‘बनैली राज’ के अख़बार के बाद ‘दरभंगा राज’ का अखबार आया, लोग ‘पूरब-पश्चिम’ में बटें रहे, फिर ‘बाहरी’ ने कब्ज़ा किया, लोग ‘मुस्कुराते’ रहे…. (भाग-4)

बिहार का 'अपना अख़बार'

पूर्णियां / कटिहार / पटना :  संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में अगर अभ्यर्थियों से पूछा जाए कि जिस मिथिला राज्य के निर्माण के लिए मिथिला के लोग विगत 120 वर्षों से लड़ाई कर रहे हैं, उस मिथिला के ‘पूर्णियाँ’ रेलवे स्टेशन के निर्माण में किस व्यक्ति ने अपनी भूमि सरकार को दी और यह स्टेशन किस वर्ष यात्रियों के लिए खोला गया? पटना से प्रकाशित आज का “द हिंदुस्तान टाइम्स” से पहले इस अखबार का नाम “द सर्चलाईट” था, लेकिन “द सर्चलाईट” से पूर्व उस अख़बार का नाम क्या था और उस अख़बार का ‘संरक्षक’, ‘सम्पोषक’ कौन थे? 

मुझे विश्वास है कि स्टेशन निर्माण के मामले में भले अभ्यर्थी गण, खासकर जो मिथिला क्षेत्र के होंगे, जबाब दे भी दें; परन्तु प्रश्न के दूसरे भाग – किसने अपनी भूमि सरकार को दिए – के मामले में सर खुजलाने लगेंगे। इतना ही नहीं, पटना से प्रकाशित आज का ‘दी हिंदुस्तान टाईम्स’ का ‘कल का वजूद’ तो द सर्चलाईट था, लेकिन कल यह अख़बार किस नाम से जाना जाता था, उससे पूर्व उस अख़बार का क्या नाम था? किसने उस अख़बार का प्रकाशन प्रारम्भ किये बिहार के लोगों की आवाज के लिए? उस अखबार का ‘संरक्षक और सम्पोषक’ के मामले में (अपवाद छोड़कर), आज के पाठक ही नहीं, सम्मानित पत्रकार बंधु-बांधव भी चुप्पी साध लेंगे। शब्द कटु हैं, लेकिन चिंतन-मंथन का विषय अवश्य है क्योंकि दशकों पूर्व से बिहार के लोगों ने, खासकर मिथिला के लोगों ने मिथिला के पूर्वी क्षेत्र के राजाओं को कभी पश्चिमी क्षेत्र के राजाओं से आगे आने ही नहीं दिए। वजह हमसे बेहतर मिथिला के लोग’ जानते हैं। 

यह तो महज एक ‘प्रश्न’ है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आज बिहार में, ‘बिहार का कोई अपना समाचार पत्र’ नहीं है, जो बिहार की ‘सकारात्मक’ बातों को बिहार के खेत-खलिहानों से उठाकर, गली-कूचियों से निकालकर, जिला मुख्यालयों के रास्ते, प्रदेश की राजधानी से राष्ट्र की राजधानी स्थित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नव नामकरण वाला ‘कर्तव्य पथ’ से होते हुए, देश की संसद, प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन में अपनी आवाज से शंखनाद करे। जो अखबार, पत्र-पत्रिकाएं आज बिहार की राजधानी अथवा प्रदेश के जिला मुख्यालयों से प्रकाशित हो रहे हैं, वे “व्यवसाय” कर रहे हैं, साथ ही, प्रदेश की ‘नकारात्मक ख़बरों को विश्वव्यापी’ बनाकर ‘बुद्धिमान पत्रकार बंधु-बांधव’ पटना के रास्ते दिल्ली, मुंबई में अपना वर्चस्व स्थापित कर रहे हैं, करने का अथक प्रयास कर रहे हैं। यह बात सिर्फ पत्रकारों पर ही लागू नहीं है, अपितु, राजनीतिक गलियारे के लोग, प्रशासनिक गलियारे के लोग भी उतने ही हिस्सेदार है । 

