दारू वाले मकान में ‘अकादमी’, टेंट लगाने वाले को ‘संस्कृति’ बचाने का भार, गांधी की विचारधारा से ‘परहेज’ और कागज पर मुद्रित गांधी से ‘प्यार’

मैथिली-भोजपुरी अकादमी : समाचार अद्यतन : कोई डाटा मौजूद नहीं है

नई दिल्ली : यह दिल्ली सरकार द्वारा स्थापित और संचालित मैथिली-भोजपुरी अकादमी के वेबसाइट का पहला पृष्ठ है। यह पृष्ठ काफी है इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि दिल्ली सल्तनत में इस अकादमी का क्या वजूद है। वैसे दिल्ली के राज्यपाल, दिल्ली के मुख्यमंत्री, दिल्ली के शिक्षा मंत्री और इस विभाग को देखने वाले मंत्री महोदय अधिक विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं। सवाल यह है कि सरकार के महकमें में बैठे ये सभी सम्मानित लोग वास्तविक रूप से इन अकादमियों के प्रति कितने संवेदनशील हैं? 

क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल या उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया या मंत्री सौरभ भारद्वाज को यह ज्ञात है कि दिल्ली सरकार द्वारा गठित और संचालित मैथिली-भोजपुरी अकादमी में बिहार-झारखण्ड-उत्तर प्रदेश और नेपाल की तराई वाले क्षेत्रों से विस्थापित लोगों का महान धार्मिक पर्व ‘छठ’ में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करने का जवाबदेही एक ‘टेंट हाउस’ को दिया गया है वह भी अकादमी के स्थापना के बाद पहली बार ‘निविदा’ द्वारा। वैसे निविदा का आमंत्रण ‘पारदर्शिता’ के उद्देश्य से भी हो सकता है, लेकिन जिस कदर दिल्ली के नेताओं को विभिन्न भ्रष्टाचार के आरोपों में राष्ट्र के कारावास तिहाड़ में रहना पड़ा है, पारदर्शिता पर बहुत बड़ा प्रश्न लगता है। 

सोलह वर्ष पूर्व सन 2008 में ‘राजनीतिक उद्देश्य’ से ही सही, तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित द्वारा मैथिली-भोजपुरी अकादमी की स्थापना राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुई। दिल्ली से साथ संसदीय और 70 विधानसभा क्षेत्र में रहने वाले मैथिली-भोजपुरी भाषा-भाषियों को शायद लगा होगा कि इसकी स्थापना से राजधानी में मैथिली व भोजपुरी भाषाओं के साथ-साथ साहित्य और संस्कृति का उन्नयन और पल्लव होगा। यह अलग बात है कि बिहार में मैथिली अथवा भोजपुरी बोलने वालों लोगों की किल्लत हो गई है। शहरीकरण के बाद गाँव से पलायित लोग न तो मैथिली बोलते हैं और ना ही भोजपुरी। विश्वास नहीं हो तो शहर घूमकर देख लीजिये। मैथिली-भोजपुरी अकादमी में गैर-मैथिल-भोजपुरी भाषा भाषी राज कर रहे हैं। जो वरिष्ठ अधिकारी है उनके कंधे पांच-छः विभाग है। कुछ विभाग तो ‘दुधारू’ भी है और दूध तो भारत पीता है। वजह भी है।  गाँधी की विचारधारा से बहुतों को परहेज है, लेकिन कागज पर मुद्रित गांधी से सभी को प्रेम हैं। 

शायद मिथिलांचल और भोजपुरी इलाकों से रोजी-रोजगार, शिक्षा हेतु पलायित बिहार के मतदाता (उन दिनों) जो बाद में दिल्ली के मतदाता होते चले गए, शायद यह सोचे होंगे यह अकादमी विलुप्त होती लोक-संस्कृति के उन पक्षों को प्रबल करेगा जिनकी मूल्यवत्ता की कीमत बची हुई है। लेकिन विगत सोलह वर्षों में दिल्ली शहर में मिथिला, मैथिली भाषा, भोजपुरी भाषा  अथवा संस्कृति का कितना विकास हुआ, किन-किन विलुप्त होती संस्कृति को यह बचा पाया, यह बात दिल्ली में रहने वाले लाखों लोग, मतदाता, अधिकारी, पदाधिकारी, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री या वे सभी लोग जो इससे ताल्लुकात रखते हैं, अपने कलेजे पर हाथ रखकर प्रश्न कर सकते हैं, उत्तर पा सकते हैं। 

