साल 1962 : स्थान: व्हीलर सीनेट हॉल, पटना : “परशुराम की प्रतीक्षा” का पहला पाठ: रामधारी सिंह दिनकर और राम वचन राय

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' और साथ में श्री राम वचन राय.तस्वीर नवभारत गोल्ड

हिंदी साहित्य के आधुनिक धनुर्धरों को यह मालूम हो अथवा लेकिन बिहार के हिंदी साहित्य के दो हस्ताक्षरों को मिठाई बहुत भाता था । मिठाई में एक गर्म और दूसरा शीतल। एक के लिए देर रात भी उस ज़माने में पचास पैसे रिक्शा भाड़ा देकर पटना के डाक बंगला चौराहे के नुक्कड़ पर ‘लखनऊ स्वीट हॉउस’ या फिर पटना कालेज के सामने एनीबेसेंट रोड के नुक्कड़ पर स्थित पिंटू होटल जाना कठिन नहीं होता था। दोनों स्थानों का रसगुल्ला पाटलिपुत्र के मिठाई के इतिहास में स्वर्णाक्षरों  में लिखा जाता था। 
जबकि जलेबी की प्राप्ति के लिए विगत दिनों जहाँ देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी राजेंन्द्र नगर गोल चक्कर पर वहां के निवासियों का अभिवादन कर आगे बढ़े थे, उसी नुक्कड़ पर एक दूकान होती थी जहाँ की जलेबी बहुत प्रसिद्द था । मैला आँचल के लेखक श्री फणीश्वरनाथ रेणु को जहाँ सफ़ेद रुई जैसा रसगुल्ला पसंद था, वहीँ परशुराम की प्रतीक्षा के लेखक को गरमा-गरम जलेबी।

दोनों लेखकों के घरों की दूरी पैदल चलने पर भी 300 सेकेंड्स से अधिक की नहीं थी। एक जहाँ से आर्य कुमार रोड अपना अस्तित्व समाप्त कर राजेंद्र नगर में विलीन हो जाता था, अंतिम कदम से कुछ पूर्व रहते थे भारत के लोगों द्वारा अलंकृत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, जबकि उसी मार्ग पर आगे बिहार सरकार के जन सम्पर्क विभाग के आवासीय क्षेत्र में रहते थे फणीश्वरनाथ रेण। खैर। 

उन दिनों दिनकर जी अपने आर्य कुमार रोड निवास में रहते थे। इस दिनकर भवन का निर्माण मेरे जन्म के तीन साल पहले हुआ था। दिनकर भवन के साथ ही ‘उदयाचल’ प्रकाशन भी बना। साल 1956 -57 था। उदयाचल प्रकाशन के साथ ही हिंदी साहित्य के एक और धनुर्धर श्री छविनाथ पाण्डे रहते थे। श्री पाण्डेय यहाँ 1937 अपना आवास बनाये थे। इनके घर से कोई 135 डिग्री के कोण पर बाएं हाथ  सन 1956 में आये पटना विश्व विद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष श्री राम खेला वन राय। राम खेला वन  राय साहब के घर के ठीक सामने वाला घर ‘आनंद भवन’ 1954 में बना। यह मकान नोवेल्टी एंड कंपनी के मालिक श्री तारानंद झा का था। उन्हीं के दूकान में मेरे पिता एक छोटी से नौकरी करते थे और मैं अपने पिता रूपी ब्रह्माण्ड के नीचे मालिक के इस घर में सन 1965 में पदार्पित हो गया था। ‘आनंद भवन’ के आगे वाला मकान श्री जयनाथ मिश्र जी का था जो सन1937-38 में नोवेल्टी स्टेशनरी चलाते थे। 

उस दिन दिनकर भवन के दरवाजे पर अचानक दरवाजे की कुण्डी बजी। सामने के कमरे में दिनकर जी कुछ लिख रहे थे। गर्दन नीचे किये आवाज दिए “कौन”? दरवाजे से आवाज आयी : ‘मैं रामवचन राय हूँ। पटना कालेज में स्नातक का छात्र हूँ। आपसे मिलने के लिए बहुत दिनों से यत्न कर रहा हूँ।” 

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दिनकर ही आवाज सुनकर अंदर आने को कहे। वे अब तक अपनी गर्दन नीचे ही किये थे। सामने एक कुर्सी रखी  थी। गर्दन नीचे रखे ही दाहिने हाथ की ऊँगली में कलम फसाये उस पर बैठने का इशारा किये। रामवचन बाबू अनुशासन को उत्कर्ष पर रखते बहुत अदब से कुर्सी पर बैठे ताकि कोई कुर्सी की खरखराहट नहीं हो, आवाज नहीं निकले और लिखने में दिनकर जी को कोई व्यवधान नहीं हो। 