पूर्णिया रेलवे स्टेशन

आज़ाद भारत जब स्वयं 21-वर्ष का था और उसके करीब चार करोड़ आवाम में न्यूनतम 50 फ़ीसदी लोग बिहार की राजधानी पटना और प्रदेश के अन्य शहरों से प्रकाशित अखबारों, पत्रिकाओं को पढ़कर देश की आर्थिक, राजनितिक, शैक्षणिक आंकड़ों से प्रदेश के विकास का ‘ग्राफ’ बना रहे थे, मैं पटना की ऐतिहासिक गाँधी मैदान के कोने से गुरुगोविंद सिंह की जन्मस्थली की ओर जाने वाली सड़क ‘अशोकराज पथ’ पर पटना से प्रकाशित बिहार का ‘अपना’, बिहारियों का अपना अखबार – ‘आर्यावर्त’, ‘इण्डियन नेशन’, ‘सर्चलाइट’ और ‘प्रदीप’ बेचकर अपनी ‘उदर’ के साथ-साथ ‘मष्तिष्क’ की भूख को शांत कर रहा था। 

साल सन 1968 था और उन दिनों ‘आर्यावर्त’ की कीमत 12 नए पैसे, ‘दी इण्डियन नेशन’ की कीमत 15 नए पैसे, ‘दी सर्चलाइट’ की कीमत 10 नए पैसे और ‘प्रदीप’ की कीमत महज छः नए पैसे थे। यह क्रिया अनवरत 96-माह तक चला जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बार में पत्रकारिता की सबसे निचली सीढ़ी – कॉपी होल्डर – के पद पर सेवा की शुरुआत नहीं किये, साल था 18 मार्च 1975 और हाथ में मैट्रिक पास का प्रमाण पत्र। 

यह बात यहाँ इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ क्योंकि बनैली राज पर लिखने के क्रम में अचानक दी सर्चलाइट अख़बार का नाम आया। दी सर्चलाइट अखबार की शुरुआत एक दैनिक के रूप में सन 1930 से प्रारम्भ हुआ। यह अख़बार दरभंगा के तत्कालीन महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित अख़बार दी इण्डियन नेशन से एक दैनिक के रूप में न्यूनतम एक वर्ष बड़ा था। 

दी सर्चलाइट अख़बार आज़ादी के आंदोलन के दौरान, खासकर ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान न केवल तत्कालीन राजनीतिक नेताओं का, राष्ट्रवादियों का, बल्कि क्रांतिकारियों का कन्धा-से-कन्धा मिलाकर ‘शब्दों से साथ’ दिया। “दी सर्चलाइट” का जीवन-काल महज 55-साल रहा। देश अब तक आज़ाद हो चुका था। आज़ाद भारत में पत्रकारिता के प्रति विचारधाराएं भी बदल रही थी। अख़बारों में लिखने वाले लोगों, पत्रकारों को “इंच-टेप’ से, ‘बित्ता’ से, ‘शब्दों से’, ‘कॉलमों में प्रकाशित’ खबरों को नाप कर पैसे दिए जाते थे। प्रदेश के समाज में पत्रकारों का, उनके द्वारा लिखित शब्दों का ‘मोल’ आज़ाद भारत के नेतागण ‘आंकना’ प्रारम्भ कर दिए थे। वे सभी इस बात से भिज्ञ हो गए थे कि पत्रकारों की लिखनी के बिना प्रदेश के जिला मुख्यालयों से पटना के सर्पेंटाइन रोड तक, जिला परिषद से विधानसभा तक और फिर विधान सभा से लोक सभा और राज्यसभा तक नहीं पहुंचा जा सकता है। स्वाभाविक है, पत्रकार तो स्वयं का सामर्थ समझ ही गए थे, अख़बारों के मालिक भी अख़बार के पन्नों का महत्व समझने में देर नहीं किये। 

