इतिहास खुद दोहराता है : ‘लन्दन पर धावा  – 257 साल बाद ब्रिटेन पर भारतीय मूल का कब्ज़ा

ऋषि सनक

नई दिल्ली / लन्दन : दिल्ली के रायसीना हिल पर ख़ुशी है। हवाओं में एक मादकता है। वजह भी है। सन 1608 के अगस्त महीने में कैप्टेन विलियम हाकिंस ‘हेक्टर जहाज का लंगर’ डालकर ईस्ट इण्डिया कंपनी का आने का एलान किया था।  इस घटना के 157 साल बाद सं 1765 में शाह आलम को हराकर लार्ड क्लाईव भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी का झंडा गाड़ दिया। उन दिनों एक कहावत प्रचलित थी – दुनिया खुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का। फिर सं 1858 में ईस्ट इण्डिया कंपनी का अधिपत्य समाप्त कर भारत ब्रिटिश क्रौन के अधीन आ गया। अगस्त 2, 1858 को गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट बना। यदि देखा जाय तो ईस्ट इण्डिया कंपनी की स्थापना से लेकर ब्रिटानिया सरकार की अंत तक, विगत 257 वर्षों में यह पहला अवसर होगा जब भारतीय मूल का कोई व्यक्ति ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करेगा। यानी ‘लन्दन पर धाबा – ब्रिटेन पर कब्ज़ा’ का समय आ गया। इतिहास खुद को दोहराता है। 

बोरिस जॉनसन को कंजरवेटिव पार्टी के नेता और ब्रिटिश प्रधान मंत्री के रूप में बदलने की दौड़ भले ही आधिकारिक तौर पर शुरू हो गई हो, लेकिन इसने दो ब्रिटिश भारतीयों सहित अपने विविध उम्मीदवारों के लिए पहले ही इतिहास रच दिया है। फ्रंटरनर पूर्व चांसलर ऋषि सनक और अटॉर्नी जनरल सुएला ब्रेवरमैन, दोनों 42, में ब्रिटेन में जन्मे भारतीय मूल के राजनेताओं के समान बहुत कुछ है, जिन्होंने 2016 के जनमत संग्रह में ब्रेक्सिट के लिए प्रचार किया था।

मतपत्र पर डाउनिंग स्ट्रीट में शीर्ष पद के लिए इच्छुक अन्य लोग मंगलवार शाम को नामांकन बंद होने के बाद यह भी दर्शाते हैं कि लंदन में जन्मे पूर्व मंत्री केमी बडेनोच, 42, नाइजीरियाई मूल के और इराक में जन्मे 55 वर्षीय चांसलर नादिम ज़ाहवी में विविधता है। ब्रिटेन में शरणार्थी के रूप में आये जब वे 11 वर्ष के थे और उनका परिवार सद्दाम हुसैन के नेतृत्व में बगदाद से भगा था।  व्यापार मंत्री पेनी मोर्डंट और टोरी बैकबेंचर टॉम तुगेंदहट, दोनों 49 हैं और उनकी सैन्य पृष्ठभूमि है, विदेश सचिव लिज़ ट्रस, 46, और पूर्व मंत्री जेरेमी हंट, 55, दौड़ के लिए नामांकित आठ कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों की सूची को पूरा करते हैं। ऋषि सनक ने भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधान मंत्री बनने के लिए एक स्लीक वीडियो के साथ अपनी पिच बनाई, जिसमें उनके ग्रामीण अफ्रीका स्थित भारतीय नाना, श्राक्ष की बहुत ही व्यक्तिगत प्रवास कहानी का संदर्भ दिया गया, जो यूके में एक बेहतर जीवन का निर्माण करने के लिए तंजानिया से उड़ान भर रहे थे। 1960 के दशक में।

