दरियागंज-बहादुर शाह ज़फर मार्ग (नई दिल्ली) : भारत ही नहीं, विश्व में आम सिनेमा दर्शकों की यही धारणा है कि भारतीय सिनेमा मसाला फिल्मों और घटिया कहानियों पर आधारित होता है। यह सच नहीं है। खासकर मुझ जैसा एक अखबारवाला पत्रकार की नजर से। यह अलग बात है कि मुंबई के अलावे दक्षिण और बंगाल में जितनी भी असाधारण फिल्में, विशेषकर मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक मुद्दों पर बनी है, वह प्रत्यक्ष रूप से सच्ची घटनाओं पर आधारित है।
लेकिन इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि सिनेमा बनाने वाले, चाहे वेश्यावृत्ति पर बनायें, चाहे महिला-बच्चियों की तस्करी पर बनायें या फिर भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों पर बनाएं जो आज़ादी के दौरान मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग किये, या फिर स्वतंत्र भारत में अपनी देश की सीमाओं पर लड़ते, सड़कों पर आपराधिक तत्वों से लड़ते मृत्यु को प्राप्त करते हैं – उन पर फिल्म बनाये – अंततः मौद्रिक लाभ उन्हें ही होता है।
जिस विषय या व्यक्ति पर फिल्म बनाते हैं वह जमीन पर यूँ ही बिलखते रहता है जीवन पर्यन्त। यहाँ तक कि कभी-कभी अर्थ के अभाव में मरने के बाद भी उसका पार्थिव शरीर गुमनाम रह जाता है । आज भी बनारस में एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने जीवन काल में हज़ारों गुमनाम पार्थिव शरीरों को उठाकर अग्नि तक पहुँचाया है। खुदा-न-खास्ते कभी फिल्म निर्माता या फिल्म में काम करने वाले कलाकार, अदाकारा से रूबरू हो जाएँ ऐसे व्यक्ति जिनकी कहानियों पर फिल्म बनी होती है, तो वे पहचानते भी नहीं। इतना ही नहीं, भारत के समाचार पत्रों में इन सामाजिक कुरीतियों को उजागर करने वाले पत्रकारों, जो अपनी जान को जोखिम में रखकर शब्दों की सिलाई कर, कहानियों की श्रृंखला बनता है, उसे भी नहीं पहचानते – सच तो यही है। खैर।
विगत चार-पांच दशकों में इन मुद्दों को अख़बार के पन्नों पर लाने वाले रिपोर्टरों की कहानियों पर आधारित फिल्म के निर्मातागण कितनी फिल्म बनाये, यह कहना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। इस व्यापार में लगे कानूनन कितने लोग दण्डित हुए, यह भी आंकना मुश्किल है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विगत पांच दशकों में इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग जो कल पैदल-साईकिल पर चलते थे, सड़कों के किनारे रोटी-प्याज खाकर जीवन यापन करते थे; आज एक अलग समाज के स्वामी हो गए हैं। हमारे देश में कानून की किल्लत नहीं है। कानून के रखवालों की भी किल्लत नहीं है। लेकिन आज यह कई लाख करोड़ और अधिक का व्यवसाय बन गया है। आखिर कहीं से तो इस व्यवसाय को संरक्षण है? कोई तो सम्पोषित कर रहा है ?
@अखबारवाला001(188) एक “कमला” के लिए जेल , आज भारत में “13,50,000 गुम कमला” को ढूंढने वाला कोई नहीं😢
बहरहाल, संभव है आज बहुत लोगों को याद भी होगा या नहीं या फिर याद करना भी चाहते होंगे अथवा नहीं, कह नहीं सकता। अस्सी के दशक के पूर्वार्ध एक फिल्म बनी थी – कमला। दूरदर्शन पर इस फिल्म को बार-बार दिखाया गया था। वैसे वह फिल्म विजय तेंदुलकर के रंगमंच की कहानी पर आधारित कही गयी थी, लेकिन तेंदुलकर की कहानी भी एक सच्ची घटना पर आधारित थी, जिस घटना को भारत के अख़बारों के पन्नों पर सबसे पहले दी इण्डियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संवाददाता अश्विनी सरीन ने लाया था। आज के नब्बे फीसदी से अधिक संवाददाता, जो अपराध बीट पर भी काम करते होंगे, नहीं जानते होंगे।
