गया / पटना:’कॉफी पर चर्चा’ करने के लिए मुंबई के करण जौहर साहेब को छोड़ दें। ‘चाय पर चर्चा’ करने का एकाधिकार भारत के संभ्रांतों को रहने दें। लेकिन अगर ‘मिथिला का मिथिला पेंटिंग’,’सिलाव का खाजा’,’भागलपुर का सिल्क’,’गया का तिलकुट’,’उतवंतनगत का बेलग्रामी’,’मनेर का मोतिचुड़ का लड्डू’,’सरिसब-पाहि का सरौता’,’मुंगेर का कट्टा’, जैसे बिहार के ऐतिहासिक पकबानों को, हथियारों के नामों को भारतीय राजनीतिक बाजार में, व्यापार-जगत में बेचकर अपना-अपना नाम-शोहरत और मुनाफा अर्जित करते हैं; तो प्रदेश के करीब 12 करोड़ लोगों को पटना के गाँधी मैदान से दिल्ली के रामलीला मैदान होते दिल्ली हाट तक ‘लिट्टी और बैगन का चोखा’ पर बिहार के मजदूरों की वास्तविक स्थिति पर भी चर्चा करनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ होता तो ‘गोलघर की कसम’, 75 वर्ष आज़ादी के बाद बिहार के मजदूरों के घरों से पटना के सरपेंटाइन-सर्कुलर रोड के रास्ते दिल्ली के कल्याण मार्ग तक विकास की ‘ऐतिहासिक रेखाएं’ खींच जाती। काश !
परन्तु, जब देश-प्रदेश की राजनीतिक गलियारे में ढुकने की बात होती है, सत्ता के सिंहासन पर बैठे राजनीतिक महंतों द्वारा लिट्टी-चोखा का’राजनीतिकरण’ होता है, तो पकवान बनाते समय, परोसते समय’लिट्टी-चोखा बनाने का असली कारीगर को मेज से दस मील की दूरी पर रखकर, समाज के संभ्रांत लोग, इत्र से नहाये, अपने-अपने जुल्फों और बाबरियों को सीटे, रंग-बिरंगे वस्त्रों में चाटुकारी और चापलूसी का उत्कर्ष का उदाहरण पेश करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि उन हरकतों को सम्पादित करते समय वे तनिक भी लज्जित नहीं होते हैं। शब्द बहुत कटु हैं, लेकिन अपने-अपने कलेजे पर हाथ रखकर सोचियेगा जरूर, खासकर वे सभी जो मजदूरों के, कामगारों के हितैषी होने का स्वांग करते हैं।
बिहार के सैकड़े 90 फीसदी मजदूरों की पूरी जिंदगी भूख मिटाने, परिवार चलाने और बीमारी में बीत जाती है। उनको ना तो अच्छा खाना नसीब होता है, न वस्त्र और ना आवास । विश्वास नहीं हो तो कभी बिहार के खेतों से पंजाब और हरियाणा के खेतों में, शहरों में गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में काम करती महिलाओं को अवश्य देख लें। चतुर्दिक मालिकों से लेकर ठेकेदारों की निगाहें उस मजदूर के घरों की महिलाओं पर टिकी होती है। और वह असहाय महिला अपनी साड़ी की पल्लू को खींच-खींच कर अपने शरीर के हिस्सों को बारम्बार ढ़कती है – बुरी नजरों से बचने के लिए ।
आप भले विश्वास नहीं करें, लेकिन बिहार में पेंशन घोटाले की बात छोड़ें; यहाँ तो मृत्यु लाभ से लेकर दाह-संस्कार के लिए सरकारी खजानों में सुरक्षित रखे पैसों में भी “सेंघ” मार रहे हैं लोगबाग, अधिकारी, राजनेता और समाज के तथाकथित संभ्रांत। दावे तो सभी मजदूरों के कल्याण का ही करते हैं, लेकिन बिहार की खेतों की आड़ से दिल्ली के कल्याणमार्ग तक ‘मजदूरों के कल्याणार्थ वाली रेखाएं कहीं दिखेगी नहीं। शिक्षा, स्वास्थ और ने सुविधाओं की तो बात ही नहीं करें।
केंद्र एवं बिहार राज्य सरकारों के द्वारा मजदूरों के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है जैसे पेंशन योजना, मृत्यु लाभ योजना, नगद पुरस्कार योजना, चिकित्सा सहायता योजना, शिक्षामित्र सहायता योजना, बच्ची के विवाह में वित्तीय सहायता की योजना, भवन मरम्मती अनुदान योजना योजना, दाह संस्कार हेतु आर्थिक सहायता सम्बन्धी योजना, परिवार पेंशन योजना, आयुष्मान भारत योजना और दुर्घटना अनुदान योजना आदि। इसके अलावे ‘मजदूरों के कल्याणार्थ’ अनेकानेक योजनाएं सरकारी फाइलों, कागजों पर दूरंतो एक्सप्रेस, राजधानी एक्सप्रेस, वन्देमातरम एक्सप्रेस की रफ़्तार से चल रही है – लेकिन वे योजनाएं लाभार्थी स्टेशनों पर नहीं रूकती। सरकारी अधिकारी, पंचायत से विधानसभा, विधान परिषद् के रास्ते लोकसभा और राज्यसभा में बैठे राजनेताओं के आदेश और इशारों पर “ट्रेनें” बीच में रूकती है। मालों को उतारा जाता है, कागजों का बदला-बदली होता है – और अंत में सरकारी आंकड़े तैयार हो जाते हैं।
