“जेपी आंदोलन के बाद बिहार में पनपे नेता बिहार का विध्वंस कर दिया, नहीं तो आज मुजफ्फरपुर भी ‘अध्यात्म का शहर’ कहलाता”‘ : लंगट सिंह के प्रपौत्र

लंगट सिंह कॉलेज - संस्थापक श्री लंगट सिंह और उनके प्रपौत्र डॉ प्रगति कुमार सिंह

मुजफ्फरपुर / पटना : वैसे आधुनिक भारत का इतिहास के ज्ञाता ‘तर्क-वितर्क’ भले करें, जातिवाद-सम्प्रदायवाद की राजनितिक अखाड़े में कुस्ती लड़ते रहें अपने-अपने हितों के लिए। लेकिन इतिहास गवाह है कि भारत में रेलवे की शुरुआत के दो दशक बाद, जिस समय दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह सन 1874 में उत्तर बिहार में तिरहुत रेलवे के रूप में निजी रेल सेवा की शुरुआत किये थे, उसी कालखंड में हाजीपुर-मुजफ्फरपुर रेल खंड के धरहरा गांव का एक बीस-वर्षीय बालक समस्तीपुर-दरभंगा रेल लाइन की पटरियों के बगल में टेलीफोन लाइन जोड़ने का काम शुरू किया था। कार्य सीखने और जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्तर बिहार का वह गरीब बालक ब्रितानिया सरकार के तत्कालीन अभियंता जेम्स विल्सन को अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन दिनों उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था। तिरहुत सरकार के द्वारा एक ओर जहाँ पूरे उत्तर बिहार में रेल लाइन की जाल बिछाई जाने लगी थी, ताकि सरकार-पदाधिकारियों, राजनेताओं, राजा-महाराजों, धनाढ्यों, समाज के संभ्रांतों के साथ-साथ आम नागरिकों को सुविधा उपलब्ध हो सके, वहीँ धरहरा गाँव के उस बालक जी जीवन-रेखा भी रेल की पटरियों की तरह चिकनी होती गयी। तत्कालीन समाज के लोग शायद इस बात से अनभिज्ञ थे कि रेल लाइन के बगल में टेलीफोन का तार खींचने वाला वह नवयुवक आने वाले दिनों में उत्तर बिहार के शैक्षिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बनेगा, जहाँ भारत के श्रेष्टतम अध्यापक-प्राध्यापक विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करेंगे एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए । नाम था – लंगट सिंह।  

बिहार की शैक्षिक व्यवस्था को स्वस्थ रखने के लिए, विकास करने में अगर दरभंगा के महाराजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अथवा उनके पूर्वजों का योगदान अपने उत्कर्ष पर है (उसके बाद क्या हुआ यह तो दरभंगा और मिथिला के लोग अधिक जानते हैं); तो हमें इस बात को कभी नजरअंदाज नहीं करना होगा की बाबू लंगट सिंह और भूमिहार-ब्राह्मण समुदाय के लोगों की क्या भूमिका थी। हम इस बात पर कतई पर्दा नहीं डाल सकते हैं कि बाबू लंगट सिंह और तत्कालीन समाज के अन्य भूमिहार-ब्राह्मण समुदाय के लोगों के कारण बिहार का मुजफ्फरपुर-वैशाली-हाजीपुर का इलाका ‘सामाजिक-राजनीतिक क्रांति का क्षेत्र है,’ ‘अध्यात्म का इलाका’ है। 

लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज मुजफ्फरपुर के लोग क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ला के भतीजे  ‘बैकुंठ शुक्ला’ को नहीं जानते और ‘छोटन शुक्ला’ का पोस्टर गली-मोहल्ले-सड़कों पर टांग रहे हैं। वैकुण्ठ शुक्ला को फणीन्द्रनाथ घोष को मारने के जुर्म में फांसी दी गयी थी। फणीन्द्रनाथ घोष तत्कालीन अंग्रेजी सरकार के ‘अप्रूवर’ बन गए थे जो अंततः भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटकाया। वैकुण्ठ शुक्ला तो उस समय के जलालपुर गाँव, जो उस समय मुजफ्फरपुर में था, आज हाजीपुर में है। वे एक मास्टर भी थे और हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्न्लिकन आर्मी के सदस्य भी। वे नमक सत्याग्रह का एक अहम् हिस्सा भी थे। आज महात्मा गांधी की चम्पारण यात्रा वाले राजकुमार शुक्ला को सभी जानते, लेकिन जलालपुर गाँव का वह शिक्षक जो फांसी पर लटका, कोई नहीं जानता। यह दुखद है। यह सामाजिक अवनति का एक अहम् हिस्सा है। यह विध्वंस मानसिकता का परिचायक है। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम आज बाबू लंगट सिंह के प्रपौत्र डॉ प्रगति कुमार सिंह से गपशप किया। डॉ सिंह अपने परदादा के महाविद्यालय – लंगट सिंह कालेज, मुजफ्फरपुर – से विज्ञान में स्नातक किये थे। साल 1971 था और उसी वर्ष बिहार के चिकित्सा महाविद्यालयों में प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा की शुरुआत भी हुयी थी। डॉ सिंह उस परीक्षा में अव्वल आये और उन्हें जमशेदपुर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला। चिकित्सा विज्ञान में स्नातक और स्वर्ण-पदक विजेता प्रगति बाबू पटना के कुर्जी अस्पताल से अपना चिकित्सा ज्ञान आगे बढ़ाये। लेकिन परिवार कुछ और चाहता था – सरकारी नौकरी। परिवार तो आखिर परिवार होता है, अतः प्रगति बाबू बिहार सरकार के चिकित्सा सेवा में नौकरी करने लगे। साल अस्सी के दशक का शुरूआती वर्ष था। डॉ प्रगति सिंह को ‘रेडियोलॉजी’ के क्षेत्र में आगे बढ़ना था। समय का तकाजा देखिये कि में विश्व के बेहतरीन संत थॉमस हॉस्पिटल, लन्दन के रेडियोलॉजी विभाग का अहम् हो गए। कोई चार वर्ष से अधिक समय तक इस क्षेत्र में महारथ होने के बाद, बिहार सरकार की सेवा से स्वयं को मुक्त किये और आज पटना के बोरिंग रोड इलाके में ‘मौर्या स्केन सेंटर’ के माध्यम से अपनी शिक्षा को, अपने ज्ञान को आगे बढ़ा रहे हैं और मानव सेवा कर रहे हैं। 

बातचीत के दौरान डॉ सिंह के मन में जो वेदना थी, वह सम्मुख आ रहा था। प्रदेश की वर्तमान स्थिति के प्रति हताश थे। वैसे इन शब्दों को पढ़कर विद्वान और विदुषी से लेकर समाज के प्रतिष्ठित ठेकेदार तक स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन बिहार में यह बात आम है कि जिसे आप ‘सहारा’ दे रहे हैं, जिसे ‘उपकृत’ कर रहे हैं; लाख में शायद ही कोई एक व्यक्ति होगा तो जीवन पर्यन्त उस उपकार को याद रखेगा, अन्यथा लगभग सभी ‘उपकृत लोग’ अवसर मिलने पर ‘उपकार करने वाले’ को छिटकिनी लगाने, पटकने में पीछे नहीं रहता है। बिहार में इसका अनेकानेक दृष्टान्त मिलेगा। पटकने की क्रिया कहीं भी हो सकती है। राजनीति में तो पूछिए ही नहीं और इसका सबसे बड़ा दृष्टान्त ‘जार्ज फर्नांडिस’ साहब हैं। आज हमारे बीच नहीं हैं, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें। लेकिन इतिहास तो इतिहास है। जॉर्ज फर्नांडिस को बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबू दिग्विजय नारायण सिंह मुजफ्फरपुर में तनिक ‘राजनीतिक जगह क्या दिए’, सन 1980 के आम चुनाव में फर्नांडिस साहब बाबू दिग्विजय नारायण सिंह पर ही निशाना साध दिए। 