दिल्ली ही नहीं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भाषाओं के नाम पर जिस तरह की राजनीति हो रही है, भाषाओं के नाम पर जिस तरह अधिकारी, पदाधिकारी, पार्षदों, विधायकों, सांसदों लाभान्वित हो रहे हैं, यह एक गहन शोध का विषय है। लेकिन यह शोध करेंगे कौन? यह भारत में रहने वाले करीब साढ़े तीन करोड़ मैथिली और करीब साढ़े पांच करोड़ भोजपुरी भाषा भाषी स्वयं अपने कलेजे पर हाथ रखकर स्वयं से पूछ सकते हैं। यह तो बहुत अच्छा हुआ की मान्यवर भिखारी ठाकुर और मान्यवर विद्यापति मृत्यु को प्राप्त कर लिए।  अन्यथा आज मैथिली और भोजपुरी भाषाओं को देश की राजधानी से लेकर गाँव के खेत खलिहानों तक देखकर मृत्यु को प्राप्त कर लेते। 

वस्तुतः जब बिहार के मिथिला क्षेत्र में मिथिला के लोग मैथिली भाषा को नहीं बचा सके, मिथिला की संस्कृति को नहीं बचा सके, फिर मिथिला क्षेत्र के बाहर हम मैथिली भाषा और संस्कृति की बात, उसे बचने की बात कैसे कर सकते हैं। क्या दिल्ली सल्तनत के किनारे प्रदूषित यमुना नदी में मैथिली या भोजपुरी गीत-संगीत का ढ़ोल-नगारा पीटकर बचा सकते हैं। छठ पर्व के अवसर पर गैर-मैथिली-भोजपुरी भाषाओँ और सिनेमा के धुनों पर आधारित रंगारंग संगीत से मैथिली-भोजपुरी संस्कृति बच सकती है?  इतना ही नहीं, मैथिली भाषा और भोजपुरी भाषा दोनों अलग है, दोनों की गहराई हिंदमहासागर जैसी है। और दिल्ली में इन दोनों भाषाओँ को एक अकादमी बनाकर दिल्ली सरकार द्वारा संचालित दारू की दूकानों, बोतलों, खरीद-बिक्री, लाभ-हानि का जोड़-घटाव किया जाता है वाले भवन के कोने पर स्थापित कर दिया गया। 

हकीकत यह है कि न तो दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में कुर्सी तोड़ने वाले नेताओं को, मंत्रियों को, अधिकारियों को भाषा और संस्कृति से कोई मतलब है और ना ही इस भाषाओँ के क्षेत्रों से पलायित लोगों को। अगर ऐसा होता तो छठ के नाम पर दिल्ली सल्तनत में टेंट की दूकान चलाने वाले गैर-मैथिली, गैर-भोजपुरी वाले को करोड़ों रुपये का ‘निविदा’ नहीं दिया जाता कि वास्वा छठ के अवसर पर दुर्गन्धित यमुना के किनारे गीत-संगीत का आयोजन कराये और आयोजन के बाद पैसे के लिए कलाकारों को यमुना के घर घाट पर दंड-बैठकी करना पड़े। लेकिन दिल्ली सरकार में मंत्रालय में बैठे मंत्री महोदय से लेकर करोलबाग की तंग गलियों में दारू की बोतल गिनने वाले कार्यालय में बैठे अधिकारी तक – किसी को क्या फर्क पड़ता है कि भाषा बचेगी या नहीं, संस्कृति बचेगी या नहीं, लोक संगीत बचेगा या नहीं ?

इसका एक कारण यह भी है कि जिस स्थान पर मैथिली-भोजपुरी अकादमी स्थित है,  जिस स्थान पर रात के अँधेरे में वहां रखी वाहनों के बीच लघुशंका से लोग बाग निवृत होते हैं, उस अकादमी में बैठे अधिकारियों की सोच भी तो वैसी ही होगी । इस दृष्टि से दिल्ली सरकार, दिल्ली प्रशासन, दिल्ली में रहने वाले मैथिली और भोजपुरी भाषा भाषी लोगों का इस अकादमी के प्रति मान-सम्मान है, यह भी स्पष्ट दिखा है। आखिर यहाँ कार्य करने वाले अधिकारी क्या कर सकते हैं ? जब सरकार  की नजर में, जिनके लिए यह अकादमी बनाया गया, जिस उद्देश्य की पूरी के लिए बनाया गया – महत्वहीन है, तो उसकी देखरेख करने वाले क्या कर सकते हैं? 

