नई दिल्ली : आप चाहे कुछ भी कहें, आपको अच्छा लगे या बुरा, आप इन शब्दों को हज़म कर सकें अथवा नहीं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज ही नहीं, आने वाले कई दशकों तक, जब महिला सशक्तिकरण की बात होगी, अपने बूते पर समाज की सभी मुश्किलों से टकराकर, अपने अस्तित्व को कायम रखने की बात होगी, शोध होगा – तो फूलन देवी के नाम के बिना सम्पूर्ण बातें अधूरा रहेगा। फूलन महिला सशक्तिकरण की प्रतीक कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी।
स्वतंत्र भारत के अविभाजित उत्तर प्रदेश के यमुना और चम्बल नदी की धाराओं के उस पार जालौन जिला के गोरहा का पुरवा गांव में एक गरीब मल्लाह के घर जन्म लेने वाली और नई दिल्ली स्थित संसद के पांच सौ कदम दूर अपने सरकारी आवास में अंतिम सांस लेने वाली फूलन ने भारत की महिलाओं सशक्त होने वाली एक दृष्टान्त बनी। यह अलग बात है कि आज़ादी के 78 साल बाद राजनीतिक और सत्ता के गलियारे में आज भी महिलाओं के पैरों के निशान उतने नहीं बन सकें, जितने बनने चाहिए था। आज भी महिलाओं कि त्रासदी की आवाज प्रदेश के विधान सभाओं से लेकर देश के संसद तक नहीं पहुँचती है। आज कहने के लिए महिलाओं के कल्याणार्थ सैकड़ों योजनाएं कागज पर लिखी तो दिखती है, लेकिन देश के 649481 गांवों में विभिन्न जाति, समुदाय के रखने वाली महिलाओं तक नहीं पहुंची है। आज भी महिलाओं को, समाज के दावे-कुचले लोगों को वह सम्मान नहीं मिल पाया है, जिसके वे हकदार थे, और हैं।
फूलन आज शरीर से भले जीवित नहीं है, उसकी विचारधारा – महिलाओं की रक्षा, दबे-कुचले का सम्मान, निम्न जाति के लोगों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का अधिकार – आदि जीवित है और हमारी कोशिश है, रहेगी कि हम उसकी विचारधारा को मजबूत बनाकर समाज के दबे-कुचलों को, खासकर महिलाओं को उस योग्य बनायें ताकि जो त्रासदी फूलन को झेलनी पड़ी, उस त्रासदी का शिकार कोई दूसरी महिला नहीं हो। यह बात अपने जीवन काल में फूलन द्वारा स्थापित एकलव्य सेना के कर्ताधर्ता श्री सुभाष कश्यप कहते हैं।
@अखबारवाला001(227)✍जब दुःखी फूलन कही😢क्या करूँ इसका (पति उमेद सिंह)? मेरे नाम पर धोखाधड़ी करता है 😢
जिस वर्ष देश 16 वां जश्ने आज़ादी मना रहा था, उसी वर्ष के अगस्त महीने के 10 तारीख (1963) को जन्म लेने वाली और जश्ने आज़ादी के 54 वें वर्ष में आज़ादी के महीने के पूर्व माह 25 जुलाई, 2001 को अंतिम सांस लेने वाली फूलन की सामाजिक कद को भारतीय राजनीतिक बाजार में सभी राजनेताओं ने भुनाया। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि फूलन की विचारधारा को किसी ने आज तक राष्ट्रीय राजधानी के कर्तव्यपथ पर एक निशान बनाने दिया। चम्बल और यमुना का पानी उन दिनों से आज तक निरंतर बहती आ रही है और बहती रहेगी, लेकिन राजनीति और सत्ता में अपना वर्चश्व स्थापित रखने वाले लोग ऐसा होने नहीं दिया।
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते ‘एकलव्य सेना’ (अब राष्ट्रीय एकलव्य पार्टी) के कर्ताधर्ता श्री सुभाष कश्यप कहते हैं कि “सन 1994 में जब बहन जी तिहाड़ कारावास से आयी थी तो अपने बीते दिनों की त्रासदी को मद्दे नजर एक सेना का गठन की । उन्होंने ही नाम दिया था “एकलव्य सेना” और उसका मुख्य उद्येश्य था समाज के विभिन्न समुदायों में, विभिन्न जातियों में, विभिन्न तबके के लोगों को संघर्ष करने का सबक देना, एक जुट करना ताकि उन्हें उन सामाजिक त्रासदी से बाहर लाया जा सके। एकलव्य सेना का गठन करते समय फूलन हमारे घर में रोने लगी थी। रोने का वजह भी था और वह यह कि अपने जन्म अथवा अल्प आयु में उन्हें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक त्रासदी का सामना करना पड़ा था, अकेले और सपरिवार।”
