यमुना के किनारे निगम बोध घाट पर लाखों आत्माओं का जमघट, चट-चट-फट-फट-चटाक-पटाक-फुस्स ध्वनियों के बीच ‘शव’ और ‘शिव’ का मिलाप

मणिकर्णिका घाट, बनारस पर एक साधना

निगमबोध घाट (यमुना नदी के किनारे दिल्ली छोड़ पर) : शिव को श्मशान का मालिक माना गया है। ‘शव’, यानी पार्थिव शरीर का अंतिम स्थान ‘श्मशान’ है। ‘शव’ में जब छोटी इ की मात्रा लग जाती है, यानी जहाँ मनुष्य अथवा किसी भी जीव का अहंकारी रूपी शरीर का अस्त होता है, वहीँ शिव का अभ्युदय होता है। श्मशानों की अपनी एक ख़ास विशेषता होती है। बिना किस द्वेष के वह सबकी होती है। सभी शमशानों का राग, ताल, बोल, सुर, संगीत एक ही होता है। प्रत्येक श्मशानों की अपनी कहानियां होती हैं। प्रत्येक श्मशानों के लिए आगंतुक भी पूर्व से निर्धारित होते हैं। श्मशानों में धधकती चिताओं से निकलने वाली चट – चट – फट – फट -चटाक -फटाक -फुस्स जैसी ध्वनि को सभी लोग नहीं ग्राह्य कर सकते हैं।
 
इस पृथ्वी पर श्मशान को एक बेहतरीन पाठशाला माना गया है जहाँ हर मनुष्य कुछ सीख सकता हैं। गौतम बुद्ध भी ‘भिक्षुक’ होने के लिए, अपने शिष्यों को दीक्षा देने से पहले उन्हें न्यूनतम एक माह की अवधि के लिए अपने समीप के सबसे व्यस्त श्मशान में बैठकर देखने को कहते थे कि शरीर के साथ क्या हो रहा है। यह बात मेरे बाबूजी भी कहते थे कि श्मशानों की ध्वनि को, वातावरण में उपस्थित तेज को, पार्थिव शरीर से  ज्वालाओं को जैसे-जैसे वरन करते जाओगे, तुम्हारे इर्द-गिर्द एक ऐसी शक्ति का सृजन होगा जो तुम्हें अन्य मनुष्य से अलग कर देगा। कहते भी हैं कि समय, परिवर्तन, शक्ति, सृजन, संरक्षण और विनाश का प्रतिनिधित्व करता है श्मशान जहाँ एक तरफ काली का विभिन्न स्वरूप होता है, वहीँ शिव की उपस्थिति होती है। शास्त्रों के अनुसार, मातंगी, सिद्ध काली, धूमावती, आर्द्रपटी चामुण्डा, नीला, नील सरस्वती, घर्मटी, भर्कटी, उन्मुखी तथा हंसी ये सभी श्मशान-कालिका के भेद रुप हैं। 

बनारस पर कार्य करने के क्रम में विगत दस वर्षों में कितनी बार बनारस यात्रा किया, यह नहीं कह सकता हूँ। जितने बार बनारस पहुंचा दो श्मशानों की यात्रा करना अनिवार्य था। हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट। इन घाटों में धधकती चिताओं से चट – चट – फट – फट -चटाक -फटाक -फुस्स जैसी ध्वनि को समझना अनिवार्य था। बनारस का दो श्मशान – हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट – पर भले पार्थिव शरीरों का अंतिम संस्कार किया जाता है, लेकिन दोनों श्मशानों के लिए भी पार्थिव शरीरों का आगमन पूर्व सुनिश्चित होता है, अन्यथा हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट की दूरी कितनी है? दोनों एक ही शहर में, एक ही गंगा प्रवाह के बीच एक किलोमीटर दूरी के अंदर ही अवस्थित हैं। लेकिन यहाँ भी मनुष्य के पार्थिव शरीरों का प्रारब्ध कार्य करता है। 

इस पृथ्वी के प्रत्येक श्मशानों पर प्रत्येक व्यक्ति का नाम अंकित है। किसे अपने देश की मिट्टी में मिलना है, अपने गाँव, शहर, नदी के किनारे स्थित श्मशानों में अपने शरीर को त्यागकर आगे बढ़ना है – यह सभी बातें पूर्व नियोजित हैं। बाबूजी तो यह भी कहते थे जीवन में कोई कितना भी अर्जित कर ले, सैकड़ों, हज़ारों एकड़ भूमि का मालिक हो ले, सैकड़ों बैंकों का मालिक हो ले, अंतिम विश्राम के लिए महज तीन फुट चौड़ा और छह फुट लम्बा जगह के साथ-साथ साढ़े सात मन लकड़ी ही पर्याप्त है एक शरीर को मिट्टी में मिलने के लिए। पुष्प-माला-सुगंध आधी तो मानव निर्मित योजनाएं हैं।

