जिनकी बंदिशों पर पण्डित जसराज अश्रुपूरित😢 हो जाते थे, ‘मिथिला के उस संगीतज्ञ को स्वतंत्र भारत में वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसका वह हकदार था’✍ (भाग-5)

साल: 1957: बाएं से कुमार श्यामानंद सिंह अपने अनुजों - आद्यानन्द सिंह, विमलानंद सिंह, जयानंद सिंह के साथ

पूर्णियां / दरभंगा / बनारस : मिथिला में इस बात की चर्चाएं ‘आम’ हैं कि कैसे मिथिला के लोग दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के चुनावी प्रचार-प्रसार में ‘माँछ-भात-दही-रसगुल्ला’ डकार ले-लेकर खाये, महाराजाधिराज द्वारा प्रदत ‘उपहार’ प्राप्त किये और फिर चुनाव के दिन महाराजा के चुनावी स्थान से, बूथ से दाहिने-बाएं खिसक लिए। परिणाम महाराजाधिराज का ‘सार्वजनिक हार’ था। वैसे सन 1933 से 1946 तक वे तत्कालीन ‘काउंसिल ऑफ़ स्टेट’ के सदस्य रहे, सन 1947 से 1952 तक भारत के संविधान सभा के सदस्य रहे और फिर सन 1952 से अपनी अंतिम सांस तक राज्य सभा के सदस्य रहे। इस बात का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि जब मिथिला के लोगों के द्वारा उनके प्रतिनिधित्व का समर्थन का प्रश्न आया, मिथिला के लोग अपना-अपना हाथ-पैर पीछे कर लिए। इतिहास में आज भी दर्ज है और आगे भी रहेगा कितने ‘विश्वसनीय’ हैं ‘मिथिला के लोग।’

आइये आगे बढ़ते हैं। यह भी सर्वविदित है कि जिस बनैली राज के राजा कीर्त्यानंद सिंह ने सं 1917 में “मैथिली भाषा” के रक्षार्थ उसे उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों स्थान दिलाया, कलकत्ता विश्वविद्यालय में लागू करवाया; मिथिला के लोग आज उसी मैथिली भाषा को लेकर ‘राजनीति’ करने में कोई कोताही नहीं करते, लेकिन उसी बनैली राज के महान संगीतज्ञ कुमार श्यामानंद सिंह को मृत्योपरांत भी स्वतंत्र भारत में वह सम्मान नहीं दिला पाए, जिसका वे हकदार थे। शब्द बहुत कटु है, लेकिन ‘चिंतन-मंथन’ योग्य है।

इतना ही नहीं, दरभंगा के महाराजाओं ने भी मिथिला के पूर्वी हिस्से को कभी उस नजर से नहीं देखा जिससे तत्कालीन विकास की मुख्यधारा में वह भी हिस्सेदार बने। दरभंगा के महाराजाओं का मिथिला के पूर्वी हिस्से में ‘सहयोग’ ‘नगण्य’ था। यह बात मिथिला के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिक जानते होंगे । यहाँ एक बात का उद्धरण होना नितांत आवश्यक है। भारत रत्न शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान और संगीत भास्कर राजकुमार श्यामानन्द सिंह में क्या समानता है, कभी आपने सोचा? फिर तो बिहार के लोग, मिथिला के लोग यह भी नहीं सोचे होंगे कि दोनों में क्या असमानता है?

साल: 1955: बाएं से: शंकरानंद सिंह, कुमार श्यामानंद सिंह, सीता राम झा और ऋषिकांत झा

