चापलूस, चाटुकारों से घिरे ‘स्वयंभू युवराज’ मिथिला के लिए कुछ किये नहीं, अख़बारों में विज्ञापन देकर मिथिला नरेश की कीर्तियों को दोहराये ‘स्वहित’ में, फिर ‘मैथिली भाषा’ को ‘शास्त्रीय भाषाओँ की श्रेणी में’ कैसे देखेंगे मिथिला के लोग ?

तस्वीर: दी हिन्दू के सौजन्य से

दरभंगा / पटना / नई दिल्ली : दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह, जिन्होंने मिथिला क्षेत्र और मैथिली भाषा के विकास के लिए, अनेकानेक कार्य किये, की मृत्यु दिवस के 48 घंटे के अंदर देश के 14 वें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विगत 3 अक्टूबर 2024 को ‘मैथिली भाषा को छोड़कर’, मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने को मंजूरी दे दी। वहीँ दरभंगा राज के तथाकथित ‘गणमान्यों’ के साथ-साथ मैथिली साहित्य और मैथिली भाषा के विकास का दावा करने वाले हज़ारों विद्वान और विदुषी मूक-बधिर बने रहे। केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस फैसले के साथ ही शास्त्रीय भाषाओँ की श्रेणी में भाषाओँ की संख्या 11 हो गई। इससे पहले, भारत की छह शास्त्रीय भाषाओँ – तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, संस्कृत और उड़िया – को यह सम्मान मिला था।

उधर, दरभंगा के महाराजाधिराज का हँसता-खेलता-मुस्कुराता शरीर ‘अचानक’ पहली अक्टूबर, 1962 को ‘पार्थिव’ हो गया था। मिथिला के कई करोड़ लोग, यहाँ तक कि ‘संतानहीन महाराजाधिराज’ के छोटे भाई राजाबहादुर (जो कभी महाराजा नहीं हो सके) के तीसरी पीढ़ी के ‘स्वयंभू युवराज’ भारत में पदार्पित ईस्ट इंडिया कंपनी के तर्ज पर बिहार की भूमि से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में सत्तारूढ़ राजनेताओं के साथ ‘विज्ञापन के रूप में अपनी तस्वीरों का विपरण कर रहे हैं। दरभंगा में इस बात की चर्चाएं आम हैं कि भारतीय संसद के ऊपरी सदन के साथ-साथ बिहार विधान परिषद् में प्रवेश के लिए (मनोनीत) अथक प्रयास कर रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से नजदीक रहने वाले प्रायः सभी नेताओं के साथ ‘हर हाल’ में संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं ताकि ‘सदन का प्रवेश द्वार खुले।’

लोग तो यह भी कहते हैं कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपने पिता कुमार शुभेश्वर सिंह अथवा दादा राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह का नाम लिए बिना, महाराजाधिराज डॉ. कामेश्वर सिंह की मृत्यु के 60-वर्ष बाद भी तत्कालीन महाराजाओं की कीर्तियों को दोहरा रहे हैं। लोगों का कहना है कि इसका वजह यह है कि उनकी कीर्तियों को दोहराने के अलावे इनके पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद विगत छः वर्षों में इन महानुभावों के नेतृत्व वाले दरभंगा राज के एक-एक ईंट अलग होते मिथिला के लोग, मैथिली भाषा भाषी सभी देख रहे हैं। यहाँ तक कि महाराजाधिराज द्वारा स्थापित बिहार की आवाज आर्यावर्त, इंडियन नेशन और मिथिला मिहिर अख़बार तथा पत्रिका का नामोनिशान इन्हीं नेतृत्व के कालखंड में नेश्तोनाबूद हुआ है । चतुर्दिक चापलूसों, चाटुकारों, जी-हुज़ूरी करने वालों से घिरे स्वयंभू युवराज कहते नहीं थक रहे हैं कि मिथिला में विकास हो रहा है और वे महाराजा की, मिथिला की, दरभंगा राज की गरिमा को स्थापित करने जा रहे हैं। खैर।

उधर, मिथिला क्षेत्र से चयनित विधायक से लेकर सांसद तक ‘मिथिला के लोगों को, मैथिली भाषा भाषियों को यह कहते भी नहीं थक रहे हैं कि ‘वे प्रधानमंत्री को मना लेंगे ताकि मैथिली भाषा को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल सके। लेकिन सवाल यह है कि ‘इतनी समृद्ध भाषा होने के बावजूद मैथिली भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिलने का क्या कारण हो सकता है? दरभंगा के राजा-महाराजाओं का भारत के शिक्षा जगत में योगदान अविस्मरणीय है, यह सत्य है; लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि दरभंगा के राजा-महाराजाओं के अलावे भी देश के अन्य राजा, जमींदार का भारत की शिक्षा व्यवस्था मजबूत हो, मिथिला का उत्थान हो, मैथिली भाषा का वजूद हो, पर्याप्त कार्य किये थे – लेकिन आज मिथिला के लोग इतिहास के पन्नों में उसका नाम नजरअंदाज कर दिए हैं।

