कहते हैं श्रीमती शारदा सिन्हा अपने गीतकारों, शब्दकारों को वह सम्मान नहीं दीं, मदद का हाथ नहीं बढ़ायीं जिसका वे सभी हकदार थे 😢 आपको नमन शारदाजी 🙏

श्रीमती शारदा सिन्हा - आपको नमन और श्रद्धांजलि आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम के तरफ से

पटना / दरभंगा / समस्तीपुर / इण्डिया गेट (नई दिल्ली): सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से जिन शब्दों को, जिनके शब्दों को गा-गा कर श्रीमती शारदा सिन्हा संगीत की दुनिया में उत्कर्ष पर पहुंचीं, पद्मश्री, पद्मभूषण नागरिक सम्मान से अलंकृत हुई, देशज से विदेशज समागम में श्रोताओं के बीच अपना हस्ताक्षर की, उन गीतों के शब्दकारों को, गीतकारों को, लेखकों को कभी वे आर्थिक मदद के लिए न हाथ पकड़ीं और ना ही, उस उनके शब्दों के सम्मान को सार्वजनिक की, होने दीं, जिसका वे सभी शब्दकार हकदार थे – चाहे श्री कपिल देव ठाकुर ‘स्नेहलता’ हों, चाहे डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’ हों चाहे ह्रदय नारायण झा हों – सच तो यही है।

शारदा सिन्हा 2018 से मल्टिपल मायलोमा से जूझ रही थीं। यह एक तरह का ब्लड कैंसर है। इसमें बोन मैरो में प्लाज्मा सेल अनियंत्रित तरीक़े से बढ़ने लगता है और इससे हड्डियों में ट्यूमर्स बनने लगता है। श्रीमती सिन्हा का जीवन कल छठ पर्व के प्रारंभिक दिवस को सूर्योदय के साथ सूर्यास्त हो गया । आपको नमन और श्रद्धांजलि श्रीमती शारदा सिन्हा जी।

बहरहाल, कहानी को आगे बढ़ाते हैं। आज से साढ़े अट्ठारह वर्ष पहले (11-05-2006) को लता मंगेशकर की एक चिठ्ठी आयी। वह चिट्ठी मेरी चिट्ठी का और दूरभाष पर की गई बातों का जबाब था। उस वर्ष मार्च के महीने में भारत रत्न शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपने जीवन के अंतिम वसंत में मृत्यु से पहले दिल्ली के इण्डिया गेट परिसर में शहनाई वादन करना चाहते थे, कुछ पल के लिए ही सही।

उनकी इच्छा थी कि शहनाई वादन से, शहनाई के घुन से देश की आज़ादी में अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाले सभी हुतात्माओं को, शहीदों को आमंत्रित करें। वे यह नहीं जानते थे कि इण्डिया गेट पर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के शहीदों का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है, लेकिन जिनके भी नाम अंकित हैं, उनकी आत्मा को कुछ पल स्वतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली की ह्रदय में, इण्डिया गेट परिसर में बैठाकर शहनाई सुनाकर पुनः स्वस्थानम गच्छ: करें। मैं बिस्मिल्लाह खान, उनकी शहनाई, डुमरांव, बनारस, गंगा आदि पर कार्य कर एक किताब बनाया था उन्हें उनके जन्मदिन पर प्रस्तुत करने के लिए। किताब का नाम था ‘मोनोग्राफ ऑन उस्ताद बिस्मिल्लाह खान।’ सन 2006 के मार्च महीने के 21 तारीख को उनका 91 वां जन्मदिन था।

उनके जन्मदिन के दो सप्ताह पहले बनारस पर आतंकवादियों का प्रहार हुआ हो गया। संकटमोचन सहित कई स्थानों पर बम्ब फेंके गए थे। कई लोग हताहत हुए। कई अपने प्राणों को उत्सर्ग किये थे। बिस्मिल्लाह खान अपना जन्मदिन नहीं मनाये उस दिन। उनका कहना था कि ‘मेरा बनारस रो रहा है, फिर मैं जन्मदिन कैसे मनाऊं ?’ वे ह्रदय से बोल रहे थे। उनकी आखों से आंसू निकल रहे थे। उनकी बात बनारस के बिश्वनाथ की बात थी।