मैं भाग्यशाली था और हूँ भी कि मैं सरीन साहब के विभाग में, उनके अधीन एक संवाददाता के रूप में काम किया नब्बे के दशक में। उन दिनों भी और आज भी, सरीन साहब की नजर में मैं एक बेहतरीन संवाददाता था और हूँ। किसी ज़माने में मारवाड़ियों, बंगालियों काजमघट रहा रिंग रोड और दरियागंज के बीच के इलाके से तत्कालीन लोगों के पलायन से सम्बंधित कहानी करने के क्रम में उस इलाके में भटक रहा था। नब्बे के दशक में जहाँ पुरानी कोठियों जैसी भवनें थी, विशालकाय बरगद और पीपल का वृक्ष इलाके में भरे परे थे, कुछ नहीं दिख रहे थे। अपने मानस पटल पर काफी जोर डालने के बाद भी उस दृश्य को दरियागंज के उस इलाके में नहीं देख पा रहा था। हां, सड़क के किनारे अंग्रेजों के ज़माने में लगे गए सार्वजनिक नल अवश्य दिखा। सैकड़ों मकानों की दीवारों पर पीपल के वृक्ष, घरों की चौखटों से निकलते उसकी जड़ अवश्य दिखे। ऐसा लग रहा था कि मुद्दत से वह भी कारावास की जिंदगी जी रहा है जहाँ यातना के सिवाय और कुछ नहीं है – न खाना और न पानी – और उसी की तलाश में उन वृक्षों की जड़े बाहर की ओर उन्मुख हो रही थी।
तभी एक वृद्ध दिखे। मेरे एक कंधे पर झोला, दूसरे कंधे पर कैमरा लटका था। हाथ में कागज़ के कुछ टुकड़े और मोबाईल फोन का वीडियो कैमरा खुला था। जहाँ हम खड़े थे, हमारे दाहिने हाथ जाने वाला रास्ता लाल किला के दिल्ली दरवाजा की ओर जाता था। वे वृद्ध पूछे कि मैं पत्रकार हूँ? जवाब में ‘हामी’ मिलने पर उनके चेहरे पर रौनक आ गयी, वे हंसने लगे, कहने लगे ‘आपकी वेशभूषा एक पत्रकार जैसी ही दिखती है, साथ ही, आपकी नजर भी किसी की तलाश कर रही है, ऐसा लगता हैं।” मैं फिर ‘हामी’ भरा। वे फिर कहते हैं ‘माशाल्लाह !! आपकी मुरादें पूरी हो।
मैं टीवी तो नहीं देखता, आखों की रौशनी समय के साथ कमजोर हो गयी है, लेकिन आज भी अख़बार पढता हूँ और वह भी इण्डियन एक्सप्रेस। कब से इस अखबार को पढ़ना शुरू किया याद नहीं, कब तक पढूंगा पता नहीं।” उनकी बातों को बीच में काटकर मैं मुस्कुराते कहा: “मैं भी इस अखबार में नब्बे के दशक में मुद्दत तक काम किया था एक रिपोर्टर के रूप में।” इतना सुनते ही वे मेरा हाथ पकड़े, चूमे और पूछे” ‘आपका नाम क्या है?” मैं बहुत फक्र से कहा “शिवनाथ झा।” इतना सुनते ही वे फिर कहते हैं: “मैं आपके माथे पर टिक (चोटी) देख समझ गया था कि आप ब्राह्मण हैं। आप कुछ अलग दिख रहे हैं। मैं अपने जीवन में न आज़ादी के पहले और ना ही आज़ादी के बाद आज तक दिल्ली के किसी भी पत्रकार को चोटी रखते, समाचार का संकलन करते, सड़क पर नहीं देखा है।
आपसे एक निवेदन है यदि संभव हो तो अस्सी के ज़माने में इण्डियन एक्सप्रेस में एक कहानी छपी थी एक लड़की को खदीदने वाली जो कमला के नाम से जानी जाती थी, उसी अख़बार का रिपोर्टर कोई सरीन था, किया था। उस कहानी को दोहराएं। आज भी समाज में लड़कियां बिक रही है। समाज में सभी तबके के माता-पिता, खासकर जो गरीब हैं, सहमे हैं।” यह बोलते वे अपनी आखों को गमछी से पोछ्ने लगे। नब्बे के उम्र में आंखों से बहती आंसू वर्तमान कालखंड में महिला की स्थिति का प्रत्यक्ष गवाह था।
बहरहाल, नब्बे के दशक में जब दक्षिणी दिल्ली के एक डॉक्टर बजाज के पुत्र का अपहरण हुआ, मैं ‘सन्डे’ पत्रिका में एक कहानी किया था ‘फॉर फ्यू लक्स मोर’ शीर्षक से। ‘संडे’ पत्रिका शनिवार को दिल्ली की सड़कों पर आ जाती थी। उस पत्रिका में कहानी प्रकाशन के अगले सप्ताह मुझे अश्विनी सरीन अपने सानिग्ध में काम करने के लिए बुला लिए। उस जमाने में ही नहीं, आज भी, चाहे पत्रकारिता के क्षेत्र में कितना भी पतन हो गया हो, इण्डियन एक्सप्रेस में काम करने के लिए अच्छे-अच्छे लोग तरसते हैं, मेरा तो कोई गॉड फादर नहीं था और मुझे ‘एक्सप्रेस’ में नौकरी मिलना सिर्फ और सिर्फ अश्विनी सरीन की पारखी नजर के कारण था। कई बार डराए, धमकाए, लेकिन उन्होंने जो सिखाया, वह कभी नहीं भूलने वाला खोजी पत्रकारिता थी जो आज भी जीवित रखा हूँ स्वयं के अंदर।