आज़ाद भारत में जन्म लिए मिथिला के लोग इस बात का चश्मदीद गवाह हैं कि मिथिला के लिए अलग राज्य की मांग 1950 के दशक में भारत की आजादी के तुरंत बाद शुरू हो गई थी । आंदोलन का दूसरा चरण साहित्य अकादमी में मैथिली को आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में मान्यता देने और जनगणना में मैथिली बोलने वालों की सही गणना के मुद्दों को उठाया गया था। इसमें मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में रेडियो स्टेशन खोलने जैसी अन्य मांगें भी शामिल हैं। तीसरा चरण मैथिली को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर था। इस चरण में बिहार लोक सेवा आयोग से मैथिली को हटाने और इसे फिर से शामिल करने के कारण कई विरोध और प्रदर्शन हुए था। इसी तरह माध्यमिक विद्यालय परीक्षाओं में मैथिली को शामिल करने के लिए, प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में मैथिली के उपयोग के संबंध में निर्णय के कार्यान्वयन के लिए, मैथिली में पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन और मैथिली शिक्षकों की भर्ती के लिए, बिहार राज्य में मैथिली को एक प्रशासनिक भाषा के रूप में मान्यता देने के लिए अनेकानेक आंदोलन हुए थे, विशेषकर तब जब मैथिली भाषी मुख्यमंत्री, जगन्नाथ मिश्र द्वारा उर्दू को राज्य में दूसरी आधिकारिक भाषा बनाया गया था।लेकिन आज मिथिला में मैथिली भाषा के प्रति जो त्रासदी है, वह दयनीय हैं।

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कौन बनेगा करोड़पति के हॉट सीट पर बैठे मिथिला के किसी भी सम्मानित मैथिली भाषा-भाषी महानुभाव से अगर अमिताभ बच्चन एक प्रश्न पूछें कि “भारत के किस विश्वविद्यालय में किस मिथिला के किस राजा के कारण मैथिली भाषा एक विषय के रूप में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था, साथ ही ‘मैथिली लैक्चर’ स्थापित किया गया था,?” हमें विश्वास है कि ‘हॉट सीट पर बैठे सम्मानित महानुभाव की कुर्सी हॉट हो जाएगी और वे उत्तर नहीं दे पाएंगे। शब्द बहुत कटु हैं, मिथिला के लोगों को हज़म नहीं होगा, परन्तु सत्य यही है।

इतना ही नहीं, लोग माने अथवा नहीं, सं 1977 में कर्पूरी ठाकुर जब बिहार के मुख्य मंत्री थे, और 1980 में डॉ जगन्नाथ मिश्र प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान हुए, “मैथिली” भाषा को मिथिला के नौजवानों के हितार्थ संविधान के आठवें सूची में स्थान प्रदान करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किया गया था। उस प्रयास के लगभग 25-वर्ष बाद संविधान के 92 वें संसोधन में ‘बोडो’, ‘डोगरी’, ‘संथाली’ और ‘मैथिली’ भाषाओँ को संविधान के आठवें सूची में स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही, संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में ‘वैकल्पिक विषय’ के रूप में दाखिला मिला। लेकिन 2004 से आज तक, यानी विगत दो दशकों में, इन परीक्षाओं में “मैथिली” विषय के साथ कितने अभ्यर्थी उत्तीर्ण हुए हैं और वे मिथिला का कितना कल्याण किये हैं, मैथिली भाषा के विकास के लिए क्या किए, यह एक अलग शोध का विषय है। लेकिन कर्पूरी ठाकुर को या फिर डॉ जगन्नाथ मिश्र को इस पहल के लिए कितना “सम्मान” मिला, यह तो मिथिला के लोग अधिक जानते होंगे।