अन्य बातों को अगर दर-किनार भी कर दें तो दोनों ‘संगीतज्ञों’ का जन्म सं 1916 में ही हुआ था। बिस्मिल्लाह खां का जन्म मार्च के महीने में हुआ था, जबकि राजकुमार श्यामानन्द सिंह जुलाई महीने में उसी वर्ष जन्म लिए थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के जन्म-स्थान बिहार के डुमराँव से लेकर उनके कर्म-स्थली बनारस के सराय हरहा की तंग गली के रास्ते दिल्ली के राजपथ तक संगीत प्रेमियों के अलावे आम लोगों ने एक-स्वर से “शहनाई के सम्मानार्थ” में आवाज उठाए और अंततः सन 2001 में स्वर-कोकिला लता मंगेशकर के साथ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां देश के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से अलंकृत हुए। परन्तु “सुतल छी आ वियाह होइए” सिद्धांत में विश्वास रखने वाले मिथिला के मैथिली और गैर-मैथिली भाषा-भाषी कभी भी संगीत-भास्कर कुमार श्यामनन्द सिंह के लिए “चूं” तक नहीं किये। यह अलग बात है कि उनके कुमार श्यामनन्द सिंह के जीवनकाल में उनकी संगीत ध्वनि को सुनकर ‘वाह-वाह’ भी किये और ‘ताली’ भी बजाये।

बिहार में अनेकानेक संगीत के महारथ हुए। मसलन प्रसून बनर्जी, सीयाराम तिवारी, भिखारी ठाकुर, विंध्यवासिनी देवी, रामाश्रय झा, चित्रगुप्त, बुद्धदेव दासगुप्ता, रामचतुर मल्लिक इत्यादि जिन्होंने न केवल प्रदेश के स्तर पर, बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय संगीत का पञ्चम लहराया। लेकिन दुःख की बात यह है कि अपने ही प्रदेश में, अपने ही लोग कभी उनके सम्मानार्थ आवाज नहीं उठाये। संगीत के मामले में बनैली राज के राजकुमार श्यामानंद सिंह उसी उपेक्षा की कड़ी में एक हैं। राजा-रंक का “राग ख़याल” अलापने से बेहतर तो यह था कि बिहार के लोग, चाहे ‘अविभाजित’ बिहार हो या ‘विभाजित’ बिहार, उस संगीत भास्कर के सम्मानार्थ स्वतंत्र भारत में राज्य सरकार के माध्यम से केंद्र सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाते – आखिर सम्मान का अलंकरण तो ‘मरणोपरांत’ भी किया जा सकता है। लेकिन कैसे करेंगे? यहाँ तो “उनका सम्मान भेट जेतइन हमरा सभक आवाज से ते हमारा की भेटत?” वाली सोच रखते हैं मिथिला के लोग। शब्द बहुत कटु है लेकिन ‘चिंतन’, ‘मंथन’ से परे नहीं है।

आप माने अथवा नहीं। मैं (लेखक) मिथिला ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में शायद एकमात्र ‘जीवित मनुष्य’ हूँ जिसका नाम, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए किये गए काम का उद्धरण उस्ताद के मरणोपरांत देश का बेहतरीन और विश्वसनीय समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया द्वारा निर्गत ‘उस्ताद के मृत्यु-लेख (ऑबिच्युअरी) में उद्धृत किया गया। ( https://www.rediff.com/news/2006/aug/21khan1.htm )

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बहरहाल, उस दिन शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान “भारत रत्न” से अलंकृत नहीं हुए थे, लेकिन उनकी अन्तः आत्मा से निकली आवाज दरभंगा के लाल किले की ईंट को हिला दिया। वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के विद्वानों, विदुषियों के बीच इधर ‘उस्ताद की शहनाई’ और ‘मंगलध्वनि’ का अपमान हुआ, उधर दरभंगा राज की कुल-देवता ‘रूठ’ गईं। राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक दरभंगा राज के 20 राजाओं, महाराजाओं द्वारा 410-साल की अर्जित संपत्ति और शोहरत सुपुर्दे ख़ाक की ओर अग्रसर हो गई । कहाँ भगवान्, कहाँ भगवती, कहाँ पूजा, कहाँ पाठ, कहाँ प्रसाद, कहाँ आरती, कहाँ पंडित, कहाँ पुरोहित – सभी समाप्त हो गए। मंदिर की घंटी की आवाज शांत हो गई। शंखनाद समाप्त हो गया। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे – परन्तु सच यही है। अक्षरों के “अधिपति” “प्रथम-पूज्य” और माँ सरस्वती भी परिसर से बाहर निकल गई।