दिनकर जी बांह वाला गंजी (बनियान) पहने थे जो पसीने से भीगा था। आँखों पर चश्मा लटका था जो बार-बार चेहरे पर पसीने के कारण नीचे फिसल रहा था और दिनकर जी बाएं हाथ से बार-बार उसे अपने स्थान पर पहुंचा दिया करते थे। घड़ी  की सूई आगे बढ़ रही थी। तभी अचानक दाहिने हाथ की उंगलियों में लिपटा रोशनाई वाला कलम कागज पर अंतिम शब्द लिखकर, पूर्ण विराम लगाया। इस पूर्णविराम के साथ दिनकर जी का गर्दन भी उठा। 

दुबले-पतले राम वचन बाबू के चेहरे को पढ़ते दिनकर जी कहते हैं: “रुको !!! मैं कपड़ा पहनकर आता हूँ। पटना विश्वविद्यालय चलना है। वहां सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

साल सन 1962 था और चीनी आक्रमण के परिणाम स्वरूप भारत को मिली पराजय से क्षुब्ध होकर दिनकर  के मन में जो तिलमिलाहट पैदा हुई उसका उद्बोधन आत्म अभिव्यंजना ही परशुराम की प्रतीक्षा काव्यकीर्ति के रूप में पटना के आर्य कुमार रोड के इस भवन में लिखा गया था । जीवन की प्रत्येक परिस्थितियों में क्रांति का राग अलापने वाला कवि दिनकर इस रचना में परशुराम की प्रतीक्षा करता है। कविता सूर धर्म की यहां परशुराम धर्म में बदल गया है। एक समय था जब उसे अर्जुन एवं भीम जैसे वीरों की आवश्यकता थी। किंतु आज उसे लगता है कि देश पर जो संकटकाल मंडरा रहा है उसके घने बादलों में छिपे परशुराम का कुठार ही बाहर ला सकता है। इसलिए दिनकर  ने परशुराम धर्म अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

मुद्दत बाद श्री राम वचन बाबू से बात हुई। राम वचन बाबू 83 वसंत के गवाह है और सम्प्रति बिहार विधान परिषद् के सम्मानित सदस्य हैं। श्री राम वचन बाबू का कहना है कि रामधारी सिंह दिनकर को ‘राष्ट्रकवि’ का अलंकरण भारत अथवा प्रदेश की सरकार नहीं दी है, अपितु राष्ट्र के प्रति अपनी वेदना-संवेदना को जिस कदर वे शब्दों में ढ़ालकर तत्कालीन समाज के लोगों को, खासकर युवकों को, युवतियों को राष्ट्र के प्रति अपनी वचनवद्धता, समर्पण का पाठ पढ़ाया है, भारत के लोगों ने उन्हें राष्ट्रकवि बना दिया। वे अपने शब्दों से राष्ट्र में एक चेतना लाना चाहते थे, लाये भी। 

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श्री राम वचन बाबू से जब पूछा कि ‘आखिर रामधारी सिंह दिनकर’ को प्रोत्साहित करने वाला कोई तो रहा होगा जो उन्हें आर्य कुमार रोड के नुक्कड़ वाले घर से निकाल कर कुल 3287263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का राष्ट्रकवि बनाया ?

श्री रामवचन बाबू वृद्धावस्था वाली हंसी हँसते कहते हैं कि ‘रामधारी सिंह दिनकर के निर्माण में श्री काशी  प्रसाद जायसवाल की भूमिका अक्षुण है। श्री जायसवाल साहब थे तो उत्तर प्रदेश के लेकिन वे अपना कार्यक्षेत्र बिहार बनाया। विदेशी शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब वे भारत आये वे पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय में व्याख्याता बने। लेकिन देश में राजनीतिक गतिविधियां बदल रही थी। वे कुछ समय कलकत्ता में वकालत शुरू किये।  लेकिन सन् 1914 आते-आते वे पटना आ गए। काशी प्रसाद जायसवाल के समकालीन थे आचार्य रामचंद्र शुक्ल। 

कहते हैं कि बिहार के तत्कालीन प्रशासन एडवर्ड गेट ने ‘बिहार रिसर्च सोसाइटी’ से जब ‘बिहार रिसर्च जर्नल’ के प्रकाशन का प्रबंध किया तो श्री जायसवाल उसके प्रथम संपादक हुए। उन्होंने ‘पाटलिपुत्र’ का भी संपादन किया। ‘पटना म्यूजियम’ की स्थापना भी आपकी ही प्रेरणा से हुई। सन 1935 में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी’ने लन्दन में भारतीय मुद्रा पर व्याख्यान देने के लिये श्री जायसवाल को आमंत्रित किया था। इन्होने दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, सैकड़ों लेख लिखे, कवितायेँ लिए तो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राष्ट्र की स्वाधीनता से सम्बंधित था। 

श्री राम वचन बाबू कहते हैं: “उन्हीं दिनों रविंद्रनाथ टैगोर पटना आये थे। श्री काशी प्रसाद जायसवाल दिनकर को उनसे मिलाना चाहते थे। दिनकर जी उन दिनों लहेरियासराय में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी करते थे। वे भागे-भागे पटना आये थे उनसे मिलने। 