कहते हैं कि 1917 के कालखंड में भारत में, खासकर बंगाल में ‘भाषा’ के प्रति ‘सम्मान’ और राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की नींव मजबूत होना प्रारम्भ हो गया था। उधर देश की राजनीतिक गतिविधियों में अप्रैल के महीने में मोहनदास करमचंद गाँधी बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती और किसानों के सम्मानार्थ सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिए थे। अगस्त के महीने में एड्विन मॉन्टेगुए, जो ब्रितानिया सरकार का भारत के लिए सचिव थे, भारत के लिए अंग्रेजी नीतियों की घोषणा कर चुके थे। सन 1918 के अप्रैल महीने में रॉलेट कमिटी अपना रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिया था। एड्विन मॉन्टेगुए और वाइसरॉय चेम्सफोर्ड अपना संयुक्त संवैधानिक प्रतिवदेन भी प्रस्तुत कर चुके थे। देश में राजनीतिक उथल-पुथल की शुरुआत हो गयी थी।

तभी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भाषा की महत्ता को स्वीकार करते कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने बनैली के राजा कीर्त्यानन्द सिंह का मैथिली भाषा के प्रति ‘निष्ठा’, ‘प्रतिबद्धता’, ‘सम्मान’, भाषा की विकास के लिए उनकी सोच का सम्मान करते उनसे कहे कि अगर ‘तीन दिन के अंदर’ वे 2500 रुपये विश्वविद्यालय में जमा कर दें तो ‘मैथिली भाषा कलकत्ता विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हो जायेगा। ब्रितानिया हुकूमत के इस काल खंड में ‘मैथिली’ भाषा को भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम के रूप में ‘सम्मान’ मिलना, एक बेहतरीन पहल था। राजा कीर्त्यानन्द सिंह ने मैथिली की सेवा करने मे अपना सौभाग्य समझ कर तुरंत 2500 विश्वविद्यालय में जमा करवाए और फिर अपनी तरफ से 7500 रुपये अतिरिक्त प्रेषित किये। इसका परिणाम यह हुआ कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षा तक “मैथिली भाषा” एक विषय के रूप में अपना स्थान प्राप्त किया। इतना ही नहीं, एक वर्ष बाद, सन 1919 में कुमार कालिकानंद सिंह और राजा कीर्त्यानन्द सिंह ने मिलकर 1200 रूपये वार्षिक शुल्क देकर छह वर्षों के लिए ‘मैथिली लैक्चर” स्थापित किये।

लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विगतदस दशकों से अधिक वर्षों में मिथिला के एक भी व्यक्ति, मिथिला के एक भी विद्वान, एक भी विदुषी, मिथिला साहित्य के एक भी तथाकथित धनुर्धर, एक भी हस्ताक्षर कभी ‘मैथिली भाषा’ के प्रति राजा कीर्त्यानंद सिंह अथवा कुमार कालिका नन्द सिंह की भूमिका की चर्चा तक नहीं किये और उन सबों की आवाज दरभंगा राज और दरभंगा के लाल किले से बाहर नहीं निकला। चापलूसी, चाटुकारिता पर यह भी एक शोध का विषय है। पटना विश्वविद्यालय में मैथिली की पढ़ाई 1938 में प्रारम्भ हुई। राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह राजा लीलानंद सिंह के तीसरे पुत्र थे। उनका जन्म 23 सितम्बर, 1883 को हुआ था। सं 1919 में इन्हे राजा बहादुर की पदवी से अलंकृत किया गया। कलानंद और कीर्त्यानंद में बड़ी मैत्री थी। रानी पद्मावती देवी की मदद से इन दोनों ने पद्मानंद के हिस्से के 7 आने को ठीका प्रबंध पर ले लिया और यह व्यवस्था 1939 ई0 तक चलती रही। कलानंद और कीर्त्यानंद 1919 तक एक साथ ड्योढ़ी बनैली चम्पानगर में रहे। स्थानीय लोगों का कहना है कि राज बनैली का स्वर्णिम काल था।

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यह अलग बात है कि बदलते समय में मिथिला के लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में बनैली राज की भूमिका को नजर अंदाज किया, लेकिन इतिहास गवाह है कलानंद और कीर्त्यानंद भाइयों ने शिक्षा के क्षेत्र में, उसके विकास के लिए कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उनका योगदान आज भी पूर्णिया के इतिहास में अंकित है। सन 1903 में उन्होंने चम्पानगर में एम्. ई स्कूल खुलवाया जो निजी व्यवस्था द्वारा संचालित जिला का पहला विद्यालय था। इसी तरह 1909 में भागलपुर के तेज नारायण जुबली कालेज की बिगड़ती हुई हालत देखकर कलानंद सिंह और कीर्त्यानंद सिंह ने लाखों रुपये देकर उसे नया जीवन दिया।टी. एन. जे. काॅलेज बाद में तेज नारायण बनैली काॅलेज के नाम से प्रसिद्द हुआ। इतना ही नहीं, दोनों भाईयों ने भाइयों ने कई और अनुदान देकर पूर्णियाँ का नाम रोैशन किया। मसलन: पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के रीडरशिप के लिए 25000/-, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक लाख रुपये दान किये।

