रफ़ी मार्ग – रायसीना रोड – राजेंद्र प्रसाद रोड और नवनिर्मित संसद का गोल चक्कर (नई दिल्ली): भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और रायसीना पहाड़ी के नाम से अंकित सड़कें जब नवनिर्मित संसद द्वार के सामने वाले गोल चक्कर से टकराती है, प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के अंतिम छोड़ पर जमीन पर खड़े राजनीति शास्त्र के दो धनुर्धर राष्ट्र की वर्तमान स्थिति के बारे में चर्चा कर रहे हैं। आगे-पीछे-सामने से आती-जाती दो पैर वाले मानव से लेकर चार-आठ पहिये वाले वाहनों का पों-पां-पों-पां उनके वार्तालाप में तनिक भी खलल नहीं दे पा रहा है। बीच-बीच में भारत के संसद की ओर से निकलकर आम रास्ता पर चलने वाली गाड़ियों से सायरन की आवाज गूंजती हैं, तो कभी सामने पीपल पेड़ के नीचे सफ़ेद-बैगनी वस्त्र में दिल्ली यातायात पुलिस की सिटी वातावरण की हवाओं को बेध रहा है। आसमान में सूर्यदेव पृथ्वी पर सत्ता के इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के बाएं कनपट्टी को सेक रहे हैं।
मैं एक कंधे पर झोला और दूसरे पर कैमरा लटकाये खड़ा हूँ। आवक-जावक में कई परिचित चेहरे है तो कई अपरिचित। दिल्ली शहर ही नहीं, देश में भले पत्रकारिता का स्तर पाठकों और दर्शकों की नज़रों में दिल्ली नगर निगम के अवरुद्ध नालों जैसा हो गया हो, लेकिन आज भी ऐसे सम्मानित पाठक और दर्शक हैं जो पत्रकारों को देखकर सम्मान के साथ मुस्कुराते हैं। मेरी सफ़ेद मूंछ शायद मेरी पत्रकारिता जीवन का दृष्टान्त दे रहा है उनकी नज़रों में। इस क्षण मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुभव हो रहा है। इस सल्तनत में कोयला सी काली मूंछ लेकर तत्कालीन दक्षिण बिहार के कोयलांचल से आया था।
इसी पों-पां के बीच कभी चश्मे को नाक पर चढ़ाते तो कभी नाक से उतारते एक शास्त्रार्थी कहते हैं : “वैसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 95(1) के अनुसार यदि लोकसभा अध्यक्ष का पद रिक्त है तो अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए उपाध्यक्ष की आवश्यकता होती है। संसदीय नियमों में अध्यक्ष के सभी अधिकारों को उपाध्यक्ष के लिए भी समान माना जाता है, क्योंकि जब वह सदन की अध्यक्षता करता है तो उपाध्यक्ष के पास भी अध्यक्ष के समान सामान्य शक्तियां होती है। अब अगर तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी श्री ओम बिरला को दूसरी पारी खेलने के लिए चयन कर ही लिए और अध्यक्ष की कुर्सी खाली नहीं है, तो फिर उपाध्यक्ष की आवश्यकता क्या है?