सरीन साहब का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि सन 1981 में, यानी आज से 43 साल पहले, राजस्थान-उत्तर प्रदेश – मध्य प्रदेश राज्यों की सीमाएं जहाँ कुछ-कुछ दूरी पर एक-दूसरे से मिलती हैं, शाहजहां के शहर आगरा से कोई 40 किलोमीटर दूर उन्होंने ‘कमला’ नामक एक लड़की को खरीदकर दिल्ली लाये। उसे खरीदने के पीछे मकसद सिर्फ यही था कि आज़ाद भारत के 34 वर्ष होने के वाबजूद भारत के सुदूर गावों में, कस्बों में आज भी गरीबी के कारण लड़कियां बिकती हैं। आज तो भारत में बहुत बड़ा गिरोह काम कर रहा है जो देश के विभिन्न्न राज्यों से, केंद्र शाषित प्रदेशों से विभिन्न उम्र की लड़कियों को चोरी कर, अपहरण कर, लुभाकर, फुसलाकर वेश्यावृति के घंधे में लाया जा रहा है।
यह बात शासन भी जानती है, प्रशासन भी जाती है, मंत्री भी जानते हैं, अधिकारी भी जानते हैं। वैसे संविधान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर सभी दृष्टि से अधिकार भी दिया गया है, कानून की किताबों में सैकड़ों कानून भी हैं – लेकिन सत्य यही है कि भारत की महिलाओं को समाज में जो अधिकार और सम्मान मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। इसमें दोष सिर्फ पुरुष समाज का ही नहीं है, महिला समाज भी बराबर के दोषी हैं। अश्विनी सरीन की कहानी के बाद विजय तेंदुलकर का एक नाट्य मंच भी हुआ और उसी कथा के आधार पर सन 1984 में श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के पूर्व भारत के सिनेमाघरों के पर्दों पर जगमोहन मुंध्रा के निर्देशन में, मार्क जुबेर, दीप्ती नवल, शबाना आज़मी अभिनीत ‘कमला’ फिल्म दिखाए जाने लगा।
सितम्बर 2023 तक भले संविधान में 106 संशोधन किये गए हों, महिलाओं के लिए सरकारी दस्तावेजों के अनुसार ‘सुरक्षित नियम’ बनाये गए हों; हकीकत यह है कि आज 76 वर्ष आज़ादी के बाद भी देश के लोग, मतदाता अपने-अपने घरों में बेटियों को देख, घरों के बाहर समाज में दरिंदों को देख भयभीत हो रहे थे। आज भी भारत में अपहरण के मामले कम नहीं हैं। पहले की बात छोड़िये, भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार सन 2019 और 2021 के बीच 13.13 लाख से भी अधिक लड़कियां और महिलाएं ‘गुम’ हैं। इस बात को ब्यूरो भारत के संसद में भी उल्लिखित किया था। इतना ही नहीं, सन 1981 में जिस ‘कमला’ को अश्विनी मध्य प्रदेश से खरीद कर लाये थे और उन्हें ‘दंड भी भुगतना पड़ा’, उसी मध्य प्रदेश में वहां की पुलिस सन 2021 तक 36104 गुम लड़कियों/महिलाओं को ढूंढ नहीं पायी, खोज नहीं पायी और उसे उसके परिवार और परिजनों से मिला नहीं पायी। लेकिन व्यवस्था के विरुद्ध कोई चूं तक नहीं किया।
सरीन साहब एक प्रेस कांफ्रेंस कर इस बात का खुलाशा किये थे सन 1981 में और फिर शुरू हो गयी कहानियों की श्रृंखला। सरीन साहब को बाद में तीन रात और चार दिन तक ‘लड़की की खरीदगी’ के लिए तिहाड़ जेल में भी रहना पड़ा। अपने 84-घंटे के कारावास में उन्होंने तिहाड़ जेल की आंतरिक स्थिति, कैदियों का कैदियों के साथ, अधिकारियों का कैदियों के साथ व्यवहार, कैदियों के भोजन, स्वास्थ्य आदि अनेक तथ्यों का चश्मदीद गवाह बने, कागजों के साथ-साथ मानस पटल पर अंकित किया गया और फिर तिहाड़ से बाहर आने के बाद दी इण्डियन एक्सप्रेस के पन्नों पर कहानियों की श्रृंखला। अंततः प्रशासन के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत के सभी संभ्रांत जो स्वतंत्र भारत में देश के लोगों की भलाई के लिए मलाई खाने वाले सभी सैद्धांतिक रूप से उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। क्योंकि आज़ादी के 34 वर्ष बाद भी आज़ाद भारत में वही ‘लंहगा और वही चोली यानी वही कानून प्रचलित थी, जो 15 अगस्त 1947 से पहले था – दमनकारी नीति।
अस्सी के दशक में अश्विनी सरीन ने कोई आठ-नौ महीने राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के क्षेत्रों में घूमे थे। उस समय उनकी आयु 30-32 वर्ष से अधिक नहीं थी। लम्बा शरीर, दुबला-पतला, लेकिन सुडौल शरीर, गहरी मूंछ, उग्र दिमाग वाला पत्रकार चम्बल नदी की धाराओं को पार कर, बिहरों को पार कर दर्जनों बार राजस्थान-मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के उन बस्तियों में भ्रमण किये, जहाँ उस ज़माने में गरीब लड़कियों को, महिलाओं को समाज में बेचा जाता था – पैसों के लिए।अश्विनी ‘सीधा’ लेकिन ‘मिर्चीदार’ शब्दों का प्रयोग करते थे और सीधा प्रहार करते थे अपनी लेखनी से। कहते थे कि उन दिनों अश्विनी की मूंछें भले नीचे गिरी हुई थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में उनकी कहानी ‘कमला’ देश की पत्रकारिता को, खासकर खोजी पत्रकारिता को, एक नयी दिशा तो दिया ही, पत्रकारों का भी हौसला बढ़ाया।
