​बिहार का सत्यानाश(8)😢 विशेष कहानी ✍ श्रीकृष्ण सिन्हा भी “भूमिहार” थे और अनंत सिंह​ -​ सोनू​ -​ मोनू भी “भूमिहार” ही हैं​ – ‘ये कहां आ गये हम – यूँ ही साथ साथ चलते !!!’

बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा 

मोक़ामा / बेगूसराय / पटना और नई दिल्ली : यह कहना अक्षरशः ग़लत होगा कि बिहार में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का कारखाना है। बिहार की वर्तमान आबादी के मद्दे नज़र शिक्षा और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं की तैयारी बिहार से बिना प्रवास लिए संभव नहीं है। अपवाद छोड़कर, शायद ही कोई ईश्वर प्रदत्त अभ्यर्थी होंगे, जो प्रदेश में रहकर, यहाँ की शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़कर, परीक्षा देकर, अव्वल आये होंगे। 

संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में अव्वल आने वाले अभ्यर्थियों की यदि पड़ताल की जाए तो परीक्षा – परिणामोपरांत जब दिल्ली के कर्तव्य पथ पर ‘बिहारी है बिहारी है’ चिल्लाया जाता है, औसतन सभी अभ्यर्थी परीक्षा की तैयारी दिल्ली या बिहार से बाहर अन्यत्र किए होते हैं। जिन्हें शिक्षित होकर देश, दुनिया में नाम अर्जित करना है, वे प्रदेश के सरहद को पार कर जाते हैं। 

लेकिन जब राजनीति करने की, नेता, बाहुबली, दबंग बनने की बात होती है तो इसका उत्पादन बिहार में ही होता है, यह भी सत्य है। नेता बनने, बाहुबली बनने, दबंग बनने में शिक्षा की ज़रूरत नहीं होती। विश्वास नहीं है तो साठ के दशक के बाद से बिहार में राजनीति का अपराधीकरण या अपराधियों का राजनीतिकरण संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण कर लें जो पटना सचिवालय के साथ-साथ सभी राज्यों की अदालतों सहित, पटना उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड कक्ष में मुद्दत से रखा है। 

आज स्थिति यह है की सत्ता के गलियारे में जमे रहने के लिए कभी नेता और अपराधी एक साथ दो दूनी आठ करते हैं,  तो कभी आठ पंचे अस्सी। विगत पाँच दशकों में इस तरह के सांठगांठ से बने नेता और अपराधी या बाहुबलियों की संख्या निःसंदेह भा.प्र.से. के अधिकारियों से कई गुणा अधिक है। परिणाम यह कि आज ऐसे नेताओं से संरक्षित, सुरक्षित बाहुबलियों के सामने भाप्रसे अधिकारियों की स्थिति भी भींगी बिल्ली जैसी ही है।

बिहार की राजधानी और सत्ता के सिंहासन से न तो मोकामा दूर है और ना ही बेगूसराय। यहाँ तक कि जो उस रास्ते कभी गंगा पार किये होंगे वे मोकामा और बेगूसराय के बीच की दूरी को भी जानते होंगे। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वर्तमान केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नीतिन गडकड़ी की सोच से आज भले चार-छह-आठ पंक्ति वाली आवक-जावक सड़क देश को एक कोने से दूसरे कोने को जोड़ती हो, मोकामा और बेगूसराय की दूरी आज भी 33 किलोमीटर से अधिक नहीं हुई है और इसे पूरा करने में अधिकाधिक 40 मिनट का समय लगता है। 

लेकिन गंगा के किनारे बसा इन दोनों शहरों की मिटटी को गंगा नदी की पवित्र धारा भले मुद्दत से धोती आयी हो, कल इन शहरों में अगर कलम की तेज धार वाले रामधारी सिंह दिनकर जैसे लोग जन्म लिए, तो वहीँ, उसी भूमि पर कामदेव सिंह और अनंत सिंह जैसे व्यक्ति भी जन्म लिए, पले, बड़े हुए। अब तो सोनू-मोनू जैसे महारत भी फल-फूल रहे है। आखिर कोई तो अवश्य है, जो आज सह दे रहा है, मात देने के लिए।

सत्तर, अस्सी के ज़माने में जब पटना से प्रकाशित चार अख़बारों में – आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट और प्रदीप में भूमिहार समाज के संभ्रांतों के बारे में तत्कालीन पत्रकार लोग लिखते थे, तो अक्सरहां ‘उपसर्ग’ और ‘प्रत्यय’, ‘छंद’ और ‘हलन्त’ का इस्तेमाल नहीं ही करते थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, एक तरफ जहाँ कलम-दवात भी सूखता गया, अपराधी से नेता और फिर नेता से बाहुबली बने लोगों के सामने वे भी शांत होते गए। इतना ही नहीं, हालात तो यह भी हो गई की प्रदेश का अपना अखबार, पत्र-पत्रिका भी मृत्यु को प्राप्त किया।

खैर, पहले बुद्ध-महावीर-चाणक्य की धरती पर भूमिहार समाज के राजनेताओं को जानते है। बंगाल से बिहार का अस्तित्व आने के बाद बिहार के श्रीकृष्ण सिन्हा प्रदेश का कमान संभाले। वे बिहार के शेखपुरा जिले के मौर गांव से थे। उनके विधानसभा कालखंड में ही विधान सभा के पहले अध्यक्ष बने राम दयालु सिंह। सिंह जी मुजफ्फरपुर के गंगवा गांव से थे। मुजफ्फरपुर में आज भी एक प्रसिद्ध कॉलेज उनके नाम से अंकित है। 