कोई आठ दशक पहले बाबूजी मणिकर्णिका पर साधना करने के बाद कामाख्या में अपनी साधना पूर्ण किये थे। वे कहते थे जब भी किसी श्मशान में खड़े होगे तो पहले आत्मा से स्वयं को श्मशानों की देवी को सौंप दो, फिर चतुर्दिक देखो, तुम्हें यथार्थ दिखेगा, सच दिखेगा। धधकती चिताओं पर ही तुम्हे वस्त्र दिखेंगे। वे सभी साज-श्रृंगार से परिपूर्ण दिखेंगे। अनेकानेक आत्माएं उनके चतुर्दिक खड़े, वार्तालाप करते, हँसते, मुस्कुराते, प्रसन्न दिखेंगे। ऐसा लगेगा जैसे उनकी दुनिया अलग है – निश्छल, पवित्र, समर्पित। शेष जो दिखेंगे, वे नग्न दिखेंगे। बाबूजी की बातों में बहुत ताकत होती थी। 

आज शाहजहानाबाद जिसका निर्माण कोई पौने चार शताब्दी पहले 1649 में हुआ था, के सामने स्थित निगमबोध घाट के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर बाबूजी की बातें याद आ रही है। प्रवेश द्वार पर लिखा भी देख रहा हूँ : “मुझे यहाँ तक पहुँचाने वालों तुम्हारा धन्यवाद – आगे हम अकेले ही चले जायेंगे।” सामने मानव-दानव-पशु-पक्षियों के जीवित शरीर को पार्थिव बनाकर निकलने वाली आत्माएं यमुना के किनारे विचरण करते देख रहा हूँ। उस दृश्य का अवलोकन कर रहा हूँ जब मुग़ल साम्राज्य के आने के कई सौ साल पहले से यमुना की धारा भी दिल्ली सल्तनत की मिट्टी को स्पर्श करते आगे बढ़ती थी। वजह भी था। यह तो इंद्रप्रस्थ था। कहते हैं इसी यमुना के किनारे ब्रह्मा को भी ज्ञान प्राप्त हुआ था जब वे इस स्थान पर यमुना में स्नान किये थे । 

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यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर युधिष्ठिर ने नारायण को साक्षी मानकर नीली छतरी वाले महादेव की स्थापना किये थे। और यह भी सत्य है कि भारतीय पौराणिक कथाओं को, इतिहास को न तो मुगलों ने मिटाया और ना ही अंग्रेजों ने। बहुत ही सम्मान के साथ मुग़ल बादशाह अपने शाहजहानाबाद के चौदह द्वारों में एक द्वार निगमबोध घाट को समर्पित किया। विद्वान और विदुषी कहते हैं कि महाभारत काल में भी यमुना नदी के किनारे इसी स्थान पर निगमबोध घाट अपने अस्तित्व में था। ख़ैर। 

दिल्ली सल्तनत को बाहर से बाँधने वाली सड़क रिंग रोड से यमुना की ओर जो रास्ता निगम बोध घाट की ओर बढ़ती है, मैं भी आगे बढ़ रहा हूँ। प्रवेश के साथ यमुना का पानी काफी दूर दिख रहा है। कौए, कुत्ते, चील, अन्य पक्षी यमुना के पानी में गिरे, परे, मरे, सड़े पदार्धों को भोज्य तलाश कर रहे हैं। आगे दाहिने हाथ कुछ ‘जीवित प्राणियों’ के लिए कुर्सियां लगी दिख रही हैं और सामने उनके सम्बन्धियों, परिजनों का आत्मा रहित शरीर, यानी उनका पार्थिव शरीर रखा है। कई शरीरों के लिए चिताओं का साज-श्रृंगार हो रहा है। बीच में भैरव भी ‘काल’ बनकर निरीक्षण कर रहे हैं। उन पार्थिव शरीरों के पास उनके पूर्वजों की आत्माएं भी दिख रही हैं। सभी के चेहरों पर प्रसन्नता दिख रही हैं। यह अलग बात है कि सामने मेज पर बैठे लोग दुखी दिख रहे हैं, लेकिन बाबूजी की बातों को याद कर श्मशान की भव्यता दिखाई दे रही हैं। 