‘कमला’ की कहानी ‘रिपोर्टर्स कक्ष और संपादक कक्ष के बीच गोपनीयता को भी गोपनीय कैसे रखा जाता है’, एक दृष्टान्त पेश किया। अश्विनी की दर्जनों कहानियां जो उस कालखंड में प्रकाशित हुए थे – प्रशासन और सत्ताधारियों के लिए नींद उड़ा दी थी। मसलन, करोड़ों रुपये के रक्षा वाहन निपटान रैकेट का पर्दाफाश, तिहाड़ जेल के कैदियों की जीवन स्थितियों पर एक मर्मस्पर्शी लेख और आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन अत्याचारों की कहानियां अपने-आप में अजूबा है। इस बीच ‘कमला’ की कहानी उनके पत्रकारिता जीवन में सुंदरता की एक और बिंदी लगा दिया।
‘रिपोर्टर्स कक्ष और संपादक कक्ष के बीच गोपनीयता’ की बात इसलिए कर रहा हूँ कि उन दिनों इण्डियन एक्सप्रेस के संपादक थे एस निहाल सिंह और कार्यकारी संपादक थे अरुण शौरी। एस निहाल सिंह के पिता सन 1955-1956 में दिल्ली के मुख्यमंत्री थे जो चौधरी ब्रह्म प्रकाश के बाद कुर्सी पर बैठे थे एक वर्ष के लिए । लेकिन एक्सप्रेस के संपादक को इस बात का भनक नहीं था कि रिपोर्टर-कक्ष और कार्यकारी संपादक के कक्ष के बीच क्या पक रहा है विगत आठ-नौ महीनों से। इतना ही नहीं, अश्विनी की पत्नी डॉ. उमा जी को या फिर इण्डियन एक्सप्रेस के मालिक श्री रामनाथ गोयनका, जो सम्पादकीय से बहुत नजदीक होते थे, उन्हें भी यह मालूम नहीं हो सका जब तक ‘कमला’ की कहानी एक्सप्रेस के पन्नों पर प्रकाशित नहीं हुआ और दिल्ली ही नहीं देश में भूचाल नहीं आ गया।
कहते हैं कि सरीन को आगरा-मुरैना-मैनपुरी-एटा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर महिलाओं की तस्करी के बारे में पता चला और वे सज्ज हो गए कि इसकी पड़ताल होनी चाहिए। लेकिन उन्हें और उनके संपादक को एहसास हुआ कि एक सीधी कहानी का आवश्यक प्रभाव नहीं होगा समाज और व्यवस्था पर। और उन्होंने वास्तव में एक महिला को खरीदने का फैसला किया। चूंकि यह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत एक अपराध था, इसलिए उन्हें अपना मकसद स्थापित करना था: निर्विवाद सत्यनिष्ठा वाले पांच प्रतिष्ठित व्यक्तियों को विश्वास में लिया गया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय में न्यायविद भी थे।
सरीन कई बार उस इलाके का दौरा किया – जहां पुरुषों से ज्यादा बंदूकें थी । प्रत्येक प्रयास के बाद, वह देह व्यापार से संबंधित एक कहानी लेकर आते थे और पूरे गोपनीयता के साथ दस्तावेजों के साथ अपनी कहानियों की कड़ियों को जोड़ते थे। यह भी सत्य है कि उन दिनों जब रिपोर्टर्स सरीन का दफ्तर से गायब होने का कारण पूछते थे तो कुछ-न-कुछ बहाना बना देते थे। समय गुजर रहा था। सरीन का विश्वास और उनकी मेहनत रंग ला रही थी। राजस्थान-मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों का, पुरुषों का, महिलाओं का विश्वास सरीन साहब के प्रति गहरा हो रहा है।
कहते हैं ऐसी रणनीति वाली कहानियों को करने के लिए उद्यमशील होना नितांत आवश्यक है। अधिकांश पत्रकारों का मानना था कि ऐसी कहानियों को सामने लाने में पग-पग पर खतरा मोल लेना होता है और सरीन ऐसा किये। अंत में उन्होंने कोई 2,300 रुपये के बदले में ‘कमला’ को अपने कब्जे में ले लिया। फिर वे नई दिल्ली स्थित अपने घर लाये जहाँ कमला स्वयं को अधिक सुरक्षित पायी। यह भी कहा जाता है कि जब अश्विनी अपने घर लेकर कमला को आये, अश्विनी की पत्नी तब तक इन तमाम घटनाओं से वाकिफ नहीं थीं। ‘कमला’ उनसे पूछी भी कि ‘उस कितने में खरीदा गया है? यहाँ इस घर में कमला और उमा दो महिलाएं एक साथ क्यों नहीं रह सकतीं?”
