बिहार का सत्यानाश (भाग-2) विशेष कहानी : इतिहास दोहराता है: जार्ज फर्नांडिस ‘लंगड़ी’ मारे बाबू दिग्विजय नारायण सिंह को, नीतीश कुमार पैर खींचे जॉर्ज फर्नांडिस का, अब नीतीश कुमार की बारी है

बैठ रहे हैं या उठ रहे हैं नीतीश जी। तस्वीर सौजन्य से

मुजफ्फरपुर / पटना और नई दिल्ली : कहते हैं राजनीति में कोई किसी का नहीं होता है। आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले अपने शिष्यों के लिए ‘गुरु द्रोणाचार्य’ हों, समय कब किसके पक्ष-विपक्ष में करवट लेगा, यह कोई नहीं जानता। कल गुरु द्रोणाचार्य को जब यह प्रतीत हुआ कि एकलव्य कुन्ती पुत्र अर्जुन से श्रेष्ठ बन सकता है, उन्होंने गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया और एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु को दे दिया। यह तब की बात है जब गुरु-शिष्य में गुरु-शिष्य वाला अनुशासित व्यवहार था। लेकिन आज पाटलिपुत्र से लेकर हस्तिनापुर तक समय बदल गया है।

आज पटना में जहाँ 06:37 बजे सूर्योदय होता है वहीं दिल्ली में सूर्योदय 07:15 बजे होता है जबकि सूर्यास्त पटना में 17 : 17 बजे तो दिल्ली में 17 : 43 बजे। आज शिक्षा के मामले में भले गुरु द्रोण जैसा गुरुदेव नहीं हो, लेकिन एकलव्य जैसा शिष्य तो नहीं ही है। जहाँ तक राजनीति का सवाल है, ऐसे शिष्य तो अब अजायबघर में भी नहीं मिलेंगे। वजह सिर्फ एक है – महत्वाकांक्षा।

वैस भविष्य को अगर देखें तो इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि ‘साक्षी’ को सामने रखकर नीतीश कुमार आज जिसे शिष्य कहते हैं, अपने गुरु से ही शिष्य होने का दक्षिणा मांग बैठे। कुर्सी पर आधिपत्य ज़माने के लिए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री कार्यालय का दरवाजा दिखा दे। यह मैं नहीं कह रहा हौं – यह समय कह रहा है। ऐसी घटना हो चुकी है और कहते भी हैं कि इतिहास ख़ुद दोहराता है, इसलिए दोहराया भी जा सकता है।

जॉर्ज फर्नांडिस (अब दिवंगत)

नीतीश के राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस, जिनका बिहार से कुछ भी लेना देना नहीं था और जिन्होंने बिहार को सिर्फ राजनीतिक अखाड़ा बनाया; मुजफ्फरपुर के बाबू दिग्विजय नारायण सिंह को लंगड़ी मारे आगे बढ़ने के लिए। हवा बदली। समय बदला। समयांतराल नीतीश कुमार अपने गुरु जॉर्ज जो दरवाजा दिखा दिये। क्या पता कल नितीश कुमार को उनका ही शिष्य समुदाय जिनपर उन्हें बहुत भरोशा है, जिन्हें सड़क से उठाकर संसद तक ले गए, उनके जनता दल यूनाइटेड को जनता दल डिवाइडेड बना दे। 

मुजफ्फरपुर के सूतापट्टी से चतुर्भुज स्थान तक, पटना के लोहानीपुर, जहां मीरकाशीम का जन्म हुआ था, से बांकीपुर डाकबंगला तक और दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग से नरेंद्र मोदी के कर्तव्य पथ तक चर्चा आम है कि जनता दल यूनाइटेड अब ‘डिग्निफ़ाइड’ नहीं रहा नीतीश कुमार के नेतृत्व में । सब समय है  । 

आइये पहले चलते है दिल्ली हाट क्योंकि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी बिहार से पलायित और बिहार में रहने वाले बिहार के लोग शायद इस बात से अनभिज्ञ होंगे कि दिल्ली में जिस दिल्ली हाट पर भारत की सांस्कृतिक विरासत की उपस्थिति का दावा करते हैं, उस विरासत की स्थापना में जॉर्ज फर्नांडिस का आजीवन साथ देने वाली जया जेटली का महत्वपूर्ण हाथ है। इसी तरह बिहार के राजनीतिक ब्रह्माण्ड में अपने आप को स्वयंभू राजनेता और राजनीतिक विशेषज्ञ मानने वाले मतदाता से लेकर पिछलग्गू तक इस बात को नहीं जानते होंगे की वर्तमान मुख्यमंत्री और भविष्य में स्वयं को स्वयंभू दसवीं मुख्यमंत्री समझने वाले नीतीश कुमार अपने राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस का भी नहीं हुए तो बिहार के मतदाता का क्या होंगे? 