शास्त्रार्थी पूर्वपंथी, पश्चिमपंथी, दक्षिणपंथी या उत्तरपंथी नहीं दिख रहे थे। सड़क पर खड़े हैं और पैरों में धीसा-पीटा चप्पल था जो इस बात का साक्षात् गवाही दे रहा था कि वे भारत का एक आम नागरिक हैं, एक आम मतदाता हैं। उनका कहना है कि पिछली लोकसभा में भी उपाध्यक्ष की कुर्सी किसी को बैठने के लिए तरस गई थी। मोदी जी चाहते हैं कि जो प्रक्रिया उनके आने के पहले से पूर्व के प्रधानमंत्रियों के द्वारा चलाया जा रहा था, यह जरुरी नहीं है कि चले – संविधान में परिवर्तन हो सकता है तो संवैधानिक पदों को भी परिवर्तित किया जा सकता है।”
तभी लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जीवी मावलंकर (15 मई, 1952 से 27 फरवरी, 1956) और तत्कालीन उपाध्यक्ष (जो बाद में लोकसभा के अध्यक्ष 8 मार्च, 1956-31 मार्च, 1962 भी बने) के नाम से अलंकृत मावलंकर हॉल और डिप्टी स्पीकर हॉल के तरफ से तीन विदुषी आते दिखाई दीं। क्षण भर में वे तीनों इन दो महानुभावों से मिलकर पांच हो गए। बातचीत का सिलसिला कुछ क्षण के लिए रुका, लेकिन आगे बढ़ाते फिर कहते हैं “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विद्वान, दूरद्रष्टा, कर्मशील, लोक कल्याण कारक आज़ादी के बाद भारत को नहीं मिला था। यह भारत का भाग्य है कि ऐसे व्यक्ति यहाँ की भूमि पर जन्म लिए। यह पहले व्यक्ति है जो अपने घर जाने वाली सड़क को भी कल्याणकारी शब्द से अलंकृत कर लोक कल्याण मार्ग कर दिए। यह उनकी भलेमानुषता का दृष्टान्त है कि उस सड़क पर आज भी लोगों का आना-जाना प्रतिबंधित नहीं है।
उनमें एक महिला कांग्रेस के युवा नेता राहुल गाँधी और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव का नाम लेकर कहती हैं कि मोदी जी भले अपने को युवा समझें, लेकिन सच तो यह है कि वे 74+ वर्ष हैं। वैसे उनकी योग्यता के बारे में, शिक्षा के बारे में वर्षों अख़बारों के पन्ने रंगे रहे, आधिकारिक उम्र तो यही कहता है। वे भले अपने को ‘सेवक’ कह लें, लेकिन भारत सरकार में कार्य करने वाले सरकारी सेवक से लेकर न्यायपालिका के न्यायविदों तक, सभी तो 60 वर्ष आते आते घर की ओर उन्मुख होना पड़ता है। लेकिन 75 वर्ष की आयु में भी राष्ट्र को संभालना और प्रत्येक माह अपने मन की बात बताकर स्वयं हल्का करना और दूसरे को अश्रुपूरित कर देना, उन्हें अपना-अपना कर्तव्यबोध याद दिलाना – यह भी तो पृथ्वीराज कपूर या राजकपूर जैसे कलाकार ही कर सकते हैं।
पिछले लोकसभा में न तो राहुल गाँधी और ना ही अखिलेश यादव का कोई राजनीतिक वजूद था संसद में। लेकिन इस 18 वीं लोकसभा में दोनों युवाओं ने यह तो सिद्ध कर दिया कि उनसे वे दोनों अधिक युवक हैं। कल तक दोनों को जिस दृष्टि से देखा जाता था, या फिर मोदी जी देखे थे, आज नहीं देख पा रहे हैं। संसद में 99 और 37 कुर्सियों पर आधिपत्य जमाकर बैठना और आँख में आँख डालकर मुस्कुराना – यह मजाक तो नहीं है। वैसे भी मोदी जी का चेहरा आगे कर ही 2019 लोक सभा चुनाव में 303 सीट जीता गया था। विगत लोकसभा में अगर 303 की संख्या 240 हो गई तो यह भी इस बात का प्रमाण है कि चेहरे की सुंदरता, भव्यता का असली स्वरुप भारत के मतदाता आंक लिए है। राहुल गांधी अपना चेहरा आगे लाकर 99 की संख्या किए तो यह भी मजाक नहीं है।