जन्मदिन का कार्यक्रम 21 मार्च को रद्द हुआ और चार दिन बाद 25 मार्च को उनके घर के दूसरे तल्ले के छोटे से कमरे के बाहर बरामदा पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उस दिन 91 किलो का केक बना था। दिल्ली के दरियागंज स्थित निहालसंस आभूषणालय से तीन किलो का चांदी की शहनाई लेकर गया था। साथ में सैकड़ों किताब जो लोगों को बांटना था। उस किताब का प्रकाशन एयरटेल के मालिक श्री सुनील मित्तल के सहयोग से हुआ था। बिस्मिल्लाह खान आये। उनका स्वागत सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक किये। अब तक कई सौ लोग उपस्थित हो गए थे। उस्ताद को तीन किलो चांदी की शहनाई, डेढ़ लाख रुपये हाथ में रखकर उन्हें जन्मदिन का मुबारकबाद दिया गया। वे केक भी खाये और आदेश भी दिए कि ‘देखना कोई छूट न जाए।’

वहां उपस्थित लोगों के बीचभारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान मेरी पत्नी श्रीमती नीना झा का हाथ पकड़कर कहे: “आप दरभंगा की बेटी और बहु दोनों हैं। आप मेरी एक इच्छा पूरी कर दें। मैं इण्डिया गेट पर शहनाई बजाना चाहता हूँ।” और फिर शुरू हो गया प्रयत्न। गृह मंत्रालय दशकों से कवर करने के कारण मंत्रालय में दिक्कत नहीं हुई। तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल तत्काल आदेश दिए दिल्ली पुलिस को और 15 जुलाई को कार्यक्रम निर्धारित हुआ। इण्डिया गेट पर किसी भी कार्यक्रम के लिए लगा प्रतिबन्ध हटाया गया उस दिन। 15 जुलाई को भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के अलावे भारत रत्न अमर्त्य सेन (उनके बेटी के साथ आनंद बाजार पत्रिका समूह में कार्य किया था), भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम (राष्ट्रपति), भारत रत्न सितार सम्राट पंडित रविशंकर, भारत रत्न लता मंगेशकर आदि की उपस्थित ‘प्रार्थित’ थी।

तभी 11-05-2006 को लता मंगेशकर की एक चिठ्ठी आयी जिसमें लिखा था : “As I already explained to you over phone I regret to state that due to extreme and unbearable heat in the north especially in New Delhi, it will not be possible for men to reach New Delhi for the above function in July 2006.” दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय द्वारा आदेशित तिथि 15 जुलाई, 2006 था। परन्तु कार्यक्रम नहीं हो सका उस्ताद की बिमारी के कारण और वे 21 अगस्त, 2006 को शहनाई को अपने सराय हरहा घर पर रखकर हेरिटेज अस्पताल में अंतिम सांस लिए। उस्ताद चुकि शहीदों के बारे में बात किये थे, यहीं से भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रांतिकारियों, शहीदों के आज के वंशजों की खोज प्रारम्भ हुई। अब तक 75 वंशजों को ढूँढना और छह किताबों से छह का जीवन बदलना, तीन का विवाह कराना राष्ट्रीयता का एक जीवन दृष्टं है – यह मैं समझता हूँ।

लता मंगेशकर की चर्चा यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि बहुत बड़ा कलाकार होना और कलाकार का दूसरों के साथ आत्मीय होना, उसकी भावना का कद्र करने में फर्क होता है। ऐसी बहुत सारी बातें शारदा सिन्हा जी के साथ भी थी । आज न लता मंगेशकर हैं और शारदा सिन्हा भी अंतिम सांस ले ली हैं, लेकिन अपने जीवन में उन्मुख होने, बढ़ने के क्रम में शारदा सिन्हा उन सभी लोगों का हाथ नहीं पकड़ीं जिनके शब्दों को स्वर देकर संगीत की दुनिया में नाम कमायीं। यह शब्द पढ़ने, सुनने में बहुत कष्टकारक है, बिहार ही नहीं संगीत की दुनिया के लोगों कर्णप्रिय और पठनीय नहीं लगेगा, लेकिन यह सत्य है। आज पटना में जो सत्तर-अस्सी के ज़माने के लोग जीवित होंगे, जिन्होंने शारदा सिन्हा को मंच दिए, उनके लिए शब्दों का विन्यास किये, गीत के बोल लिखे – हमसे बेहतर जानते हैं।