सनक कहते हैं, “यह युवती ब्रिटेन आई थी, जहां उसे नौकरी मिल गई, लेकिन अपने पति और बच्चों को पालने के लिए पर्याप्त पैसे बचाने में उसे लगभग एक साल लग गया। उन बच्चों में से एक मेरी 15 साल की मां थी।” वीडियो जिसे पिछले हफ्ते रिलीज होने के बाद से लगभग 50,000 बार देखा जा चुका है। मेरी मां ने फार्मासिस्ट बनने की योग्यता हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की। वह मेरे पिता, एक एनएचएस [राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा] जीपी से मिलीं, और वे साउथेम्प्टन में बस गए। उनकी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, लेकिन मेरी कहानी यहीं से शुरू हुई, वे वॉयसओवर में कहते हैं, अपने सामान्य चिकित्सक पिता यशवीर और मां उषा की पारिवारिक तस्वीरों के साथ उनके साथ एक युवा लड़के के रूप में उनके भाई-बहनों के साथ। टोरी के मतदाताओं के लिए संदेश यह है कि वह आधुनिक ब्रिटेन के चेहरे का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां कड़ी मेहनत और निष्पक्षता के मूल्य जाति और पृष्ठभूमि जैसे कारकों पर हावी हो जाते हैं।

बोरिस जॉनसन और ऋषि सनक

अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से एमबीए करने से पहले ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र का अध्ययन करने वाले गोल्डमैन सैक्स के पूर्व बैंकर ने यॉर्कशायर में रिचमंड के लिए संसद सदस्य के रूप में अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में एक आसान सवारी की हो सकती है। लेकिन कैबिनेट में ऐसा नहीं है।   जबकि वह COVID महामारी लॉकडाउन के दौरान बेहद लोकप्रिय साबित हुए, जब एक नए चांसलर के रूप में उन्होंने नौकरियों और आजीविका को बचाने के लिए अभूतपूर्व उपायों की एक श्रृंखला शुरू की, इस साल की शुरुआत में हनीमून की अवधि समाप्त हो गई जब मुद्रास्फीति कम होने लगी और उन्होंने कुछ कठिन कर वृद्धि कॉल की। 

जैसा कि मीडिया अपने पूर्व बॉस जॉनसन के साथ कलह की खबरों के बीच शत्रुतापूर्ण हो गया, सनक को अपनी भारतीय पत्नी, इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति के कर मामलों पर बहुत व्यक्तिगत हमलों का सामना करना पड़ा। ध्यान भंग होने से बचने के लिए उसने ब्रिटेन में भी अपनी भारतीय आय पर कर का भुगतान करने के लिए अपना कानूनी गैर-अधिवास का दर्जा छोड़ दिया। 

वित्त मंत्री बनने के बाद कुछ महीनों के लिए अपने यूएस ग्रीन कार्ड पर बने रहने का उनका अपना निर्णय भी मीडिया के निशाने पर आ गया, जिससे ब्रिटिश राजनीति में इसे बाहर रखने की उनकी दीर्घकालिक योजनाओं पर संदेह पैदा हो गया। लेकिन ऐसा लगता है कि दंपति, जिनकी दो स्कूली बेटियां अनुष्का और कृष्णा हैं, ने डाउनिंग स्ट्रीट को इस बार नंबर 10 पर जाने का फैसला किया है। जो जॉनसन के इस्तीफे में समाप्त हुआ। इस बीच, पूर्व बैरिस्टर सुएला ब्रेवरमैन टोरी पार्टी के कठिन ब्रेक्सिट विंग से संबंधित हैं, जो यूरोप से स्पष्ट विराम चाहती है, जिसमें यूके को यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय (ईसीएचआर) से बाहर निकालना शामिल है। अपने अभियान वीडियो में, वह अपनी मॉरीशस की मां और गोवा मूल के पिता के अपने व्यक्तिगत इतिहास का भी उल्लेख करती है, जो केन्या से यूके चले गए। वे ब्रिटेन से प्यार करते थे। इसने उन्हें आशा दी। इससे उन्हें सुरक्षा मिली। इस देश ने उन्हें मौका दिया है। मुझे लगता है कि मेरी पृष्ठभूमि वास्तव में राजनीति के प्रति मेरे दृष्टिकोण से सूचित है, दक्षिण पूर्व इंग्लैंड में फ़ारेहम के सांसद कहते हैं।