जैसे ही कहानी एक्सप्रेस के मुख पृष्ठ पर सामने आई, सरीन को देश भर में सराहना मिली। लेकिन समाज में, खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र में, उन दिनों भी आलोचक थे, आज भी भरे-पड़े हैं, का कहना था कि कमला की कहानी को या फिर एक्सप्रेस के रिपोर्टर की कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। लेकिन, एक्सप्रेस के तत्कालीन प्रधान संपादक एस. निहाल सिंह ने कहा: “तीन राज्यों में फैले इस संगठित अपराध को रोकने के लिए अधिकारियों द्वारा कुछ नहीं किया गया। कमला उस क्षेत्र में अभी भी प्रचलित गुलामी का प्रतीक है। हमारी कार्रवाई हमारे पाठकों को यह बताने का एकमात्र प्रभावी तरीका था कि उसके आसपास क्या हो रहा था और क्या बुराई से छुटकारा पाने के लिए कुछ तो करना ही होगा।”
इस सिलसिला का अंत यहीं नहीं हुआ। कहानियों का सिलसिला जारी रहा। इसका मुख्य उद्देश्य था आखिरी दम तक लड़ना ताकि समाज से इन कुरीतियों का अंत हो। यह पहली घटना नहीं थी। एक्सप्रेस निरंतर इस तरह की कहानियां किया था जैसे कि भागलपुर बंधन, आगरा महिला गृह और विचाराधीन कैदियों की स्थिति के मामलों में, अखबार ने अधिकारियों के खिलाफ जनता की राय बनाने की कोशिश की थी। शुरुआती लेख छपने के अगले दिन, जिस शहर में बिक्री पर बातचीत हुई थी, वहां की पुलिस ने कहा कि वे महिलाओं के साथ लेन देन करने के लिए रिपोर्टर के खिलाफ मामला दर्ज कर रहे हैं। इसके बाद दिल्ली पुलिस अनाथालय गई और कमला को यह कहते हुए ले गई कि वह एक महत्वपूर्ण गवाह बन सकती है और उसे उनकी सुरक्षा की जरूरत है।
तत्कालीन कार्यकारी संपादक अरुण शौरी ने कहा भी कि “हम अदालत से पूछेंगे कि क्या वैध जांच के लिए कानून को तोड़ा जा सकता है और बाद में जांच से उजागर हुई बुराई को कम करने के लिए कदम उठाने और इस तरह नागरिक अधिकारों के दायरे को बढ़ाने के अनुरोध के साथ अदालत का रुख करेंगे।” इस बीच, एक्सप्रेस सर्वोच्च न्यायालय चला गया, जिसने कमला को तब तक अनाथालय में वापस भेजने का आदेश दिया, जब तक कि अदालत यह तय नहीं कर लेती कि उसके साथ क्या किया जाना है। पुलिस स्टेशन में कई घंटों के बाद कमला को आश्रय स्थल में लौटा दिया गया, जहां आम तौर पर वयस्कों की देखभाल नहीं की जाती है।
चूंकि कमला की कहानी पहले पन्ने की खबर थी, इसलिए यह सवाल कि इसे लोगों की देखभाल कौन सी एजेंसियां करती हैं, कई बार पूछा गया, लेकिन इसका उत्तर नहीं दिया गया। कुछ हफ़्ते पहले एक सरकारी अनाथालय में एक युवा लड़के को अस्पताल ले जाया गया जहाँ पता चला कि उसके साथ बार-बार बलात्कार किया गया था। जांच चल रही थी। यह भी बताया गया था कि आगरा में गरीब महिलाओं के लिए एक घर में कैदियों को गंदी, वायुहीन काल कोठरियों में रखा जा रहा था और कई लोग इन स्थितियों के कारण पागल हो गए थे। भारत में अपने कमजोर या विकलांग सदस्यों की देखभाल करना परिवारों की अत्यधिक जिम्मेदारी है और यहां तक कि सबसे गरीब परिवारों में भी ऐसे दायित्वों को गंभीरता से लिया जाता है। लेकिन जहां पारिवारिक संबंध टूट गए हैं, वहां कुछ तैयार विकल्प हैं। कहते हैं कि अक्सर वंचितों और कमजोरों के पास अपने श्रम को गुलामी में बदलने या खुद को बेचने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता है।
उन दिनों संपादकों को लिखे पत्रों में जो लिखा गया था वह सरीन के प्रति सकारात्मक नहीं था। उसी समय दी हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक खुशवंत सिंह ने आक्रोश व्यक्त करने वालों को भोला बताया और उन्होंने अपने साप्ताहिक कॉलम में पूछा, ”हमारे शिक्षित शहरी निवासी बनावटी विश्वास के किस हाथीदांत टावर में रहते हैं?उस प्रतिभाशाली जॉनी के लिए जिसने एक महिला को खरीदने के लिए ग्रामीण इलाकों में इतनी पेरी मेसनिंग की ताकि वह अपने पलायन के बारे में लिख सके, मैं केवल इतना कह सकता हूं कि अगर उसने हमारी झुग्गियों या भिखारियों के घरों में कुछ पूछताछ की, तो वह सस्ता सौदा कर लिया होता।” उन्होंने यह भी लिखा था कि: “शर्मनाक तथ्य यह है कि हमारे देश में इतनी भीषण गरीबी है कि मानव मांस मटन से कुछ ही अधिक कीमत पर बिकता है। अगर इन लेखों ने कुछ पाठकों को उनकी संतुष्टि से बाहर निकाला है तो मुझे मानना होगा कि कुछ अच्छा हासिल हुआ है।”
इस बीच, कमला दुखी रहती है और जिन लोगों ने उसे बचाया है, वे उसके लिए एकत्र किए गए 6,000 रुपये की धनराशि से उसके लिए एक पति ढूंढने के अलावा कोई राहत नहीं सोच सकते हैं। हालांकि वह कोई अपराधी नहीं थी और उस पर कोई आरोप नहीं लगाया गया था, लेकिन जब तक सुप्रीम कोर्ट एक्सप्रेस पत्रकारों की दलीलों पर सुनवाई नहीं करता, तब तक वह अपनी इच्छा के विरुद्ध अनाथालय में कैद थी । तत्कालीन पुलिस ने कमला को उसके आर्य समाज अभयारण्य से राज्य के स्वामित्व वाले नारी निकेतन में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन अदालत ने हस्तक्षेप किया और संबंधित राज्यों से रिट का जवाब देने को कहा। कथित तौर पर दिल्ली प्रशासन की अब भी राय थी कि याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी का उल्लंघन किया है।