जया जेटली और जॉर्ज फर्नांडिस – तस्वीर स्क्रॉल के सौजन्य से

पहले दिल्ली हाट पर चर्चा करते हैं। दिल्ली हाट भारत सरकार के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारी त्रिलोचन सिंह के मस्तिष्क का उपज है, जिसे राष्ट्र को समर्पित किये थे लालकृष्ण आडवाणी और दशक नब्बे का था। आई एन ए, सरोजनी नगर, लक्ष्मीबाई नगर, अरबिंदो मार्ग, किदवई नगर, अंसारी नगर क्षेत्रों से आने वाली गन्दी नालियों को एक बेहतरीन हाट के रूप में बदलने की सोच त्रिलोचन सिंह की थी। आज वह ऐतिहासिक दिल्ली हाट के रूप में जाना जाता है। 

देश-विदेश के विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित त्रिलोचन सिंह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय में शीर्षस्थ पदाधिकारी थे उन दिनों। वे दिल्ली पर्यटन का भी नेतृत्व किये हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति बूटा सिंह के सेवाकाल में भी राष्ट्रपति भवन में अपनी सेवा दिए। उनकी सोच को भारत के सभी राज्यों के पर्यटन मंत्रालय तहे दिल से स्वागत किया था उन दिनों। श्री त्रिलोचन सिंह का साथ भारत सरकार के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ श्रीमती जया जेटली खुलकर साथ दी । दिल्ली में एक ऐसा स्थान बनाना चाहते थे जो न केवल दिल्ली, बल्कि देश के सभी राज्यों के लोगों को एक सूत्र में बांध सकें।

त्रिलोचन सिंह एक ओर जहाँ भारत के लोगों को “खान-पकवान” के माध्यम से सूत्रबद्ध करना चाहते थे, सुश्री जया जेटली ग्रामीण उद्योगों, हथकरघा को लाकर सबों को विकास के मार्ग पर लायी। आज दिल्ली हाट में बुनकर एवं काश्तकार लोगों को बिना किसी बिचौलियों के सीधे ही ग्राहकों को अपने हस्तशिल्प बेचने का अवसर प्राप्त है। यहां भारत के विभिन्न प्रांतों के हस्तशिल्प को प्रदर्शित करती दुकानें हैं। बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल और अन्य दक्षिण भारतीय व्यंजन से लेकर सुदूर उत्तर पूर्व के खाने के स्टॉल हैं। यहां हस्तशिल्प, भोजन और सांस्कृतिक गतिविधियों का सम्मिश्रण देख सकते हैं।

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दिल्ली हाट से आइये चलते हैं पटना। आज के राजनेता चाहे जो भी गणित और ज्यामिति की नजर से राजनीति को देखें, हकीकत यह है कि नीतीश कुमार अपने से अधिक प्रबल, ज्ञाता, निपुणता – चाहे वह सामाजिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में – साथ नहीं चलना पसंद नहीं करते। वे अहंकार से ग्रसित है। वे अवसरवादी है। महत्वाकांक्षी हैं। जिद्दी हैं। स्वयं के आगे किसी को दक्ष नहीं समझते। बहुत तरह के उपसर्ग और प्रत्यय हैं उनके साथ। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद उस व्यक्ति को, जिन्होंने उन्हें बिहार की राजनीतिक मानचित्र पर पहला कदम रखने का अवसर दिया, उसके पैर नहीं काटे होते।  आज नीतीश कुमार जिस जनता दल (यूनाइटेड) के बल पर प्रदेश की राजनीति का सूर्योदय और सूर्यास्त करने का दावा करते हैं, उस जनता दल (यूनाइटेड) का मानसिक संस्थापक नीतीश कुमार नहीं, बल्कि जॉर्ज फर्नांडिस थे। 