राजनीतिक विशेषज्ञ को उद्धृत करते शास्त्रार्थी कहते है कि अपवाद छोड़कर भाजपा में बहुत सांसद हैं जिनकी अपनी छवि नहीं है और वे मोदी जी का मुखौटा पहनकर संसद पहुँचे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इतने सांसद हारते कैसे? या ग़ैर भाजपा राजनीतिक पार्टी के लोग जीतते क़ैसे? अगर इतने वर्षों का जनसंघ या भारतीय जानता पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं का योगदान, यहाँ तक की आडवाणी जी का योगदान, आज नरेंद्र मोदी के योगदान के सामने बौना हो गया है और सभी मोदी है तो मुमकिन है का नारा बुलंद कर रहे हैं, तो यही बात ग़ैर भाजपा पार्टी के साथ भी लागू हो सकता है। नेहरू, इंदिरा राजीव अगर ग़लत किए, जैसा की भाजपा कहती है, इसमें राहुल गांधी का क्या दोष ? अगर आज 240 सांसद मोदी के कारण जीते तो 99 सांसद भी राहुल के पीछे जीते। लम्बी सांस लेते एक शाश्त्रार्थी कहते हैं कि असल में मोदी जी अपनी जीत के आगे किसी और की विजय देखना नहीं चाहते ।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि दोनों महानुभाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के आलोचक हैं या प्रसंशक। शब्दों की कबड्डी भी सीमा रेखा पर ही थी। शारीरिक भाषा का भी तारतम्य ख़राब नहीं था। शब्दों का शास्त्रार्थ गीता में लिखे श्लोकों जैसा था – ऐसा होने से ऐसा और ऐसा नहीं होने से ऐसा । उनकी बातों को सुनकर और उन्हें उन महिलाओं के साथ छोड़कर मैं आगे पत्रकारिता की दुनिया का कभी मक्का माने जाने वाला आईएनएस बिल्डिंग की ओर बढ़ गया। साढ़े तीन दशक पहले इसी भवन से दिल्ली में पत्रकारिता का क ख ग घ सीखा था। लेकिन आज यह भी वीरान है। यहाँ से भी तो पत्रकार बन्धु बांधव के कार्यालयों में वह तेज नहीं रहा, जो पहले था । पहले यहाँ नीम के पेड़ के नीचे संजय की चाय की चुस्की लेते महिला-पुरुष पत्रकार फर्राटेदार अंग्रेजी उवाचते थे, आज कल भाई साहब का बोलबाला हो गया है। संजय भी, जो कभी श्रम शक्ति भवन के प्रवेश द्वार पर श्रम करता था, सड़क के पार चला गया है। ख़ैर। समय के साथ बदलाव आवश्यक है और सम्मानित मोदी जी अगर ‘सोच बदलो – देश बदलेगा’ सोचते हैं तो क्या खराबी है।
उधर, नवनिर्मित संसद की ओर से निकलने वाले सांसदों के मुख पर वह चमक नहीं दिख रहा था जो विश्व के महानतम प्रजातंत्र के सांसदों का होना चाहिए। तीन-सतही मंत्रिमंडल में केंद्रीय, राज्य और स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्रियों के मुख मण्डल पर वह दमक नहीं दिखा रहा है जो 23,59,73,935 करोड़ यानी 36.56 फीसदी मतदाताओं द्वारा चयनित पार्टी के मंत्रियों का होना चाहिए। एक तो पिछले लोक सभा की तुलना में 58 सीटों की करारी हार है, और दूसरे सत्तारूढ़ पार्टी के निगरानी कर्ता (मॉनिटर) का कड़ा प्रहरी – आप सिर्फ मंत्री हैं कुर्सी पर रहें, आनंद लें, शेष कार्य हम कर लेंगे। कहते हैं पिछले दिनों तो प्रधानमंत्री और एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री, जो सामान्यतया प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी थे/हैं अपनी शालीनता, ज्ञान, व्यवहार के कारण, ठन गई थी । आख़िर पार्टी से ऊपर कोई व्यक्ति कैसे हो सकता? लेकिन यहाँ धारणा यह हो गई की मैंने तीन से तीन सौ तीन किया, इसलिए मेरे कारण ही पार्टी है। वैसी स्थिति में इस चौराहे पर चतुर्दिक ‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति!’ यानी मैं ही हूँ शेष सब मिथ्या है। न मेरे जैसा कभी कोई आया न आ सकेगा, हवाओं में अपना अधिपत्य जमाये बैठा है।