लेकिन एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक ने कहा था कि “मैं समाज को नहीं बदल सकता। यह तब बदलेगा जब लोग इसे चाहेंगे। मैं सिर्फ समाज को एक दर्पण दिखा रहा हूं। मैं गांधीवादी तकनीक का उपयोग कर रहा हूं: छोटे मुद्दे उठाओ, डर हटाओ, प्रयास करो और शिक्षित करो।” लोग समाज में व्याप्त बुराइयों के बारे में बात करते हैं और हर व्यक्ति से अपना योगदान मांगते हैं।”
बाद में, टाइम्स पत्रिका ने भी कमला की दर्दनाक व्यथा को विश्वव्यापी बनाया, अपनी पत्रिका में जगह दिया। टाइम ने लिखा कि “तीन महीने पहले, देश के सबसे अधिक प्रसार वाले दैनिक द इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर अश्विनी सरीन ने 306 डॉलर में एक महिला को खरीदा और अनुभव के बारे में लिखा। मैंने मध्य प्रदेश के शिवपुरी के पास एक गाँव की एक छोटे कद की पतली महिला को 2,300 रुपये में खरीदा। यहां तक कि मुझे इस बात पर विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा है कि मैं आज सुबह उस अधेड़ उम्र की महिला को पंजाब में भैंस की कीमत से आधी कीमत पर खरीदकर राजधानी लौटा हूं।”
उन दिनों कूमी कपूर भी सरीन जैसे एक रिपोर्टर थी जो बाद में एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक भी बनी। सुश्री कपूर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में पढ़ाई के दौरान मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी की थी, ‘कमला’ की बहुत इंटटव्यू भी की थी। कई बार उन्होंने लिखी भी थी कि ”जब भी मैं उनसे मिलने जाता हूं तो वह मुझसे कहती हैं कि वह मेरे साथ आना चाहती हैं।” कमला के शरीर पर अनगिनत टैटू थे। उसकी कलाइयों और हाथों पर नीले टैटू के निशान थे। इस तरह के टैटू उस क्षेत्र की महिलाएं बनती हैं। कमला के शरीर पर ‘नीली’ निशान सिर्फ टैटू के नहीं थे, बल्कि जब वह पहली बार यहां आई थी तो उसे पिटाई के कारण चोटें लगी थी और वह अल्पपोषित थी। जब वह पुरानी दिल्ली स्थित एक अनाथालय में रखी गई थी, वह अतार्किक व्यवहार करती थी। अश्लील भाषा का प्रयोग करती थी। चिल्लाती थी और वहां से निकलना चाहती थी।
कूमी कपूर, जिन्होंने कमला के जीवन को फिर से बनाने की कोशिश की, ने कहा था कि वह अपने परिवार के बारे में बहुत टालमटोल करती थी । उसने रिपोर्टर को बताया कि विधवा होने के बाद उसके जीजा ने उसे बेच दिया था। सरीन, जिन्होंने उसे खरीदा था, खुद को एक बड़े परिवार वाले डॉक्टर के रूप में पेश किया, जो अपने फार्म फोरमैन के लिए पत्नी की तलाश कर रहा था। व्यापारियों का विश्वास जीतने के बाद, उन्होंने मुरैना में पुलिस स्टेशन के सामने हुई एक बैठक में सौदे पर मुहर लगा दी। महिलाओं का व्यापार व्यापक रूप से फैला हुआ था। सरीन यह स्वीकार किये थे कि महिलाओं का व्यापार बड़े पैमाने पर होता था, कुछ को नौकरों के रूप में और कुछ को वेश्याओं के रूप में बेचा जाता था। उन्होंने कहा था कि कीमतें 21,000 रुपये या 2,800 डॉलर तक थीं, जो 15 साल की लड़की के लिए मांगी गई थीं। कूमी कपूर ने यहां तक कहा था कि कमला को वास्तव में बहुत गर्व था कि उसे इतनी ऊंची कीमत मिली थी। वह खुद को संपत्ति मानती थी। उसका मालिक एक आदमी उसके साथ अच्छा व्यवहार करता था, उसे भरपूर भोजन देता था, लेकिन दूसरा उसे भूखा रखता था और पीटता था।
बहरहाल, अरुण शौरी के संस्मरण का यह पहला विशेष अंश 1980 के दशक की सबसे बड़ी कहानियों में से एक – कमला की कहानी को दर्शाता है, जिसे मध्य भारत में आदिवासी महिलाओं के शोषण को उजागर करने के प्रयास में एक पत्रकार ने खरीदा था।उन्होंने लिखा भी कि अश्विनी सरीन हमारी दिल्ली टीम में एक साहसी युवा पत्रकार थे। वह क्षेत्र में जाएंगे और तथ्यों का दस्तावेजीकरण करेंगे – परिवार नियोजन के नाम पर आपातकाल के दौरान अधिकारियों की ज्यादतियों से लेकर पुराने रक्षा वाहनों के निपटान में अनियमितताओं तक। तिहाड़ जेल में कैदियों को जिन स्थितियों में रखा जा रहा था, उन्हें प्रमाणित करने के लिए, उन्होंने खुद को “नशे में व्यवहार” के लिए गिरफ्तार कर लिया था, और खुद को जेल में डाल लिया था। जब वह अंदर थे, उन्होंने निश्चित रूप से स्थितियों के बारे में जानकारी एकत्र की, लेकिन, अधिक महत्वपूर्ण, वहां दवाओं के मुक्त प्रवाह के बारे में जानकारी एकत्र की। बाहर आने पर उन्होंने इस व्यापार के बारे में लिखा, जिसे पाठकों से काफी सराहना मिली।