आज बिहार में जितने भी राजनेता हैं और स्वयं को प्रदेश का भाग्य विधाता समझते हैं, अगर उनकी उम्र न्यूनतम 60 वर्ष नहीं है, तो वे इस बात का चश्मदीद गवाह नहीं हो सकते हैं । सन 1974 में जब देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर फेंकने के लिए जयप्रकाश नारायण का आंदोलन प्रारंभ हुआ था, पटना के गांधी मैदान में बिगुल बजना शुरू हुआ था, उस कालखंड में नीतीश कुमार जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में प्रवेश लिए। उन दिनों जयप्रकाश नारायण के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राम मनोहर लोहिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गज नेता चल रहे थे। नीतीश कुमार युवक थे अपने अन्य सहकर्मियों, सहपाठियों की तरह। यह मंच नीतीश कुमार सहित अन्य सहपाठियों को तत्कालीन राजनीतिक दिग्गजों के समीप लाया। जॉर्ज फर्नांडिस भले अपने राजनीतिक जीवनकाल में (जब तक बिहार से सांसद रहे) प्रदेश और अपने संसदीय क्षेत्र के, मतदाताओं के विकास के लिए कुछ भी सकारात्मक कार्य नहीं किये, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से जॉर्ज का प्रदेश के राजनीतिक उथल पुथल में महत्वपूर्ण हाथ रहा। 

जय प्रकाश नारायण और नीतीश कुमार : तस्वीर सौजन्य से

तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के भविष्य को देखते जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के साथ 14 सांसदों को लेकर जनता दल को नमस्कार कर पहले जनता दल (जॉर्ज) बनाये, बाद में यह समता पार्टी के नाम से जाना गया। अब तक नीतीश कुमार को राजनीति और सत्ता का लोभ मानस पटल पर छा गया था। उस कालखंड में लालू प्रसाद यादव का ऐतिहासिक चारा घोटाला काण्ड नहीं आया था। लेकिन सं 1995 में जब चुनाव हुआ उसमें समता पार्टी लालू के सामने घुटने तक दी। समता पार्टी को महज सात स्थान प्राप्त हुआ । एक साल बाद, यानी 1996 में जब अटल बिहार वाजपेयी की सरकार बनी थी, समता पार्टी तब तक सहयोगी बन गया था। वाजपेयी के सरकार में सभी सहयोगी हिस्सेदार बने। जॉर्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री बने। उस वर्ष (1996) के चुनाव में समता पार्टी को आठ और दो वर्ष बाद 1998 के चुनाव में 12 स्थान मिले थे। 

यह जार्ज फर्नांडिस का ही प्रयास था (नीतीश कुमार भले स्वीकार नहीं करें) कि 2000 में बीजेपी की मदद से नीतीश कुमार 8 दिन के लिए ही सही बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी खुली आँखों से देखे थे। इतना ही नहीं, दिल्ली सल्तनत में रहने वाले, नार्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक के इर्द-गिर्द घूमने वाले छोटे-मोटे पत्रकार जानते हैं कि अगर 2003 में जॉर्ज फर्नांडिस का साथ नहीं होता तो शायद भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन तोड़कर जनता दल (यूनाइटेड) नहीं बना पाते। आगे क्या हुआ, देश ही नहीं प्रदेश के लोग जानते हैं की नितीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपक गए।