बाबू दिग्विजय नारायण सिंह लगभग तीन दशक तक भारतीय संसद के निचले सदन में मुजफ्फरपुर, पुपरी, हाजीपुर, वैशाली का प्रतिनिधित्व करते आ रहे थे। लेकिन तत्कालीन जनता पार्टी (सोशलिस्ट) नेता जॉर्ज फर्नांडिस का शिकार हो गए और महज 6000 मतों से सं 1980 के आम चुनाव में हार गए। सं 1980 तक मुजफ्फरपुर ही नहीं, देश के सभी विधान सभा, लोक सभा संसदीय क्षेत्रों के मतदाताओं का मानसिक स्वरुप में बदलना प्रारम्भ हो गया था। यह अलग बात थी कि जिस समय बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के दादाजी का देहांत हुआ था (1912), भारत में एक अमेरिकन डालर की कीमत 0.09 थी। लेकिन जिस समय बाबू दिग्विजय सिंह चुनाव हारे थे, लोगों की मानसिकता क्या, अमेरिकन डॉलर की तुलना में भारतीय रुपयों की कीमत भी काफी लुढ़क गई थी और एक अमेरिकन डालर के बदले 7.86 भारतीय रुपये देने होते थे। आज की स्थिति तो पूछें ही नहीं। बड़े-बड़े समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, गणितज्ञ ज्ञान अर्जित करने के लिए भारतीय चौराहों पर बैठे हैं और समाज के चापलूस-चाटुकार सोने के सिक्के निगल रहे हैं, बिना डकारे। खैर। 

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दिग्विजय नारायण सिंह सन 1952 से 1980 तक 28 लगातार वर्ष सांसद रहे। वे सन 1952 से 1957 (मुजफ्फरपुर), 1957-1962 पुपरी, 1962-1971 मुजफ्फरपुर, 1971-1977 हाजीपुर और 1977-1980 वैशाली लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किये थे। लेकिन जिस जॉर्ज फर्नांडिस को आपातकाल के बाद दिग्विजय नारायण सिंह ने बिहार की राजनीति में मार्ग दर्शन किये, सं 1980 के आम चुनाव में मुजफ्फरपुर में उन्ही के विरुद्ध खड़े होकर 6000 मतों से शिकस्त दे दिया। 

उस समय के राजनीतिक समीक्षक आज भी इसे ‘विश्वासघात’ मानते हैं। सं 1980 चुनाव की ‘हार’ उन्हें अंदर से झकझोड़ दिया। जिस व्यक्ति ने, जिसके पिता, पितामह और परिवार के अन्य सदस्य मुजफ्फरपुर ही नही, बल्कि गंगा के उस पार के इलाके में शिक्षा के माध्यम से एक क्रांति लाये थे, वह व्यक्ति ही उस क्रांति का शिकार हो गया। परिणाम यह हुआ कि बाबू दिग्विजय नारायण सिंह राजनीति से संन्यास ले लिए और सं 1980 आम चुनाव के 11-वर्ष होते-होते अपनी अंतिम सांस लेकर अनंत यात्रा पर निकल गए। 

लोग माने अथवा नहीं। लेकिन सत्य तो यही है कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से बिहार की राजनीतिक गलियारे में जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह राजनेताओं का जन्म हुआ, वे सभी विगत चार दशकों में बिहार को ध्वस्त ही नहीं, विध्वंस की ओर उन्मुख कर दिया – चाहे गंगा के इस पार का आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, बौद्धिक इत्यादि वातावरण हो अथवा गंगा के उस पर का। चाहे मध्य बिहार का इलाका को या फिर बाबा विश्वनाथ की नगरी देवघर-भागलपुर-सुल्तानगंज का – विध्वंस चतुर्दिक है और विकास रसातल में विलीन हो गया है। 

आज बिहार में महज ‘वोट की राजनीति’ होती है। किसी भी राजनेता को, चाहे पंचायत के स्तर के हों, जिला के परिषदों में बैठे हों, प्रदेश के विधानसभा या विधान परिषद में बैठे हों या फिर दिल्ली के संसद में कुर्सी तोड़ रहे हों; प्रदेश के विकास के प्रति रत्तीभर चिंता नहीं है। यह विकास चाहे आर्थिक हो या शैक्षिक। आज अगर प्रदेश के सभी शैक्षिक संस्थाओं को बंद कर ‘राजनीतिक पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय खोल दिया जाय तो यकीन मानिये इन नव-निर्मित राजनीतिक शैक्षिक संस्थाओं में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या महिला, क्या पुरुष सभी पंक्तिबद्ध हो जायेंगे क्योंकि स्वहित की चिंता अधिक है, ‘सामाजिक हित’ की तुलना में। 