दो के मातृत्व अवकाश की मां ने पिछले साल एक अतिदेय कानून परिवर्तन लाया, जिससे उन्हें जन्म देने के लिए कैबिनेट मंत्री बने रहने की अनुमति मिली। कंजर्वेटिव होम वेबसाइट द्वारा टोरी सदस्यता के बीच एक वोट में, वह चौथे स्थान पर सनक के बाद तीसरे स्थान पर आई। यह इंगित करेगा कि लगभग 200,000 टोरी, जो सांसदों द्वारा चुने गए अंतिम दो उम्मीदवारों के बीच नेता और प्रधान मंत्री की पसंद पर डाक मतपत्र द्वारा अंतिम बात करेंगे, ऐतिहासिक परिवर्तन को गले लगाने के लिए तैयार हैं जो नेतृत्व की दौड़ में फेंक दिया गया है। टोरी सदस्यों की उस तालिका में पेनी मोर्डौंट और केमी बैडेनोच को क्रमशः नंबर 1 और 2 पर रखा गया है। (प्रेसट्रस्टऑफ़इण्डिया के सुश्री आदिति खन्ना के सहयोग से) 

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बहरहाल, बीबीसी के वक़ार मुस्तफ़ा,जो पेशे से पत्रकार और शोधार्थी हैं, लाहौर से लिखे थे: वो सोलहवीं सदी का आख़िरी साल था। दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत में तैयार होता था। इसी वजह से इस मुल्क को सोने की चिड़िया कहा जाता था। तब दिल्ली की तख़्त पर मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की हुकूमत थी।वो दुनिया के सबसे दौलतमंद बादशाहों में से एक थे। दूसरी तरफ़ उसी दौर में ब्रिटेन गृहयुद्ध से उबर रहा था। उसकी अर्थव्यवस्था खेतीबाड़ी पर निर्भर थी और दुनिया के कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल वहां तैयार होता था। ब्रिटेन में उस वक़्त महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की हुकूमत थी। यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ पुर्तगाल और स्पेन, व्यापार में ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी थीं। व्यापारियों के रूप में ब्रिटेन के समुद्री लुटेरे पुर्तगाल और स्पेन के व्यापारिक जहाज़ों को लूटकर ही संतुष्ट हो जाते थे। उसी दौरान घुमंतू ब्रितानी व्यापारी राल्फ़ फ़िच को हिंद महासागर, मेसोपोटामिया, फ़ारस की खाड़ी और दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक यात्राएँ करते हुए भारत की समृद्धि के बारे में पता चला। राल्फ़ फ़िच की ये यात्रा इतनी लंबी थी कि ब्रिटेन लौटने से पहले उन्हें मृत मानकर उनकी वसीयत को लागू कर दिया गया था। पूरब से मसाले हासिल करने के लिए लेवेंट कंपनी दो नाकाम कोशिशें कर चुकी थी। 

भारत के बारे में राल्फ़ फ़िच की जानकारी के आधार पर एक अन्य घुमंतू सर जेम्स लैंकेस्टर सहित ब्रिटेन के 200 से अधिक प्रभावशाली और व्यावसायिक पेशेवरों को इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार आया। उन्होंने 31 दिसंबर 1600 को एक नई कंपनी की नींव डाली और महारानी से पूर्वी एशिया में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया। इस कंपनी के कई नाम हैं, लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना जाता है। शुरुआती सालों में दूसरे क्षेत्रों में यात्रा करने के बाद अगस्त 1608 में कैप्टन विलियम हॉकिंस ने भारत के सूरत बंदरगाह पर अपने जहाज़ ‘हेक्टर’ का लंगर डालकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आने का एलान किया। हिंद महासागर में ब्रिटेन के व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी डच और पुर्तगाली पहले से ही मौजूद थे। तब किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया होगा कि ये कंपनी अपने देश से बीस गुना बड़े, दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक और उसकी लगभग एक चौथाई आबादी पर सीधे तौर पर शासन करने वाली थी। 

