलता है। 

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‘शेर शाह सूरी द्वार’ कुछ वर्ष पहले तक खुला था। यानी दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर से मुख्य मार्ग से अलग होकर भी कोई पैदल यात्री शेर शाह सूरी द्वार से चलकर मथुरा रोड और ख़ैर-उल-मजाजिल पहुँच सकता था। परन्तु अब वो बात नहीं है।

आज शेर शाह सूरी मार्ग को तीन तरफ से लोहे के मोटे-मोटे छड़ों के बीच जकड़ा देख शायद शेर शाह सूरी भी हँसते होंगे और मन ही मन कहते भी होंगे “जो गति तेरी, वो गति मेरी।” इसलिए कि दिल्ली स्थित सम्मानित न्यायालयों की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं है, जहाँ तक सुरक्षा का प्रश्न है, संतरियों और सुरक्षा कर्मियों की उपस्थिति का प्रश्न है। हाँ, शेर शाह सूरी द्वार के अंदर एक ‘निरीह निजी क्षेत्र के सुरक्षा कर्मी, प्लास्टिक की एक कुर्सी के साथ उपस्थित हैं। न्यायालयों की बात कुछ अलग है। 

विगत वर्षों जब दिल्ली सल्तनत में शौचालय बनने की बात सड़कों पर दौड़ रही थी, शौचालय नित्य दिल्ली और देश से प्रकाशित समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर, रेडियो में पहले बुलेटिन पर, टीवी के प्राइम टाइम पर ‘कब्ज़ा’ किये था, मथुरा रोड की ओर से शेर शाह सूरी द्वार के बाएं हाथ अधिकारियों ने, मंत्रालयों ने ‘शौचालय’ बनवा दिए। आखिर एक तो संख्या गिनाने की बात थी और दूसरी ‘सोच’ की बात थी। कई लोगों ने यहाँ ‘दीर्घ’ और ‘लघु’ शंकाओं से निवृत भी हुए। खैर, समयांतराल, आज उस शौचालय का नामोनिशान नहीं है। छत टूट गए। शंकाओं से निवृत होने वाले सभी ‘साज-सामान’ उजड़ गए। आज उस टूटे शौचालय में स्थानीय प्रशासन-दिल्ली पुलिस की ‘मानवीय सहयोग’ से सडकों पर चिप्स, पानी, बेचने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रदेश से पलायित श्रमिक अपना जीवन काट रहे हैं। दूसरे शब्दों में, मथुरा रोड पर बेचे जाने वाले ‘चिप्स, ‘कुड़कुड़े’, ‘मुड़मुड़े’, ‘पानी’ आदि भोज्य और तरल पदार्धों के लिए यह स्थान ‘मिनी भण्डारण’ के रूप में बदल गया है। स्वाभाविक है दिल्ली प्रश्न और दिल्ली पुलिस के लोग इतने तो ‘मानवीय’ नहीं हुए हैं (अपवाद छोड़कर) । वैसे भी किसे फुर्सत है 

जिनके नाम से अखण्ड भारत में ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत में ‘शेर शाह सूरी द्वार’ लोहे के शिकंजे में बंद हैं, कहीं ‘गिरने’ का इंतज़ार तो नहीं कर रहे हैं

वैसे भारत में राजनीतिक व्यवस्थाओं में चाहे जितनी भी बदलाव आये, आज ही नहीं, आने वाले सैकड़ों वर्षों में भी भारतीय सड़क व्यवस्था में दो व्यक्तियों का नाम कभी नहीं भुलाया जा सकता है, चाहे भविष्य के राजनेता सड़कों की राजनीति कितनी भी कर लें। उन दो नामों में एक: शेरशाह सूरी और दूसरे: अटल बिहारी वाजपेयी। 

मौर्य काल से दक्षिण एशिया की सबसे लम्बी सड़क को तत्कालीन अफगानी-भारत के सम्राट शेर शाह सूरी ने भारतीय महाद्वीप के पूर्वी और पश्चिमी भागों को सूत्रबद्ध किया। चटगांव (अब बांग्लादेश) से प्रारम्भ होने वाली यह सड़क गंगा के किनारे बसे नगरों को, पंजाब से जोड़ते हुए, ख़ैबर दर्रा पार करती हुई अफ़ग़ानिस्तान के केंद्र तक जाती थी। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म का प्रसार इसी उत्तरापथ के माध्यम से गंधार तक हुआ। यूँ तो यह मार्ग सदियों से इस्तेमाल होता रहा था, लेकिन सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी ने इसे पक्का करवाया। इतना ही नहीं, दूरी मापने के लिए जगह-जगह पत्थर लगवाए (माइल स्टोन), छायादार पेड़ लगाए, राहगीरों के लिए सरायें बनवायी और चुंगी की व्यवस्था की। कोलकाता से पेशावर (पाकिस्तान) तक लंबी इस सड़क को उत्तर पथ,शाह राह-ए-आजम, सड़क-ए-आजम और बादशाही सड़क आदि कई नामों से जाना जाता है। 