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आइये पटना जंक्शन से ऐतिहासिक गाँधी मैदान की ओर जाने वाली सड़क मजहरुल हक़ पथ (फ़्रेज़र रोड) के रास्ते भारतीय नृत्य कला मंदिर महुँचते हैं। उन दिनों नृत्य कला मंदिर में प्रवेश के लिए आकाशवाणी, पटना के मुख्य प्रवेश द्वार से जाना होता था। वैसे सन 1975 में भारतीय नृत्य कला मंदिर ही नहीं, पटना का यह पूरा हिस्सा जलमग्न हो गया था, लेकिन अभी हम उसे हादसे से तीन साल पहले चलते हैं। सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्ष (1971-72) में भारतीय नृत्य कला मंदिर में एक कार्यक्रम था।

शारदा सिन्हा उन दिनों

उस दिन से पूर्व तक शारदा सिन्हा को ‘संभवतः’ बिहार के लोग या पटना के लोग नहीं जानते थे। उस कार्यक्रम के कर्ताधर्ता थे श्री जयनाथ मिश्र। श्री मिश्र पटना के मछुआ टोली (आर्य कुमार रोड) में रहते थे। राजेंद्र नगर की दिशा से जब आर्य कुमार रोड में प्रवेश करते है, दाहिने हाथ दिनकर भवन (राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’) और श्री छवि नाथ पाण्डे के घरों के बीच से जाती गली के अंतिम सिरे पर श्री जयनाथ मिश्र का घर (था) आज भी हैं। इस घर के पहले श्री तारा नंद झा का घर है। इसी घर में मैं अपना बचपन जिया हूँ। श्री मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र के ससुर थे।

अनेकों गणमान्यों के कहने पर जयनाथ मिश्र शारदा सिन्हा को कुछ काल के लिए मंच देने को तैयार हुए। यह भी कह सकते हैं कि इस मंच के माध्यम से शारदा सिन्हा की एक संगीत परीक्षा का आयोजन किया गया था। उन दिनों शारदा सिन्हा की आयु 22 वर्ष रही होगी। उस कार्यक्रम में शारदा सिन्हा की प्रस्तुति सभी ने सराहा। जयनाथ मिश्र चेतना समिति के अध्यक्ष थे। अलावे वैदेही कला केंद्र के कर्ता-धर्ता कमलनाथ सिंह ठाकुर सभी कर्त्ता धर्ता को उनकी प्रस्तुति अच्छा लगा । वजह भी था – उन दिनों बिहार में कोई भी महिला कलाकार नहीं थी या कोई भी महिला ‘गीत-नाद’ को अपने जीवन का प्रमुख अंग नहीं बना पायी थी। ​यह कार्यक्रम महाकवि विद्यापति पर ग्रामोफोन कंपनी एचएमवी द्वारा बनाये गए कैसेट का उद्घाटन के लिए आयोजित किया गया था।

इस कार्यक्रम के बाद पटना आकाशवाणी के श्री छत्रानन्द सिंह झा यानी बटुक भाई (अब दिवंगत), श्री गौरी कांत चौधरी ‘कान्त’ यानी ‘मुखिया जी’ शारदा जी को कवि कोकिल विद्यापति के सम्मान में आयोजित होने वाला वार्षिक चेतना समिति कार्यक्रम के मंच के तरफ आने को कहा। चेतना समिति बिहार का एक मात्र मंच था जहाँ कलाकारों को आगे बढ़ने का मौका मिलता था। चेतना समिति के प्रथम अध्यक्ष थे बाबा नागार्जुन। इससे पूर्व चेतना समिति वैदेही कला केंद्र के नाम से जाना जाता था।