तब तक बादशाह अकबर की मृत्यु हो चुकी थी। उस दौर में संपत्ति के मामले में केवल चीन का मिंग राजवंश ही बादशाह अकबर की बराबरी कर सकता था। ख़ाफ़ी ख़ान निज़ामुल-मुल्क की किताब ‘मुंतख़बुल-बाब’ के अनुसार, अकबर ने पाँच हज़ार हाथी, बारह हज़ार घोड़े, एक हज़ार चीते, दस करोड़ रुपये, बड़ी अशर्फ़ियों में सौ तोले से लेकर पाँच सौ तोले तक की हज़ार अशर्फ़ियाँ, दो सौ बहत्तर मन कच्चा सोना, तीन सौ सत्तर मन चाँदी, एक मन जवाहरात जिसकी क़मीत तीन करोड़ रुपये थी, अपने पीछे छोड़ा था।अकबर के शहज़ादे सलीम, नूरुद्दीन, जहाँगीर की उपाधि के साथ तख़्त पर आसीन हो चुके थे। शासन में सुधारों को लागू करते हुए कान, नाक और हाथों को काटने का दंड समाप्त कर दिया गया था। (जनता के लिए) शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं का प्रयोग और विशेष दिनों में जानवरों के वध पर पाबंदी का आदेश देने के साथ कई अवैध करों को हटाया जा चुका था। सड़कें, कुएँ और सराय बनाए जा रहे थे। उत्तराधिकार के क़ानूनों को सख़्ती से लागू किया गया था और हर शहर के सरकारी अस्पतालों में मुफ़्त इलाज का आदेश दिया गया था। फरियादियों की फ़रियाद के लिए महल की दीवार से न्याय की एक ज़ंजीर लटका दी गई थी। 

ब्रिटेन का पार्लियामेंट

विश्व विख्यात इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के अनुसार, हॉकिंस को जल्द ही एहसास हो गया कि चालीस लाख मुग़लों की सेना के साथ वैसा युद्ध नहीं किया जा सकता जैसा कि उस समय यूरोप में हो रहा था। इसलिए यहाँ उसे मुग़ल बादशाह की इजाजत के साथ-साथ सहयोग की भी ज़रूरत थी। हॉकिंस एक वर्ष के भीतर मुग़ल राजधानी आगरा पहुंचा। कम पढ़े-लिखे हॉकिंस को जहाँगीर से व्यापार की अनुमति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली। उसके बाद संसद के सदस्य और राजदूत सर थॉमस रो को शाही दूत के रूप में भेजा गया। सर थॉमस रो 1615 में मुग़ल राजधानी आगरा पहुंचे। उन्होंने राजा को बहुमूल्य उपहार भेंट किया, जिसमें शिकारी कुत्ते और उनकी पसंदीदा शराब भी शामिल थी। ब्रिटेन के साथ संबंध बनाना जहाँगीर की प्राथमिकता में नहीं था। थॉमस रो के अनुसार, जब भी बात होती थी, तो बादशाह उससे व्यापार के बजाय घोड़ों, कलाकृतियों और शराब के विषय में चर्चा करने लगता। तीन साल तक लगातार अनुनय-विनय के बाद सर थॉमस रो को इसमें सफलता मिली। जहाँगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। समझौते के तहत, कंपनी और ब्रिटेन के सभी व्यापारियों को उपमहाद्वीप के प्रत्येक बंदरगाह और ख़रीदने तथा बेचने के लिए जगहों के इस्तेमाल की इजाजत दी गई। बदले में यूरोपीय उत्पादों को भारत को देने का वादा किया गया था, लेकिन तब वहाँ बनता ही क्या था? 