बहरहाल, आइये केंद्रीय मंत्रिमडल के निर्णय पर आएं। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा से कुछ दिन पहले की गई इस घोषणा से राजनीतिक वाकयुद्ध शुरू हो गया है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने राज्य की लंबे समय से लंबित मांग को पूरा करने का कुछ श्रेय लेने का दावा किया है। हालांकि, राजनीति से परे, विद्वानों और शिक्षाविदों को उम्मीद है कि नई स्थिति ऐतिहासिक अनुसंधान, साहित्यिक अनुवाद और इन भाषाओं के आधुनिक भाग्य की रक्षा और वृद्धि करेगी। विश्व स्तर पर, शास्त्रीय भाषाओं को वह माना जाता है जिनकी एक प्राचीन और स्वतंत्र साहित्यिक परंपरा होती है और लिखित साहित्य का एक समूह शास्त्रीय माना जाता है। वे अक्सर बोली जाने वाली भाषाओं जैसे लैटिन या संस्कृत के रूप में उपयोग में नहीं होती हैं – या उनके आधुनिक संस्करणों से अलग होती हैं। क्या मैथिली भाषा कमजोर है इस दृष्टि से?

शास्त्रीय भाषाओं को भारत की प्राचीन और गहन सांस्कृतिक विरासत का संरक्षक माना जाता है, जो अपने संबंधित समुदायों के समृद्ध इतिहास, साहित्य और परंपराओं को संरक्षित करती हैं। इस स्थिति को प्रदान करके, सरकार भारत के विविध सांस्कृतिक परिदृश्य के भाषाई मील के पत्थर का सम्मान और सुरक्षा करना चाहती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि आने वाली पीढ़ियाँ इन भाषाओं की गहरी ऐतिहासिक जड़ों तक पहुँच सकें और उनकी सराहना कर सकें। यह कदम न केवल भाषाई विविधता के महत्व को पुष्ट करता है बल्कि देश की सांस्कृतिक पहचान को आकार देने में इन भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को भी स्वीकार करता है।

किसी भाषा को शास्त्रीय के रूप में नामित करने का उद्देश्य उसके ऐतिहासिक महत्व और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत के संरक्षक के रूप में उसकी भूमिका को पहचानना है। ये भाषाएँ हजारों वर्षों से भारत की प्राचीन ज्ञान प्रणालियों, दर्शन और मूल्यों को पीढ़ियों तक संरक्षित और प्रसारित करने में आवश्यक रही हैं। इन भाषाओं को शास्त्रीय के रूप में मान्यता देकर, सरकार उनकी गहरी जड़ें जमा चुकी प्राचीनता, विशाल साहित्यिक परंपराओं और राष्ट्र के सांस्कृतिक ताने-बाने में उनके अमूल्य योगदान को स्वीकार करती है। यह मान्यता इन भाषाओं द्वारा भारत की विरासत में किए गए महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और भाषाई योगदान को उजागर करती है। यह न केवल उनके कद को ऊंचा करेगा बल्कि इन भाषाओं के प्रचार, संरक्षण और आगे के शोध के प्रयासों को भी सुविधाजनक बनाएगा, जिससे आधुनिक दुनिया में उनकी निरंतर प्रासंगिकता सुनिश्चित होगी।

किसी भाषा को शास्त्रीय घोषित करने के मानदंड के मामले में 2004 में, भारत सरकार ने पहली बार भाषाओं की एक नई श्रेणी बनाई, जिसे शास्त्रीय भाषाएँ कहा जाता है। इसने शास्त्रीय भाषा की स्थिति के लिए कुछ मानदंड निर्धारित किए। मसलन – इसके प्रारंभिक ग्रंथों की उच्च प्राचीनता/एक हजार वर्षों से अधिक का दर्ज इतिहास, प्राचीन साहित्य / ग्रंथों का एक संग्रह, जिसे वक्ताओं की पीढ़ी द्वारा एक मूल्यवान विरासत माना जाता है। इसके अतिरिक्त, साहित्यिक परंपरा मौलिक होनी चाहिए और किसी अन्य भाषण समुदाय से उधार नहीं ली जानी चाहिए। शास्त्रीय भाषा की स्थिति के लिए प्रस्तावित भाषाओं की जांच करने के लिए साहित्य अकादमी के तहत भाषाई विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के आधार पर इस मानदंड को 2005 और 2024 में संशोधित किया गया था।