कृष्णकांत सिन्हा

श्री कृष्णकांत सिंह भी भूमिहार ब्राह्मण समाज के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। पटना स्थित नालंदा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के संस्थापक भी थे। सिंह जी श्री कृष्ण सिन्हा के मंत्रालय में मंत्री भी रहे और, कहा जाता है कि भोला पासवान मंत्रालय में ‘वास्तविक’ मुख्यमंत्री थे। भागलपुर और रांची विश्वविद्यालय की स्थापना के मुख्य सृजन कर्ताओं में उनका नाम लिया जाता है। इसी क्रम में वैशाली जिले के मूल निवासी और श्री बाबू के बहुत नजदीकी थे महेश पी डी सिन्हा। गंगा के उस पार मुजफ्फरपुर इलाके में शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अक्षुण्ण था। आज भी उनके नाम पर एक विज्ञान महाविद्यालय है।

चंद्रशेखर सिंह बिहार विधानमंडल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उपनेता और सीपीआई की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे।चंद्रशेखर सिंह 1934 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के माध्यम से राजनीति में आए। उस समय वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थे। वे 1938 में बिहार छात्र संघ के पहले महासचिव चुने गए। 1940 में वे सीपीआई में शामिल हो गए और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 1949 में उन्हें अखिल भारतीय रेलवे हड़ताल के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने 1949 से 1956 तक किसान सभा में काम किया। 1956 के उपचुनाव में वे कम्युनिस्ट टिकट पर बिहार विधानसभा के लिए चुने गए। वे 1962 से लगातार बिहार विधानसभा के सदस्य रहे। 1967 में वे एसवीडी सरकार में बिजली और सिंचाई मंत्री बने। वे सीपीआई विधायक दल के उपनेता भी थे। वे श्री राम चरित्र प्रसाद सिंह के पुत्र थे।

श्री इंद्रदीप सिन्हा जिन्होंने पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर में स्वर्ण पदक प्राप्त करके शानदार शैक्षणिक जीवन का निर्माण किये, देश की राजनीतिक स्वतंत्रता और लोगों के सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए जीवन पर्यन्त लड़े। साल 1974-1986 (दो कार्यकाल) तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए राज्यसभा के सदस्य भी रहे। वे प्रदेश में कैबिनेट मंत्री भी रहे। अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव के रूप में किसान आंदोलन में उनका योगदान बहुत बड़ा था। उन्होंने लगभग 25 किताबें लिखी और उनका लेखन लोगों के मुद्दों के लिए प्रतिबद्ध अगली पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश है। 

प्रसिद्ध कांग्रेस नेता श्याम नंदन प्रसाद मिश्र भी महत्वपूर्ण है। मिश्र, पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में भी थे। कहने को तो वे नेपाल के “पिपारा” के मूल निवासी थे, लेकिन बेगूसराय में राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने कड़ी मेहनत की और 1977 में वे मोरारजी देसाई के मंत्रालय में राज्य विदेश मंत्री के रूप में शामिल हुए। लंगट सिंह और उनके पुत्र दिग्विजय नारायण सिंह को कौन नहीं जानता। इसी तरह ललितेश्वर प्रसाद शाही जिन्होंने बहुत कम उम्र में श्री बाबू के मंत्रालय में शामिल हुए। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि शाही जी बिहार में लगभग सभी कांग्रेस मंत्रालयों में काम किया। बाद में श्री राजीव गांधी ने 1985 में एल पी शाही को मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रालय में शामिल किया। 

राजो सिंह 

इसी तरह, राजो सिंह का नाम लिया जाता है। एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक के रूप में अपना जीवन शुरू किया था उन्होंने।  बाद में शेखपुरा और बेगूसराय का प्रतिनिधित्व किया लोक सभा में। वे कभी चुनाव नहीं हारे। 2005 में उनकी हत्या कर दी गई। बिहार के “चाणक्य” के नाम से चर्चित महेश्वर प्रसाद सिंह छपरा, रामपुर के मूल निवासी हैं। वे जनता पार्टी, बिहार के महासचिव, भाजपा के संस्थापक सदस्य और भाजपा के उपाध्यक्ष, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष, एक राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, खादी बोर्ड के सदस्य और अन्य कैबिनेट रैंक के पदों पर रहे। वे मोरारजी देसाई के करीबी सहयोगी थे। श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा को कैसे भुलाया जा सकता है। श्रीमती सिन्हा पंडित जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री भी रही। इसी तरह, छपरा स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से छह बार कांग्रेस एमएलसी रहे  महाचंद्र प्रसाद सिंह का नाम भी महत्वपूर्ण है। 

पद्मश्री सी.पी.ठाकुर भी इसी समाज के हैं। बिहार सरकार में पूर्व मंत्री और बिहार की अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष रामजतन सिन्हा। कई बार बिहार में जल संसाधन विभाग के मंत्री रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में बिहार के स्वास्थ्य मंत्री चंद्र मोहन राय। बेगूसराय बिहार से लोकसभा सदस्य और जनता दल-यू के राज्य प्रमुख  राजीव रंजन सिंह ‘ललन’ । फिर गिनिए श्याम सुंदर सिंह धीरज को जिन्होंने मोकामा से राजनीतिक नेता, आपातकाल और जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद कांग्रेस की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे 15 साल से अधिक समय तक बिहार में युवा कांग्रेस के नेता रहे। वे बिहार के सबसे युवा कैबिनेट मंत्री थे उन दिनों। 