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परन्तु, उन दिनों बिहार से जो भी अखबार प्रकाशित होता था उसके संस्थापक, संरक्षक, सम्पोषक “व्यापारी” नहीं थे और अख़बार के शब्दों को समाज कल्याण के नाम पर स्वहित में विपरण नहीं करना चाहते थे, करना जानते थे। परिणाम यह हुआ एक एक ओर दी सर्चलाइट अपने पचपन वर्ष की अवस्था में ही प्राण त्याग दिया, 39-वर्ष की अवस्था में प्रदीप (प्रकाशन 1947, बंद: 1986) अपना दम तोड़ दिया, द इण्डियन नेशन कभी जीवित, कभी मृत का खेल खेलते अंततः 60-वर्ष की अवस्था आते-आते मिट्टी में दफ़न हो गया, आर्यावर्त भी 50-वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त किया। प्रदेश में प्रकाशकों और पाठकों की एक नई पीढ़ी का जन्म हुआ। कहते हैं, जब राजा कमजोर होता है तो तक्षण ‘गुलाम’ हो जाता है। बिहार के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ। दिल्ली, कलकत्ता, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर से प्रकाशित अखबार क्रमशः अविभाजित बिहार और फिर नए नाम से उभरे दक्षिण बिहार का झारखण्ड उन अख़बारों के प्रकाशन से भर गया। प्रदेश के लोग, मिथिला के लोग – न उन दिनों आगे आये और न आज ही। 
 

कलानंद हाई  स्कूल 

बहरहाल, कलकत्ता में सन 1872 में स्थापित बिहार बंधु का बिहार का पहला संस्करण 1874 में प्रारम्भ हुआ। इसके बाद बिहार में गुरु प्रसाद सेन ने एक अंग्रेजी दैनिक के रूप में सन 1875 में दी बिहार हेराल्ड प्रारम्भ किये। कोई छः साल बाद, सन 1881 में पटना से इंडियन क्रॉनिकल नाम का एक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ। सन 1890 के आस-पास सर्व हितैषी नामक हिंदी दैनिक का प्रकाशन किया गया। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में राष्ट्रवादियों द्वारा द मदरलैंड और बिहार स्टैंडर्ड नाम के अन्य समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ। सन 1903 में एक साप्ताहिक अखबार आया, नाम था बिहार टाईम्स, बाद में 1906 में भागलपुर से प्रकाशित बिहार समाचार से मिलकर एक अलग अख़बार अस्तित्य्व में आया, नाम द बिहारी पड़ा। 

अगर बनैली राज का इतिहास देखा जाय तो सं 1930 में दी सर्चलाईट जिस अंग्रेजी दैनिक के रूप में पटना से प्रकाशन प्रारंभ किया, वह 15 जुलाई, 1918 से बिहार टाइम्स (1894) और द बिहारी (1906) के स्थान पर प्रकाशित होने वाला ही दी सर्चलाईट अखबार था, जिसे जीवंत स्वरूप बनैली के तत्कालीन राजा कीर्त्यानंद सिंह द्वारा संरक्षित, सम्पोषित था। यह बात संभवतः आज ना ही बिहार के लोग जानते होंगे और ना ही बिहार के पत्रकार बंधु-बांधव। 

असहयोग आंदोलन के दौरान मजहरुल हक़ साहब, जिनके नाम से आज पटना में पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन से निकलने वाली सड़क ऐतिहासिक गांधी मैदान को जोड़ती है और पटना के लोग उसे ‘फ़्रेज़र रोड’ के नाम से भी जानते हैं; मातृभूमि अखबार का प्रकाशन प्रारम्भ किये। यह अखबार, आज की तरह सरकार, सत्ता का समर्थक नहीं, बल्कि तत्कालीन सरकार की कड़ी आलोचना करने के कारण दर्जनों बार मुकदमों का शिकार हुआ, दर्जनों बार कोर्ट-कचहरी हुआ और अंत में दम तोड़ दिया, बंद हो गया। उसी दौरान मोहम्मद यूनुस साहब दी पटना टाइम्स का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो भारत छोडो आंदोलन के दो साल बाद तक और आज़ादी के तीन साल पूर्व तक प्रकाशित होता रहा। 

दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह का पत्र

दी सर्चलाईट अखबार का दैनिक स्वरूप होने के एक साल बाद दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह दी इण्डियन नेशन का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। यह कहा जाता है कि इसका प्रकाशन के कुछ समय बाद स्थगित कर दिया गया था जो बाद में कई वर्षों बाद पुनः प्रारम्भ हुआ और आर्यावर्त हिंदी दैनिक का भी प्रकाशन सन चालीस में प्रारम्भ हुआ। अगर दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह द्वारा लिखी चिठ्ठी के शब्द को गवाह माना जाय तो वे सन 1912 में लिखे थे, जब द बिहार टाइम्स, द बिहारी का प्रकाशन हो रहा था। रामेश्वर सिंह बहादुर, दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के पिता थे। 