आदरणीय श्री लंगट सिंह

डॉ प्रगति कुमार सिंह के प्रत्येक शब्द उनकी अन्तः वेदना को बता रही थी। सहस्त्र फांकों में फटे ह्रदय की आवाज, वेदना, संवेदना को दर्शा रहा था। बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबु दिग्विजय नारायण सिंह दो पुत्रों है – श्री अलख कुमार सिंह और डॉ प्रगति कुमार सिंह । डॉ सिंह का किसी भी राजनीतिक दल से या राजनीति से सम्बन्ध नहीं है। चिकित्सा के क्षेत्र में विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त करने के बाद डॉ प्रगति कुमार सिंह पटना में रेडियोलॉजी के एक विख्यात डॉक्टर हैं। आज अपने, अपने पिता का, अपने दादा का, अपने परदादा के प्रदेश को, जिसे वे अपने खून-पसीने से सींचे थे, वर्तमान दशा को देखकर विह्वलित हो गए। 

बहरहाल, हाजीपुर मुजफ्फरपुर रेल खण्ड के सराय स्टेशन से 5 किमी पश्चिम वैशाली जिले के धरहरा ग्राम के गोउनाइत् मूल के भूमिहार ब्राह्मण किसान बाबू बिहारी सिंह के पुत्र के रूप में लंगट सिंह का जन्म 10 अक्टूबर सन 1850 के अश्विन माह में हुआ। इनके दादा उजियार सिंह पढ़े लिखे किसान थे। गांव में कोई स्कूल नही होने की वजह से उनकी शिक्षा प्राइमरी तक हुई और सम्भवतः 15-16 वर्ष में ही उनकी शादी हो गई। लंगट सिंह  के परिवार के पास कोई ज्यादा भूमि नही थी जिस वजह से लंगट सिंह आजीविका के लिये समस्तीपुर आ गए।उन दिनों समस्तीपुर- दरभंगा रेल लाइन का काम चल रहा था, वहाँ इनको रेल पटरी के बगल में टेलीफोन लाइन में लाइनमैन का काम मिल गया। रेल लाइन का काम कर रहे अंग्रेज अभियंता जेम्स विल्सन इनके काम के लगन से प्रभावित होकर इनको मजदूरों का सुपरवाइजर बना दिया और लंगट सिंह जेम्स साहब के साथ दरभंगा में रहने लगे।

कहा जाता है कि जेम्स साहब की पत्नी की बहन मुजफ्फरपुर रहती थी जिसके पति विलियम विल्सन मुजफ्फरपुर के निलहे जमींदार थे। उन दिनों मुजफ्फरपुर-दरभंगा टेलीफोन से ज़ुरा हुआ नहीं था, जिस वजह से जेम्स साहब की पत्नी का जरूरी पत्र लेकर लंगट सिंह पैदल मुजफ्फरपुर आये और 18 घंटे में जवाब लेकर लौट आये। जेम्स साहब की पत्नी लंगट सिंह को काफी मानने लगी और लंगट सिंह को अंग्रेजी लिखना बोलना सिखाई। जेम्स साहब से पैरवी कर दरभंगा- नरकटियागंज रेल लाइन निर्माण में ठेकेदारी दिलवा दी और लंगट सिंह मजदूर से ठेकेदार हो गए। इस बीच रेल लाइन निर्माण के क्रम में ट्राली से जाते समय लंगट सिंह का ट्राली मालगाड़ी से टकरा गया जिसके चलते इनको अपना एक पैर गवाना पड़ा। लेकिन लंगट सिंह ने हार नहीं मानी और न अंग्रेज जेम्स ने लंगट बाबु का साथ छोड़ा। ठेकेदार के काम में इनके लड़के श्यामानन्द प्रसाद सिंह उर्फ आनन्द बाबू सहयोग देने लगे। 

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दरभंगा से जेम्स साहब कलकत्ता महानगर निगम के अभियंता बनकर कलकत्ता आ गए तब जेम्स दम्पति के अनुरोध पर लंगट सिंह भी अपने पुत्र आनन्द बाबु के साथ 1880 के लगभग कलकत्ता आ गए और कलकत्ता महानगर निगम  में ठेकेदारी करने लगे। ठेकेदार और काम में ईमानदारी के लिये लंगट सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता था। मैकडोनाल्ड बोर्डिंग हाउस के निर्माण के दौरान लंगट सिंह का पंडित मदन मोहन मालवीय से सम्पर्क हुआ। मालवीय जी के अलावे वहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वरचंद विद्यासागर, सर आशुतोष बनर्जी से भी सम्पर्क हुआ।