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पद्मश्री डॉ. सीपी ठाकुर

इसी तरह राम जनम शर्मा बिक्रम वाले। आपको याद भी होगा कि अटल जी ने उन्हें पटना के सबसे प्रमुख भूमिहार के रूप में सराहा था। बड़हिया के कपिलदेव सिंह जिन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व वे युवा छात्र के रूप में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय थे। स्वतंत्रता के पश्चात वे एक सक्रिय समाजवादी नेता थे और 1977 की जनता पार्टी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। मुजफ्फरपुर के बाबू ब्रज किशोर सिंह जिन्होंने जेपी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किए थे। अविभाजित बिहार के कोडरमा के सांसद रहे तिलकधारी सिंह, 70-80 के कालखंड के प्रमुख नेता और तीन बार विधायक रहे पूर्वी चम्पारण के राय हरिशंकर शर्मा, मोतिहारी के डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह, घोसी विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक हैं, जो लगातार सातवीं बार इस सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जगदीश शर्मा आदि। भूमिहार ब्राह्मण समुदाय के ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका नाम आज भी सम्मान के साथ, बिना भय के लिया जा सकता है, लिया जाता है। 

अगर बिहार में जातिगत सर्वेक्षण रिपोर्ट को मानें तो जनसंख्या में भले ब्राह्मण और राजपूत अधिक दिखाया गया है, लेकिन उच्च जाति में राजनीतिक रूप से सर्वाधिक सबल जाति भूमिहार की जनसंख्या 2.86 प्रतिशत है। उनसे अधिक जनसंख्या ब्राह्मणों व राजपूतों की है। 1931 में भूमिहारों की जनसंख्या 2.9 प्रतिशत हुआ करती थी। हालांकि, तब बिहार और उड़ीसा संयुक्त प्रांत थे। इन वर्षों में इस समाज की जनसंख्या में कोई अप्रत्याशित परिवर्तन नहीं हुआ है। वैसे लोग बाग कहते हैं कि प्रदेश की राजनीति में भूमिहार समाज की भूमिका प्रबल है। लेकिन यह व्यावहारिक रूप से देखते हैं तो लोग भले उन्हें ‘निर्णायक’ समझें, हकीकत यह है कि वे ‘अनुयायी’ हैं सिंहासन पर बैठे लोगों का। यहाँ दिनकर की कविता को ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ हुंकार मारने की कूबत आज नहीं हैं उनमें। 

वैसे, फिल्म सेंसर बोर्ड, कोलकाता (सूचना प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार) के सदस्य और पत्रकार अनूप नारायण सिन्हा का मानना है कि “वैसे बिहार में लोगों का कहना है कि जातीय जनगणना में बिहार में ब्राह्मण और राजपूत के बाद भले भूमिहार की संख्या दिखाई गई हो पर बिहार के मौजूदा पॉलिटिक्स में अपर कास्ट में भूमिहार राजनीतिक शक्ति में नंबर एक स्थान पर है। बिहार के ऊंची जातियों में फिलहाल सबसे सशक्त राजनीतिक रूप से अगर कोई उच्च जाति है तो वह है भूमिहार। लोकसभा चुनाव 2024 में इस जाति के तीन सांसद बिहार से निर्वाचित हुए हैं जिनमें से दो को केंद्रीय मंत्री बनाया गया, साथ ही साथ इसी बिरादरी से आने वाले विजय कुमार सिन्हा को बिहार का उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया है। इससे पहले विजय कुमार सिन्हा मौजूदा विधानसभा में ही विधानसभा अध्यक्ष फिर नेता प्रतिपक्ष भी बनाए गए थे। डॉक्टर सीपी ठाकुर के बदले उनके बेटे विवेक ठाकुर, जो भूमिहार जाति से आते हैं, को राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था।”

पत्रकार अनूप नारायण सिन्हा

सिन्हा का मानना है कि “2024 के लोकसभा चुनाव में हुए नवादा से सांसद निर्वाचित हुए हैं। बेगूसराय के सांसद गिरिराज सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल में है। तो बेगूसराय से ही ताल्लुक रखने वाले राकेश सिन्हा राज्यसभा के सांसद है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अखिलेश सिंह भी इसी जाति से ताल्लुक रखते हैं लगातार दूसरी बात इन्हें राज्यसभा भेजा गया है। जनता दल यूनाइटेड में ललन सिंह एक बड़ा चेहरा है जिन्हें जनता दल यूनाइटेड के कोटे से मोदी मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री बनाया गया है। बिहार के पॉलिटिक्स में विजय कुमार चौधरी नीतीश कुमार के बाद पार्टी में नंबर 2 की स्थिति में हैं ।” 