सन 1974 में बिस्मिल्लाह खान राजकुमार जीवेश्वर सिंह और उनकी प्रथम पत्नी श्रीमती राज किशोरी जी की पहली बेटी कात्यायनी देवी के विवाह संस्कार में मङ्गल ध्वनि बजा रहे थे । उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दरभंगा किले के अंदर अपनी साँसों को रोकते, शहनाई की धुन को कुछ पल ‘बाधित’ करते दरभंगा राज के तत्कालीन सभी ‘धनाढ्यों’ के सम्मुख, ज्ञानी-महात्माओं के सम्मुख बिना किसी भय के कहते हैं:

“मैं राजा बहादुर की शादी में शहनाई बजाया। मैं युवराज (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) के विवाह में शहनाई से नई बहु का स्वागत किया। आज उसी शहनाई के धुन से युवराज की सबसे बड़ी बेटी की मांग में उसके शौहर द्वारा सुंदर भरते समय सुखमय जीवन का आशीर्वाद देता हूँ और आज से यह प्रण लेता हूँ कि आज के बाद कभी दरभंगा राज परिसर में, इस लाल किले के अंदर नहीं आऊंगा, यहाँ अब कभी शहनाई नहीं बजाऊंगा। आज महाराजाधिराज के लिए, राजा बहादुर के लिए मन व्याकुल हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति खल रही है। आज उनके बिना रोने का मन कर रहा है। आज इस भूमि पर उन दो महारथियों की अनुपस्थिति ने संगीत की दुनिया को अस्तित्वहीन महसूस कर रहा हूँ। आज शहनाई का मंगल ध्वनि बिलख गया है। आज युवराज को देखकर दरभंगा राज का भविष्य देख रहा हूँ। इस लाल किले की दीवारों के ईंटों से सरस्वती जाती दिख रही हैं। इस दीवार का रंग और भी लाल होना इसका प्रारब्ध है। आज बड़ी महारानी को छोड़कर कोई भी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई को देखने वाला, पूछने वाला, समझने वाला नहीं रहा …… और वे फ़ुफ़क फ़ुफ़क कर रोने लगे।”

उनकी साँसे जिस रफ़्तार से ”रीड” के रास्ते ”पोली” होते हुए ”शहनाई” तक पहुँच रही थी, और जिस प्रकार का धुन निकल रहा था, वह न केवल महाराजाधिराज, राजाबहादुर और युवराज के लिए समर्पण था, बल्कि जीवन में कभी फिर दरभंगा के उस लाल किले में पैर नहीं रखने का वादा भी था। मंगल ध्वनि बजाने वाला वह नायक अपने शब्दों पर जीवन पर्यन्त खड़ा उतरा – कभी पैर नहीं रखा। सन 2006 के अगस्त महीने के 21 तारीख बिस्मिल्लाह खान की साँसे बंद हुई, उनका पार्थिव शरीर सुपुर्दे ख़ाक हो गया।

बहरहाल, अपनी बातों को पूरा करने के लिए आइये बनैली राज चलते हैं। बनैली-चंपानगर के राजकुमारों में सबसे श्रेष्ठ राजकुमार श्यामानन्द सिंह का जन्म 27 जुलाई, 1916 को हुआ। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि उनके जन्म से माता-पिता को अलभ्य लाभ हुआ क्योंकि तीन पुत्रियों के जन्म और एक पुत्र की शैशवावस्था में मृत्यु हो जाने के बाद श्यामानन्द का जन्म हुआ था, राजा और रानी, बालक श्यामानन्द को माँ श्यामा का प्रसाद समझते थे। परन्तु उनके अग्रज की अल्पायु में मृत्यु ने उन्हें झकझोरकर रख दिया था। अतः श्यामानन्द के जन्म के अवसर पर कोई उत्सव नहीं हुआ था। दो वर्ष बाद जब राजा कीर्त्यानंद सिंह और रानी प्रभावती को कुमार विमलानंद सिंह के रूप में दूसरे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, तब राजा ने दोनों वारिसों के जन्मोत्सव की औपचारिक घोषणा की और लगभग एक माह तक महल में हर्षोल्लास मनाया गया।