इन महापुरुषों के सम्पर्क में आने के बाद लंगट सिंह का झुकाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर हो गया। लंगट सिंह स्वदेशी के समर्थक हो गए। कलकत्ता में स्थापित प्रथम स्वदेशी बिक्री केंद्र, स्वदेशी स्टोर, बंग कॉटन मिल्स के लंगट सिंह भी एक निर्देशक थे।लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर में भी पहला स्वदेशी तिरहुत स्टोर खुलबाया। सन 1890 के आस-पास लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर जिला परिषद के अंदर भी बड़े- बड़े कार्यो का ठेका मिलना शुरू हो गया। मुजफ्फरपुर में जो आज सुतापट्टी है, वहां से कल्याणी तक लंगट सिंह ने करीब 50 बीघा जमीन खरीदी तथा बहुत से मौजे की जमींदारी भी खरीदी।

1886 में संपन्न कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में कलकत्ता प्रवास के दौरान मदन मोहन मालवीय और अन्य विद्वानों के सानिध्य में लंगट सिंह ने देश दुनिया का ज्ञान अर्जित किया और अपना समय समाज सेवा में देने लगे और लंगट सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में भाग लिया। फिर, सं 1895 में मालवीय जी के अनुरोध पर लंगट सिंह भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पहली बार बनारस में सम्मिलित हुई । काशी नरेश की अध्यक्षता में हुई इस महासभा में तमकुही नरेश, दरभंगा महाराज, हथुआ महाराज, टेकारी महाराज, माझा स्टेट सहित भूमिहार जमींदार  सम्मिलित हुए। 

महासभा में मालवीय जी के प्रयास से बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव पास हुआ। सभी राजाओं ने चंदा देने की बात कही लेकिन जब चंदा के रूप में लंगट सिंह ने एक लाख टका की अपनी बोरी रखी तो सभी चकित हो गए की एक बैसाखी से चलने वाला साधारण व्यक्ति इतना बड़ा चंदा दे सकता है तब मालवीय जी ने लंगट सिंह का सभा मे परिचय कराया। उक्त महासभा में लंगट सिंह को काफी सम्मान मिला। सभा में ही लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज खोलने का विचार आया और लंगट सिंह ने इसी उद्देश्य से मुजफ्फरपुर में भूमिहार-ब्राह्मणों की सभा बुलाने का काशी नरेश से आग्रह किया जिसे सभा ने स्वीकार किया।

लंगट सिंह कॉलेज का दृश्य

बाबू लंगट सिंह के प्रयास से जनवरी 1899 में भूमिहार-ब्राह्मण सभा का मुजफ्फरपुर में अधिवेशन हुआ जिसमें काशी नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह, दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह, तमकुही नरेश, हथुआ महाराज, टेकरी नरेश, माझा स्टेट के अलावे मुजफ्फरपुर के आस पास के सभी जमींदार और विद्वान जन सम्मिलित हुए। महासभा में लंगट सिंह द्वारा मुजफ्फरपुर में डिग्री कॉलेज खोलने के प्रस्ताव को महासभा द्वारा पास किया गया और कॉलेज निर्माण के लिये सभी ने चंदा देना स्वीकार किया। 

महासभा की समाप्ति के बाद हथुआ महाराज और दरभंगा महाराज ने मुजफ्फरपुर में कॉलेज खोले जाने को लेकर बाबू लंगट सिंह को सहयोग नहीं दिया क्योंकि दरभंगा महाराज  दरभंगा में कॉलेज खोलने चाहते थे जबकि हथुआ महाराज छपरा में, जिस वजह से लंगट सिंह को परेशानी होने लगी। तब लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर के सभी जमींदारों की मुजफ्फरपुर में बैठक बुलाई, जिसमें सभी ने मुजफ्फरपुर में हाई स्कूल के साथ कॉलेज खोलने का प्रस्ताव दिया, क्योंकि मुजफ्फरपुर में जो जिला स्कूल था जिसमें गरीब बच्चों का प्रवेश नहीं हो पाता था। इस बैठक में हाई स्कूल और कॉलेज खोलने और उसका खर्च और संचालन का जिम्मेवारी उठानेवाले एक 22 सदस्यों की प्रबन्ध समिति गठित की गई जिसमे बाबू लंगट सिंह के अलावे शिवहर नरेश शिवराज नन्दन सिंह, हरदी के जमींदार बाबू कृष्ण नारायण सिंह, जैतपुर स्टेट के रघुनाथ दास, यदुनन्दन शाही, महंत प्रमेश्वर नारायन, महंत द्वारिक नाथ, योगेंद्र नारायन सिंह थे। इसी बैठक में बाबू लंगट सिंह ने स्कूल और कॉलेज खोलने के लिए अपनी सरैयागंज वाली 13 एकड़ जमीन दान दे दिया ।