बहरहाल, गया जिले के राइट टू रिकॉल के महासचिव डी पी सिन्हा, बिहार कामगार श्रमिक संघ के राष्ट्रीय महामंत्री डॉ विनय कुमार विष्णुपुरी 21-मुख्य बिंदुओं पर भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, राज्यपाल फागु चौहान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक ज्ञापन प्रेषित किये हैं। साथ ही, यह उम्मीद भी किये हैं कि उन बिंदुओं पर सरकार और व्यवस्था सकारात्मक रुख अपनाएगी।

राइट टू रिकॉल के कागजातों ने दाबा किया है कि “हमारे पूर्वजों के लम्बे संघर्षां के बाद हमें आजादी तो मिली, परन्तु आजादी के 75 सालों के बाद भी अपने दैनिक जीवन में हम अपने ही आस-पास हजारों व्यक्तियों को देखते हैं जो कि अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते हैं। बिहार राज्य की सार्वजनिक सेवाओं के जिन कामो के लिए जिन पदाधिकारियों को नियुक्त किया जाता है एवं चुनावों के माध्यम से जिनका चयन किया जाता है उन्हे सरकारी खजाने से हजारो करोड़ रूपये प्रतिवर्ष भुगतान भी किया जाता है और इसके एवज में समाज को वह जो भी देते है – देखकर आमजन को क्षोभ, निराशा और कुंठा ही मिलती है ।”
दस्तावेज में आगे लिखा है कि “बिहार में ग्रामोउद्योगों का पतन, कृषि की पिछड़ी दशा, त्राटिपूर्ण शिक्षा स्वास्थ व्यवस्था, बेरोजगारी, भ्रष्टाचारी, शोषण नीति पर आधरित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पुलिस/ प्रशासन अपराध्यिं एवं जनप्रतिनिध्यिं का गठजोड़ आदि के कारण जन सरोकार से जुड़ी दर्जनों समस्याओं से हम सभी व्यक्ति गुजर रहे हैं। प्रत्येक आदमी हर छोटी-बड़ी समस्याओं से संघर्ष कर रहा है । वैसे जनता के सहयोग व विकास के लिए कई सरकारी गैर-सरकारी संस्थाएँ काम कर रही हैं। कई स्तरों पर जनप्रतिनिधियों क्रियाशील है मगर फिर भी आम आदमी बेवस व लाचार बना हुआ है। बिहार में शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, भ्रष्टाचारी, महँगाई कम होने अथवा स्थिर होने के बजाय दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। राज्य में कई ऐसे गुमनाम मौतें हो रही है जिसका मूल कारण भुखमरी अथवा उचित इलाज का न मिलना है। ऐसा लगता है कि राज्यवासी को स्वंय बदलने के लिए उसे अकेला छोड़ दिया गया है।”
आजादी के बाद से ही जन-सरोकार की समस्याओं को लेकर कई योजनाएं बनाई गईं परन्तु मूल समस्याओं को ध्यान में ही नहीं रखा गया। जनता के लिए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास एवं भुखमरी से निपटने के लिए सरकार ने कोई ठोस व कारगर कदम नहीं उठाई है। आम आदमी के लिए जो भी योजनाएं बनाई गई है वो मात्र एक दिखावा है और उसमें भी लूट-खसोट की जा रही है। उनकी समस्याओं के निवारण के लिए न तो कोई जन प्रतिनिधि अथवा पदाधिकारी ही चिन्तित है और न तो कोई सरकार अथवा राजनीतिक पार्टी। इसलिए इसके निवारण हेतु, पूर्ण न सही, आंशिक ही सही, बिहार में जन-सरोकार से जूड़ी समस्याओं के लिए पुनः मांग करने की जरूरत महसूस होने लगी है।
हमारे किसान, मजदूर, बेरोजगार, संविदा-कर्मी भाई-बहन एवं अन्य संगठन आदि अपने-अपने अधिकारों और जरूरतों के लिए बराबर आन्दोलनरत् रहे है यह सब जानते है। सरकार निदान का कोई रास्ता नहीं निकाल पा रही है। अतएव बिहार में आम आदमी की सभी समस्याओं के निदान के लिए ‘‘जन-सरोकार समस्याओं” सरकार और व्यवस्था के सम्मुख लेन का प्रयास कर रही है, साथ ही, आशा भी करती है कि सरकार इसपर अवश्य विचार करेगी।