ये तय किया गया था कि कंपनी के जहाज़ राजमहल के लिए जो भी प्राचीन वस्तुएँ और उपहार लाएँगे उन्हें सहर्ष स्वीकार किया जाएगा। कंपनी के व्यापारी मुग़लों की रज़ामंदी से भारत से सूत, नील, पोटैशियम नाइट्रेट और चाय ख़रीदते, विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेचते और ख़ूब मुनाफ़ा कमाते। कंपनी की पूँजी का आधार व्यापारिक पूँजी था। कंपनी जो भी वस्तु ख़रीदती उसका मूल्य चाँदी देकर अदा करती, जो उसने 1621 से 1843 तक स्पेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में दासों को बेचकर जमा किया था। साल 1670 में, ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को विदेश में युद्ध लड़ने और उपनिवेश स्थापित करने की अनुमति दे दी। ब्रिटिश सेना के सशस्त्र बलों ने पहले भारत में पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी प्रतिद्वंद्वियों का मुक़ाबला किया और अधिकांश युद्ध जीते। धीरे-धीरे उसने बंगाल के तटीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया। 

लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी में, मुग़लों से केवल एक बार उनका आमना-सामना हुआ था। साल 1681 में, कंपनी के कर्मचारियों ने कंपनी के निदेशक सर चाइल्ड से शिकायत की कि बंगाल में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के भांजे नवाब शाइस्ता ख़ान के अधिकारी उन्हें कर और अन्य मामलों में परेशान करते हैं। सर चाइल्ड ने सैन्य सहायता के लिए अपने सम्राट को पत्र लिखा। इसके बाद 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल की ओर रवाना हुआ। मुग़ल बादशाह की सेना भी तैयार थी, इसलिए युद्ध में मुग़लों की जीत हुई। 1695 में, ब्रितानी समुद्री डाकू हेनरी एवरी ने औरंगज़ेब के समुद्री जहाज़ों ‘फ़तेह मुहम्मद’ और ‘ग़ुलाम सवाई’ को लूट लिया। इस ख़ज़ाने की कीमत लगभग छह से सात लाख ब्रिटिश पाउंड थी। 

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इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल का कहना है कि ब्रितानी सैनिकों को मुग़ल सेना ने मक्खियों की तरह मारा। बंगाल में कंपनी के पाँच कारख़ाने नष्ट कर दिए गए और सभी अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकाल दिया गया। सूरत के कारख़ाने को बंद कर दिया गया और बम्बई में भी उनका यही हाल किया गया। कंपनी के कर्मचारियों को ज़ंजीरों में जकड़कर शहरों में घुमाया गया और अपराधियों की तरह उन्हें अपमानित किया गया। कंपनी के पास माफ़ी माँगने और अपने कारख़ानों को वापस पाने के लिए राजा के दरबार में भिखारियों की तरह उपस्थित होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। ब्रिटिश सम्राट ने आधिकारिक रूप से हेनरी एवरी की निंदा की और मुग़ल बादशाह से माफ़ी माँगी। औरंगज़ेब आलमगीर ने 1690 में कंपनी को माफ कर दिया। 

सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन ख़रीदती थी  सामान का भुगतान चाँदी में करना पड़ता था, क्योंकि उनके पास कोई भी ऐसा उत्पाद नहीं था जिसकी चीन को आवश्यकता हो। इसका एक उपाय निकाला गया –  बंगाल में पोस्ते की खेती की गई और बिहार में अफ़ीम का निर्माण करने के लिए कारख़ाने लगाए गए और इस अफ़ीम को तस्करी के ज़रिये चीन पहुँचाया गया। उस समय तक, चीन में अफ़ीम का बहुत कम उपयोग किया जाता था. ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीनी एजेंटों के माध्यम से लोगों के बीच अफ़ीम को बढ़ावा दिया। कंपनी ने अफ़ीम के व्यापार से रेशम और चीनी के बर्तन भी ख़रीदे और मुनाफ़ा भी कमाया। 