उन दिनों पटना से प्रकाशित अख़बारों में लिखने वालों में प्रमुख थे श्री भाग्य नारायण झा, श्री काली कांत झा (आर्यावर्त), श्री जीवन मोय दत्त, श्री कृष्णा नंद सिंह (इण्डियन नेशन) जिन्होंने इनके बारे में बहुत लिखे। लेकिन दुर्भाग्य की बात उन दिनों से ही रही की शारदा सिन्हा के गीतों के लेखकों को कभी वह सम्मान नहीं मिला, उन लोगों को कभी भी सार्वजनिक रूप से आगे नहीं आने दिया गया, अख़बारों में उनके बारे में नहीं लिखा गया जो शब्दों को चुनते, बुनते, विन्यास कर शारदा सिन्हा के मुख तक पहुंचते थे।

उन दिनों के गीतकारों में श्री कपिल देव ठाकुर ‘स्नेहलता’, डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’,श्री हृदयनारायण झा प्रमुख रहे। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि तत्कालीन पत्रकारों ने भी इन गीतकारों को शारदा सिन्हा की सफलता के पीछे खड़ा स्तम्भ नहीं समझें। ‘विकल’ जी स्वयं मैथिली साहित्य के धनुर्धर थे, साथ ही पत्रकार भी थे। आर्यावर्त. मिथिला मिहिर में प्रदेश के नामी-गरामी लोगों, यहाँ तक कि पत्रकारों, सम्पादकों का अन्तर्वीक्षा लेकर उन्हीं के अख़बारों में, पत्रिकाओं में प्रकाशित करते थे। आर्यावर्त में श्री हीरानंद झा ‘शास्त्री’ और मिथिला मिहिर के श्री सुधांशु शेखर चौधरी का अन्तर्वीक्षा उन दिनों काफी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ था। खैर।

डॉ विकल जी

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’ कहते हैं “साल सन 1979 था शारदा जी वहां आयी और मैं महिला कालेज, समस्तीपुर में एक साल बाद सं 1980 । शारदा जी इस कालेज से पहले भी विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान मुलाकात हुई थी, एक दूसरे को जानते थे, लेकिन कालेज आने के बाद सम्बन्ध में प्रगाढ़ता बड़ी। संगीत और कला से सम्बंधित महाविद्यालय अथवा बाहर जहाँ भी कोई कार्यक्रम का आयोजन होता था, प्राचार्य महोदय मुझे ही संयोजन बना देते थे। संगीत से सम्बंधित जो भी अभ्यास / रियाज की बात होती थी, मेरी उपस्थिति अवश्य होती थी।

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सन 1980 में आकाशवाणी के श्री बटुक भाई शारदा जी को चेतना समिति में मंच दिए। उन दिनों श्री बटुक भाई आकाशवाणी के “चौपाल” कार्यक्रम में तो कार्य करते ही थे, चेतना समिति में भी उद्घोषक होते थे। उनकी भाषा, शब्दों में मधुरता श्रोताओं को बाँध कर रखता था। चेतना समिति का मंच, वैसे तो मैथिली भाषा-भाषियों का था, लेकिन उस कालखंड में एक ऐसा मंच था जो सैकड़ों कलाकारों को अवसर देकर आगे बढ़ाया था। शारदा जी भी उन कलाकारों में एक थीं।