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उन्होंने लिखा: बिहार में ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत के अलावे अन्य जातियों के लोग भी हैं जो विकसित नहीं हैं। वे चाहते थे कि उनके नेतृत्व में सभी एक साथ आएं ताकि सबों के हितों की रक्षा हो सके। समाज में जो अविकसित लोग हैं, उनका सम्पूर्णता के साथ विकास हो सके। इस उद्देश्य से एक बैठक बुलाई जाए जिसमें बिहार के सभी जमींदारों के अलावे सभी लोग उपस्थित हों। एक पार्टी की स्थापना हो । बिहार को अलग प्रांत बनाने के लिए वायसराय को धन्यवाद भी दिया जाय। साथ ही, उनके नजर में इस बात को भी लाया जाय कि समाज के इन अविकसित लोगों की सुरक्षा किस प्रकार होगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वे आने वाले समय में भुक्तभोगी होंगे। इतना ही नहीं, वायसराय को उन वर्गों की महत्ता को भी बताया जाए ताकि उनका समुचित विकास भी हो सके।”

दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह का पत्र पृष्ठ-2

महाराजा रामेश्वर सिंह आगे लिखते हैं: ” वायसराय को यह बताया जाए की समाज में इस वर्ग का क्या महत्व है क्योंकि यह समुदाय बिहार की 90 फीसदी भूमि के स्वामी हैं। आने वाले समय में जब नए एल.जी. अपना पदभार ग्रहण करेंगे तो इस विषय से संबंधित एक प्रतिवेदन भी दिया जाय। समय समय पर इस दिशा में पहल भी की जाए ताकि समाज के इस वर्ग के लोगों को काउन्सिल (लेजिस्लेटिव) में उचित स्थान भी मिले। एक मतदाता सूची का भी निर्माण हो। जो सक्षम हों वे आवेदन भी करें ताकि उनका नाम दर्ज हो। साथ ही, इस समुदाय की सम्पूर्ण भलाई के लिए वे सभी कार्य किये जाये जिससे वे एक्जीक्यूटिव काउंसिल में अपना स्थान भी प्राप्त कर सकें।” 

खैर, वापस पूर्णिया चलते हैं। उत्तर-पूर्व फ्रोंटियर रेलवे के कटिहार-जोगबनी रेल खंड पर पूर्णिया सिटी के रूप में सन 1887 में एक रेलवे स्टेशन अपने अस्तित्व में आया। यह छोटी-लाइन का स्टेशन था। यहाँ ईस्ट-सेन्ट्रल रेलवे का स्टैण्डर्ड गॉज लाइन इसे बनमनखी के रास्ते सहरसा से जोड़ा। यह एक महत्वपूर्ण स्टेशन था जहाँ सियालदह, मालदा, दिल्ली, पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, गोरखपुर, लखनऊ आदि शेरोन से आने-जाने वाली ट्रेनें गुजरती थी। समयांतराल छोटी लाइन और स्टारडर्ड लें कब बड़ी लाइन में बदल गई, पतन भी नहीं चला। 

बनैली राज के गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि मुग़ल शासन काल में पूर्णिया का नाम एक सीमावर्ती सैनिक प्रान्त के रूप में सामने आया जहाँ के शासन की बागडोर एक फौजदार को सौंप दी गयी थी। रुतबे और सामर्थ की दृष्टि से एक फौजदार का पद सूबेदार से किंचित ही न्यून नहीं था। पूर्णियां, एक तरह से फौजदार की जागीर थी जिसका अधिकांश आय, उस सीमावर्ती सैनिक प्रान्त की सुरक्षा और फौजदार के निजी भत्ते के रूप में उपयोग में लाया जाता था। 