लेकिन राजनीति भी बहुत गजब की चीज होती है। जब सत्ता पर अपना अधिपत्य ज़माने के लिए आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी का सहस्त्र खंड हो सकता है, लोग सिहासन पर बैठनने के लिए तरह तरह के पैतरे कर सकते हैं, राजनीतिक गुरुओं को तिरस्कृत कर खुद सर्वेसर्वा होने का दावा कर सकते हैं, तो नीतीश कुमार तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की पैदाइश है। इसका दृष्टान्त यह है कि 2007 में नीतीश कुमार अपने राजनीतिक गुरु को लंगड़ी मार कर पार्टी के अध्यक्ष पद से पदच्युत कर दिए और शरद यादव को, जिनका भी बिहार के उत्थान से कहीं दूर दूर तक नाता-रिस्ता नहीं था, पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव में एक समानता थी – दोनों बिहार के नहीं थे और बिहार को अपना राजनीतिक अखाड़ा बनाया था। दोनों बिहार के लिए क्या किये? बिहार के मतदाता के लिए क्या किये? यह बात वे दोनों स्वयं जानते थे (अब दिवंगत) और प्रदेश के मतदाता जानते होंगे। खैर, जॉर्ज फर्नान्डिस किनारे हो गए। शरद यादव अपनी पार्टी को समता पार्टी में विलय कर दिए अपने-अपने उत्थान के लिए, न कि प्रदेश के विकास के लिए । इतना ही नहीं, जब 2009 में लोकसभा का चुनाव आया नीतीश कुमार पार्टी का टिकट जॉर्ज फर्नांडिस को नहीं दिए। यह अलग बात है कि बाद में, उन्हें राज्यसभा में कुर्सी मिली। नितीश की व्यक्तित्व को बचाते जॉर्ज फर्नांडिस अनेकानेक बार कहे कि उनका स्वास्थ्य अब साथ नहीं दे रहा है अतः वे सार्वजनिक राजनीति से किनारे हो गए हैं। 

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जया जेटली

लेकिन जॉर्ज फर्नांडफिस के साथ उनकी परछाई के रूप में रही श्रीमती जया जेटली अपनी पुस्तक ‘लाइफ अमंग द स्कार्पियन्स: मेमोयर्स ऑफ़ अ वूमन इन इंडियन पॉलिटिक्स’ में लिखी हैं कि “दिलचस्प बात यह है कि उनकी परेशानियाँ समता पार्टी के भीतर ज़्यादा थीं, जहाँ बिहार के कई राजनीतिक नेता एक-दूसरे के खिलाफ़ काम कर रहे थे और नीतीश कुमार से लड़ रहे थे या उनसे समझौता कर रहे थे, जबकि जॉर्ज फ़र्नांडिस के पास सभी को शांत रखने और अपनी जगह पर बनाए रखने का एक दयनीय काम था। वे हमेशा कहते थे कि नीतीश कुमार एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके दिमाग़ को वे कभी नहीं समझ सकते। सबसे बढ़कर एक लोकतांत्रिक व्यक्ति होने के नाते, जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने की तारीख़ पर सहमत होने से इनकार कर देते थे या ऐसी बैठकों के दौरान बनी आम सहमति को पलट देते थे, तो वे रात में अकेले उनसे मिलने आते थे और अपने विचार रखते थे, जिस पर वे अमल करने पर ज़ोर देते थे। अक्सर, इस वजह से पार्टी ने अच्छे लोगों को भाजपा में खो दिया; ये वे लोग थे जो अक्सर मेरे साथ चाय पीते थे और नीतीश कुमार के बारे में अपनी पीड़ाएँ साझा करते थे। मैंने जॉर्ज फ़र्नांडिस को ऐसी बातें बताना अपना कर्तव्य समझा, लेकिन मैं यह भी जानता था कि इससे अनजाने में उनकी चिंताएँ बढ़ जाएँगी। वे हमेशा बड़े लक्ष्य की खातिर तर्कहीन बातों को तर्कसंगत बनाने के लिए उनके आगे झुक जाते थे।

जया जेटली आगे लिखती हैं: “1998 में, एनडीए सरकार ने जॉर्ज फर्नांडिस को गठबंधन का संयोजक चुना। उन्होंने शासन के लिए साझा एजेंडा तैयार करने में मदद की थी और भाजपा का मानना था कि उन्होंने गठबंधन को वह वैधता दी है जो सभी ‘क्या हम धर्मनिरपेक्ष हैं/क्या हम नहीं हैं?’ सहयोगियों को आश्वस्त करने के लिए आवश्यक है ताकि वे स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर सकें। इसने मधु दंडवते और सुरेंद्र मोहन जैसे उनके कई समाजवादी सहयोगियों को अलग-थलग कर दिया, लेकिन वे भी युवा और अधिक महत्वाकांक्षी लोगों के बीच विभाजित थे जो रुके रहे क्योंकि वे एक सक्रिय राजनीतिक जीवन जीना चाहते थे और उन्हें लगा कि जॉर्ज फर्नांडिस भाजपा के साथ गठबंधन में उन्हें इसे हासिल करने में मदद करने के लिए सबसे अच्छा दांव थे।” 