सिन्हा आगे लिखते हैं: “बिहार में लोकसभा वार अगर चर्चा करें तो वर्तमान में बेगूसराय नवादा और मुंगेर तीन ऐसी सीट है जहां भूमिहार जाति के सांसद है। महाराजगंज ऐसी सीट है जहां पर यह जाति दूसरे स्थान पर वोट बैंक के आधार पर रही।बिहार की राजनीति में भूमिहार वोटर बेगूसराय नवादा शेखपुरा जहानाबाद गया आरा मोतिहारी मुजफ्फरपुर तथा महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र में गेम चेंजर की भूमिका में है। बिहार में नए जातीय जनगणना रिपोर्ट के अनुसार संख्या बल में उच्च जाति में भूमिहार को तीसरे स्थान पर बताया गया है। हालांकि इस बार के लोकसभा चुनाव में कई ऐसे बड़े दिग्गज चेहरे इस समाज के रहे जिनके साथ राजनीतिक पार्टियों ने छल भी किया उसमें सबसे बड़ा नाम जहानाबाद के पूर्व सांसद अरुण कुमार का रहा दूसरा नाम सूरजभान सिंह के भाई चंदन सिंह का रहा। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में भूमिहार पॉलिटिक्स और ज्यादा प्रखर होने की उम्मीद जताई जा रही है।” 

जीतन राम मांझी की पार्टी हम सेकुलर के प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी भूमिहार जाति से आने वाले विधायक अनिल कुमार के हाथ में है जो जहानाबाद के पूर्व सांसद अरुण कुमार के छोटे भाई हैं हालांकि अरुण कुमार बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो चुके हैं। एनडीए के पास मोकामा के पूर्व विधायक अनंत सिंह पूर्व मंत्री महाचंद्र प्रसाद सिंह लोजपा रामविलास के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हुलास पांडे पूर्व मंत्री जीवेश कुमार जैसे आधा दर्जन नेता है जो अपने समाज का वोट ट्रांसफर करवाने की ताकत रखते हैं। खैर। 

लोग तो यह भी कहते हैं कि भाजपा के कद्दावर नेता कैलाशपति मिश्र (अब दिवंगत) भी भूमिहार समाज से थे। आज कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह भूमिहार हैं। कन्हैया कुमार भी भूमिहार हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के राज्य सचिव कुणाल भी भूमिहार हैं, जनता दल के नेता विजय चौधरी भी भूमिहार ही हैं – लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भूमिहार समाज में ही नहीं, प्रदेश की सर्वांगीण राजनीति में इनका कितना महत्व है। शायद कुछ नहीं। और इसका सबसे बड़ा कारण है – एकता का अभाव। यहाँ मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना का सिद्धांत अपनाया जाता है जैसे राजपूतों में, ब्राह्मण में। 

बीबीसी के रजनीश कुमार लिखते हैं कि बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का निधन जनवरी 1961 में हुआ था। उनके निधन के बाद बिहार की राजनीति ने अलग करवट ली। फरवरी 1961 में विधायक दल के नेता का चुनाव हुआ और इसमें भूमिहार विरोधी ख़ेमा बिनोदानंद झा के नेतृत्व में पूरी तरह से एकजुट हो गया। बिनोदानंद झा ने इस चुनाव में भूमिहार जाति के महेश प्रसाद सिन्हा को मात दी और झा प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बने।  प्रदेश की राजनीति में यह पहली घटना थी ब्राह्मण मुख्यमंत्री होने का। राजनीति के लोग चाहे जो भी स्वर और व्यंजन लगाकर व्याख्या करें, सत्य तो यह था कि श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा के बाद भूमिहार और राजपूत का वैसे नेता दूसरा नहीं हुआ। आज भले स्वयंभू निर्णायक समझें, हकीकत यह है कि आज राजनीतिक गलियारे में स्वयं को जीवित रखने के लिए वे ‘परजीवी’ बन गए हैं। बिहार के निर्माण में इन दोनों नेताओं की भूमिका एक वृहत शोध का विषय है। परन्तु आज शोध का विषय वस्तु बदल गया है। 

अब संख्या की बात करते हैं। राज्य की कुल आबादी में भूमिहार समाज का करीब 6 प्रतिशत वोट है जबकि इसके बाद ब्राह्मण, राजपूत व कायस्थ का स्थान है। करीब 17 प्रतिशत मुस्लिम और 12 प्रतिशत यादव वोट के दम पर 15 सालों तक बिहार में शासन करने वाला राष्ट्रीय जनता दल अगर 6 प्रतिशत भूमिहार समाज को अपने साथ करने में सफल हो जाता है तो यह वोट बैंक का कुल 35 प्रतिशत हो जाता है, जो सत्ता के दरवाजे को खोलने में काफी हद तक निर्णायक हो जाता है। प्रदेश में ओबीसी/ईबीसी 46%, यादव 12%, कुर्मी 4%, कुशवाहा (कोइरी) 7%, (आर्थिक रूप से पिछड़े 28% जिसमें 3.2% तेली भी आएंगे), महादलित/दलित (अनुसूचित जातियां) 15% (इस श्रेणी में चमार 5%, दुसाध/पासवान 5% और मुसहर 1.8% समुदाय आते हैं), मुस्लिम 16.9% (इसमें सुरजापूरी, अंसारी, पसमांदा, अहमदिया जैसे कई समुदाय आते हैं। तथाकथित अगड़ी जातियां 19%, भूमिहार 6%, ब्राह्मण 5.5%, राजपूत 5.5%, कायस्थ 2%, अनुसूचित जनजातियां 1.3%, अन्य 0.4% सिक्ख, जैन और ईसाई हैं। 