कश्यप कहते हैं “आप सभी तो उस कालखंड को देखा है। फूलन को देखा है। ग्वालियर जेल से लेकर तिहाड़ जेल तक और फिर हमारे किंग्सवे कैम्प घर और सांसद आवास तक उसे देखा है। फूलन महज एक महिला नहीं थी, बल्कि स्वतंत्र भारत में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को, महिलाओं के प्रति दमनकारी नीतियों का भोक्ता भी थी। फूलन एक प्रगतिशील विचारधारा की लड़की थी जो किसी का अन्याय बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, करती थी और जुल्म के खिलाफ हमेशा लड़ने के लिए सज्ज रहती थी। आप भी जानते हैं जब वह महज 11 वर्ष की थी तो उसका विवाह पुत्ती लाल से करवा दी गई। विवाह के समय फूलन और उसके पति की आयु में लगभग 30 वर्ष का फासला था। समयांतराल फूलन को गांव में ही उसका पति प्रताड़ित करने लगा अपने पति की प्रताड़ना से थक कर वह अपने मायके आ गई और वहीं रहने लगी।”
कश्यप आगे कहते हैं: “लेकिन वहां भी समाज उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसे एक बदचलन महिला कहा जाने लगा। आज भारत के समाज में लाखों ही नहीं करोड़ों महिलाएं हैं जो विवाहोप्रान्त भी पति से अलग रहती हैं, अपने मायके में रहती है, लेकिन क्या आज समाज उन्हें उन शब्दों से अलंकृत करता है? नहीं। परन्तु फूलन को भरी पंचायत में जूतों से मारा गया, अपमानिक किया गया। दुर्भाग्य का उत्कर्ष तो यह रहा कि समाज के लोग मूक-दर्शक बने रहे।”
कश्यप का कहना है कि “फूलन महज एक हार-मांस से बना शरीर का नाम नहीं था, बल्कि एक विचारधारा थी और आज भी है । उसकी विचारधारा लड़ाकू था उन सभी यातनाओं के विरुद्ध लड़ने की जो महिलाओं के प्रतिदिन झेलना होता है। यह कल भी होता था। यह आज भी होता है। अंतर सिर्फ यह है कि उन यातनाओं के विरुद्ध फूलन समाज से लड़ने के लिए, उन वर्गों को धूल चटाने के लिए सज्ज हो गयी, खड़ी हो गयी, स्वयं की रक्षा के लिए स्वयं को सज्ज कर ली। कोई डाकू नाम दिया, कोई दस्यु कहा, कोई बैंडिट क्वीन कहा तो कोई फूलन देवी नाम से अलंकृत किया।”
कश्यप कहते हैं कि “अपवाद छोड़कर, भारत ही नहीं विश्व के किसी भी कोने में रहने वाले लोग जिन्होंने उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में फूलन के बारे में पढ़ा, जाना, सभी की सोच फूलन के प्रति सकारात्मक ही रहा। कोई साढ़े तीन – चार दशक पहले आप भी लिखे थे। आप भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बीहड़ों में घूमे थे। महिलाओं के प्रति समाज का सोच बदलने का बीड़ा फूलन ने उठाया था। हम सभी पिछले पांच दशकों से उसके साथ रहे, साथ दिए। आज फूलन नहीं है, लेकिन उसका विचार हम सभी जीवित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। क्योंकि आज भी समाज में महिलाओं का, दलितों का, दबे-कुचलों का वही हश्र है, जो उन दिनों था।”
आज से चार दशक पहले जब भारत ही नहीं विश्व के पत्र-पत्रिकाओं में फूलन की बात, उसकी विचारों की बाद लिखी जाने जगी, तो लोगों ने यह भी लिखा कि फूलन में वह शक्ति है जो भारत ही नहीं, विश्व के सिनेमा में काम करने वाले अदाकार और अदाकारों में नहीं है।यह भी लिखा गया था कि ‘वह माधुरी दीक्षित (उन दिनों बॉलीवुड के शीर्ष पर थी) से भी अच्छी पहचान वाली है, विश्व के लोग उसे महिला अदाकारों से अधिक जानते हैं; महिला अदाकारा श्रीदेवी से अधिक जन सैलाव एकत्रित करने की क्षमता रखती है, मनेका गाँधी से अधिक राजनीतिक पकड़ रखती है, मेधा पाटेकर से अधिक विश्व के पत्र-पत्रिकाओं में स्थान बनाने की क्षमता रखती है।’