आपूर्ति भवन, जहाँ दिल्ली सरकार द्वारा बेस जाने वाले दारू और बोतलों का हिसाब-किताब रखा जाता है, इसी भवन के सामने कोने में मैथिली-भोजपुरी अकादमी का कार्यालय है। प्रदेश के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल या दिल्ली में रहने वाले मैथिली-भोजपुरी भाषा भाषी की नज़रों में इस अकादमी का क्या महत्व है, यह तो रम, बियर, विस्की का बोतल ही बता सकता है

चलिए पहले दारू का हिसाब-किताब करते हैं फिर छठ के नाम पर टेंट वाले को दिए गए सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की बात करेंगे। दिल्ली सल्तनत में कुल 573+12 = 585 शराब के ठेके हैं। कुछ ठेके/दुकानें दिल्ली के मॉलों में भी स्थित है। दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा संचालित कुल 2400 विद्यालय हैं और नगर निगम द्वारा संचालित विद्यालयों की संख्या 1735 है। यानी कुछ 4135 विद्यालय हैं। अब अगर दिल्ली सरकार की शराब की दुकानों (585) और शिक्षा निदेशालय के विद्यालयों की सांख्यिकी (2400) की तुलना करें तो औसतन चार सरकारी विद्यालयों पर एक एक सरकारी शराब का ठेका है। परन्तु कोई भी सरकारी ठेका विक्रेता से लेकर शराब-मादक-मदिरा से जुड़े विभाग और मंत्रालय की कोई भी कुर्सी खाली नहीं है। अलबत्ता, अधिकारी से लेकर पदाधिकारी तक, अगर कहीं कोई स्थान ‘रिक्त’ दीखता है तो एक अधिकारी के मथ्थे दो-चार विभाग लगा दिया गया है।

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इतना ही नहीं, दिल्ली सरकार का प्रत्येक शराब का ठेका ‘आधुनिक साज-सज्जा’ से लैस है, जबकि सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों में ‘प्राचार्य’, ‘हेड-मास्टर’ ‘वरीय शिक्षकों’ की बात तत्काल नहीं करें तो ‘डस्टर’, ‘पेन्सिल’, ‘मानचित्र’, ‘झाडू’, ‘कुर्सी’, ‘किताब’, ‘पेन्सिल’ की घोर किल्लत है। हालांकि अंदर के लोग यह कहते हैं कि ‘स्थान तो कागज पर रिक्त है लेकिन निजी क्षेत्र से ठेका प्रथा के अधीन लोगों को भर दिया गया है।’ विगत दिनों नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) ने दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव को एक पत्र लिखा था। नगर निगमों की विद्यालयों को छोड़ दें तो दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा संचालित 1024 विद्यालयों के एक अध्ययन के अनुसार में सिर्फ 203 विद्यालयों में प्राचार्य अथवा विद्यालय के सर्वोच्च अधिकारी हैं। यानी 2400 विद्यालयों में से 1024 विद्यालयों में से 824 विद्यालयों में सर्वोच्च अधिकारी नहीं हैं। 

एनसीपीसीआर ने तो पत्र में यह भी लिखा था कि ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ की बात यदि छोड़ भी दें, तो अधिकांशतः विद्यालयों में विद्यालय प्रमुख (Head of School-HoS) की कुर्सी खली होने के कारण परिसर के किसी कोने में राखी दिखी। वैसे दिल्ली सरकार और सरकार के आला अधिकारी भी कम चालाक नहीं हैं। तक्षण उन्होंने इस जबाबदेही को दिल्ली सल्तनत के उपराज्यपाल के मथ्थे मढ़ दिया। कहने में तनिक भी देर नहीं किये कि प्राचार्यों/सर्वोच्च पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार उपराज्यपाल के पास है। इसी को राजनीति कहते हैं। 

यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि दिल्ली की वर्तमान आबादी (32,941,000) में पियक्कड़ों की संख्या उम्मीद से अधिक है। यह बात भी अलग है कि सरकार शराब की बोतलों पर अंग्रेजी में, हिंदी में, पंजाबी में, उर्दू में, चाहे जिस भाषा में लिखकर चिपकते रहे – शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। वैसे अलग बात है कि विगत दिनों दारू की दुकानों को लेकर दिल्ली सरकार और उसके मंत्री, संत्री, आला अधिकारी सभी चर्चा में रहे, जांच के अधीन हैं । अख़बारों में और टीवी पर सुर्खियों में रह रहे हैं । लेकिन बावजूद इसके दिल्ली सल्तनत में दिल्ली सरकार 2022-2023 वित्तीय वर्ष में 762 करोड़ और अधिक शराब से भरी बोतलों को बेचकर 6,821 करोड़ रुपये सरकारी कोष में जमा की। मज़ाक बात नहीं है इतनी राशि का एकत्रीकरण । 

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इतना ही नहीं, अगर इन शराब के बोतलों को गिनने वाले स्थान पर किसी ‘उम्दा भारतीय भाषाओँ का अकादमी’ भी खोल दें तो उस भाषा को बोलने वालों को, लेखकों को, सम्बद्ध लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर ऐसा नहीं होता तो शराब नियंत्रण कक्ष में ‘मैथिली-भोजपुरी अकादमी’ कराहता नहीं। आखिर भाषा की उन्नति पर विचार तो शराब पर चर्चा के बाद ही होगा। इसी को कहते हैं भाषा के नाम पर राजनीति। लेकिन आपको क्या? 

यह बात इसलिए लिख रहा हूँ कि जिस भवन में शराब की बोतलों की गिनती होती हैं, बोतलों की बिक्री से एकत्रित पैसों की गिनती होती है – उसी भवन के नीचले तल्ले के कोने में “मैथिली-भोजपुरी अकादमी” स्थित है। भवन का नाम है – 7-9 आपूर्ति भवन, आराम बाग़, पहाड़गंज, नई दिल्ली। वैसी स्थिति में दिल्ली सरकार के लिए ‘मैथिली’ और ‘भोजपुरी’ भाषा की क्या अहमियत है आप स्वयं निर्णय करें। ‘मैथिली-भोजपुरी अकादमी’ में बैठने वाले कर्मचारी ‘मैथिली’ और ‘भोजपुरी’ भाषा को शायद अपने जीवन में कभी नहीं सुने होंगे। वैसी स्थिति ‘विद्यापति’ और ‘भिखारी ठाकुर’ बारे में पूछना कुल्हाड़ी पर अपना पैर पटकना है। कांग्रेस के ज़माने में श्रीमती शीला दीक्षित इन दो समुदाय के लोगों का उपयोग महज राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए होती आई है। मैथिली और भोजपुरी भाषा के विकास से इन अकादमी का कुछ भी लेना देना नहीं है।

फिर भारत के संसद के सामने, विजय चौक के इस नव-निर्मित बैठकी पर बैठकर सोचने लगा कि मिथिला के लोग अगर वास्तविक रूप में मिथिला के विकास के लिए प्रखर होते तो आज मिथिला वहां तो अवश्य नहीं होता, जहाँ आज है। मिथिला के राजा और उनके पूर्वज भी स्वर्ग से अपने मिथिला को देखकर अश्रुपूरित होते होंगे। कल के मिथिला में विद्वानों-विदुषियों का भरमार था, आज चापलूसों, चाटुकारों की बाढ़ है। हज़ारों-हज़ार संस्थाएं मिथिला के विकास करने में लगे हैं। लेकिन खुद मेहनत से अधिक विकसित हो रहे हैं और मिथिला अपने भाग्य पर रो रही है। वैसी स्थिति में दिल्ली सरकार के लिए ‘मैथिली’ और ‘भोजपुरी’ भाषा की क्या अहमियत है आप स्वयं निर्णय करें। 

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यह तो अच्छा हुआ कि ‘विद्यापति’ और ‘भिखारी ठाकुर’ पहले मृत्यु को प्राप्त किये। आज अगर जीवित होते तो सर पटक-पटक कर रोते। कांग्रेस के ज़माने से, यानि श्रीमती शीला दीक्षित के ज़माने से आज तक, इन दो समुदाय के लोगों का उपयोग महज राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए होती आई है। मैथिली और भोजपुरी भाषा के विकास से इन अकादमी का कुछ भी लेना देना नहीं है। महज यह एक राजनीतिक लाभ हेतु मंच बनाया गया है। 