वैसे आंकड़ा यह कहता है कि बिहार विधानसभा में हर चार विधायक में से एक उच्च जाति के हैं। राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से करीब 64 विधायक सवर्णों से चुनकर आए। विगत चुनाव में कुल 28 राजपूत विधायक जीतकर आए थे जबकि 2015 में 20 विधायक ही जीते थे। इसी प्रकार 2.86 प्रतिशत वाले भूमिहार समुदाय करीब 4 गुना अधिक विधायक बनने में कामयाब हुआ था। करीब 21 भूमिहार विधायक चुनकर पहुंचे थे जबकि 2015 में 17 विधायक चुने गए  थे। इसी तरह करीब 12 ब्राह्मण विधायक चुनाव जीते थे जबकि 2015 में 11 विधायकों ने जीत हासिल की थी 

सत्य हिंदी में राजेश कुमार का कहना है कि करीब तीन दशक तक बिहार की राजनीति में हाशिये पर रहने वाले भूमिहार हाल के दिनों में बिहार की राजनीति में क्यों खास हो गए। रामजतन सिन्हा का कहना है कि बिहार में 90 के दशक में लालू प्रसाद ने सवर्णों के खिलाफ दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा को एकजुट कर एक मजबूत फ्रंट बनाया, जो अब खंड-खंड में विभक्त हो गया। इसके बिखरने के बाद सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि बिहार में सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने के लिए एकजुट सवर्णों को अपने पक्ष में करना होगा। इसके बाद से ही बिहार में सभी राजनीतिक दल सवर्णों को अपने पक्ष में करने की  कवायद शुरू कर दी है। चूंकि भूमिहारों ने सवर्णों में सबसे ज्यादा फ्रंट में रहकर लालू प्रसाद के ‘भूरा बाल साफ करो अभियान’ का विरोध किया इसलिए सभी राजनीतिक दलों की ये पहली पसंद बन गए हैं। 

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कुमार आगे लिखते हैं: “लालू यादव का मुखर विरोध करने वाले भूमिहार लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव के भी प्रिय हो गए हैं। भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच फाउंडेशन की ओर से आयोजित परशुराम जयंती पर तेजस्वी यादव ने कहा कि अगर भूमिहार समाज औऱ यादव एकजुट हो जाएं तो कोई हमें सत्ता से दूर नहीं कर सकता। तेजस्वी के इस अपील के बाद से बिहार की राजनीति में भूमिहारों का कद बढ़ने लगा। भूमिहारों को अपना वोटर समझने वाली बीजेपी ने भी अपने रुख में परिवर्तन किया और उन्हें एक बार फिर से सम्मान देना शुरू कर दिया। बीजेपी ने सदन में विजय कुमार सिन्हा को विधायक दल का नेता बना दिया। वे भूमिहार हैं। कांग्रेस ने ब्राह्मण की जगह भूमिहार जाति से आने वाले अखिलेश प्रसाद सिंह को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह भी इसी जाति से आते हैं। लोजपा (रामविलास) प्रमुख चिराग पासवान ने भी भूमिहार जाति से संबंध रखने वाले डॉ अरुण कुमार को अपनी पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद दिया है। यानि भूमिहारमय हो गया बिहार, लेकिन स्वयं नहीं, अन्य कुछ लाभ उन्हें दिया और सारा लाभ स्वयं डकार गए। 

कामदेव सिंह (दिवंगत)

आइये चलते हैं बेगूसराय और वह भी अस्सी के दशक में तत्कालीन केंद्रीय और राज्य की सत्ता द्वारा एक भूमिहार के विरुद्ध षड्यंत्र देखने । 18 अप्रैल 1980 की सुबह कामदेव सिंह अपने गांव के नजदीक ही गंगा के किनारे ठेके के काम की निगरानी के लिए आए हुए थे। तभी अचानक से तीन तरफ से घेरेबंदी कर चुकी टुकड़ियों ने धावा बोला। लोग कहते हैं कि स्वयं को बचबने के लिए उन्होंने गंगा में छलांग लगा दी। लेकिन हकीकत यह था कि उनके पीछे दिल्ली का आदेश और पुलिस अधीक्षक रणधीर प्रसाद वर्मा की अगुआई वाली बन्दुक से सैकड़ों गोलियों की बौछार थी। गंगा में समाने से पहले पुलिस के साथ साथ पटना और दिल्ली के नेतागण आस्वस्त हो गए थे कि ‘कामदेव हतोगत्वा’ – चार पाँच घंटों तक गोताखोरों के बाद उनका शव हाथ लगा। जिसकी शिनाख्त उनकी पत्नी और माँ ने की।

सिंह की मौत के प्रसंग में वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा लिखा भी कि “ललित नारायण मिश्र की मौत के बाद उनके भाई जगन्नाथ मिश्र बिहार के सबसे बड़े और शक्तिशाली कांग्रेसी नेता बन गए जो उसी दौरान 11अप्रैल 1975 से 30 अप्रैल 1977 तक बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे। उन्होंने भी जरुरत पर कामदेव सिंह की सेवाओं का भरपूर लाभ उठाया। लेकिन बिहार की राजनीति में भूमिहारों की संख्या के मुकाबले ज्यादा वर्चस्वशाली भूमिका से निपटने का रास्ता भी उन्हें कामदेव सिंह के खात्मे में ही नजर आया। उस दिन कामदेव सिंह की मौत के बाद सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों ने पूरी जाति को गालियाँ दीं और जश्न मनाया. सत्ताधारियों ने वहीं से एक पूरी जाति को निशाना बना कर अपनी राजनीति बिहार में चमकानी शुरु कर दी,लोग चाहे जो भी कहते रहें लेकिन बिहार में जाति की राजनीति के असली सूत्रधार जगन्नाथ मिश्र ही थे।”

वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा

कामदेव सिंह 1930 में मटिहानी के गंगा दियारा में स्थित नयागांव स्थानीय बोली में लावागाँव में एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्म लिए थे। वे अपने पिता के साथ बैलगाड़ी चलाने से शुरुआत की। यह कहा जाता है कि तत्कालीन मुंगेर जिले में स्थित वर्तमान बेगूसराय के चट्टी बाजार में पल्लेदारी का भी उन्होंने काम किया। समयांतराल वे डकैतों के संपर्क में आए और वहाँ से होते हुए गाँजे का अवैध व्यापार के बेताज बादशाह बन बैठे। उनका नाम गाँजा, इलेक्ट्रॉनिक सामान, स्टील से लेकर यूरेनियम तक की तस्करी में आया था। 1970 के दशक में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी और सरकार में कामदेव सिंह के लिए काम करने वाले और उनसे जुड़े लोगों की गिनती निश्चित नहीं की जा सकती थी। दूसरी तरफ कामदेव सिंह अपने इलाके के गरीब लोगों के लिए भगवान का रुतबा रखते थे। लोग बाग़ यह भी कहते हैं कि हर साल सौ गरीब लड़कियों की शादी अपने खर्चे पर कराते थे। हारी बीमारी, दुर्घटना, आपदा झेल रहे अपने इलाके और उनसे जुड़े लोगों के लिए वो पैसा पानी की तरह बहाते थे। उनके लिए वे भगवान थे। 

जबकि दूसरी ओर, बिहार विधानसभा की एक समिति ने अपनी 1974 की रिपोर्ट में कहा था, “सरकार के विभाग एक दूसरे के खिलाफ काम करते थे पुलिस कामदेव गिरोह को अगर खत्म करना चाहती तो दूसरे कई लोग और विभाग उसे मजबूत करने में लगे थे।”  बिहार, नेपाल, उत्तर प्रदेश, बंगाल, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक उनका आपराधिक साम्राज्य फैला हुआ था। उनके  मुंबई अंडरवर्ल्ड में भी गहरी पैठ थी। कहा जाता है उन्होंने अपने जीवन में एक सीनियर ब्यूरोक्रेट सहित सौ लोगों की हत्या कराई थी। उनके आपराधिक साम्राज्य के खिलाफ खड़े हुए कस्टम कलेक्टर एस एन दासगुप्ता की जयपुर में हत्या कर दी गई थी।”

कहते हैं कि 1975 में इंदिरा गांधी ने देशव्यापी आपातकाल घोषित की जो 1977 तक चली थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया ने इसका समर्थन किया था। जिसकी वजह से आनेवाले वर्षों में कम्युनिस्टों के कांग्रेस से बड़े मधुर संबंध बने। उधर, बेगूसराय के ही कम्युनिस्ट नेता सूर्यनारायण सिंह 1980 में सांसद बने और उन्होंने जोरशोर से कामदेव सिंह के खिलाफ संसद में भी मामले को उठाया था। यानी कम्युनिस्टों के साथ अपने नए बने समीकरण की जड़ में श्रीमती गांधी ने अपने ही खास सिपहसालार रहे कामदेव सिंह की जान को खाद बना कर देना स्वीकार किया। चूंकि कामदेव सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के लिए लंबे अरसे से नासूर बने हुए थे सो उनकी बलि काँग्रेस-कम्युनिस्ट गठबंधन की वेदी पर चढाई गई।

इतना ही नहीं, कामदेव सिंह की मौत का परवाना लेकर स्वयं तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री जैल सिंह को दिल्ली से पटना आना पड़ा था। तब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था और जगन्नाथ मिश्र राज्य में सबसे महत्वपूर्ण नेता के तौर पर थे। जैल सिंह ने मिश्र से कामदेव सिंह का मृत शरीर मांगा और मिश्र ने नजरें झुका हामी भरींं। 1978 में रणधीर वर्मा बेगूसराय के एसपी बने। उन्हें कामदेव सिंह एंड कम्पनी के खिलाफ सख्ती बरतने की हिदायत मिलने लगी थी। लगभग दो साल की घेराबंदी के बाद उन्हें घेरा जा सका। 1980 में कामदेव सिंह पर सरकार द्वारा 10,000 का इनाम घोषित किया गया। कहते हैं जब कामदेव सिंह के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बाबत योजना बनाई जा रही थी तो उनके जलाल से आतंकित हो कर बिहार पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए थे। तब CRPF की एक विशेष टुकड़ी को बिहार पुलिस की मदद के लिए लगाई गई। सब समय है। 

सूरजभान सिंह

अब आइये गैंग की बात करें।  कहा जाता है कि प्रदेश के बाहुबलियों और राजनीतिक गलियारे में बैठे लोगों के बीच ३६  नहीं, बल्कि ६३ का नाता है। पटना जिले के मोकामा में जन्मे सूरजभान सिंह की कहानी काफी दिलचस्प है। समय के साथ उनके अपराध का सूरज भी उनकी उम्र के साथ बढ़ता गया। सूरजभान पहले बाहुबली बने, फिर विधायक और फिर सांसद। साल 80 के दशक में सूरजभान छोटे-छोटे अपराध को अंजाम देते थे। लेकिन 90 के दशक में उनके अपराध की रेखाएं ऊपर की ओर उन्मुख हो गई। यह भी कहा जाता है कि पूर्व मंत्री बृज बिहारी की हत्या में भी सूरजभान सिंह भी आरोपी बने थे। यह अलग बात है कि सूरजभान सिंह को बरी कर दिया गया था।  