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2024 संशोधन के अनुसार, 1500-2000 वर्षों की अवधि में इसके प्रारंभिक ग्रंथों / अभिलिखित इतिहास की उच्च प्राचीनता। प्राचीन साहित्य/ग्रंथों का एक संग्रह, जिसे वक्ताओं की पीढ़ियों द्वारा विरासत माना जाता है। साहित्यिक परंपरा मौलिक होनी चाहिए और किसी अन्य भाषण समुदाय से उधार नहीं ली जानी चाहिए। ज्ञान ग्रंथ, विशेषकर गद्य ग्रंथ, पद्य के अतिरिक्त अभिलेखीय एवं अभिलेखीय साक्ष्य। स्त्रीय भाषाएँ और साहित्य अपने वर्तमान स्वरूप से भिन्न हो सकते हैं या अपनी शाखाओं के बाद के रूपों से अलग हो सकते हैं। ज्ञातव्य हो कि छह भारतीय भाषाओं अर्थात् संस्कृत, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और उड़िया को पहले शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया था। सूत्रों के आधार पर तामिल 12 अक्टूबर 2004, संस्कृत 25 नवम्बर 2005, तेलुगू 31 अक्टूबर 2008, कन्नड 31 अक्टूबर 2008, मलयालम 8 अगस्त 2013, उड़िया 1 मार्च 2014 को गृह मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय ने मान्यता प्रदान की।

शिक्षा मंत्रालय ने शास्त्रीय भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं। 2020 में, संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए संसद के एक अधिनियम के माध्यम से तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल की स्थापना प्राचीन तमिल ग्रंथों के अनुवाद, अनुसंधान को बढ़ावा देने और विश्वविद्यालय के छात्रों और भाषा विद्वानों के लिए पाठ्यक्रम पेश करने की सुविधा के लिए की गई थी। शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन और संरक्षण को और बढ़ाने के लिए, मैसूर में केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान के तत्वावधान में शास्त्रीय कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और उड़िया में अध्ययन के लिए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किए गए थे। इसके अतिरिक्त, शास्त्रीय भाषाओं के क्षेत्र में उपलब्धियों को पहचानने और प्रोत्साहित करने के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार शुरू किए गए हैं। शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रदान किए गए अन्य लाभों में शास्त्रीय भाषाओं के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, विश्वविद्यालय अध्यक्ष और शास्त्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए समर्पित केंद्र शामिल हैं।

सवाल यह है कि किसी भाषा को शास्त्रीय घोषित किये जाने का क्या प्रभाव पड़ता है? विशेषज्ञों का मानना है कि भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं के रूप में शामिल करने से विशेष रूप से शैक्षणिक और अनुसंधान क्षेत्रों में रोजगार के महत्वपूर्ण अवसर पैदा होंगे। इसके अतिरिक्त, इन भाषाओं में प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण, दस्तावेज़ीकरण और डिजिटलीकरण से संग्रह, अनुवाद, प्रकाशन और डिजिटल मीडिया जैसे क्षेत्रों में रोजगार पैदा होंगे। यह भी कहा जाता है कि भाषाओं को शास्त्रीय के रूप में मान्यता देने से विद्वानों के अनुसंधान, संरक्षण और प्राचीन ग्रंथों और ज्ञान प्रणालियों के पुनरोद्धार को प्रोत्साहन मिलता है, जो भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान के लिए आवश्यक हैं। इसके अलावा, यह इन भाषाओं को बोलने वालों के बीच गर्व और स्वामित्व की भावना पैदा करता है, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है और आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से निहित भारत की व्यापक दृष्टि के साथ जुड़ता है।

बहरहाल, मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का केंद्रीय मंत्रिमंडल का निर्णय भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को आकार देने में इन भाषाओं की अमूल्य भूमिका की गहरी मान्यता को दर्शाता है। यह कदम न केवल उनके ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व को स्वीकार करता है बल्कि भारत की भाषाई विविधता के संरक्षण और प्रचार के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करता है। इस पहल से शैक्षणिक और अनुसंधान के अवसरों को बढ़ावा मिलने, वैश्विक सहयोग बढ़ने और देश की सांस्कृतिक और आर्थिक वृद्धि में योगदान मिलने की उम्मीद है। भावी पीढ़ियों के लिए इन भाषाओं को सुरक्षित करके, सरकार आत्मनिर्भर भारत और सांस्कृतिक रूप से निहित भारत के उद्देश्यों के अनुरूप, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय एकता के व्यापक दृष्टिकोण को मजबूत कर रही है।

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