विकल जी आगे कहते हैं: “अस्सी के दशक में पटना ही नहीं, बिहार के अनेकानेक मंचों से दर्जनों छठ का गीत गया गया। वैसे शारदा जी के द्वारा बनाये गए कैसेट्स में मेरे गीतों की संख्या बहुत अधिक नहीं है, लेकिन अपने जीवन काल में वे मंच से जितना भी गीत गायी, मेरे शब्द थे। नब्बे के दशक में दिल्ली में एक संगीत समारोह हो रहा था। शारदा जी दिल्ली में थी। समारोह में शारदा जी को फगुआ (होली) गीत गाना था। लेकिन तत्काल होली का गीत नहीं था। शारदा जी फोन कर कहीं कि जल्दी एक गीत लिख दें। हम गीत लिखें। धुन बनाये। फोन पर ही उन्हें धुन सुनाया, फिर रियाज़ कराया, फिर उसे फैक्स किया। लेकिन हम तो कहीं रहे ही नहीं। सामा-चकेवा का दो गीत हमने लिखा। “खेलs चलली भौजी संग सहेली भैय्या जीवsहो”, “चुगला-चुगली” हमने लिखा। लेकिन कभी भी, किसी भी कार्यक्रम में, मंच से वे सार्वजनिक रूप से गीतकारों का नाम नहीं ली। स्वाभाविक है कि श्रोता गायक को ही गीतकार भी समझेंगे। उनके संगीत जीवन में जितने भी गीतकार हुए, सबों का यही हश्र हुआ।”

यह सच है कि 1 अक्टूबर 1952 को जन्मी शारदा की मातृभूमि के देहाती खेतों से लेकर पहचान के भव्य मंच तक की यात्रा उनके अटूट समर्पण और असाधारण प्रतिभा का प्रमाण है। बेगूसराय जिले के सिहमा गांव में रहने वाले उनके ससुराल वालों के कारण, उन्हें छोटी उम्र से ही इस क्षेत्र की समृद्ध संगीत परंपराओं से परिचित कराया गया था। संगीत के साथ उनका लगाव तब शुरू हुआ जब उन्होंने अपने घर के हरे-भरे परिदृश्यों में गूंजने वाले दिल को छू लेने वाले मैथिली लोकगीतों को अपनी आवाज़ दी। यह एक संगीत यात्रा की शुरुआत थी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनके जीवन काल में उनकी सांस्कृतिक यात्रा के दौरान जिन-जिन शब्दकारों ने, गीतकारों ने उनका साथ दिए, उनके लिए शब्दों को सजाये, गीत लिखे, गीत-राग बनाये, शारदा सिंह उन्हें उनका यथोचित सम्मान (आर्थिक मदद की बाद नहीं करेंगे) नहीं दे पायी।

यह भी सच है कि “द्वार के छेकाई देके पहिले चुकइयौ हे दुलरुआ भैया – तब जहियौ कोहबर अपन, हे दुलरुआ भैया” गीत से शारदा सिन्हा मैथिली-भोजपुरी संगीत की दुनिया में उत्कर्ष पर पहुंची, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह गीत समस्तीपुर जिले के दरोड़ी गाँव के श्री कपिलदेव ठाकुर ‘स्नेहलता’ जी की कीर्त्ति है। श्री स्नेहलता का जन्म 1909 में हुआ और वे अपने जीवन का अंतिम सांस 1993 में लिए।

उन्होंने अपने जीवन काल में विवाह, संकीर्तन, विनय पदावली, शिववाणी, चेतावनी, झूला-संकीर्तन, सीतावतरण प्रबन्धकाव्य आ स्नेहशतक- दोहावली-कवित्त आदि मिथिला की महिला वर्ग और संकीर्तनकार के कंठ मे परिव्याप्त है। आज भी लोकमंगलक अनुष्ठानों में व्यापक रूप से उनकी कीर्तियाँ व्यवहृत है। सम्मानित स्नेहलता जी का “वैदेही विवाह” मिथिला की कीर्तनिया नाट्य परम्परा के लोकरुचि के अनुसार है। यह भी कहा जाता है कि स्नेहलता मिथिला के भक्त कवियों में सर्वोपरी रहे।