जब उनसे पूछा कि ‘आखिर दिनकर के भी तो कोई विरोधी रहे होंगे उन दिनों भी? श्री राम वचन बाबू मुस्कुराये और कहे: “निजी तौर पर कोई मनमुटाव नहीं था, लेकिन अगर प्रतिस्पर्धा थी तो श्री केदार नाथ मिश्र प्रभात जी से। प्रभात जी का जन्म आरा में हुआ था। हिंदी साहित्य में प्रभात जी का योगदान अक्षुण है। 

बहरहाल, राम वचन बाबू आगे कहते हैं: “उस दिन परशुराम की प्रतिज्ञा का अंतिम शब्द लिखने के बाद दिनकर जी मुझे कहे कि ‘रुको मैं कपडा पहनकर आता हूँ।” और वे ऊपर वाले कमरे में चले गए। कुछ क्षण बाद सफ़ेद धोती, लम्बा बांह वाला कुर्ता पहने, कंधे पर एक द्वितीय वस्त्र, हाथ में एक एक छाता लिए बिना फीते वाला काला रंग का जूता पहने दिनकर जी नीचे उतरे।”

मैं पहली बार रामधारी सिंह दिनकर को इस दृश्य में  देखा था। उन्हें देखकर ऐसा लगा की जिस व्यक्ति के चेहरे पर इतना तेज हो, वह दिनकर ही हो सकता हैं। 

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उन दिनों गाड़ी-सवारी की बात प्रतिष्ठा’ की बात नहीं थी। वे आगे-आगे चल रहे थे और मैं एक छात्र के रूप में उनसे एक कदम पीछे-पीछे। उन दिनों किसी शिक्षक अथवा किसी शिक्षित, प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ नहीं, बल्कि एक कदम पीछे चलना उनसे सम्मान देना होता था। हम उनके साथ चल रहे थे, यह मेरे लिए सम्मान का विषय था। हम रास्ते भर पढाई-लिखाई की बातें होती गयी। हम दोनों आर्य कुमार रोड, बारी पथ, खजांची रोड के रास्ते अशोक राजपथ पर पहुँच गए थे। रास्ते में सैकड़ों लोग उस दिव्य पुरुष को प्रणाम कर रहे थे।अशोक राजपथ पर पहुँचते-पहुँचते दर्जनों छात्र साथ हो गए थे। हम सभी पटना विश्वविद्यालय की ओर अग्रसर थे। अब तक नहीं जानते थे कि आखिर कहाँ जा रहे हैं। 

पटना विश्वविद्यालय के व्हीलर सीनेट हॉल के प्रवेश द्वार से जैसे ही परिसर में प्रवेश लिए, पटना विश्वविद्यालय के सैकड़ों शिक्षक, प्राध्यापक, विभिन्न विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्यगण खड़े थे दिनकर जी की प्रतीक्षा में। तभी आगे आये पटना विश्वविद्यालय के कुलपति श्री जॉर्ज जैकोब। श्री जैकोब 14 मार्च, 1962 से 13 मार्च, 1965 तक विश्वविद्यालय के कुलपति थे। पटना विश्वविद्यालय के स्थापना काल (1 अक्टूबर, 1917) के बाद श्री जैकोब विश्वविद्यालय के 14 वें कुलपति थे।

उन दिनों अनुशासन अपने उत्कर्ष पर था। श्री जैकोबकी अगुआई में सैकड़ों शिक्षक जब दिनकर जी का अभिनन्दन किये, मैं स्वयं को भाग्यवान समझ रहा था। मैं उस क्षण का गवाह था। उस भीड़ में भी उन्होंने मुझे इशारा कर अंदर प्रवेश करने के लिए कहा। मैं जैसे ही अंदर प्रवेश कर रहा था, मुझे बहुत सम्मान के साथ व्हीलर सीनेट हॉल में लगी हजारों कुर्सियों में सबसे आगे वाली कतार पर बैठने को कहा गया। मैं तो महज एक छात्र था। फिर मंच पर लोगों का अपने-अपने तरह से छात्रों, छात्राओं, समाज के लोगों को राष्ट्र  के प्रति उनके कर्तव्यों का बोध कराया गया। अब तक मैं अनभिज्ञ था – आखिर आज यहां क्या हो रहा है ? दिनकर जी क्या कहने वाले हैं?

तभी मंच से पटना विश्वविद्यालय के कुलपति श्री जॉर्ज जैकोब की घोषणा हुई कि भारत-चीन युद्ध में भारत की करारी हार पर श्री रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित “परशुराम की प्रतिज्ञा” का पहला पाठ करेंगे। आज एक इतिहास लिखा जा रहा है और हम सभी भाग्यशाली हैं कि आज इस इतिहास का साक्षी हैं।   

आज कुलपतियों की संख्या 53 हो गयी है। लेकिन आज तक कोई दूसरा दिनकर जन्म नहीं लिया। अलबत्ता विश्वविद्यालय प्रांगण में गोलियों की बौछार अवश्य हो रही है। कलम नहीं, डंडे चल  रहे हैं।गंगा की धारा की तरह विश्वविद्यालय में शिक्षा बहुत दूर चली गयी है। पुस्तकालय वीरान हो गया है।

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