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गिरिजानन्द सिंह अपने परिवार के साथ

बनैली ड्योढ़ी के विद्वान, संगीतज्ञ और अपने पूर्वजों के प्रति उच्चतम विचार रखने वाले, उनकी कीर्तियों को संरक्षित और सुरक्षित रखने वाले विचारक गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “बाल्यावस्था में कुमार श्यामानन्द अत्यंत नटखट थे और औपचारिक शिक्षा के प्रति उनका तनिक भी लगाव न था। फिर भी उन्हें पूर्णियां जिला स्कूल में दाखिला करवाया गया और बाद में रायपुर के राज-कुमार कॉलेज में भी भेजा गया। इसके बाद उन्हें मिस्टर और मिसेस बेलेटी को निजी प्रशिक्षक के रूप में रखकर श्यामानंद को समुचित और राजोचित शिक्षा-दीक्षा दिलवायी गयी। सोलह वर्ष की आयु में, 10 जून, 1932 को सरिसब निवासी श्रोत्रिय पिनकर झा की पुत्री, निर्मला से श्यामानन्द सिंह का विवाह हो गया। लगभग उसी समय से कुमार साहेब को संगीत के प्रति एक विशेष लगाव हुआ जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व और उनके जीवन की पहचान बानी। कहते हैं राजकुमार श्यामानंद सिंह ने अपने बहनोई बाबू दुर्गानंद सिंह से हारमोनियम बजाना सीखा और कुछ ही दिनों में अच्छी तरह क्लैरिनेट भी बजने लगे।”

गिरिजानंद सिन्हा आगे कहते हैं कि “संगीत – शिक्षा की दिशा में उनके जीवन में उस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब 1935 ई0 में दार्जिलिंग की यात्रा करते समय खरसांग के एक ग्रामोफोन की दुकान में उन्होंने कलकत्ता के भीष्मदेव चटर्जी का रेकॉर्ड सुना। वे भीष्मदेव जी के गायन से अत्यधिक प्रभावित होकर उस रिकॉर्ड को खरीद कर घर ले आए और उसे बार-बार सुना।राग रागेश्वरी-बहार और पटदीप की उस प्रस्तुति ने कुमार साहेब को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भीष्मदेव चटर्जी से गायन-कला सीखने का दृढ संकल्प ले लिया। सन 1936ई0 में अनुज कुमार जयानन्द सिंह के उपनयन-संस्कार के शुभ अवसर पर उस्ताद भीष्मदेव चटर्जी को बनैली चंपानगर अपना गायन प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। उनके गायन से कुमार श्यामनन्द इस हद तक प्रभावित हुए कि एक शिशु की तरह बिलख कर रो पड़े और उन्होंने भीष्मदेव जी को अपना गुरु बनने के लिए मन लिया।

गिरिजानंद सिंह के अनुसार, “दुर्भाग्यवश 1938 ई0 में राजा कीर्त्यानन्द की मृत्यु हो गई। राजा के श्रेष्ठ पुत्र होने के वजह से श्यामानन्द सिंह से यह अपेक्षित था कि वे अपने परिवार के कर्ता के रूप में राज्य-काज संभालें। परन्तु संगीत साधना में अनुरक्त रहने के कारण सांसारिक कार्यकलापों के प्रति उनकी कोई रुचि न थी। अतः उन्होंने सम्पूर्ण पारिवारिक और राजकीय जिम्मेदारी अपने छोटे भाइयों को सौंप दिया। कहा जाता है कि जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘राजा बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित करना चाहा तब उन्होंने इस पदभार को लेने में असमर्थता जतायी और कहा ‘मैं एक संगीतकार हूँ, राजा नहीं।” हाँ, यह अलग बात है कि ताउम्र, जनसाधारण द्वारा सम्मानित और संपूजित रहते हुए वे ‘राजा’ ही कहलाते रहे। उनकी मृत्यु के समय (1994) बनैली-राज को समाप्त हुए लगभग 37 वर्ष बीत चुके थे, फिर भी वे सबों के लिए राजा ही थे, आज भी राजा ही हैं।”