चलिए, अब अकादमी की संस्कृति बचाने सम्बन्धी प्रयास के बारे में चर्चा करते हैं। विगत दिनों अखबारवाला001 यूट्यूब के लिए कहानी https://www.youtube.com/watch?v=SdXxvLK8vHg&t=1s   करने के क्रम में घंटों मैथिली-भोजपुरी अकादमी में था। मैं मैथिली और भोजपुरी अकादमी देख, मैथिली और भोजपुरी भाषा में बात करना चाहा। शुरुआत भी किया।  लेकिन भवन के सबसे अंत वाले कमरे के सामने कोने में बैठे सज्जन मेरा मुख देख रहे थे। ज्ञान हुआ कि उन्हें इन भाषाओँ के बारे में कोई ज्ञान नहीं है। जब उनसे पूछा कि यहाँ आने वाले लोगों से आप कैसे बात करते हैं? वे कहते हैं ‘हिंदी’ में। मेरा कलेजा दो फांक यहीं हो गया। आगे उनका कहना था कि 26 जनवरी या 15 अगस्त को सौ-दो सौ लोग आते हैं। झंडोत्तोलन करते हैं। उसके बाद पुरे साल लोगों का आना-जाना नगण्य ही होता है। मुझे अकादमी की सार्थकता का दिव्य ज्ञान हो गया। 

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पिछले दिनों जब मुंबई में कार्य करने वाले मैथिली गीतकार-संगीतकार श्री सुनील पवन का एक संवाद आया जिसमें उन्होंने लिखा था कि “मैथिली भोजपुरी अकादमी में व्याप्त भ्रष्टाचार खुलकर सामने आया – कलाकार साल भर से पारिश्रमिक के लिए चक्कर लगा रहे हैं।” इस बात को पढ़कर मन व्याकुल तो हुआ, व्यथित नहीं हुआ। आखिर सरकार के लिए यह अकादमी तो महज एक संस्था है जहाँ सरकारी कोष से मैथिली और भोजपुरी भाषा और संस्कृति के विकास के लिए, उन्नयन के लिए राशि निर्गत होती है। हां, इन राशियों पर जो भाषा उद्धृत है, उसे पढ़ने अथवा समझने में मैथिली या भोजपुरी भाषा का ज्ञाता होना कटाई आवश्यक नहीं है। अनपढ़, अशिक्षित लोग भी भारतीय ही नहीं विदेशी मुद्राओं की भाषा और मोल को समझते हैं। वैसी स्थिति में छठ के अवसर पर यमुना के तट पर सांस्कृतिक कार्यक्रम करने का ठेका किसी किसी टेंट वाले को दे दिया जाय, तो इसमें आश्चर्य क्या है? लेकिन एक बात तो पक्का है, आज नहीं तो कल, जब भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) दिल्ली सरकार के इन विभागों की जांच-पड़ताल करेगा तो निश्चय ही उसकी ऊँगली भी विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर उठेगी। 

वैसे प्रदेश के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया वैसे ‘भ्रष्टाचार उन्मूलन आंदोलन’ के ही उपज है, लेकिन उन्होंने भी जिस बुजुर्ग अन्ना हज़ारे के कंधे को कुचलकर कुर्सी पर विराजमान हुए, या फिर दिल्ली के भ्रष्टाचार के कारण दिल्ली के तिहाड़ कारावास की पुस्तिका पर नाम अंकित करवाए – तो फिर मैथिली – भोजपुरी अकादमी के अधिकारी, पदाधिकारी, कर्मी, ठेकेदार किस खेत की मूली हैं ? समय की बात है। 

सुनील पवन ने अपने संवाद में लिखा कि “19 नवंबर 2023 को छठ पूजा के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत की गई जिसमें सैकड़ों कलाकारों ने हिस्सा लिया। अकादमी द्वारा कलाकारों की पारिश्रमिक का भुगतान हो गया है लेकिन कलाकारों को अभी तक पैसा नही मिल पाया है।” उन्होंने यह भी लिखा कि “कलाकार लगातार अकादमी का चक्कर लगा रहे हैं लेकिन संबंधित  अधिकारी आना कानी करते हुए पारिश्रमिक की धन राशि डकारने के फिराक में है।” उस कार्यक्रम के संयोजक श्री पवन ही थे और उनके अनुसार, “कलाकार पारिश्रमिक को लेकर बेहद चिंतित है जिसके कारण वे (सुनील पवन) अपना स्टूडियो का कार्य छोड़कर दिल्ली मुंबई का चक्कर लगा रहे है और अकादमी के ये तथाकथित अधिकारी रोज टालते जा रहे है।”