साल 1707 में बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हो गए. कंपनी ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए लाखों की संख्या में स्थानीय लोगों को सेना में भर्ती किया। यूरोप में होने वाली औद्योगिक क्रांति के कारण युद्ध तकनीक में भी वे दक्ष हो गए। यह छोटी लेकिन प्रभावी सेना एक के बाद एक पुरानी तकनीक से लैस मुग़लों, मराठों, सिखों और स्थानीय नवाबों की बड़ी सेनाओं को हराती चली गई। साल 1756 में, नवाब सिराजुद्दौला भारत के सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य बंगाल के शासक बने। मुग़ल शासन के राजस्व का पचास प्रतिशत इसी राज्य से आता था. बंगाल न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र था। इस क्षेत्र के लोग रेशम, सूती वस्त्र, इस्पात, पोटैशियम नाइट्रेट और कृषि तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करके अच्छी कमाई करते थे. कंपनी ने कलकत्ता में अपने क़िलों का विस्तार करना शुरू कर दिया और अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी। 

नवाब ने कंपनी को संदेश भेजा कि वह अपने क्षेत्र का विस्तार न करे। आदेश की अवहेलना के बाद नवाब ने कलकत्ता पर हमला किया और ब्रिटिश क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। ब्रिटिश क़ैदियों को फ़ोर्ट विलियम के तहख़ाने में क़ैद कर दिया गया।ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब की सेना के सेनापति मीर जाफ़र को अपने साथ मिला लिया, जिसके मन में शासक बनने की इच्छा थी. 23 जून 1757 को प्लासी में कंपनी और नवाब की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। तोपों की अधिकता और मीर जाफ़र के विश्वासघात के कारण अंग्रेज़ विजयी हुए और मीर जाफ़र को बंगाल के सिंहासन पर बैठा दिया गया। अंग्रेज़ अब मीर जाफ़र से मालगुज़ारी वसूलने लगे। इस प्रकार भारत में लूटपाट का युग आरंभ हुआ। जब ख़ज़ाना ख़ाली हो गया, तो मीर जाफ़र ने कंपनी से पीछा छुड़ाने के लिए डच सेना की मदद ली।  सन 1759 में और फिर 1764 में विजय के बाद कंपनी ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। नये-नये करों का बोझ लादा और बंगाल का सामान सस्ते दामों में ख़रीदकर दूसरे देशों में महंगे दामों में बेचने लगे। 

स्कॉलर वजाहत मसूद लिखते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्रितानी व्यापारी चाँदी के सिक्के देकर भारतीयों से कपास और चावल ख़रीदते थे। प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने वित्त और राजस्व की प्रणाली की सहायता से भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। यह व्यवस्था की गई थी कि भारतीयों से प्राप्त राजस्व का लगभग एक तिहाई भारतीय उत्पादों को ख़रीदने में ख़र्च किया जाएगा। इस प्रकार भारत के लोग जो राजस्व देते थे उसके एक तिहाई के बदले उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया जाता था। इतिहासकार, आलोचक और पत्रकार बारी अलीग ने अपनी पुस्तक ‘कंपनी की हुकूमत’ में लिखा है, “दुनिया के प्रत्येक देश के व्यापारी भारत के साथ व्यापार करते थे. सभ्य लोगों के बीच, ढाका और मुर्शिदाबाद के मलमल का उपयोग महानता और श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाता था। यूरोप के सभी देशों में इन दोनों शहरों के मलमल और चिकन बहुत लोकप्रिय थे।” 

सुएला ब्रेवरमैन

भारत के अन्य उद्योगों की तुलना में कपड़ा उद्योग काफ़ी बेहतर स्थिति में था। भारत से सूती और ऊनी कपड़े, शॉल, मलमल और कशीदाकारी का निर्यात किया जाता था। अहमदाबाद अपने रेशम और रेशम पर किए जाने वाले सोने-चाँदी के काम के लिए दुनिया भर में मशहूर था। अठारहवीं सदी में इंग्लैंड में इन कपड़ों की इतनी अधिक माँग थी कि सरकार को इन पर रोक लगाने के लिए भारी कर लगाना पड़ा। कपड़ा बुनाई के अलावा लोहे के काम में भी भारत काफ़ी प्रगति कर चुका था। लोहे से बना सामान भी भारत से बाहर भेजा जाता था। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान मुल्तान में जहाज़ों के लिए लोहे का लंगर बनाया जाता था। बंगाल ने जहाज़ निर्माण में काफ़ी प्रगति की थी। एक अंग्रेज़ के शब्दों में, “आम अंग्रेज़ों को समझाना मुश्किल है कि हमारे शासन से पहले भारतीय लोग काफ़ी सुखद जीवन व्यतीत कर रहे थे. व्यापारी और साहसी लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थीं – मुझे पूरा विश्वास है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय व्यापारी बहुत ही आरामदायक जीवन जी रहे थे।”

“औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान सूरत और अहमदाबाद से जो उत्पाद निर्यात किया जाता था, उससे क्रमश: तेरह लाख और एक सौ से तीन लाख रुपये की वार्षिक राजस्व की वसूली होती थी।” ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी लेकिन उसके पास ढाई लाख सैनिकों की एक फौज थी। जहाँ व्यापार से लाभ की संभावना नहीं होती, तो वहाँ सेना उसे संभव बना देती। कंपनी की सेना ने अगले पचास वर्षों में भारत के अधिकांश हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन क्षेत्रों पर कंपनी को राजस्व देने वाले स्थानीय शासक शासन करने लगे। प्रत्यक्ष रूप से सत्ता स्थानीय शासकों के हाथों में थी, लेकिन राज्य का अधिकांश राजस्व ब्रिटिश तिजोरियों में जाता था। जनता मजबूर थी। अगस्त 1765 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़ल बादशाह शाह आलम को हराया। लॉर्ड क्लाइव ने पूर्वी प्रांतों बंगाल, बिहार और उड़ीसा की ‘दीवानी’ अर्थात् राजस्व वसूलने और जनता को नियंत्रित करने का अधिकार 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले हासिल कर लिया। इसके बाद भारत कंपनी के शासन के अधीन आ गया। इतिहासकार सैयद हसन रियाज़ के अनुसार उस दौर में जनता के बीच यह धारणा प्रचलित थी, “दुनिया ख़ुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का।”

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मुग़लिया शासन के अंतिम दौर में शासकों द्वारा जनता का ख़ून निचोड़कर जो धन संपदा एकत्र की जाती थी वह शाही परिवार की विलासिता में ख़र्च हो जाता था। मुग़ल शहज़ादे जिन्हें सुल्तान कहा जाता था, वे अपने आलस्य, निष्क्रियता, कायरता और विलासिता के लिए विख्यात थे। इतिहासकार डॉक्टर मुबारक अली अपनी पुस्तक ‘आख़िरी अहद का मुग़लिया हिंदुस्तान’ में लिखते हैं कि “सन 1948 में नृत्य और सरोद की महफ़िलों में सब कुछ लुटाकर दाद देने वाले नाकारा सुल्तानों की संख्या 2104 तक पहुँच गई थी। शाह आलम का बेटा अकबर भी कामुकता में अपने बाप से कम नहीं था। अठारह वर्ष की आयु में वह अठारह बेग़मों का शौहर था।.” 

अठारहवीं शताब्दी में, 1769 से 1773 तक बिहार से लेकर बंगाल तक का दक्षिणी क्षेत्र अकाल से प्रभावित था। एक अनुमान के अनुसार अकाल से लाखों लोगों की मौत हुई। गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई आबादी भुखमरी से मर गई। मौसम की प्रतिकूल स्थिति के अलावा ग्रामीण आबादी कंपनी द्वारा लगाए गए भारी कर के कारण कंगाल हो गई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार बंगाल का अकाल मानव निर्मित था। किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय शासकों को अपनी सेना किराए पर उपलब्ध कराती थी। लेकिन इन सैन्य ख़र्चों के बोझ की वजह से वे जल्द ही कंगाल हो जाते और उन्हें अपना शासन गँवाना पड़ता।