विगत दिनों साहित्य अकादमी द्वारा ‘स्नेहलता’ पर एक ‘मोनोग्राफ’ भी निकला गया है जिसके रचयिता हैं डॉ. योगानंद झा। श्री झा मैथिली भाषा साहित्य हेतु प्रतिबद्ध लेखन एवं क्षेत्रानुसन्धान में निपुणता प्राप्त हैं। लोकजीवन और साहित्य, आलेख संचयन, मैथिली शक्त साहित्य, मोहन सेनापति, बिहार का लोक कथा, आदि लेखन के हस्ताक्षर हैं। सं 1998 से 2002 तक साहित्य अकादमी में मैथिली परामर्शदात्री समिति का सदस्य भी रहे। इसके अतिरिक्त पी सी राय चौधरी लिखित ‘दी फाँक टेल्स ऑफ़ बिहार ​का मैथिली में अनुवाद किये।

मैथिली साहित्य के हस्ताक्षर डॉ योगानंद झा से जब पूछा कि ‘स्नेहलता का योगदान मिथिला में साहित्य, संस्कृति, गीत, संगीत में अद्वितीय हैं। आप स्नेहलता पर मोनोग्राफ लिखे हैं। क्या शारदा सिन्हा जब स्नेहलता की रचनाओं का इस्तेमाल की थी, अपने संगीत के जीवन काल में कभी स्नेहलता को वह सम्मान या आर्थिक सहायता कि जिसके वे हकदार थे? डॉ. झा कुछ क्षण रुके, फिर कहें ‘मेरी जानकारी में शारदा जी दस गीतों को ली थी गाने के लिए। उन्हें कहा गया था की आप गा सकती हैं लेकिन उससे कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ या फिर कभी स्नेहलता का नाम भी नहीं लिया गया। कई मर्तबा उन्हें शब्दों को बदल दिया गया।”

शारदाजी के कलात्मक योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता तब मिली जब उन्हें संगीत जगत में उनके असाधारण योगदान के लिए 1991 में प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद 2018 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो भारत का तीसरा सबसे बड़ा नागरिक पुरस्कार है, जिसने संस्कृति और कला में उनके महत्व को और भी रेखांकित किया।

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कल जब शारदा जी अंतिम सांस लीं, उससे पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे बात की थी और हर तरह की मदद का आश्वासन दिया था। संयोग है कि जिस छठ महापर्व के गीतों के लिए शारदा सिन्हा ज़्यादा जानी जाती हैं, उसी पर्व के दौरान उनका देहांत हुआ। निधन पर शोक जताते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने एक्स पोस्ट में लिखा है, ”सुप्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा जी के निधन से अत्यंत दुख हुआ है। उनके गाए मैथिली और भोजपुरी के लोकगीत पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय रहे हैं। आस्था के महापर्व छठ से जुड़े उनके सुमधुर गीतों की गूंज भी सदैव बनी रहेगी। उनका जाना संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिजनों और प्रशंसकों के साथ हैं. ओम शांति!”

शारदा सिन्हा की गायकी करियर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी। सिन्हा ने भोजपुरी, मैथिली और हिन्दी में कई लोकगीत गायी। उनकी गायकी में बिहार से पलायन और महिलाओं के संघर्ष को काफ़ी जगह मिली है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शोक जताते हुए कहा है, ”शारदा सिन्हा के छठ महापर्व पर सुरीली आवाज़ में गाए मधुर गाने बिहार और उत्तर प्रदेश समेत देश के सभी भागों में गूंजा करते है। उनके निधन से संगीत के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति हुई है।” लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती राबड़ी देवी और तेजस्वी प्रसाद यादव ने निधन पर गहरी शोक जताया। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक्स पर लिखा है, ”अपनी मधुर आवाज़ के लिए प्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा जी के निधन की ख़बर बेहद दुखद है। उनके शोकाकुल परिजनों एवं प्रशंसकों के ‌प्रति अपनी गहरी संवेदनाएं व्यक्त करता हूं।”