गरीबी भारत की एक देशव्यापी समस्या है। परन्तु अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार में निर्धन परिवारों की संख्या अधिक है। परन्तु सरकार ने निर्धनता को दूर करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। अपने दैनिक जीवन में हम ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखते हैं जो कि अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते हैं। इनमें भूमिहीन, कृषि-श्रमिक दैनिक मजदूर, बाल श्रमिक, पफुटपाथ पर सोने वाले, भीख माँगनेवाले, कूड़ेदान चुनने वाले, रिक्शा-ठेला चलाने वाले आदि। बिहार में अनुमानतः 100 व्यक्तियों पर लगभग 40 व्यक्ति निर्ध्नता या गरीबी से पीड़ित है। राज्य की सार्वजनिक सेवाएं और
अधेसंरचनाएं देश में सबसे बदतर है।

बिहार पहले उद्योग प्रधान राज्य हुआ करता था, जो आज उद्योग विहीन हो गया है। झारखंड के अलग हो जाने पर इस दिशा में रत्ती भर प्रयास नहीं किया गया। जिसके कारण बिहार के लोग लाखों की संख्या में दूसरे राज्यों/देशों में काम करने चले
जाते है। बिहार में रोजगार उत्पन्न करने के लिए नए उद्योग/कारखाने तो लगा नहीं गए परन्तु चल रहे उद्योग/कारखाने बन्द जरूर किए गए हैं। यथाः- सन 1980 के दशक में चीनी उद्योग एक सम्पन्न उद्योग था, उस वक्त बिहार देश के कुल चीनी उत्पादन का 40 प्रतिशत पैदा करता था। अब यह मुश्किल से 4 प्रतिशत रह गया है। आजादी से पहले बिहार में 33 चीनी
मिलें चालू थी जिनमें से अब जैसे-तैसे 9-11 बचे हैं। जिनकी सिर्फ साँसे चल रही है।
भागलपुर एक समय में सिल्क सिटी के नाम से जाना जाता था। लाखों बुनकर इससे रोजगार पाते थे, परन्तु आज लगभग बन्द है। पपपण् बेगूसराय जिले में कभी बड़े और मध्यम उद्योग-धंधों का केन्द्र हुआ करता था। खाद कारखाना, रिपफायनरी, रेल यार्ड आदि जो कि सरकारी नीतियों को भेंट चढ़ गयी। इसी तरह, रोहतास जिला एक जमाने में डालमिया नगर के नाम से देश भर में विख्यात था। यहाँ वनस्पति, सिमेंट, कागज आदि के बड़े कारखाने थे। अण् सारण जिले के मढ़ौरा में सारण इंजिनियरिंग, सारण डिस्ट्रलरी, मार्टन मिल, चीनी मील आदि दर्जनों कारखाने थे।
सन 1969 में समस्तीपुर रेल मंडल की स्थापना हुई थी जो बंद है। मुंगेर में देश के मशहुर आईटीसी ग्रूप के कारखाने थे, बन्दूक फैक्ट्री थी जो अब बन्द है। कभी आईटीसी के कारखाने में ब्रांडेड सिगरेट का बड़े पैमाने पर निर्यात होता था। मधेपुरा में घोषित इलेक्ट्रिक इंजन कारखाना भी गुम हो गई है। छपरा रेल चक्का निर्माण कारखाना में अब-तक उत्पादन शुरू नहीं हुआ है। सीमांचल के जिले-कटिहार, पूर्णिया आदि में जूट मिले थी जो बंद है। मढ़ौरा डीजल इंजन कारखाना भी पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहा है। नालन्दा जिला में हरनौत रेल कारखाना आज तक अस्तित्व में ही नहीं आ सका है। बिहार में काम करने वाले आयु वर्ग की बड़ी आबादी है। काम की तलाश में बिहार के लोग दूसरे राज्यों/देशों में परिवार से दूर रहकर काम की तलाश में जाते है, जहाँ कई जगहों पर उनका शोषण किया जा रहा है।
बिहार सरकार ने 2 अक्टूबर, 2016 से युवाओं को बेरोजगारी दूर करने के उद्देश्य से कुशल युवा कार्यक्रम, स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना एवं मुख्यमंत्रा निश्चय एवं सहायती भत्ता योजना शुरू की है। समय-समय पर रोजगार मेला भी लगाया जाता है। परन्तु ये सब सुविधएँ ‘‘उँट के मुँह में जीरा’’ जैसा है, बेरोजगार को चिढ़ाने वाला जैसा स्कीम है बेरोजगारो की इन स्कीमों से कोई बदलाव नहीं दिखता है। बिहार में बेरोजगारी को पता करने के लिए आँकड़ों की जरूरत नहीं है। बस सिपर्फ किसी गॉव की गलियों से गुजर जाइये, सैकड़ो ग्रेजुएट, बीटेक, एम. बी. ए. और मैट्रिक पफेल तथा अनपढ़ मिल जाएगे। इसलिए बेरोजगारी दूर करने के लिए ठोस व कारगार उपाय निकाला जाए। (क्रमशः)