बाएं से (बैठे हुए) तीसरे से: दिलीप चंद्र भेदी, उस्ताद फैय्याज खां, जनाब अत्ता हुसैन खां, (खड़े) : कुमार जयानंद सिंह, दुर्गानंद सिंह, तारानंद सिंह, उस्ताद भीष्मदेव चट्टर्जी, कुमार श्यामानन्द सिंह, विमलानंद सिंह और केदार नाथ झा

1936 से 1939 ई0 तक श्यामानन्द जी ने नियमित रूप से चटर्जी महोदय से तालीम पायी। परंतु जब 1939 ई. में भीष्म देव जी ने पोण्डीचेरी के अरविन्द-आश्रम में दाखिला ले लिया तब कुमार साहब की संगीत शिक्षा में व्यवधान हुआ। बाद में में अपने गुरु की इच्छानुसार उन्होंने आगरा के उस्ताद बाचू खाँ साहेब को चंपानगर आने का आग्रह किया। 1940 से 1962-63 ई0 तक श्यामानन्द जी बाचू खाँ से संगीत की तालीम पाते रहे और भारतीय शास्त्रीय गायन की बारीकियों को सीखते रहे। उपरोक्त दोनों गुरुओं के अलावा कुमार साहेब ने उस्ताद मुज्जफर खाँ, उस्ताद मुबारक अली खाँ, पं0 भोलानाथ भट्ट, पं0 केदार जी, पं0 महावीर मल्लिक, और पं0 यदुवीर मल्लिक सरीखे सुख्यात गायकों से संगीत की शिक्षा ली।

गिरिजानंद सिंह जी कहते हैं “यद्यपि कुमार साहब ने कभी अपनी कला को व्यवसायिक न बनाया, फिर भी उनका संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रशंसकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुआ। वे बंदिश और भजन गायन में तो निष्णात थे ही, उनके पास ख्याल के बंदिशों और ठुमरी का अमोघ संग्रह था।उन्होंने सदैव बंदिश की प्रस्तुति को अति महत्वपूर्ण समझा और ऐसा मानते रहे की बंदिश की कलापूर्ण और सही प्रस्तुति की कमी होने पर, गायन में भाव और रस का सृजन असंभव था।”

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कुमार साहब अक्सर कहा करते थे ‘रूह से गाओ, गले से नहीं’। एक बार पूर्णियाँ में वे बिहार के तत्कालीन गवर्नर मो. जाकिर हुसैन के समक्ष गायन की प्रस्तुति कर रहे थे। हुसैन साहब गायन से इतने प्रभावित हुए कि मंच पर आकर उन्होंने कुमार को गले से लगा लिया और कहा कि ‘कुमार साहब गाते नहीं, इबादत करते हैं’। गजेन्द्र नारायण सिंह लिखते हैं ‘बनैली स्टेट के कुमार श्यामानंद सिंह को बंदिश गाने में जैसी दक्षता हासिल थी कि केशर-बाई से लेकर बड़े-बड़े गाने-बजाने वाले कुमार साहब के फन के कायल थे। यदि विश्वास न हो तो पंडित जशराज से पूछ लिजिए। कुमार साहब से बंदिशें सुनकर यशराज जी बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लग गए कि काश वैसी महारत उन्हें भी हासिल होती।’