उन्होंने यह भी लिखा कि “इस संबंध में ज्ञात हो कि 15 साल पूर्व जब से अकादमी का गठन हुआ है पहली बार ऐसा हुआ है जब टेंडर के माध्यम से कलाकारों को काम दिया गया। इससे पहले हमेशा कलाकारों को डायरेक्ट काम मिलता था  और पारिश्रमिक उसके अकाउंट में सीधे पहुंच जाता था। टेंडर का दुष्परिणाम यह हुआ कि डेढ से दो लाख का टेंडर लेने के बाद कलाकारों को 40 से 50 हजार पर साइट दिए जाने की बात कही गई और पिछले 9 महीने बीत जाने के बाद भी कलाकारों को पारिश्रमिक नहीं मिला।” वे दिल्ली सरकार तथा अधिकारी संजीव झा से मांग की है कि अकादमी के ऐसे मामलों की जांच हो और दोषी अधिकारी को दंडित कर अकादमी की छवि सुधारने का काम किया जाए।”

पवन जी ने बताया कि पिछले साल रोहिणी में बत्रा टेंट हॉउस के नाम से व्यवसाय करने वाले श्री कमल बत्रा जी के दूकान से फोन आया। पहले कोई अन्य सज्जन थे, बाद में श्री बत्रा साहब फोन पर आये और उन्होंने कहा है दिल्ली में मैथिली-भोजपुरी अकादमी द्वारा आगामी छठ पर्व के अवसर पर करीब 70 से 80 स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, जिसमें गाना -बजाना, नृत्य आदि का समावेश है, करना है, क्या आप इसके लिए इक्षुक हैं? उन्होंने पूछा कि कितने स्थानों पर कर सकते हैं? पवन ने कहा कि 40 से 50 स्थानों पर कार्य करने का हामी भरा। फिर वे कहे की मीटिंग के लिए आ सकते हैं? मैंने उनसे पूछा की क्या इस कार्यक्रम के बारे में अकादमी से पुष्टि (कन्फर्मेशन) है? वे कहे की ‘हो जायेगा।’ 

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बाद में पुष्टि होने पर फिर उनका फोन आया कि मीटिंग के लिए आएं। मैं मुंबई में था अतः मैं भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी श्री आर एन झा की पत्नी श्रीमती कुमकुम झा को भेजा। बात तो हुई लेकिन भुगतान के मामले पर आ कर अटक गयी। बाद में संगीत नाटक अकादमी के श्री पवन झा, जो अछिंजल नामक संस्था भी चलाते हैं, को भेजा। बात तय हो गई और करारनामा भी बना। इस करारनामे के बाद 15-11-2023 को अग्रिम राशि स्वरुप ₹ 50 000 मिला। अगले दिन यानी 16 नवम्बर को ₹ 2,50,000 और मिला। जिन स्थानों पर कार्यक्रम करने का करारनामा हुआ था उसमें प्रति स्थान ₹ 45,000 रुपये निर्धारित हुआ था। साथ ही 20 फीसदी राशि ‘वर्किंग चार्ज’ के रूप में। इस ₹ 45, 000 राशि में ₹ 15, 000 राशि नृत्य करने वाले कलाकारों के लिए और ₹ 30, 000 अन्य प्रति कलाकार के लिए तय हुआ।  

कहानी लिखने से पहले मैथिली-भोजपुरी अकादमी के कर्ताधर्ता श्री अरुण कुमार झा को एक संवाद लिखा। श्री झा दानिक्स कैडर के एक वरिष्ठ अधिकारी है और मिथिला-मैथिली के उन्नयन के लिए जागृत भी हैं। श्री झा मैथिली-भोजपुरी अकादमी के अलावे संस्कृत अकादमी, अंतराष्ट्रीय अकादमी, दिल्ली भवन एवं अन्य सन्निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड (डीबीओसीडब्ल्यूडब्ल्यूओ) आदि दिल्ली सरकार की संस्थाओं को भी देखते हैं। DBOCWWB की स्थापना 02 सितंबर, 2002 को ‘द बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स (रेगुलेशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एंड कंडीशंस ऑफ सर्विसेज) एक्ट 1996’ की धारा 18 (1) के तहत की गई थी। यह संस्था निर्माण कार्यों में कार्यरत निर्माण मज़दूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण के लिए कार्य करती है। विगत 25-11-2021 की अधिसूचना संख्या एफ/8-1/2010 / S / I Pt.file के द्वारा अरुण कुमार झा को नियोजन विभाग का भी संयुक्त सचिव बनाया गया। 