बाबू लंगट सिंह के नेतृत्व में गठित प्रबन्ध समिति के सदस्यों द्वारा 3 जुलाई 1899 को सरैयागंज में बाबू लंगट सिंह द्वारा दी गई भूमि 13 एकर भूखंड में भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कूल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की नींव रखते हुए शुभारम्भ किया और 2 माह के अंदर ही छात्रों को पढ़ने के लिए कमरा तैयार हो गया और शिक्षकों की व्यवस्था कर पढ़ाई चालू हो गई । बाबू लंगट सिंह के प्रयास से सन 1900 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉलेज को प्री-डिग्री कॉलेज के रूप में मान्यता मिल गई और बाद में लंगट सिंह के मित्र और सहयोगी जेम्स साहब के सहयोग से कॉलेज को डिग्री तक मान्यता मिल गई।

सन 1906 में बाबू लंगट सिंह कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लेने गए जहाँ उनकी मुलाकात बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई और लंगट सिंह ने राजेन्द्र प्रसाद को कॉलेज में पढ़ाने के लिये राजी कर लिया और राजेंद्र प्रसाद सन 1908 में प्रोफेसर के रूप में कॉलेज में आ गए। सन 1909 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि कॉलेज निरीक्षण के लिये मुजफ्फरपुर आया और विश्वविद्यालय प्रतिनिधिने एक ही कैम्पस मे स्कूल और कॉलेज और छोटे छोटे कमरों में छात्रों की पढ़ाई की व्यवस्था पर भड़क गया और प्रबन्ध समिति को धमकी दिया की कॉलेज के लिये अलग जमीन और भवन की व्यवस्था नही हुई तो कॉलेज की मान्यता खत्म हो जायेगी ।

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जिसके बाद बाबू लंगट सिंह और प्रबन्ध समिति के सदस्यों ने खबरा के जमींदार के सहयोग से दामू चक और कलमबाग चौक के बीच 22 एकर जमीन खरीद किया और इस भूमि में 1911 से कॉलेज के लिए मकान बनना शुरू हुआ इसी बीच 15 अप्रैल 1912 को बाबू लंगट सिंह का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु के बाद लगा की कॉलेज का काम ठप हो जायेगा लेकिन लंगट बाबू के पुत्र अनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए इस कॉलेज के भवन का कार्य पूरा करवाया और कॉलेज अपने नए भवन में 1915 में आ गया। 

सन 1915 में सरकार ने इस कॉलेज को अपने हाथों में ले लिया और इस कॉलेज के विकास में तिरहुत कमिश्नर  ग्रीयर साहब ने लंगट बाबू की मृत्यु के बाद काफी सहयोग किया जिस वजह से कॉलेज के नाम के आगे ग्रीयर का नाम भी जोड़ा गया और कॉलेज का नाम ग्रीयर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज हो गया और बाद में इस  कॉलेज का नाम लंगट सिंह कॉलेज हो गया और पटना विश्वविद्यालय के गठन के बाद लंगट सिंह कॉलेज 1917 में पटना विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया ।

बाबू लंगट सिंह के सम्बन्ध में समाज में यह भ्रांति है कि वे अनपढ़ थे। यह सही है कि वे किसी स्कूल कॉलेज में नहीं पढ़े ।बचपन में वे सिर्फ प्राइमरी तक पढ़ना- लिखना सीख सके, लेकिन कार्य के दौरान अपने स्वाध्याय के बल पर अंग्रेजी, बंगला और हिंदी का अध्ययन किया। यदि लंगट बाबू अनपढ़ होते तो कलकत्ता के विद्वतजन और मालवीय जी या अंग्रेज अधिकारी से उनका संपर्क होना मुश्किल था। बाबू लंगट सिंह को 7 दिसंबर 1910 में हुई इलाहाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में मुजफ्फरपुर का प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया। इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद द्वारा बाबू लंगट सिंह को बिहार रत्न से सम्मानित किया गया साथ ही, इंग्लैंड के राजा द्वारा लंगट बाबू को बिहार का शिक्षा स्तम्भ घोषित किया गया।