आइने अकबरी से प्राप्त सूचना के अनुसार, ‘महानंदा नदी के पूर्वी ओर का, सरकार-तेजपुर का इलाका और पश्चिमी तरफ का, सरकार-पूर्णिया का इलाका ही पूर्णिया क्षेत्र है। इसके आलावा सरकार -औदुम्बर का दो-महाल और सरकार-लखनौती का एक महाल पूर्णिया के अंतर्गत पड़ता था। ये सभी प्रदेश बंगाल सूबे के अधीन थे। सूबे का सुगठित प्रशासन काफी हद तक इन सीमावर्ती सैनिक प्रांतो की राजनीतिक और सामरिक स्थिरता पर निर्भर थी। वैसी स्थिति में हर एक फौजदार नवाब के लिए यह आवश्यक था कि जिले के सभी इलाके ऐसे कुशल और समर्थ जमींदारों के अधीन रहे जो न केवल कृषि विकास के माध्यम से राजस्व की निश्चित रकम का समय पर भुगतान करें, बल्कि अपने क्षेत्र में अमन चैन स्थापित रखकर सरकार की मदद कर सकें। 

गिरिजानंद सिंह

गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “पूर्णिया रेलवे स्टेशन का इतिहास सीधा सैयद असद रजा से ही प्रारम्भ होता है। पूर्णियां में मुग़ल काल से ही फौजदार नवाबों के अधीन कई जमींदार, जागीरदार और ताल्लुकेदार हुआ करते थे। इसमें कई चौधरी, राजा, महाराजा और नवाब के नाम से जाने जाते थे। कुछ उपाधियाँ बादशाह द्वारा प्रदत्त थी तो कुछ बंगाल के नवाब ने दिया था। कुछ लोक प्रदत्त भी थी। कई जमींदार अपने नाम के अंत में स्वयं ही ‘राय’, ‘सिंह’, और ‘चौधरी’ आदि जोड़ लेते थे। कहा जाता है कि सन 1793 ई. में पूर्णियां के जिन जमींदारों ने कॉर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत अपने इलाकों का बंदोबस्त करवाया उनमें ‘सौरिया’ की रानी इंद्रावती देवी, ‘धर्मपुर’ के राजा माधव सिंह, ‘सुजारपुर’ के फखुद्दीन हुसैन और ‘तीराखारदह’ के राजा दुलार सिंह का नाम प्रमुख है। इसके अलावा और कुछ ऐसे जमींदार थे जिनके घराने का जिक्र किये बिना पूर्णियां का इतिहास अधूरा रह जायेगा – मसलन ‘मालद्वार’ और ‘नजरगंज’ – कुछ यूरोपियन और अंग्रेज जमींदार भी थे।” 

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पूर्णियां के अंतिम फौजदार नवाब थे मुहम्मद अली खाँ। बाद में उनके बेटे अहमद अली खाँ और पोते आगा सैफुल्लाह खाँ पूर्णियां सिटी के जमींदार हुए। सैफुल्लाह खाँ के वंशजों में बीबी कमरुनिस्सा और सैयद असद रजा  का नाम पूर्णिया के नवाब खानदान के उत्तराधिकारियों के रूप में लिया जा सकता है। इस घराने द्वारा बनवाया गया छह गुम्बदों वाला मस्जिद, स्थापत्य विलक्षणता की दृष्टिकोण से आज भी महत्वपूर्ण है। बहुत काम लोग जानते होंगे कि पूर्णिया रेलवे स्टेशन का निर्माण सैयद असद रजा द्वारा प्रदत्त भूमि पर हुआ है।   

गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “सत्रहवीं शती के उत्तरार्ध में पूर्णियां में सौरिया (सुरगण) नामक एक मैथिल ब्राह्मण राजवंश की स्थापना हुई थी जो ‘पुरैनिया’ राज के नाम लोक प्रसिद्ध था और इसके संस्थापक थे समरू राय @ समर सिंह। समरू राय के बाद क्रमशः कृष्णदेव, विश्वनाथ, वीर नारायण, रामचंद्र नारायण और इंद्र नारायण राज किये और सभी राजा की उपाधि से विभूषित थे।राजा कृष्णदेव के उत्तराधिकारियों का राज्य ‘पहसरा’ शाखा कहलाया और कृष्णदेव के भाई राजा भगीरथ के उत्तराधिकारी ‘सौरिया’ शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुए। राजा कृष्णदेव का मुख्यालय ‘पहसरा’ में था और यह पूर्णिया के फौजदार नवाब के अधीन था। इस वंश के अंतिम राजा इन्द्रनारायण राय ने ‘कसबा’ के निकट ‘मोहनी’ में अपना नया मुख्यालय बनाया। इन्द्रनारायण राय निःसंतान थे। 