वैसे तो श्मशान पर महादेव और अग्नि का साम्राज्य होता है, लेकिन कुछ कदम पर बाएं हाथ श्मशान का देख-रेख करने वाले अधिकारी की कुर्सी देख रहा हूँ जो शीशे के दरवाजे के अंदर है। यहीं से बाएं हाथ एक रास्ता जाती है जिसका अंत एक ऊँचे स्थान पर सजे सज्जा पर होता हैं। उस सय्या से निकलती अग्नि की ज्वाला चतुर्दिक प्रज्वलित कर रहा है। यहाँ आस पास महादेव की तस्वीरें लगी है और फिर आगे दाहिने तथा बाएं यमुना तक पर दर्जनों धधकती चिताएं दिख रही हैं। इन चिताओं के बीच जहाँ मैं खड़ा हूँ चतुर्दिक लाखों की तायदात में प्रसन्नचित आत्माएं पंक्तिबद्ध हैं। यमुना के किनारे, यमुना के उस पार, पानी में,  नौका पर सभी आत्माएं,  कुछ आम लोगों की,  कुछ शिक्षाविदों की,  कुछ व्यवसायियों की,  कुछ चिकित्सकों की,  कुछ अधिवक्ताओं की, कुछ न्यायमूर्तियों की, कुछ आर्थिक रूप से विपन्नता का जीवन जीने वालों की, यानी समाज के सभी वर्गों के लोगों की, आम आदमियों की आत्माएं हाथ में पुष्प लिए पंक्तिबद्ध दिख रही थी। यहाँ न पूंजीवाद है और ना ही साम्यवाद। समाजवाद की वास्तविक परिभाषा ये आत्माएं ही लिख रही हैं।

महात्मा का पार्थिव शरीर इस निगमबोध घाट से कोई दो तीन किलोमीटर दूर दिल्ली गेट और यमुना नदी के बीच अग्नि को सुपुर्द किया गया था कोई 76 वर्ष पहले। उनके आस पास ही पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, राजीव गांधी, संजय गांधी, चरण सिंह, ललिता शास्त्री, जैल सिंह, शंकर दयाल शर्मा, देवी लाल, के आर नारायणन, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, स्वामी वेंकटरमन, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों का पार्थिव शरीर अग्नि को सुपुर्द किया गया था। आज उन सभी लोगों की आत्माएं भी यहाँ पंक्तिबद्ध दिख रहे हैं। हो भी क्यों नहीं। दिल्ली सल्तनत का ही एक पति, एक पिता, एक शिक्षक, एक अधिकारी, एक अर्थशास्त्री, एक राजनेता, एक प्रधानमंत्री का पार्थिव शरीर रखा है जिसके सामने उसकी आत्मा हजारों आत्माओं के साथ खड़ी है। 

यमुना किनारे दिल्ली सल्तनत में जंगे आज़ादी के कालखंड से अब तक मिट्टी में मिले पार्थिव शरीरों से निकली आत्माएं, चाहे यमुना के इस पार की हों या यमुना के उस पार की – सभी एक दूसरों का हाथ पकडे, बिना किसी ‘इज्म’ के, यानि सोसिअलिज्म, कम्युनलिज्म आदि भेद-भाव के, मुस्कुराते विचरण करते देख रहा हूँ। बीच-बीच में नेहरू की निगाह, गांधी की निगाह, वाजपेयी जी की निगाह निगम बोध घाट पर शरीर के साथ बैठे महानुभावों की ओर मुड़ते देख रहा हूँ। आज इस शमशान की भूमि पर, यहाँ की लकड़ियों पर, यही की अग्नि पर, यहाँ के परिवेश पर भारतवर्ष के एक शिक्षक, अर्थशास्त्री, विशेषज्ञ, बेहतरीन इंसान और अंततः पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का ‘आत्मा रहित शरीर’ का नाम लिखा है। यही उनका प्रारब्ध था। ऐसा लग रहा था कि  बनारस के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर अग्नि के रास्ते महादेव के पास पहुंचे मानव शरीरों की आत्माओं का जीवित स्वरुप टकटकी निगाहों से डॉ. सिंह के पार्थिव शरीर की प्रतीक्षा कर रहा हो। मणिकर्णिका और हरिशचंद्र घाटों की आत्माओं के साथ-साथ निगम बोध गहत पर नश्वर शरीर को छोड़कर जाने वाली सभी आत्माएं डॉ. सिंह के सम्मान में प्रसन्न मुद्रा में स्वागतार्थ खड़े हों। सभी आत्माओं के चेहरों पर तेज था। 