मुजफ्फरपुर जिले का रैनी स्टेट का शाहू परिवार में सबसे धनी घराना था। कुछ मुकदमो के दौरान लंगट बाबू के परिवार के जमीन संबंधी केवला दस्तावेज 1900 से 1917 के बीच का देखने का मुझे मौका मिला, जिसमें कई एक दस्तावेज लंगट बाबू के लड़के अनन्दा बाबू और रैनी स्टेट के वारिसों के संयुक्त नाम में है। लोगो ने बताया कि रेल की ठेकेदारी या अन्य जगहों की ठेकेदारी में लंगट सिंह को पैसा रैनी स्टेट से मिलता था यानी लंगट बाबू के परिवार का रैनी स्टेट से व्यावसायिक सम्बन्ध था ।

अनन्द बाबू शुरू से ही अपने पिता की ठेकेदारी का काम देखते थे। उनके पिता का अंग्रेज अधिकारी और गवर्नर जनरल तक नाम आदर के साथ लिया जाता था और अनन्दा बाबू का भी उनसे सम्बन्ध अच्छा था। पिता की जिंदगी से ही अनन्दा बाबु कॉलेज का काम देखते आए और पिता की मृत्यु के बाद अनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए कॉलेज को भव्य बनाने के उद्देश्य से अपने अंग्रेज मित्र से सम्पर्क किया और इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेलियोल कॉलेज के भवन के समान कॉलेज भवन बनाने के लिये प्रयास शुरू किया। वर्तमान में जो लंगट सिंह कॉलेज का भवन है वह 1912 में बनना शुरू हुआ जिसका उद्घाटन 22 जुलाई, 1922 को राज्य के गवर्नर द्वारा किया गया और अनन्दा बाबू के प्रयास से कॉलेज को सरकार ने ले लिया।

इस तरह अनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू कॉलेज को पूर्णता और भव्यता प्रदान किया।अनन्दा बाबू ने अपने गांव में एक हाई स्कूल के अलावे कई संस्था का निर्माण किया। अनन्दा बाबु देश के स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को आर्थिक सहयोग दिया करते थे। फणीन्द्र नाथ घोष हत्या में फंसे क्रांतिकारी बैकुंठ शुक्ल और उनके साथियों को बचाने के लिये प्रिवी कौंसिल तक कानूनी खर्च किये। आज अनन्दा बाबु द्वारा समाज के लिए किया गये उनके कार्यो को लोग भुला चुके है तथा नई पीढ़ी को उनके बारे में कोई जानकारी भी नहीं है।

बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबु दिग्विजय नारायण सिंह राजनीतिक संत हुए 1930 में कांग्रेस से जुड़े और आजादी के बाद सन 1952 से 1980 तक कुल 28 वर्ष तक लगातार मुजफ्फरपुर और वैशाली से सांसद रहे ।1980 में चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया। दिग्विजय बाबू ने समाज सेवा में अपने पुरखों की संपत्ति बेच कर लगा दिया। सं 1952 में बिहार विश्वविद्यालय के लिये करीब 70 बीघा जमीन दान दे दी । अलख कुमार सिंह और उनकी पत्नी नीलम सिंह जी द्वारा धरहरा दरबार के प्रवेश द्वार पर बाबू लंगट सिंह की प्रतिमा स्थापित होने को है।

अंततः, प्रख्यात समाजसेवी बाबू लंगट सिंह द्वारा स्थापित अनेक शिक्षण संस्थाओ की श्रृंखला में लंगट सिंह महाविद्यालय एक प्रमुख माना जाता है। सं 1899 में स्थापित यह महाविद्यालय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आंदोलनकारियों का केंद्र बिंदु था।डॉ. राजेंद्र प्रसाद, प्रथम राष्ट्रपति इसके संस्थापक प्राध्यापकों में से एक थे। महात्मा गांधी चंपारण आंदोलन के क्रम में ड्यूक हॉस्टल में ठहरे थे तथा सुबह में आम जनता और विद्यार्थियों के सामने संकल्प लिया था – किसानों को मुक्त करने का। इसी महाविद्यालय के प्राध्यापक आचार्य जे .बी.कृपलानी स्वतंत्रता के समय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। आचार्य मलकानी, जो उस समय ड्यूक हॉस्टल के वार्डन थे। रामधारी सिंह दिनकर इसी महाविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक थे तथा यही से राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित होकर संसद पहुंचे थे। कहा जाता है की ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कृति उर्वशी का अधिकांश हिस्सा उन्होंने यही लिखा था। 

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