शारदा सिन्हा का जन्म साल 1953 में बिहार के सुपौल के हुलास गाँव में हुआ था। उनके पिता बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने उनमें गायकी के गुण देखने के बाद उसे सींचने का फैसला किया था। पिता सुखदेव ठाकुर ने 55 साल पहले दूरदर्शिता दिखाते हुए उन्हें नृत्य और संगीत की शिक्षा दिलवानी शुरू कर दी थी और घर पर ही एक शिक्षक आकर शारदा सिन्हा को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने लगे थे. शारदा सिन्हा के 9 भाई-बहनों में सबसे बड़े वाले भाई का निधन हो चुका है। शारदा सिन्हा भाई-बहनों में सातवें नंबर पर थीं। उनके बाद दो और उनके छोटे भाई हैं। लोक गायिका शारदा सिन्हा की कहानी संघर्ष, संगीत और परिवार के रिश्तों की मिसाल है।

पिछले दो दशक से शारदा सिन्हा के साथ, उनकी गायकी के साथ जुड़े बिहार सरकार के संस्कृत अकादमी में सहायक पद से सहायक निदेशक के पद की दूरी तय कर अवकाश प्राप्त करने वाले श्री ह्रदय नारायण झा कहते हैं: “शारदा जी से मेरी मुलाक़ात पटना दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में हुआ। उस समय टी -सीरीज का आगमन हो चूका था उनके जीवन में, जहाँ तक गीतों के रिकार्डिंग का सवाल है। मेरे कार्यों से से वे प्रभावित थी। उस समय एक गीत लिखा गया “सकल जगतारिणी हे छठि मैय्या – सभक शुभकारिणी हे छठि मैया”, जो काफी प्रसिद्धि प्राप्त किया। मधुबनी के रहने वाले गीतकार हृदय नारायण झा शारदा सिन्हा के लिए कुल 9 छठ गीत लिखे हैं, चार भोजपुरी गीत लिखे, पांच मैथिली गीत लिखे, तीन भोलेनाथ का गीत और तीन हिंदी गीत लिखे।

जिस छठ के गीत से शारदा सिन्हा को विश्वख्याति मिला, करीब 55 मिलियन श्रोता सुने – “पहिले पहिल हम कईनी, छठी मईया व्रत तोहार – करिहा क्षमा छठी मईया, भूल-चूक गलती हमार” के गीतकार भी हृदय नारायण झ। आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम जब पूछा कि आप उनके जीवन काल में तक़रीबन दो दर्जन से अधिक गीतों का सृजन किये, शब्दों को सजाये, भाग-भंगिमा दिए, राज दिए; आपको उन गीतों को लिखने के लिए शारदा जी क्या दिए? आपके गीतों से शारदा जी पिछले दो दशक में कहाँ से कहाँ पहुंची? आप का हाथ आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से पकड़ीं अथवा नहीं। आपको और आपके शब्दों को जो सार्वजनिक सम्मान मिलना चाहिए था, मिला या नहीं? वे मुस्कुराने लगे। लेकिन यह कहते भी नहीं रुके कि उन दिनों हम सभी नियमों को नहीं जानते थे कि गीतकार भी कागज पर करारनामा बनता है।”

“दुखवा मिटाईं छठी मईया” <जो शारदा सिन्हा के जीवन का आखिरी गीत है, इस गीत का गीतकार भी हृदय नारायण झा ही हैं। सोहर, समदाउन और न जाने कितने महत्वपूर्ण गीतों का सृजन किये ह्रदय से ह्रदय नारायण जी। उन्हीं गीतों में “कातिक मास इजोरिया सप्तमी तिथि आयल रे – ललना देव माता आदित्यक पुत्र आदित्य अवतरण ले लेलन हे”, लाखों-लाख, करोड़ों लोगों ने इन शब्दों को सुना। विश्व भर में शारदा जी की गायकी को सराहा गया। लेकिन शारदा जी कभी गीतकारों को सामने नहीं लायीं, उनके शब्दों के बारे में श्रोताओं को नहीं बतायीं – यह दुखद है। टी-सीरीज से एल्बम भी बना। स्वाभाविक है टी-सीरीज रॉयल्टी भी देता ही होगा। लेकिन (अपवाद छोड़कर) किसी भी गीतों के लिए, शब्दों के लिए, कभी भी गीतकार को वह सम्मान और सराहना नहीं मिला, जिसका वह कहदार था। आर्थिक लाभ की बात नहीं करें।

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