गिरिजानंद जी आगे कहते हैं “एक बार प्रसिद्ध गायिका सुश्री केशर बाई चंपानगर आयी हुई थीं। तब उन्हें कुमार साहेब का सर्वाधिक लोकप्रिय भजन ‘दुःख हरो द्वारिका नाथ’ सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उक्त भजन की प्रस्तुति से वे इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इस भजन को सीखने की इच्छा व्यक्त की । वे बाकायदा गंडा बाँध कर कुमार साहेब की शागिर्द बनने को तैयार हो गयीं।कुमार साहब से यह भजन सीख कर केशर बाई ने कई अवसरों पर इसे प्रस्तुत भी किया और हर बार श्यामानन्द जी का जिक्र करती रहीं। आगरा वाले उस्ताद विलायत खाँ ने अपनी पुस्तक ‘संगीतज्ञों के संस्मरण’ में लिखा है ‘बिहार में कुमार श्यामानंद सिंह से बेहतर संगीत के मर्मज्ञ और कद्रदाँ नहीं हैं’।

कुमार श्यामानन्द सिंह के कई शागिर्द हुए। पर कोई भी उनकी उँचाईयों को न छू सका। ऐसा कहा जा सकता है उनके किसी शिष्य में संगीत की बारीकियॉ को ग्रहण करने की वह क्षमता नहीं थी जिससे वे श्यामानंद सिंह के सच्चे और लायक शागिर्द कहलाते। उनके शागिर्दों में से एक होने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ।भारी मन से मैं यह कबूल करता हूँ कि मैंने उनसे विद्या ग्रहण करने में कभी वह निष्ठा और एकाग्रता नहीं रखी जो मुझसे अपेक्षित थी। इस बात का पछतावा मुझे जीवन भर रहेगा। कुमार श्यामानंद अखिल भारतीय संगीत नाटक एकेडेमी के प्रांतीय प्रतिनिधि थे।इतना ही नहीं वे सरिसव ग्राम स्थित ‘विश्वेश्वर कला निकेतन’ के प्रधान संरक्षकों में से एक थे।विश्वेश्वर कला निकेतन ने ही श्यामानन्द को संगीत भास्कर की उपाधि से सम्म्मानित किया था।

साल 1994: कुमार श्यामानंद सिंह की अंतिम मंच प्रस्तुति, स्थान: पूर्णिया कला भवन

इलाहाबाद के प्रयाग संगीत समिति के प्रधान संरक्षकों में से एक राजकुमार श्यामानन्द सिंह भी थे। उन्होंने 19 दिसंबर, 1948 को इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में कनवोकेशन भाषण प्रस्तुत किया था। पूर्णिया प्रान्त में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ‘कलाकार संघ’ नामक एक संगीत संस्था की स्थापना की जिसके तत्वावधान में पूर्णिया में कई संगीत सम्मेलनों का आयोजन किया गया। कई वर्षों तक वे ‘कला भवन पूर्णियाँ’ के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे और बाद में उन्हीं के संरक्षण में 1991ई0 में श्यामानंद सारंग नामक एक संगीत संस्था का गठन किया गया। ध्यातव्य है कि जीवन के अंतिम दिनों में हर सप्ताह ‘सारंग’ में पधार कर श्यामानन्द जी शिक्षार्थियों को शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया करते थे।

अखिल भारतीय संकीर्तन महामण्डल के सक्रिय सदस्य के रूप में कुमार श्यामानंद सिंह का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। पूर्णियाँ, कटिहार, सहरसा, मधेपूरा, सुपौल और किशनगंज जिले के हर छोटे बड़े कीर्तन समारोह में वे अपनी उपस्थिति से लोगों को उत्साहित करना नहीं भूलते थे। अगम्य और बीहड़ स्थानों पर भी वे अपनी मोटर कार हाँकते हुए पहुंचकर लोगों को अचंभित कर देते थे। कीर्तन-धर्म के प्रति उनके इस अखण्ड निष्ठा ने जनसाधारण को इतना प्रभावित किया कि वे राजर्षि के रूप में पूजनीय हो गए। जीवन के अंतिम दिन में आकाशवाणी के क्रेन्द्रीय संग्रहालय द्वारा उनके गायन और इंटरव्यू की सात घंटे की रिकॉर्डिंग की गई जो दिल्ली के अभिलेखागार में सुरक्षित है।

क्रमशः

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