धौलपुर-मुरैना इलाके में चुनाव कवर करते समय अश्विनी को पता चला था कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और यूपी के जंक्शन पर महिलाओं का व्यापार बड़े पैमाने पर होता है। समय-समय पर सामाजिक कार्यकर्ता इस कुप्रथा की ओर ध्यान आकर्षित करते थे और अधिकारी वर्ग इसका खंडन करता था। अश्विनी ने मुझे बताया कि वह उस क्षेत्र में जाने, वास्तव में एक महिला खरीदने और उसे दिल्ली लाने के लिए तैयार था। हमने प्रोजेक्ट को सभी से दूर रखा – घर पर और कार्यालय में।
बेशक, हमें इसमें कोई संदेह नहीं था कि एक महिला को खरीदना एक गंभीर मामला था। मैंने पांच प्रतिष्ठित व्यक्तियों को लिखा था – भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति वाईवी चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएन भगवती से। मैंने समझाया कि अश्विनी क्या करने वाले थे, और कारण वह ऐसा करने जा रहा था। कारण स्पष्ट और सरल था: एक अमानवीय प्रथा को खत्म करने के लिए कदम उठाने के बजाय, मध्य प्रदेश सरकार इसे झूठ के साथ कवर कर रही थी। हम तथ्यों को इस तरह उजागर करने जा रहे थे कि वे निर्विवाद हो जाएं। इससे सरकार पर अंततः गरीब जनजातीय लोगों को अपनी बहनों और बेटियों पर इस भयानक भाग्य का बोझ रोकने के लिए शिक्षित करने के लिए कदम उठाने का दबाव पड़ेगा।
अश्विनी ने ज़मीन की स्थिति जानने, संपर्क बनाने और स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने के लिए क्षेत्र का दौरा करना शुरू किया। आत्मविश्वास जीतने के लिए, उसने खुद को कई किरदारों में ढाला, जिसमें एक लड़की की तलाश में पंजाब का एक ठाकुर भी शामिल था। यह छल लगभग आठ से नौ महीने तक जारी रहा। अश्विनी इस क्षेत्र में 10 बार गया। खुद को भारी जोखिम में डालकर, अश्विनी ने उन लोगों से सीधे संपर्क स्थापित किया जो महिलाओं को खरीदने और बेचने का कारोबार करते थे। गहन और मेहनती काम के बाद, उन्होंने मुरैना सर्किट हाउस में एक सौदा किया और महिला, कमला को खरीद लिया। उसे दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उसे सौंप दिया गया। अश्विनी का वृत्तांत उन वाक्यों से शुरू हुआ जो लंबे समय तक गूँजते रहे: “कल मैंने मध्य प्रदेश के शिवपुरी के पास एक गाँव की एक छोटे कद की पतली महिला को 2,300 रुपये में खरीदा। मेरे लिए भी इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि मैं आज सुबह उस अधेड़ उम्र की महिला को पंजाब में भैंस की कीमत से आधी कीमत पर खरीदकर राजधानी लौटा हूं।”
हमने सोचा कि यह सबसे अच्छा होगा कि अश्विनी की प्रारंभिक कहानी के बाद, कमला से एक महिला से मुलाकात की जाए और उसका साक्षात्कार लिया जाए। उस समय दिल्ली में हमारी मुख्य रिपोर्टर कूमी कपूर उनसे मिलने गईं। बातचीत के दौरान, कमला अक्सर खुद को तीसरे व्यक्ति में संदर्भित करती थी… समय-समय पर, कमला असंगति में पड़ जाती थी; ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपनी क्षमताओं पर पूरी तरह अधिकार नहीं रखती थी। यहां तक कि पिछले दिन के दौरान वह जिस दौर से गुजरी थी, उसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए – बेचा जाना, एक बड़े, अज्ञात शहर में लाया जाना – कूमी ने अपनी प्रतिक्रियाओं को अनियमित माना। कूमी ने लिखा, “उसे बार-बार इस्तेमाल किया गया और छोड़ दिया गया।” “कोई आश्चर्य नहीं कि वह अब पागलपन की कगार पर है।”
कभी-कभी, व्यथित होने के बजाय, कमला ने इस तथ्य पर गर्व व्यक्त किया कि उसके लिए कीमत इतनी अधिक आंकी गई थी। कमला की प्रतिक्रियाओं ने एक और चिंताजनक तथ्य भी स्थापित किया। महिलाओं का व्यापार इतना व्यापक रहा होगा कि, कभी-कभी, कमला को लगता था कि उसका भाग्य सामान्य है: अश्विनी की पत्नी ने संवाददाताओं से कहा कि कमला ने उससे पूछा कि अश्विनी ने उसके लिए कितना भुगतान किया है, उमा; चूँकि अश्विनी ने कमला के लिए पहले ही भुगतान कर दिया था, इसलिए वे दोनों उसके साथ क्यों नहीं रह सकते थे। उनसे मिलने और उनकी बकवास, कभी-कभी विरोधाभासी, कभी-कभी कुछ हद तक असंगत प्रतिक्रियाओं को सुनने के बाद, कूमी ने निष्कर्ष निकाला कि कमला को “मनोरोग देखभाल की तत्काल आवश्यकता थी”।
अश्विनी, हर उस शहर में एक घरेलू शब्द बन गया जहां एक्सप्रेस प्रकाशित होता था। दूसरी ओर, सरकार गुस्से में आ गईं। उन्हें एक घृणित प्रथा के बारे में कुछ भी नहीं करते हुए दिखाया गया था। धौलपुर की स्थानीय पुलिस ने बताया कि वे अश्विनी के खिलाफ महिलाओं की तस्करी के आरोप में मामला दर्ज करेंगे। इसे रोकने के लिए, हमने सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट दायर की जिसमें न्यायालय से अनुरोध किया गया कि वह इस व्यापार पर अंकुश लगाने के लिए सरकार द्वारा उठाए जाने वाले कदमों के बारे में निर्देश दे और यह भी बताए कि कमला को कहाँ रखा जाना चाहिए।