ज्ञातव्य हो कि पिछली लोक सभा के 53 मंत्री जो चुनाव में गए, सिर्फ 35 ही जीत कर आये, शेष को मतदाताओं ने निरस्त कर दूसरे को मौका दिया अपनी समस्याओं के समाधान के लिए। इस 18वीं लोकसभा में 41 राजनीतिक पार्टियों के लिए कुर्सियां लगी है जबकि 2019 वाले लोकसभा में 36 पार्टियां लोकसभा में थी। राष्ट्रीय पार्टियां 64 फीसदी सीट जीतकर 346 स्थानों का अधिकार प्राप्त की, जबकि राज्य की राजनीतिक पार्टियां 33 फीसदी सीट जीतकर 179 कुर्सियों का हकदार बनी। भारतीय जनता पार्टी 240 स्थान पाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और सरकार बनायीं जबकि राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी 99 कुर्सियां और समाजवादी पार्टी 37 कुर्सियां अपने नाम सुरक्षित की। 18वीं संसद में महिलाओं की संख्या (74) 17 वीं लोकसभा की तुलना में गिर गई (78) है, भले इनमें से 41 फीसदी यानी 30 महिला सांसद पिछली लोकसभा में ही क्यों न हों, पिछली लोकसभा की तुलना में 37 फीसदी सांसदों के करारी हार के कारण सत्तारूढ़ पार्टी के निगरानी कर्ता के चेहरे पर हंसी कैसे आएगी।
करारी हार के बाद भी विजय श्री का माला पहने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पुनः 18 वीं लोकसभा में तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में 9 जून, 2024 को शपथ ग्रहण किये। वर्तमान लोकसभा का प्रथम सत्र 24 जून से प्रारम्भ हुआ और 3 जुलाई को समाप्त हुआ। साथ ही, राज्य सभा का 264 वां सत्र भी 27 जून से प्रारम्भ होकर 3 जुलाई को समाप्त हुआ। बीजेपी सांसद ओम बिरला दूसरी बार लोकसभा अध्यक्ष चुन लिए गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के विशेष सत्र में लोकसभा स्पीकर पद के लिए ओम बिरला के नाम का प्रस्ताव रखा तो वहां मौजूद सांसदों ने ध्वनि मत से उन्हें अपना अध्यक्ष चुन लिया। यह भी एक राजनीतिक इतिहास ही बना। लगातार दूसरी बार अध्यक्ष बनकर बलराम जाखड़, जीएम बालयोगी और पीए संगमा की सूची में शामिल हो गए हैं। जब ओम बिरला अध्यक्ष बने पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह मांग उठाई थी कि अध्यक्ष सत्ता पक्ष का तो उपाध्यक्ष विपक्षी दलों का होना चाहिए। लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन – एनडीए ने उपाध्यक्ष पद की मांग के लिए विपक्ष की आलोचना की और बताया कि जिन राज्यों में विपक्ष सत्ता में है, वहां उपाध्यक्ष का पद सत्तारूढ़ दल ने बरकरार रखा है।
लोक सभा के गठन के बाद से अब तक एमए अयंगर, हुकुम सिंह, एसवी कृष्णामूर्ति राव, रघुनाथ केशव खालीदकर, जीजी स्वेल, गोडे मुरहरि, जी लक्ष्मण, एम थंबीदुरै, शिवराज पाटिल, एस मल्लिका जुनैयाह, सूरज भान, पीएम सईद, चंद्रजीत सिंह अटवाल, करिया मुंडा, एम थंबीदुरै लोकसभा के उपाध्यक्ष के पद पर विराजमान रहे। पिछली बार से लोकसभा उपाध्यक्ष का पद खाली चल रहा है। वैसे अभी तक परंपरा रही है कि लोकसभा का उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को दिया जाता है। लेकिन 17वीं लोकसभा में विपक्ष लगभग नहीं के बराबर था। इसलिए उपाध्यक्ष की जरूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन इस बार लोकसभा में विपक्ष की ताकत बढ़ने से सभी इस बात पर बल दे रहे हैं कि उपाध्यक्ष का पद विपक्ष के पास आये। 16वीं लोकसभा में 2014-19 के दौरान बीजेपी की सहयोगी अन्नाद्रमुक के नेता एम. थंबी दुरई उपाध्यक्ष थे। यहाँ एक सवाल उठता है कि आखिर मोदी जी विपक्ष को ताकतवर क्यों बनने दें ?