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मुन्ना शुक्ला

बिहार की राबड़ी सरकार में मंत्री रहे बृज बिहारी प्रसाद की हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे मुन्ना शुक्ला भी बाहुबलियों में से एक हैं। मुन्ना शुक्ला 90 के दशक के एक बाहुबली बने। मुन्ना शुक्ला का बड़ा आपराधिक इतिहास रहा है। मुन्ना शुक्ला के भाई छोटन शुक्ला और भुटकुन शुक्ला का भी अपराध की दुनिया में नाम रहा है। गैंगवार में छोटन सिंह और भुटकुन शुक्ला की हत्या हो गई। 

बिहार के बाहुबलियों में से एक सुनील पांडेय का किस्सा काफी दिलचस्प रहा है। 1998 में बिहार के मुंगेर के मिर्जापुर गांव में नदी, कुओं, खेतों से 20 एक-47 बरामद हुए थे। तहकीकात में पता चला कि ये सभी एके-47 जबलपुर ऑर्डिनेंस डिपो के थे। इस मामले की जांच एनआईए ने शुरू की. और एनआईए ने साल 2019 में बिहार के कई शहरों में छापेमारी की तो सबसे चौंकाने वाला नाम सामने आया सुनील पांडेय का। सुनील पांडेय के खिलाफ हत्या से लेकर अपहरण तक के मामले दर्ज हैं। सुनील पांडेय के नाम का चर्चा और तब तेज हो गया, जब बाहुबली मुख्तार अंसारी को मारने के लिए 50 लाख की सुपारी देने की चर्चा शुरू हुई। 

सुनील पांडे

हुलास पांडे सुनील पांडे के भाई हैं। कहा जाता है कि पिता कामेश्वर पांडे की हत्या के बाद हुलास पांडे ने जरायम की दुनिया में कदम रखा। हुलास पर दो दर्जन से अधिक मामले दर्ज हैं। हुलास पांडे का नाम रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया हत्याकांड में आ चुका है। हुलास पांडे का आरा और बक्सर में काफी दबदबा है। हुलास पांडे के ऊपर हत्या, हत्या का प्रयास, हत्या की धमकी, रंगदारी, वसूली के साथ हथियारों की तस्करी तक के आरोप लगे हैं। इसी तरह, धूमल सिंह की चर्चा किए बिना बिहार के बाहुबलियों की चर्चा पूरी नहीं होती है। 1978 से लेकर अगले कई वर्षों तक धूमल सिंह पुलिस की मोस्ट वांटेड की लिस्ट में शामिल रहे। बाहुबली धूमल सिंह पर बिहार, यूपी, झारखंड, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में 174 से अधिक मामले दर्ज हैं। लोग बाग इन्हें मनोरंजन सिंह के नाम से भी जानते हैं। 

आशुतोष कुमार लिखते हैं “राजद के खिलाफ तमाम भूमिहार बाहुबलियों के बाहुबल का बखूबी इस्तेमाल कर मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार जी ने भाजपा के साथ मिलकर बारी-बारी से उन तमाम बाहुबलियों को ठिकाने लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिनके बदौलत पौने दो प्रतिशत आबादी वाले नीतीश कुमार जातीय राजनीति की फैक्ट्री कहे जाने वाले बिहार का मुख्यमंत्री बन पाए थे। किसी का नाम लेना उचित नहीं लेकिन नजर उठाकर देख लीजिए, संघर्ष के दिनों में नीतीश कुमार का साथ देने वाले आज कोई भूमिहार बाहुबली नीतीश के इर्द गिर्द नज़र नहीं आते, नीतीश कुमार के हंटर से अधमरा हो चुके एक आधे लोग अगर आज भी अपनी भलाई देखते हुए नीतीश का गुणगान करते नजर आ रहे हैं तो यक़ीन मानिए अब वे बाहुबली नहीं रहे बल्कि दोनों हाथ उठाकर सरेंडर कर चुके भीगी बिल्ली बन कर मजबुरी में नीतीश कुमार के चरण पखार रहे हैं।”

नीतीश कुमार और अनंत सिंह

बिहार के बाहुबलियों का जिक्र हो और अनंत सिंह का नाम ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। इसलिए बेगूसराय से कोई 33 किलोमीटर दूर मोकामा पहुँचते हैं बाहुबली अनंत सिंह के क्षेत्र में। सिंह बिहार के मोकामा निर्वाचन क्षेत्र से विधायक और जनता दल (यूनाइटेड) पार्टी के पूर्व सदस्य हैं। वे आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहे हैं और उन पर कई आरोप लगे हैं। उनका जन्म नदावन में हुआ था। साल 2005 में जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर मोकामा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीते। लोग बाग़ उन्हें छोटे सरकार के नाम से भी जानते हैं। दस साल बाद, 2 सितंबर 2015 को जेडीयू छोड़ दिया और राष्ट्रीय जनता दल के साथ जेडीयू के नए गठबंधन को लेकर नेता नीतीश कुमार के साथ हो गए। अपने बड़े भाई दिलीप सिंह की मृत्यु के बाद अनंत सिंह उभरे।  