मैंने लिखा: “एक महाशय कुछ कागजात प्रेषित किये हैं। उनका कहना है कि पिछले छठ के अवसर पर अकादमी एक टेंट हॉउस वाले को दिल्ली में छठ के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम करने के टेंडर दिया था। उनका यह भी कहना है कि विगत 15 वर्षों में पहली बार अकादमी द्वारा टेंडर के आधार पर कलाकारों को बुलाया गया, जबकि अकादमी में कलाकारों की पूरी सूची है। उनका यह भी कहना है कि जिस राशि पर उनका करारनामा हुआ, उस राशि में ₹ 4,76,000/- अब तक नहीं मिले हैं। वे सभी यह भी कहते हैं कि जब तक आपका आदेश नहीं होगा टेंट हाउस वाले, जिन्हें निविदा आवंटित किया गया, पैसा नहीं देगा। मैं एक कहानी लिखने से पहले आपसे निवेदन करूँगा की स्थिति के बारे में आप अवगत करा दें ताकि कहानी में तथ्य गलत नहीं हों।”

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​मैथिली-भोजपुरी अकादमी का कार्यालय

कुछ काल बाद सम्मानित अरुण कुमार झा का जवाब आया: “Namaskar Jha ji!! I appreciate your effort to reach to me to know truth for a fair story in the matter. I know …. this gentleman might be a person named Sunil Pawan . He is running pillar to post to malign the Maithili Bhojpuri Academy with flimsy claims and his imaginative stories.

1.⁠ ⁠The Executive Committee of the Academy decided to organise cultural programs at 100 chhath ghats across delhi. At each place, 2 singers, 5 membered 1 dance team , 5 membered one music band, one banner, one anchor etc has to be deployed at each of 100 locations on the same day for chhath puja celebration.

2.⁠ ⁠⁠Since the event was bigger, therefore it was also decided to engage an event management company for this event for supply of singers, musicians, band etc.

3.⁠ ⁠⁠tender was floated and one bidder was selected following due process as per existing rules and regulations.

4.⁠ ⁠⁠Academy does not has any  such database of singers, musicians and  bands etc therefore a company was selected to provide them through this tendering process. Plus, there were operational challenges also to deploy them simultaneously.

After the end of the event, the company submitted its bills along with photos and videos and other required documents. After necessary verification, bills of 68 sites were passed and paid to the company.

Now, this gentleman has provided some singers , musicians etc to the company on his own terms and rates. Academy has nothing to do with this. This is entirely between this gentleman and that company. Academy has not hired  this gentleman’s service therefore the academy does not owe any payments to him. Whatever money is to be given to him, is only and only from the company to whom he provided singers. He may take whatever action he wishes against that company. The Academy has absolutely no say  in this matter. – Regards.”

इस कहानी को प्रकाशित करने के पूर्व श्री कमल बत्रा साहब को एक संवाद प्रेषित किया। संवाद में लिखा: “सम्मानित श्री बत्रा साहेब। नमस्कार। मैं मैथिली भोजपुरी अकादमी पर एक कहानी कर रहा हूँ। कहानी मैथिली अकादमी द्वारा पिछले छठ के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम से संबंधित है जिसका निविदा आपको मिला था। कलाकार का शिकायत है कि उन्हें उतने पैसे नहीं मिले जिसके लिए करार हुआ था। मैं झा साहब को भी लिखा था। उनका जबाब आ गया है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि उक्त विषय पर अपनी बात स्पष्ट कर दें।” 

कमल बत्रा का कहना था कि उनके सहयोगी योगेंद्र गौड़ इस विषय से अवगत हैं। कुछ काल बाद गौड़ साहब का फोन आया। वे इस विषय की वस्तुस्थिति को लिखित रूप में स्पष्ट करने में असमर्थता दिखाए।  उन्होंने कहा कि अगले दो दिन अवकाश का दिन है, अगले सप्ताह कार्यालय जाऊंगा।  मेरे कुछ हिसाब लंबित हैं। मुझे विश्वास है कि मुझे लंबित पैसे निर्गत कर दिए जाएंगे। अगर निर्गत हुए तो स्वाभाविक है मैं जो भी शेष राशि बची है, वार्तालाप के बाद निर्गत कर दूंगा।  अगर ऐसा नहीं हुआ तो …..” 