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बहरहाल, आधुनिक भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के चार बड़े महानगरों – दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई – को चार से छह लेन वाले राजमार्गों के नेटवर्क से जोड़ने की एक योजना बनाई। साल 1995 था।मानचित्र पर देखने से यह राजमार्ग चतुर्भुज आकार का दिखता है। संभव है तत्कालीन अधिकारियों ने ‘सोच को कट-पेस्ट कर दिया हो’ और इसे स्वर्णिम चतुर्भुज का नाम दे दिया हो। चार वर्ष लगे थे इस योजना को बनकर तैयार होने में और 11 वर्ष परियोजना को पूरा होने में। इस स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के तहत बने राजमार्ग की कुल लंबाई 5,846 कि.मी. है। भारत की सबसे बड़ी और दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी परियोजना में शामिल है।

आदमी को तो रोक लेंगे जनाब लेकिन इसे?

कहते हैं गोल्डन क्वाड्रीलेटरल देश के कई औद्योगिक, सांस्कृतिक एवं कृषि सम्बन्धी नगरों को जोड़ता है। इस मार्ग पर स्थित दिल्ली, मुम्बई, चेन्नैई, कोलकाता, अहमदाबाद, बेंगलुरु, भुवनेश्वर, जयपुर, कानपुर, पुणे, सूरत, गुंटुर, विजयवाड़ा, विशाखापत्तनम आदि शहर हैं । स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के भाग 1 में दिल्ली से कोलकाता को जोड़ता है, जिसकी कुल लंबाई 1454 किलोमीटर है। भाग 2 कोलकाता से चेन्नई तक विस्तृत है, जिसकी कुल लंबाई 1,684 किलोमीटर है। इसी तरह, भाग 3 चेन्नई और मुंबई के बिच फैला है, जिसकी कुल लंबाई 1,290 किलोमीटर है और अंतिम और चौथा भाग मुंबई से दिल्ली के बिच फैला है और इसकी कुल लंबाई 1,419 किलोमीटर है। स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग देश के लगभग 13 राज्यों के मध्य से होकर गुजरता है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग दिल्ली हरियाणा बिहार झारखंड महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश राज्यों से होकर जाता है।

बहरहाल, ग्रैंड ट्रंक रोड दक्षिण एशिया का सबसे पुराने एवं सबसे लम्बे मार्गों में एक था। दो सदियों से अधिक काल के लिए इस मार्ग भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी एवं पश्चिमी भागों को जोड़ता था। यह मार्ग, मौर्यकाल के दौरान अस्तित्व में था। मौर्यकाल के बाद इस सड़क को शेरशाह सूरी ने जीर्णोद्धार किया, बनाया। बाद में अंग्रेजों शासनकाल में इस सड़क को और बेहतर बनाया गया। सदियों के लिए, ग्रांड ट्रंक रोड का, एक प्रमुख व्यापार मार्ग के रूप में इस्तेमाल किया गया है। १६ वीं सदी में, इस मार्ग का ज्यादातर भाग शेरशाह सूरी द्वारा नए सिरे से पुनर्निर्मित किया गया था। 

कहते हैं शेर शाह सूरी के जमाने में सड़कों को नियमित अंतराल पर चिन्हित किया जाता था और पेड़ सड़क के किनारे पर लगाए जाते थे। यात्रियों के लिए विविध जगहों पर कुओं का पानी उपलब्ध कराया गया था। इस सड़क के किनारे प्रत्येक कोस पर मीनारें बनवाई गई थीं। अधिकतर इन्हें 1556-1707 के बीच बनाया गया था। कई मीनारें आज भी सुरक्षित हैं। पुरातत्व विभाग के अनुसार भारत के हरियाणा राज्य में कुल 49 कोस मीनार है । 

ओह !!!!