उधर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रमुख शरद पवार ने भी कहा कि लोकसभा स्पीकर निर्विरोध चुना जाना चाहिए। लेकिन संसदीय परंपरा के अनुसार विपक्षी को उपाध्यक्ष का पद मिलना चाहिए। निश्चित रूप से, छठी लोकसभा से 16वीं लोकसभा तक उपाध्यक्ष का पद विपक्ष के पास था। 16वीं लोकसभा में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम- एआईएडीएमके के वरिष्ठ नेता एम. थंबीदुरई उपाध्यक्ष थे और बीजेपी की सुमित्रा महाजन स्पीकर थीं। 17वीं लोकसभा में यह पद खाली रहा। लोकसभा के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि 17वीं लोकसभा के दौरान कोई भी डिप्टी स्पीकर नहीं था।
संविधान के अनुच्छेद 95 के अनुसार, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष ही लोकसभा की कार्रवाई देखता है। अगर अध्यक्ष अपने पद से इस्तीफा देते हैं तो वह इसके लिए उपाध्यक्ष को संबोधित करेंगे। आजादी के बाद पहली लोकसभा से लेकर चौथी लोकसभा तक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, दोनों ही पद कांग्रेस के पास हुआ करते थे। लोकसभा के पहले उपाध्यक्ष एम.अनंतशायनम थे। उनका कार्यकाल 1952 से 1956 तक रहा। उनके बाद सरदार हुकुम सिंह, एस.वी.कृष्णमूर्ति राव और आर.के.खानडीलकर 1969 तक उपाध्यक्ष बने। ये सभी कांग्रेस के ही सांसद थे। साल 1969 में कांग्रेस ने ऑल पार्टी हिल लीडर्स के नेता गिलबर्ट जी स्वेल को उपाध्यक्ष बनाया गया। स्वेल शिलॉन्ग से सांसद थे। तभी से यह परंपरा बनी की उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को दिया जाएगा। लेकिन राजनीतिक गलियारे की गुफ्तगू से यह स्पष्ट है कि लोकसभा के उपाध्यक्ष पद विपक्ष को क्यों दिया जाय? सत्तारूढ़ पार्टी की यह प्रवल चेष्टा है कि ‘विपक्ष’ शब्द को ही समाप्त कर दिया जाय। लेकिन देश में जनतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण, आम चुनाव होने के कारण अंतिम निर्णय मतदाता करता है, वैसी स्थिति में अगर मतदाता दूसरे पार्टी के लोगों को चुनकर संसद भेजता है तो सरकार या संविधान क्या कर सकता है ?
विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा लोकसभा में विपक्ष की ताकत में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ, इसके सदस्य उपाध्यक्ष पद के लिए सक्रिय रूप से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। संवैधानिक रूप से अनिवार्य न होने के बावजूद, एक लंबे समय से चली आ रही संसदीय परंपरा यह तय करती है कि विपक्ष का कोई सदस्य लोकसभा में यह भूमिका निभाए। हालांकि, 2019 से 2024 तक 17वीं लोकसभा की पूरी अवधि के दौरान किसी भी उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं की गई, जिसकी विशेषज्ञों और विपक्षी नेताओं ने आलोचना की और इस कदम को अलोकतांत्रिक बताया। अटकलों के अलावा, सरकार की ओर से इस बात का कोई औपचारिक संकेत नहीं मिला है कि 18वीं लोकसभा में भी इस पद को भरा जाएगा। हम उपसभापति की नियुक्ति की प्रक्रिया के साथ-साथ इस महत्वपूर्ण संवैधानिक पद से जुड़ी जिम्मेदारियों और चुनौतियों पर भी गहराई से चर्चा करेंगे।