उधर सुनील साहब का कहना है कि “मैं दसवीं महीने में पहुंच चुका हूं, अपने पारिश्रमिक को लेकर लड़ाई लड़ते-लड़ते डर-डर के ठोकर खाने के बाद आखिर योगेंद्र गौड़ ने मुझे बुलाया  27 अगस्त को उसके बाद फिर उन्होंने कहा की लिस्ट देखता हूं। कल मैं देख कर बताता हूं फिर आप ऐसा करिए परसों आ जाइए उन्होंने आज का 2:00 बजे का समय दिया था लेकिन जब मैं पहुंचा तो वहां योगेंद्र गौर जी नहीं थे वहां केवल कमल बत्रा एक अपने सहयोगी के साथ बैठे हुए थे। मैं वहां एक डेढ़ घंटे तक इंतजार किया उसके बाद कमल बत्रा ने मुझे बताया कि आप फिर कल आ जाइए लेकिन मैं आपको ढाई लाख रुपए कम दूंगा जो आपकी मेहनत आने हैं वह मैं नहीं दूंगा अब इसके पीछे क्या मंशा है उनकी पता नहीं मुझे ₹276,000 कलाकारों को देने हैं और मेरे मेहनत के जो ₹200000 होते । उसे देने से वह साफ़ इनकार कर रहे हैं जबकि हमारी बातचीत हुई थी हमारी पहली इनवॉइस में भी यह 20% की बात थी और उसके बाद ही हमारी ड्रिलिंग शुरू हुई थी। उनको यह इनवॉइस में 16 नवंबर को पहले एडवांस पाने के बाद और 22 या 23 नवंबर को दूसरा रो इनवॉइस भेजा था जिसमें यह मेंशन है लेकिन उसके बावजूद भी वह घूम रहे हैं परेशान कर रहे हैं मैं हताश हूं लेकिन कलाकारों के द्वारा बहुत दबाव के कारण मैं उनके पास गया था मैं अत्यंत दुखी हूं।

सवाल यह है कि मैथिली – भोजपुरी अकादमी के स्थापना के बाद क्या यह अकादमी दिल्ली स्थित मैथिली और भोजपुरी के कलाकारों की कोई सांख्यिकी नहीं बना सका? क्या इन सोलह वर्षों में अकादमी के अधिकारी या इस अकादमी से जुड़े मैथिली-भोजपुरी भाषा भाषी कभी इस दिशा में अग्रमुख नहीं हुए कि अगर उनके प्रदेश की सांस्कृतिक गरिमा को बचाने के लिए दिल्ली प्रदेश की सरकार कटिबद्ध होने का दावा करती है, तो उनकी प्रतिबद्धता कहा गई जिन्हें अपने प्रदेश की भाषा और संस्कृति की गरिमा को बचाना है। क्या कभी किसी महाशय या महोदय अकादमी के क्रिया कलाप के बारे में कोई प्रश्न किये? क्या यह प्रश्न पूछा गया कि गैर-मैथिली और गैर-भोजपुरी भाषा के लोग इस अकादमी की गुणवत्ता को कैसे बढ़ाएंगे? विगत सोलह वर्षों में शायद एक भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि आखिर दिल्ली शहर में मैथिली और भोजपुरी अकादमी की स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी थी, उस उद्देश्य की कितनी प्राप्ति हुयी है? शायद नहीं। सभी इस अकादमी के झंडे तले राजनीति कर रहे हैं या फिर इस संस्था को दुधारू गाय समझकर सरकारी कोष से निकलने वाली राशियों का बन्दर-बाँट कर रहे हैं। (क्रमशः) 

आगे पढ़िए: कौन चोर कौन साध? क्या मैथिली-भोजपुरी अकादमी दुधारू गाय है जहाँ भाषा के झंडे तले नेता-अधिकारी राजकोष का बंदरबांट करते हैं ? 

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