श्रीमती जेटली के अनुसार: “उन्हें (जॉर्ज फर्नांडिस) हमेशा ऐसे सहयोगियों के बीच रहना अच्छा लगता था जो जुझारू थे और चुनावी राजनीति को अच्छी तरह समझते थे। इस प्रकार उन्होंने उन लोगों को नजरअंदाज कर दिया जो अलग-थलग थे, जब तक कि वे भी कभी-कभार स्कूल और अस्पताल में भर्ती होने जैसे छोटे-मोटे व्यक्तिगत उपकार मांगने नहीं आते, जिसे वे खुशी-खुशी पूरा करते थे। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, पार्टी कार्यकर्ता और यहां तक कि गठबंधन के सहयोगी भी लगातार उपकार मांगते थे, नकदी से लेकर मुफ्त यात्रा पास तक और समितियों में पद तक जो उनके अनुयायियों को कुछ प्रभाव दे सकते थे; यहां तक कि परीक्षा में फेल होने वाले बच्चों को भी पास करने और इंटरव्यू में शामिल करने के लिए अनुरोध किए गए। वह हमेशा इस बात से नाराज या दुखी रहता था, यह सोचकर कि बदले में कुछ मांगे बिना सेवा करने का जोश कहां गायब हो गया। इसके बाद ऐसे अधिकांश लोगों ने उसके खिलाफ शिकायत की, यह कहते हुए कि अगर अन्य पार्टियां और राजनेता अपने लोगों की मदद करते हैं, तो वह क्यों नहीं कर सकता। संरक्षण और उदारता बांटना उसकी शैली नहीं थी, क्योंकि उसने कभी अपने लिए ऐसी चीजों की मांग नहीं की थी।” 

चलिए बिहार गंगा पार मुजफ्फरपुर चलते हैं जो जार्ज फर्नांडिस की शुरुआती दिनों में कर्मभूमि रहा। बाबू लंगट सिंह के प्रपौत्र डॉ प्रगति कुमार सिंह बातचीत के दौरान डॉ सिंह के मन में जो वेदना थी, वह सम्मुख आ रहा था। प्रदेश की वर्तमान स्थिति के प्रति हताश थे। वैसे इन शब्दों को पढ़कर विद्वान और विदुषी से लेकर समाज के प्रतिष्ठित ठेकेदार तक स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन बिहार में यह बात आम है कि जिसे आप ‘सहारा’ दे रहे हैं, जिसे ‘उपकृत’ कर रहे हैं; लाख में शायद ही कोई एक व्यक्ति होगा तो जीवन पर्यन्त उस उपकार को याद रखेगा, अन्यथा लगभग सभी ‘उपकृत लोग’ अवसर मिलने पर ‘उपकार करने वाले’ को छिटकिनी लगाने, पटकने में पीछे नहीं रहता है।

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नीतीश कुमार, शरद यादव और लालू यादव

बिहार में इसका अनेकानेक दृष्टान्त मिलेगा। पटकने की क्रिया कहीं भी हो सकती है। राजनीति में तो पूछिए ही नहीं और इसका सबसे बड़ा दृष्टान्त ‘जार्ज फर्नांडिस’ हैं। आज हमारे बीच नहीं हैं, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें। लेकिन इतिहास तो इतिहास है। जॉर्ज फर्नांडिस को बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबू दिग्विजय नारायण सिंह मुजफ्फरपुर में तनिक ‘राजनीतिक जगह क्या दिए’, सन 1980 के आम चुनाव में फर्नांडिस साहब बाबू दिग्विजय नारायण सिंह पर ही निशाना साध दिए। 