वैसे मोकामा विधानसभा सीट 1990 के बाद से ही सुर्खियों में रही है। इस सीट से अनंत सिंह के बड़े भाई दिलीप सिंह भी विधायक रहे हैं। सिंह को मोकामा की राजनीति अपने बड़े भाई से ही विरासत में मिली है। 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। अपने घर में AK-47 रखने के मामले में निचली अदालत ने 2022 में 10 साल की सजा सुनाई थी। लेकिन, पटना हाई कोर्ट ने बीते दिनों सबूतों के अभाव में उन्हें 16 अगस्त 2024 को बरी कर दिया। कहते हैं अनंत सिंह पर 38 आपराधिक मामले दर्ज हैं। 2022 में अनंत सिंह सजायाफ्ता घोषित हुए, जिसके बाद यहां विधानसभा का चुनाव कराया गया। सिंह ने अपनी जगह पत्नी नीलम देवी को मैदान में उतार दिया और वे इस सीट से जीतने में कामयाब रही। 

बहरहाल, विगत दिनों मोकामा के नौरंग जलालपुर गांव में गोलियों की तड़तड़ाहट जब सुनी गई तो गांव में अफरातफरी मच गई। लोग बाग़ कहते हैं कि गोली चलना आम बात है, लेकिन ऐसी गोलियों की तड़तड़ाहट बहुत दिनों बाद सुनाई दी। कोई कहता है 70 राउंड गोलिया चली तो कोई कहते हैं 700 राउंड।  लेकिन जो प्राथमिकी दर्ज हुआ उसमें गोल मटोल बातें की गयी। यह गोली काण्ड अनंत सिंह और सोनू-मोनू गैंग के बीच थी। यह कहा जाता है अनंत सिंह और सोनू-मोनू गैंग, दोनों ही इस इलाके के बड़े कारोबार में अपना दबदबा रखते हैं। 

मोकामा, बाढ़, पटना और बिहार के पूरे दियारा इलाके में कभी अनंत सिंह की तूती बोलती थी। छोटे सरकार के नाम से जाने जाने वाले अनंत सिंह भूमिहार वोट के कारण एक से ज्यादा राजनीतिक दलों के प्रिय बने रहे। यह भी कहा जाता है कि ये वही अनंत सिंह हैं, जिन्होंने चुनाव के दौरान नीतीश कुमार को चांदी के सिक्कों से तौलवा दिया था। अनंत सिंह बाढ़ के NTPC प्रोजेक्ट के बेताज बादशाह माने जाते हैं। यहीं श्रमिक ठेकेदारी का काम सोनू और मोनू भी करते हैं। सोनू और मोनू अपराध की दुनिया में पिछले 10 वर्षों में दोनों ने खासा दबदबा बनाया है। 

अनंत सिंह और सोनू-मोनू और उनके पिताजी

वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा कहते हैं “आपसी वर्चस्व के लिए गैंगवार की घटनाएं मोकामा इलाके के लिए कोई नई बात नहीं रही है। अनंत सिंह और सोनू मोनू प्रकरण भी उसी का एक हिस्सा कहा जा सकता है। अनंत सिंह के गांव नदवां और सोनू मोनू के गांव नौरंगा के बीच की दूरी करीब 40 किलोमीटर है। पिछले एक दशक में सोनू मोनू ने अपने पंचायत नौरंगा जलालपुर, जो पटना जिला के पूर्वी दिशा में पहला पंचायत है, वहां अपनी मजबूत पकड़ बनाई है। पिछले कई चुनाव में चाहे 2014 का लोकसभा का चुनाव हो, 2015 का विधानसभा का चुनाव हो, 2019 का लोकसभा चुनाव हो, 2020 का विधानसभा चुनाव हो या 2022 का मोकामा विधानसभा उपचुनाव हो। इन तमाम चुनाव में उसने नौरंगा के इलाके में जिसे समर्थन किया वही उम्मीदवार वहां लीड करने में सफल रहे। एक तरीके से यह अनंत सिंह के लिए बड़ी चुनौती भी है।”  

शर्मा आगे कहते हैं कि “अगस्त 2024 में जब अनंत सिंह एके 47 और ग्रेनेड बरामदगी मामले में पटना उच्च न्यायालय से बाइज्जत बरी हुए तो नौरंगा गए थे। वहां सोनू मोनू के घर भी गए जबकि 2022 के उप चुनाव में सोनू मोनू उनके विरोध में था और इसका नुकसान भी अनंत को हुआ था। यह मुलाकात अनंत सिंह की ओर से एक पहल थी कि हमारे साथ ना सही हमारे विरोध में भी नहीं रहो। हालांकि इस बार जब मुकेश सिंह नाम के शख्स की पिटाई और घर पर तालाबंदी का मामला सामने आया तो अनंत सिंह ने सोनू मोनू को सबक सिखाने के मकसद से ही उनके गांव में जाकर पंचायती करने का फैसला लिया था। लेकिन दांव उल्टा पर गया और स्थिति गोलीबारी तक आ गई।”

बहरहाल, राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संजय कुमार का मानना है कि “अब राजनीतिक दलों में बाहुबली को लेकर कोई कॉन्सेप्ट नहीं रह गया है। यदि बाहुबलियों के आने से भूमिहार समाज का वोट उनके पक्ष में आता है तो किसी भी राजनीतिक पार्टी को कोई परहेज नहीं है।”

क्रमशः …..

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