हमारी बड़ी राहत के लिए, एक आर्य समाज संस्था जो अनाथों और निराश्रित महिलाओं के लिए घर चलाती थी, आर्य अनाथालय, उसे आश्रय प्रदान करने के लिए सहमत हुई। उसे वहां ले जाया गया. लेकिन, दिल्ली पुलिसकर्मियों का एक दस्ता कमला को अपने कब्जे में लेने के लिए आर्य समाज आश्रय स्थल पर पहुंच गया। सहकर्मी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पास पहुंचे। देर शाम, न्यायमूर्ति भगवती ने निर्देश दिया कि कमला को अनाथालय में लौटा दिया जाए, और “अगले आदेश तक” स्थानांतरित नहीं किया जाना चाहिए। इस सारी भागदौड़ के बाद उस शाम दायर किए गए प्रेषण में यह निष्कर्ष निकाला गया: “कमला को शाम 5 बजे के आसपास घर से निकाल दिया गया था, वह शाम 7.30 बजे वापस आई, स्पष्ट रूप से चकित और परेशान थी: “क्या मैं एक बंदर हूं जिसे इस तरह से इधर-उधर धकेला जा रहा हूं? आप कमला के प्रति दयालु नहीं रहे,” उसने कहा। “आपके पास?”‘
अश्विनी, कूमी और मैंने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट दायर की। न्यायमूर्ति भगवती और न्यायमूर्ति ए वरदराजन ने याचिका स्वीकार कर ली। उन्होंने निर्देश दिया कि कमला को स्थानांतरित न किया जाए; कमला को किस तरह की मदद की जरूरत है, इसका आकलन करने के लिए एम्स तुरंत एक मनोचिकित्सक को नियुक्त करे; सरकारों को न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना हम तीनों में से किसी के भी खिलाफ रिट की विषय वस्तु के आधार पर कोई कार्रवाई शुरू नहीं करनी चाहिए। और उन्होंने मध्य प्रदेश, यूपी, राजस्थान और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर पूछा कि महिलाओं की तस्करी को दबाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार, जिसने इस क्रूर व्यापार पर अंकुश लगाने के लिए कुछ नहीं किया था, ने अब मुरैना डिवीजन के आयुक्त को मामले की जांच करने और 10 दिनों के भीतर रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है।सरकार निष्कर्षों को सार्वजनिक नहीं करेगी। हमारे राज्य में एक उत्कृष्ट संवाददाता थे, एनके सिंह। उसे रिपोर्ट मिल गई।
कमिश्नर की पूछताछ से इस बात की पुष्टि हुई कि मुरैना और आसपास के इलाकों में महिलाओं का व्यापार फल-फूल रहा था। लड़कियों और महिलाओं को दूरदराज के स्थानों से लाया जाता था, खरीदा और बेचा जाता था, और दिल्ली और मेरठ जैसे केंद्रों में भेजा जाता था। “तस्कर,” एनके ने दर्ज की गई रिपोर्ट के हवाले से कहा, “स्थानीय राजनीति में प्रभावशाली हैं और राजनीतिक और सामाजिक दिग्गजों के संरक्षण का आनंद लेते हैं। ” अश्विनी की कहानी, और उसकी साहसिकता, एक घरेलू शब्द बन गई। प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर ने कमला के भाग्य को खूंटी पर रखकर एक नाटक लिखा। यह नाटक कमला नामक फिल्म का आधार बना।
अश्विनी के शानदार प्रयास का कई मायनों में दुखद अंत हुआ। जब कमला के लिए आश्रय ढूंढने के प्रयास जारी थे, तब एक दिन हमें पता चला कि वह बेचारी महिला “गायब” हो गई है। यह कैसे हो सकता है? कमला स्वस्थ दिमाग की नहीं थी, और इसलिए वह अकेले उस शहर में भाग नहीं सकती थी जिसके बारे में उसे कुछ भी नहीं पता था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अनाथालय में प्रवेश को सख्ती से नियंत्रित किया गया था। इमारत में केवल एक प्रवेश द्वार था – एक ऊँचा द्वार जो हमेशा बंद रहता था। और गेट के बाहर पुलिस तैनात कर दी गई थी. वह कैसे बाहर निकल सकती थी या कूद सकती थी? उसका पता लगाने की कोशिशें जारी रहीं। उस वर्ष नवंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को उसका पता लगाने के लिए सभी प्रयास करने का निर्देश दिया। वह कभी नहीं मिली. सबसे संभावित स्पष्टीकरण? महिलाओं की खरीद-फरोख्त करने वाले लोगों ने जो पोल खुल जाती, उसे किसी तरह वहां से हटा दिया।
अश्विनी कुछ वर्षों तक अखबार में बने रहे। बाद में मैंने सुना कि उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी है और व्यवसाय में लग गए हैं। मेरा उससे संपर्क टूट गया था। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मेरी याददाश्त कुछ विवरणों में मुझे धोखा न दे रही हो, मैंने एक पुराने सहकर्मी से उसका नंबर लिया। उनसे बात किये हुए लगभग चालीस वर्ष बीत गये होंगे। हमारी बातचीत को बमुश्किल कुछ ही मिनट हुए थे कि अश्विनी की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा कि वह “इतने भावुक” हो गए हैं कि फिलहाल बात नहीं कर सकते और बाद में वापस आएंगे। उसने अपनी पत्नी उमा को फोन लगाया। उन वर्षों में बने बांडों की बात करें।