कश्यप आगे कहते हैं : “लॉस एंजेलिस टाइम्स ने लिखा भी था कि दुनिया के किसी कोने में भी जब इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें फूलन देवी का अपना एक पूरा अध्याय होगा।यह गलत नहीं है। फूलन का जीवन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भारतीय समाज में महिलाओं का संघर्ष निरंतर जारी है। कोई उस संघर्ष में पीसना अपने जीवन का प्रारब्ध समझ लेती है, कोई प्रारब्ध को बदल देती है। यही विचारधारा है और फूलन इस विचाधारा पर खड़ी उतरी अपने सांस के अंतिम क्षण तक। फूलन आज देश की सम्पूर्ण आवादी में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है। वह समाज के दबे, कुचले लोगों के लिए, महिलाओं के लिए, बच्चियों के लिए, बच्चों के लिए एक मिसाल थी और हम सभी लोग उनके उस एकलव्य विचारधारा को जीवित रखने के लिए कटिबद्ध हैं।
कश्यप का कहना है कि फूलन बहुत ही निर्धन और समाज से उपेक्षित जाति से आती थी, अनपढ़ थी, अशिक्षित थी, देखने में सुन्दर भी नहीं थी – परन्तु महिलाओं की सुरक्षा के प्रति उसका विचार उतना ही सबल और प्रवल था कि वह उन महान हस्तियों से ऊपर थी। देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी यह चाहती थी कि उसे समाज की मुख्यधारा में लाया जाए। और यही कारण है कि सन 1982 में आत्मसमर्पण की। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक राजेंद्र चतुर्वेदी की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता है।
कहते हैं जमीनी विवाद के चलते फूलन ने अपने ही चचेरे भाई पर ईंट से वार कर दिया था। फूलन के इस स्वभाव के चलते उनकी शादी उनसे उम्र में 30 साल बड़े पुत्तीलाल मल्लाह से करा दी गई थी, जो पास के गांव में ही रहता था। मायके वालों ने फूलन को जल्द ही ससुराल भेज दिया था। ससुराल में फूलन को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी। एक बच्ची के लिए ये सब कितना पीड़ादायक हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ससुराल से प्रताड़ना झेलने के बाद फूलन मदद की उम्मीद से अपने मायके वापस लौटी लेकिन यहां उसे एक झूठे इल्जाम लगाकर जेल भेज दिया गया। जब वह बाहर आयी उसका उठना – बैठना डाकुओं की समूह के साथ होने लगा और देखते-ही-देखते फूलन गुर्जर सिंह की गैंग में शामिल हो गयी।
कश्यप कहते हैं “हम सभी इस बात का गवाह है कि फूलन अभी अपनी पिछली जिंदगी की कड़वी यादों से पूरी तरह बाहर भी नहीं आ पायीं थी कि एक घटना उसकी किस्मत पूरी तरह बदल कर रख दी। कहते हैं फूलन के तत्कालीन बागियों के साथ आने पर समूह के प्रमुख गुर्जर सिंह की की निगाह उसके प्रति गलत थी। कई बार गलत घटनाओं की कोशिश की गयी । समूह के विक्रम मल्लाह का फूलन के प्रति सकारात्मक दृष्टि था। परिणाम यह हुआ कि गुर्जर सिंह की हत्या हो गई और विक्रम सरदार बन गया। इसके बाद फूलन और विक्रम समूह के विस्तार कार्य में लग गए।