सन 1784 ई. में इन्द्रनारायण राय की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी रानी इंद्रावती ने शासन की बागडोर संभाली और 1793 ई. में लार्ड कॉर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत अपने इलाकों की जमींदारी बंदोबस्त करवाया। उस समय वे पूर्णिया की सबसे बड़ी जमींदार रानी थीं और सुल्तानपुर, श्रीपुर, नाथपुर, फतेहपुर, सिंधिया, कटिहार, गोरारी, हवेली, और आलमगंज परगने की मालकिन थी। परन्तु 1803 ई. में उनकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी को लेकर विवाद छिड़ गया और इस्टेट का एक बड़ा अंश उत्तराधिकार के मुकदमें की बलि चढ़ गया। 

पचास वर्ष पूर्व: बाएं से: जयानन्द सिंह, कुमार विमलानंद सिंह, कुमार तारानंद सिंह, कुमार श्यामनन्द सिंह, कुमार कांतानन्द सिंह, कुमार विवेकानंद सिंह, मित्र भुनेश्वरी बाबू और मित्र बालानंद सिंह 

बनैली राज की गरिमा को आगे बढ़ने वाले गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “रानी इंद्रावती अपने ममेरे भाई ‘भईया जी झा’ को उत्तराधिकारी बनाया तो था लेकिन अपर्याप्त साक्ष्य के कारण ‘सौरिया शाखा’ के दावेदारों ने मालमा दायर कर दिया। यद्यपि दोनों ही दावेदारों को इस्टेट में कुछ हिस्सा मिला परन्तु एक बड़ा भाग लम्बे मुकदमें के दौरान मुर्शिदाबाद के बाबू प्रताप सिंह और पूर्णिया सिटी के बाबू नकछेदलाल के नाम हस्तानांतरित हो गया। सन 1850 में राजा भईया जी झा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र विजय गोविन्द सिंह राज हुए जो ‘फरकिया’ और ‘गुणमंती’ में अपना मुख्यालय बनाया। लेकिन विजय गोविन्द अपनी जमींदारी संभल नहीं सके और मिस्टर पामर द्वारा छले गए। परिणाम यह हुआ कि ‘सूर्यास्त कानून’ के अन्तर्गत उनकी जमींदारी नीलाम हो गई। विजय गोविन्द के दोनों पुत्र – कुँअर विजय गोपाल और कुंवर भवगोपाल के पुत्र नहीं होने के कारण यह वंश समाप्त हो गया।” 

कृष्णदेव के भाई राजा भगीरथ राय के वंशजों में रघुदेव राय, बासुदेव नारायण राय, उत्तम नारायण राय और चन्द्रनारायण राय क्रमशः राजा कहलाये। राजा चन्द्रनारायण राय के बड़े पुत्र राजा श्रीनारायण के दो पुत्र हुए – राजा राजेंद्र नारायण और राजा महेंद्र नारायण।राजा राजेन्द्रनारायण राय सौरिया में ही रहे, जबकि राजा महेंद्र नारायण राय ‘कटिहार’ में अपनी राजधानी बनाई। उन्होंने 1854 ई. एक भव्य महल बनवाया जो डच स्थापत्य शैली का अनूठा उदहारण था। राजा महेंद्र नारायण एक काली मंदिर भी बनवाये और यह कहा जाता है कि  वे महल की खिड़की से प्रतिदिन ‘माँ काली’ के दर्शन करते थे और उनकी पत्नी महल के छत से सुदूर माँ गंगा की दर्शन करती थी। राजा के कोई संतान नहीं थी अतः उन्होंने रानी महेश्वरी के भतीजे, दयानाथ मिश्र के पुत्र बाबू दीनानाथ मिश्र को गोद लिया। कटिहार में माहेश्वरी अकादमी स्कूल, उमादेवी मिश्रा बालिका विद्यालय, बड़ी बाजार की यज्ञशाला और दुर्गास्थान की भूसम्पत्ति उन्हीं की ही देन है। 

क्रमशः 

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