आत्माएं आपस में वार्तालाप कर रही थीं।  कह रही थी “देखो जीवित लोग कैसे आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं और सिंह साहब आराम से सो रहे हैं। सिंह साहब एक शिक्षाविद थे। उन्हें क्या ? तभी नरसिम्हा राव की आत्मा सामने आयी और कही भी मैं भी राष्ट्र के लिए बहुत कुछ किया था, लेकिन मुझे भी लोग अनेक चीजों के लिए आरोपित किये। मेरे लिए में मेमोरियल की बात राजनीतिक उद्देश्य से की गई। अब इन जीवित लोगों को कौन समझाए कि हम सभी को वे नहीं देख सकते, लेकिन हम सभी उनके कारनामों को देख रहे हैं। वे सभी सोच रहे हैं वे ऐसे ही कुर्सियों से चिपके रहेंगे। उन्हें कौन समझाए कि उनके बदल में लालकिला के निर्माता शाहजहां और मुगलों के कई पीढ़ियों की आत्माएं बैठी हैं। निगमबोध घाट पर आत्माएं बात कर रही थी और कह रही थी भारत के चौदहवें प्रधानमंत्री डॉ. सिंह विचारक और विद्वान के रूप में प्रसिद्ध है। वह अपनी नम्रता, कर्मठता और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। यमुना के किनारे निगमबोध घाट पर आत्माओं का जमघट, कह रही थी ‘शिक्षक की समाधि नहीं होती’, उनकी बातों को अमल करो, वही श्रद्धांजलि होगा। 

बहरहाल, सिंह साहब का पार्थिव शरीर को निगमबोध घाट तक साथ देने हेतु राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, सोनिया गांधी और अन्य गणमान्य लोग उपस्थित थे। डॉ. सिंह की विधवा गुरशरण कौर, बड़ी बेटी उपिंदर सिंह, दमन सिंह और अमृत सिंह भी अपने पिता के अंतिम दर्शन हेतु उपस्थित थी।  डॉ. सिंह का जन्म 26 सितम्बर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के एक गाँव में हुआ था। डॉ. सिंह ने वर्ष 1948 में पंजाब विश्वविद्यालय से मेट्रिक की शिक्षा पूरी की। उसके बाद उन्होंने अपनी आगे की शिक्षा ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राप्त की। सन 1957 में उन्होंने अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी से ऑनर्स की डिग्री अर्जित की। इसके बाद 1962 में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के नूफिल्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में डी.फिल किया। उन्होंने अपनी पुस्तक “भारत में निर्यात और आत्मनिर्भरता और विकास की संभावनाएं” में भारत में निर्यात आधारित व्यापार नीति की आलोचना की थी। 

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डॉ. मनमोहन सिंह का पार्थिव शरीर निगमबोध घाट पर अग्नि की प्रतीक्षा में

पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में डॉ. सिंह ने शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसी बीच में कुछ वर्षों के लिए उन्होंने यूएनसीटीएडी सचिवालय के लिए भी कार्य किया। इसी के आधार पर उन्हें 1987 और 1990 में जिनेवा में दक्षिण आयोग के महासचिव के रूप में नियुक्ति किया गया। 1971 में डॉ. सिंह वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए। 1972 में उनकी नियुक्ति वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में हुई। डॉ. सिंह ने वित्त मंत्रालय के सचिव; योजना आयोग के उपाध्यक्ष; भारतीय रिजर्व बैंक के अध्यक्ष; प्रधानमंत्री के सलाहकार; विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। डॉ सिंह ने 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया जो स्वतंत्र भारत के आर्थिक इतिहास में एक निर्णायक समय था। आर्थिक सुधारों के लिए व्यापक नीति के निर्धारण में उनकी भूमिका को सभी ने सराहा है। भारत में इन वर्षों को डॉ. सिंह के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में जाना जाता है।

डॉ. सिंह को मिले कई पुरस्कारों और सम्मानों में से सबसे प्रमुख सम्मान है – भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण(1987); भारतीय विज्ञान कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी पुरस्कार (1995); वर्ष के वित्त मंत्री के लिए एशिया मनी अवार्ड (1993 और 1994); वर्ष के वित्त मंत्री के लिए यूरो मनी अवार्ड (1993), कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (1956) का एडम स्मिथ पुरस्कार; कैम्ब्रिज के सेंट जॉन्स कॉलेज में विशिष्ट प्रदर्शन के लिए राइट पुरस्कार (1955)। डॉ. सिंह को जापानी निहोन किजई शिम्बुन एवं अन्य संघो द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. सिंह को कैंब्रिज एवं ऑक्सफ़ोर्ड तथा अन्य कई विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियाँ प्रदान की गई हैं। डॉ. सिंह ने कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। उन्होंने 1993 में साइप्रस में राष्ट्रमंडल प्रमुखों की बैठक में और वियना में मानवाधिकार पर हुए विश्व सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया है।