इस बीच गुर्जर सिंह की हत्या का बदला लेने के लिए दस्यु का दूसरा समूह राम और लाला राम ठाकुर विक्रम मल्लाह की हत्या कर दी और बदला लेने के लिए पुरुषों को ढूंढने लगे। फूलन को इसकी भनक लग गयी। वह यह भी जानती थी कि इस क्रम में उसकी भी जान जा सकती है क्योंकि वह विक्रम से बहुत नजदीक थी। ठाकुरों द्वारा पुरुषों को ढूंढने में एक पुरुष शिवनारायण (फूलन के भाई) भी था। लेकिन फूलन अपने भाई सहित अन्य पुरुषों, बच्चों को किसी तरह से बचाकर वहां से भगाने में सफल हो गयी। एक बहन का अपने भाई और समाज के अन्य छोटे-छोटे बच्चों की जान बचाने का यह प्रथम दृष्टान्त था। यह महिला सशक्तिकरण का बहुत बड़ा उदहारण था। पुरुष नहीं मिलने के कारण, ठाकुर लोगों ने फूलन को ही उठाकर बेहमई ले आया। बेहमई गाँव में अगले तीन हफ़्तों तक फूलन का सामूहिक बलात्कार किया गया। यही त्रासदी फूलन को फूलन देवी बना दिया। बेहमई गाँव से फूलन के साथी उसे जैसे तैसे बचाकर लाये। बेहमई गाँव की घटना के बाद फूलन ने खुद का गैंग बनाया और समयांतराल फूलन देवी को देश के पत्र-पत्रिकाओं ने ‘बैंडिट क्वीन’ से अलंकृत कर दिया।
सन 1981 साल का 14 फरवरी। पुलिस वर्दी में सज्ज फूलन अपने साथियों के साथ बेहमई गाँव पहुंची। फूलन की आँखों में बदले की ज्वाला जल रही थी। फूलन और उसके साथियों ने पूरे गाँव को चारों और से घेर लिया। उस दिन गाँव में शादी का आयोजन था। फूलन ने लालाराम ठाकुर के बारे में खूब पूछताछ की। कोई पुख्ता जानकारी ना मिलने पर फूलन ने उस गाँव के 22 लोगों को एक कतार में खड़ा किया और गोलियों से भून डाला। ये सभी लोग ठाकुर जाति से ताल्लुक रखते थे। ये घटना बेहमई नरसंहार के नाम से अगले दिन पूरे देश में फ़ैल गयी। बेहमई नरसंहार के बाद बाद फूलन का नाम दिल्ली की सड़कों पर सुनायी देने लगा। मामला इतना बढ़ गया की 2 राज्यों की पुलिस को फूलन को ढूंढ़ने के लिए लगाया गया। फूलन का गैंग मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में सक्रिय था। इस कारण दिल्ली से लगातार दोनों राज्यों पर दबाव बनाया जा रहा था।
श्री कश्यप का कहना है कि “तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अब तक फूलन की क्षमता को आंक चुकी थी। लेकिन वह नहीं चाहती थी कि ऐसी घटना फिर से घटित हो। उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे अर्जुन सिंह। प्रधानमंत्री चाहती थी कि वे इस कार्य के लिए किसी ऐसे अधिकारी का चयन करें जिस पर फूलन का विश्वास अडिग हो जाय। और एशिया ही हुआ। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक राजेंद्र चतुर्वेदी के कंधे पर इस कार्य को सौंपा गया। चतुर्वेदी के प्रति चम्बल और बीहड़ों के तत्कालीन दस्युओं का विश्वास बन चूका था। चतुर्वेदी ने इसके पहले भी डाकू मलखान सिंह को आत्मसमर्पण के लिए मनाया थे। अनेकानेक प्रयत्न किये गए थे उन दिनों।
फूलन उतनी सी उम्र में जितनी त्रासदी को झेली थी, कोई भी महिला किसी भी पुरुष पर विश्वास नहीं कर सकती थी, चाहे वह पुलिस ही क्यों न हो। फूलन का उत्तर प्रदेश पुलिस का विश्वास नहीं था और यही कारण है कि पहले जहाँ आत्मसमर्पण की बात सुनते ही वह चिल्लाने लगती थी, शांत होने पर सकारात्मक पहल करने लगी। जो उस कालखंड के गवाह है वे इस बात को जानते हैं कि आत्मसमर्पण की लाख कोशिशों के बाद भी जब फूलन को राजेंद्र चतुर्वेदी पर विश्वास नहीं हुआ तब चतुर्वेदी अपनी पत्नी और बच्चे समेत फूलन के ठिकाने पर पहुंच गए। फूलन को विश्वास दिलाने के लिए अपना बच्चा उनके गोद में रख दिए और कहे अगर आपको विश्वास ना हो तो मेरे बच्चे को आप गिरवी रख लीजिये।”