शेरशाह सूरी को वास्तव में भारत के राष्ट्रीय नायकों में से एक समझा जाता है। शेरशाह सूरी (मूल नाम फरीद खान) बहादुर, बुद्घिमान, पैनी राजनैतिक परख रखने के साथ-साथ व्यवहार कुशल सैन्य प्रशासक होने के अलावा नगर प्रशासन में भी असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति था। उसके पिता, हसन शाह सासाराम के जागीरदार थे। शेरशाह सूरी का जन्म सन 1472 ईसवी में हुआ था और उसने अपनी औपचारिक शिक्षा जौनपुर से प्राप्त की थी। अपनी विशेषताओं के कारण उसने अपने कार्य की शुरूआत एक छोटे जागीरदार के रूप में की और वह मुगल बादशाह, हुमायूँ को हराने के बाद सन 1540 ईसवी में दिल्ली के राज सिंहासन पर बैठा। लेकिन दुर्भाग्य से वह पांच वर्ष की एक छोटी अवधि तक ही शासन कर सका क्योंकि रबी-उल-अवाल के दसवें दिन हिजरी 952 या 13 मई 1545 ईसवी को कालिंजर के किले में एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। उसने एक स्वतंत्र राजवंश, सूर-अफगान की स्थापना की।

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उसने विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त की थी। उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में कानून और व्यवस्था की पुन:स्थापना की और व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया। शेरशाह सूरी ने कोलकाता से पेशावर के बीच चलने वाले पुराने राजमार्ग जिसे ग्रांट ट्रंक रोड़ कहते हैं को फिर से चालू करवाया और आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक एक सड़क का निर्माण करवाया जो गुजरात बंदरगाह के मार्ग को जोड़ती है और तीसरा मार्ग लाहौर से मुल्तान तक बनवाया जो पश्चिम और मध्य एशिया में जाने वाले काफिलों के लिए था। यात्रियों की सुविधाओं के लिए उसने इन मार्गों पर अनेक सरायों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त, उसने ‘रूपए’ मुद्रा का प्रारंभ किया और एक व्यवस्थित डाक सेवा की शुरुआत की। 

शेरशाह सूरी एक महान निर्माता भी था। उसने दिल्ली के निकट यमुना नदी के किनारे पर एक नया नगर बसाया था जिसमें से केवल पुराना किला ही बचा है। वास्तुशिल्प के क्षेत्र में सासाराम (बिहार) में शेर शाह सूरी का मकबरा जीवंत उदाहरण है। इस मकबरे को भारतीय-अफगान वास्तुशिल्प के भव्य नमूनों में से एक समझा जाता है। यह ईंटों से बनी एक शानदार इमारत है जिसमें अंशत: पत्थर लगे हैं और जो लगभग 305 मीटर माप वाले एक भव्य वर्गाकार तालाब के मध्य में पत्थर के एक बड़े चबूतरे पर खड़ी है। 9.15 मीटर ऊंचा चबूतरा, प्राकार-दीवार से घिरा है जिसके चार कोनों पर अष्टकोणीय गुम्बदनुमा मंडप हैं। गुम्बद का भीतरी भाग पर्याप्त रूप से हवादार है और दीवारों के ऊपरी भाग पर बनी बड़ी-बड़ी खिड़कियों से रोशनी भी पर्याप्त आती है। पश्चिमी दीवार पर मेहराब के ऊपर छोटे मेहराबनुमा आलों पर दो पंक्तियां लिखी हुई हैं जिन्हें सलीमशाह द्वारा मकबरे के पूरा होने पर जुमदा के सातवें दिन हिजारी 952 (16 अगस्त, 1545 ईस्वी ) में शेर शाह सूरी की मृत्यु के लगभग तीन माह बाद लिखा गया था।

ओह !!!!

अब सवाल यह है कि अगर बिहार के सासाराम में शेर शाह सूरी का मकबरा आज भी ‘जीवित’ दिखता है तो दिल्ली सल्तनत में ‘शेर शाह सूरी’ द्वार को मौत की ओर क्यों धकेला जा रहा है ? आज के इस वैज्ञानिक युग में इसे मरम्मत कर अत्याधुनिक बनाया जा सकता है। आने वाले समय में भारतीयों के लिए, देश-विदेश से भ्रमण-सम्मेलन करने वाले पर्यटकों के लिए, शोधार्थियों के लिए, नई पीढ़ियों के लिए – लेकिन मथुरा रोड की ओर से मुख्य द्वार पर लटके ताले, अंदर के परिसर में कूड़े-कचरों का ढ़ेर, प्रवेश द्वार पर अधिकारियों के द्वारा बनाये गए ‘शौचालय’, दिल्ली उच्च न्यायालय की दिशा से परिसर के अंदर जंगल का होना, जीता-जागता दृष्टान्त है कि “सभी शेर शाह सूरी द्वार को मृत्यु के द्वार’ तक ले जाना चाहते हैं।   

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