बाबू दिग्विजय नारायण सिंह लगभग तीन दशक तक भारतीय संसद के निचले सदन में मुजफ्फरपुर, पुपरी, हाजीपुर, वैशाली का प्रतिनिधित्व करते आ रहे थे। लेकिन तत्कालीन जनता पार्टी (सोशलिस्ट) नेता जॉर्ज फर्नांडिस का शिकार हो गए और महज 6000 मतों से सं 1980 के आम चुनाव में हार गए। सं 1980 तक मुजफ्फरपुर ही नहीं, देश के सभी विधान सभा, लोक सभा संसदीय क्षेत्रों के मतदाताओं का मानसिक स्वरूप में बदलना प्रारम्भ हो गया था। यह अलग बात थी कि जिस समय बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के दादाजी का देहांत हुआ था (1912), भारत में एक अमेरिकन डालर की कीमत 0.09 थी। लेकिन जिस समय बाबू दिग्विजय सिंह चुनाव हारे थे, लोगों की मानसिकता क्या, अमेरिकन डॉलर की तुलना में भारतीय रुपयों की कीमत भी काफी लुढ़क गई थी और एक अमेरिकन डालर के बदले 7.86 भारतीय रुपये देने होते थे। आज की स्थिति तो पूछें ही नहीं। बड़े-बड़े समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, गणितज्ञ ज्ञान अर्जित करने के लिए भारतीय चौराहों पर बैठे हैं और समाज के चापलूस-चाटुकार सोने के सिक्के निगल रहे हैं, बिना डकारे। खैर। 

दिग्विजय नारायण सिंह सन 1952 से 1980 तक 28 लगातार वर्ष सांसद रहे। वे सन 1952 से 1957 (मुजफ्फरपुर), 1957-1962 पुपरी, 1962-1971 मुजफ्फरपुर, 1971-1977 हाजीपुर और 1977-1980 वैशाली लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किये थे। लेकिन जिस जॉर्ज फर्नांडिस को आपातकाल के बाद दिग्विजय नारायण सिंह ने बिहार की राजनीति में मार्ग दर्शन किये, सं 1980 के आम चुनाव में मुजफ्फरपुर में उन्ही के विरुद्ध खड़े होकर 6000 मतों से शिकस्त दे दिया। उस समय के राजनीतिक समीक्षक आज भी इसे ‘विश्वासघात’ मानते हैं। सं 1980 चुनाव की ‘हार’ उन्हें अंदर से झकझोड़ दिया। जिस व्यक्ति ने, जिसके पिता, पितामह और परिवार के अन्य सदस्य मुजफ्फरपुर ही नही, बल्कि गंगा के उस पार के इलाके में शिक्षा के माध्यम से एक क्रांति लाये थे, वह व्यक्ति ही उस क्रांति का शिकार हो गया। परिणाम यह हुआ कि बाबू दिग्विजय नारायण सिंह राजनीति से संन्यास ले लिए और सं 1980 आम चुनाव के 11-वर्ष होते-होते अपनी अंतिम सांस लेकर अनंत यात्रा पर निकल गए। 

लोग माने अथवा नहीं। लेकिन सत्य तो यही है कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से बिहार की राजनीतिक गलियारे में जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह राजनेताओं का जन्म हुआ, वे सभी विगत पांच दशकों में बिहार को ध्वस्त ही नहीं, विध्वंस की ओर उन्मुख कर दिया – चाहे गंगा के इस पार का आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, बौद्धिक इत्यादि वातावरण हो अथवा गंगा के उस पर का। चाहे मध्य बिहार का इलाका को या फिर बाबा विश्वनाथ की नगरी देवघर-भागलपुर-सुल्तानगंज का – विध्वंस चतुर्दिक है और विकास रसातल में विलीन हो गया है। 

आज बिहार में महज ‘वोट की राजनीति’ होती है। किसी भी राजनेता को, चाहे पंचायत के स्तर के हों, जिला के परिषदों में बैठे हों, प्रदेश के विधानसभा या विधान परिषद में बैठे हों या फिर दिल्ली के संसद में कुर्सी तोड़ रहे हों; प्रदेश के विकास के प्रति रत्तीभर चिंता नहीं है। यह विकास चाहे आर्थिक हो या शैक्षिक। आज अगर प्रदेश के सभी शैक्षिक संस्थाओं को बंद कर ‘राजनीतिक पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय खोल दिया जाय तो यकीन मानिये इन नव-निर्मित राजनीतिक शैक्षिक संस्थाओं में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या महिला, क्या पुरुष सभी पंक्तिबद्ध हो जायेंगे क्योंकि स्वहित की चिंता अधिक है, ‘सामाजिक हित’ की तुलना में। 

क्रमशः 

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