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राजकीय सम्मान

अपने राजनीतिक जीवन में डॉ. सिंह 1991 से भारतीय संसद के उच्च सदन (राज्य सभा) के सदस्य रहे जहाँ वे 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता थे। डॉ. सिंह ने 2004 के आम चुनाव के बाद 22 मई 2004 को प्रधानमंत्री के रूप के शपथ ली और 22 मई 2009 को दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। सिंह ने एक दशक से अधिक समय तक अभूतपूर्व वृद्धि और विकास का नेतृत्व किया। डॉ. सिंह के नेतृत्व में, भारत ने अपने इतिहास में सबसे अधिक वृद्धि दर देखी, जो औसतन 7.7% रही और लगभग दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गई। डॉ. सिंह के सत्ता में आने के बाद भारत दसवें स्थान से उछलकर 2014 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया, जिससे लाखों लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठा। डॉ. सिंह के भारत के विचार के मूल में सिर्फ़ उच्च विकास ही नहीं बल्कि समावेशी विकास और ऐसी लहरों का विश्वास था जो सभी नावों को ऊपर उठा सकें। यह विश्वास उन विधेयकों के पारित होने में निहित था, जिन्होंने नागरिकों को भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, काम का अधिकार और सूचना का अधिकार सुनिश्चित किया। डॉ. सिंह की अधिकार-आधारित क्रांति ने भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत की।

जुलाई 1991 में, डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने बजट भाषण का समापन इन शब्दों के साथ किया, “दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है। मैं इस सम्मानित सदन को सुझाव देता हूं कि दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उदय एक ऐसा ही विचार है।” यहीं से उनके भारत के विचार की शुरुआत हुई। यह वह दौर था जिसने भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर किया और डॉ. सिंह की एक नवोन्मेषी विचारक और प्रशासक के रूप में साख को भी चमकाया। हालांकि, डॉ. सिंह के विश्वासों और सार्वजनिक सेवा के प्रति उनके समर्पण की नींव उनके बीसवें दशक की शुरुआत और उनके करियर की शुरुआत में ही देखी जा सकती है। विकास के प्रति डॉ. सिंह की प्रतिबद्धता और उनकी अनेक उपलब्धियों को उन अनेक सम्मानों के माध्यम से मान्यता मिली है जो उन्हें प्रदान किए गए हैं। इनमें 1987 में पद्म विभूषण, 1993 में वित्त मंत्री के लिए यूरो मनी पुरस्कार, 1993 और 1994 में वित्त मंत्री के लिए एशिया मनी पुरस्कार और 1995 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी पुरस्कार शामिल हैं।

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री का अंतिम श्रद्धांजलि 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहाँ कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी के निधन ने हम सभी के हृदय को गहरी पीड़ा पहुंचाई है। उनका जाना, एक राष्ट्र के रूप में भी हमारे लिए बहुत बड़ी क्षति है। विभाजन के उस दौर में बहुत कुछ खोकर भारत आना और यहां जीवन के हर क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल करना, ये सामान्य बात नहीं है। अभावों और संघर्षों से ऊपर उठकर कैसे ऊंचाइयों को हासिल किया जा सकता है, उनका जीवन ये सीख भावी पीढ़ी को देता रहेगा। एक नेक इंसान के रूप में, एक विद्वान अर्थशास्त्री के रूप में और रिफॉर्म्स के प्रति समर्पित लीडर के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। एक अर्थशास्त्री के रूप में उन्होंने अलग-अलग स्तर पर भारत सरकार में अनेक सेवाएं दीं। एक चुनौतीपूर्ण समय में उन्होंने रिजर्व बैंक के गवर्नर की भूमिका निभाई।”
व्हाइट हाउस से जारी बयान में कहा गया है कि ‘आज संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के बीच सहयोग का अभूतपूर्व स्तर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की रणनीतिक दृष्टि और राजनीतिक साहस के बिना संभव नहीं होता।’ अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निधन पर दुख जताते हुए उन्हें सच्चा राजनेता बताया। व्हाइट हाउस की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि भारत और अमेरिका के बीच आज जिस तरह का सहयोग है, वह मनमोहन सिंह के विजन के बिना संभव नहीं था। मनमोहन सिंह साल 2004 से 2014 तक 10 साल तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। गुरुवार रात को 92 साल की उम्र में मनमोहन सिंह का निधन हो गया। 

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