इससे पहले 12वीं लोकसभा में चुनाव के बाद से सदन 269 दिनों तक बिना किसी उपाध्यक्ष के काम किया है। पीआरएस द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली 12वीं लोकसभा का कार्यकाल केवल 13 महीने, 10 मार्च 1998 से 26 अप्रैल 1999 तक चला था। जीएमसी बालयोगी मार्च 1998 में 12वीं लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए, जबकि कांग्रेस के पीएम सईद उसी वर्ष दिसंबर में उपाध्यक्ष चुने गए। नौवीं लोकसभा में, जिसका कार्यकाल 2 दिसंबर 1989 को शुरू हुआ, रवि राय दिसंबर 1989 में अध्यक्ष चुने गए, जबकि शिवराज पाटिल मार्च 1991 में उपाध्यक्ष बने।
18वीं लोकसभा में दस साल में पहली बार विपक्ष का नेता हुआ । पिछली दो लोकसभाओं में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को यह पद नहीं मिल पाया था, क्योंकि उसके पास आवश्यक संख्या नहीं थी, जो सदन की कुल संख्या का दसवां हिस्सा है। 16वीं लोकसभा में कांग्रेस के 44 सांसद थे, जबकि 17वीं लोकसभा में 55 सांसद थे। विधायी कार्यप्रणाली न केवल लिखित प्रक्रिया नियमों पर निर्भर करती है, बल्कि मिसाल और परंपरा पर भी निर्भर करती है। वैसे विधानमंडलों में विपक्ष के नेता का पद महत्वपूर्ण होता है। उनकी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि विधायी कामकाज में विपक्ष की आवाज प्रभावी ढंग से पहुंचाई जाए। यह पद विपक्ष को बहस में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली आवाज प्रदान करता है और उसे मान्यता देता है। इसी को मान्यता देते हुए विपक्ष के नेता को अधिक दर्जा देने तथा प्रमुख पदों की चयन समितियों में स्थान देने के लिए कानून बनाए गए हैं।
विपक्ष के नेता का पद 1969 तक मान्यता प्राप्त नहीं था, जब राम सुभग सिंह लोकसभा के पहले मान्यता प्राप्त विपक्ष के नेता बने।इस पद को संसद में विपक्ष के नेताओं के वेतन और भत्ते अधिनियम, 1977 के माध्यम से वैधानिक मान्यता प्राप्त हुई, जिसके अनुसार ‘विपक्ष के नेता’ की परिभाषा लोकसभा या राज्य सभा के उस सदस्य के रूप में की गई है, जो उस समय, सरकार के विपक्षी दल के उस सदन का नेता होता है, जिसके पास संख्या बल सबसे अधिक होता है और जिसे राज्य सभा के सभापति या लोक सभा के अध्यक्ष द्वारा मान्यता दी जाती है। इस बार, 99 सांसदों के साथ लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेता को विपक्ष का नेता माना जाएगा।
भारतीय रिजर्व बैंक के पिछवाड़े लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के नाम से अंकित दो ऐतिहासिक भवनों – मावलंकर हॉल और डिप्टी स्पीकर हॉल – के सामने खड़े होकर गेडुआ रंग में नवनिर्मित संसद भवन को टुकुर-टुकुर देखकर सोच रहा हूँ कि क्या इस नए भवन का भाग्य को तो सत्तारूढ़ पार्टी के लोग कहीं कोस तो नहीं रहे हैं। इस भवन के निर्माण के बाद सत्तारूढ़ पार्टी की सांसदों की संख्या में बेतहासा कमी हो गई। कल तक दहाड़ने वाली पार्टी के नेता सम्मानित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को डगरा का बैगन जैसा नीतीश कुमार या फिर हैदराबाद-सिकंदराबाद को सॉफ्टवेयर के लिए साइबर सिटी बनाने वाले चद्रबाबू नायडू का, दिवंगत बिहारी नेता रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान जैसे लोगों का सहारा लेना पड़ा, मंत्री बनाना पड़ा, पहली बारिस में ही संसद भवन चुने लगा, मिंटोरोड (मिंटो पुल) के नीचे वाली सड़क में जमे पानी जैसा नए संसद भवन में भी जल जमाव हो गया, इतने दिन होने के बाद अब तक लोकसभा के उपाध्यक्ष की कुर्सी पर किसी को बैठने का अधिकार नहीं दिया गया – इस नव संसद भवन के शुभ संकेत है क्या? खैर, शायद आगामी 15 अगस्त को लाल किले के ऊपरी पटल से प्रधानमंत्री सम्मानित नरेंद्र मोदी जी कुछ खुलासा कर दें।