समय बीत रहा था। विश्वास के धागे और मजबूत हो रहे थे। उस दिन 12 फरवरी था और साल 1983 – चतुर्वेदी का प्रयास सफल होने वाला था। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में आत्मसमर्पण करने वाली थी। फूलन कुछ शर्तें रखी थी, जिसमें कुछ बातों को सुनकर, पढ़कर उस ज़माने के लोग भी हँसे थे, लेकिन एक बेजुवान के प्रति फूलन की वेदना और संवेदना देखकर कई संवेदनहीन व्यक्ति भी संवेदनशील हो गए थे। फूलन का कहाँ था कि उसके परिवार के लोगों, भाई बहनों के साथ-साथ बकरी और गाय को भी उसके गाँव से मध्यप्रदेश सुरक्षित लाया जाएगा। फूलन यह भी कही कि जब वह सभी आत्मसमर्पण करेंगे तो किसी को भी फांसी पर नहीं लटकाया जायेगा और अंत में उसके भाई शिवनारायण को सरकारी नौकरी मिलेगी। दिल्ली में इंदिरा गांधी बैठी थी और मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह के साथ चतुर्वेदी। सभी शर्तें मान ली गयी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद ऐसी घटना कभी नहीं हुई। मल्लाह जाति की एक महिला और उसके समूह के लोगों द्वारा समर्पण में कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए दस हज़ार से भी अधिक पुलिस कर्मी उपस्थित थे। समर्पण के समय में भी उसने अपने से अधिक उन तमान लोगों के लिए, निरीह, बेजुवान बकरी-गाय के लिए और भाई शिवनारायण के लिए सोची – यह सशक्तिकरण का ही दृष्टान्त है।
फूलन देवी ने महात्मा गांधी और माँ दुर्गा के समक्ष अपने हथियार रख दिए। फूलन पर हत्या के 22 मामले, लूटपाट के 30 और अपहरण के 18 मुकदमें दर्ज थे। फूलन देवी के अगले 11 साल जेल की सलाखों के पीछे गुजरे। कुछ वर्ष मध्यप्रदेश में और बाद में तिहाड़ जेल में। उस कालखंड में, खासकर मध्यप्रदेश से तिहाड़ जेल लाने और उसकी रिहाई करने/करवाने में श्री कश्यप के पिता हरफूल सिंह और उनके परिवार का जो योगदान रहा, शब्दों में नहीं लिखा जा सकता है। करीब 11 साल की सजा काटने के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने फूलन पर लगे सारे इल्जाम वापस ले लिए। साल 1994 में जेल से रिहा हुयी।
उस दिन 19 फरबरी था सन 1994 साल का। दिल्ली के तिहाड़ जेल से फूलन देवी को हम सभी लाये थे। साथ थे फूलन देवी के चाचा हरफूल सिंह, उनके पुत्र सुभाष कश्यप और मल्लाह/निषाद समाज के सैकड़ों लोग। तिहाड़ से हम सभी सीधा किंग्सवे कैम्प के पास ओल्ड गुप्ता कॉलोनी स्थित श्री हरफूल सिंह के घर पहुंचे। फूलन देवी का यही ठिकाना था तिहाड़ के बाद दिल्ली सल्तनत में। उमेद सिंह उन दिनों ‘एकल’ और वे भी साथ थे। गुप्ता कॉलोनी में हरफूल सिंह की पत्नी, उनका सभी बेटा, बहु सुश्री माया, सुश्री सुनीता जी (जो बाद में पहुंची) के अलावे फूलन देवी की बड़ी बहन रुक्मिणी, छोटी बहन मुन्नी और अन्य लोग उपस्थित थे। फूलन के जीवन में श्री हरफूल सिंह की भूमिका भले आज किसी भी किताबों के पन्नों में, टीवी पर, फूलन देवी पर बनी फिल्मों में नामोनिशान नहीं हो, सभी अपने-अपने नाम, शोहरत और पैसे कमाने के चक्कर में भले हरफूल सिंह और उनके परिवार को भूल गए हों, उपेक्षित कर दिए हों, लेकिन हकीकत यही है कि अगर हरफूल सिंह नहीं होते तो शायद फूलन देवी ग्वालियर जेल से तिहाड़ जेल भी नहीं आती। जेल से बाहर कदम भी नहीं रख पाती। धन्यवाद के पात्र थे हरफूल सिंह साहब, उनका समस्त परिवार, उनके बेटे, उनकी पत्नी, बहुएं जो अपने जाति – संप्रदाय के लिए अपना सब कुछ उत्सर्ग कर दिए।
(आगे: मल्लाह/निषाद समाज के साथ-साथ समाज के सभी बेजुवान दबे कुचलों को अपने अस्तित्व के लिए एकलव्यी बनना होगा )