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी शेख़ दीन मुहम्मद ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि “सन 1780 के आसपास जब हमारी सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं, तो हमने कई हिंदू तीर्थयात्रियों को देखा जो सीता कुंड जा रहे थे. 15 दिनों में हम मुंगेर से भागलपुर पहुँच गए। हमने शहर के बाहर शिविर लगाया। यह शहर औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण था और व्यापार की रक्षा के लिए इसके पास अपनी एक सेना भी थी। हम चार-पाँच दिन वहाँ ठहरे. हमें पता चला कि ईस्ट इंडिया कंपनी का कैप्टन ब्रुक, जो सैनिकों की पाँच कंपनियों का प्रमुख था, वह भी पास में ही ठहरा हुआ है। उसे कभी-कभार पहाड़ी आदिवासियों का सामना करना पड़ता। ये पहाड़ी लोग भागलपुर और राजमहल के बीच की पहाड़ियों पर रहते थे और वहाँ से गुज़रने वाले यात्रियों को परेशान करते थे। कैप्टन ब्रुक ने उनमें से बहुत सारे लोगों को पकड़ लिया और उन्हें एक मिसाल बना दिया।  कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए और कुछ को इस तरह से फाँसी पर लटकाया गया कि पहाड़ों से साफ़ तौर पर दिखाई दे ताकि उनके साथियों के दिलों में दहशत बैठ जाए।” 

केवल मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने फ़्रांस के तकनीकी सहयोग के साथ कंपनी का वास्तविक प्रतिरोध किया और कंपनी को दो युद्धों में हराया भी।  लेकिन भारत के अन्य शासकों को अपने साथ मिलकार टीपू सुल्तान पर भी क़ाबू पा लिया गया।जब कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को 1799 में टीपू की मृत्यु की सूचना दी गई, तो उसने अपना गिलास हवा में उठाते हुए कहा कि आज मैं भारत की लाश पर जश्न मना रहा हूँ। लॉर्ड वेलेज़ली के ही कार्यकाल में कंपनी को अपनी सैन्य विजय के बावजूद वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उसका क़र्ज़ बढ़कर 3 करोड़ पाउंड से भी अधिक हो चुका था। कंपनी के निदेशक ने वेलेज़ली के व्यर्थ ख़र्च के बारे में सरकार को लिखा और उन्हें ब्रिटेन वापस बुला लिया गया।साल 1813 में, ब्रिटिश संसद ने भारत में व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश कंपनियों को व्यापार करने और कार्यालय खोलने की अनुमति दे दी। 

ब्रिटेन के सदन ने 1813 में थॉमस मूनरो से पूछा, जिन्हें 1820 में मद्रास का गवर्नर बनाया गया था, कि औद्योगिक क्रांति के बावजूद ब्रिटेन के बने कपड़े भारत में क्यों नहीं बिक रहे, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारतीय कपड़े कहीं अधिक गुणवत्ता वाले हैं। लेकिन, फिर ब्रिटेन में बने कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए सदियों पुराने स्थानीय कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया गया और इस तरह ब्रिटेन का निर्यात जो 1815 में 25 लाख पाउंड था वह 1822 में बढ़कर 48 लाख पाउंड हो गया।ढाका, जो कपड़ा निर्माण का प्रमुख केंद्र था, उसकी जनसंख्या डेढ़ लाख से घटकर बीस हज़ार हो गई। गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिक ने अपनी 1834 की रिपोर्ट में लिखा कि अर्थशास्त्र के इतिहास में ऐसी विकट परिस्थिति का कोई और उदाहरण नहीं मिल सकता। भारतीय बुनकरों की हड्डियों से भारत की धरती सफ़ेद हो गई है। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निदेशक हेनरी जॉर्ज टकर ने 1823 में लिखा कि भारत को एक औद्योगिक देश की जगह एक कृषक देश में बदल दिया गया ताकि ब्रिटेन में निर्मित सामान भारत में बेचा जा सके। 1833 में, ब्रिटिश संसद द्वारा एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार करने का अधिकार छीन लिया गया और इसे एक सरकारी निगम में बदल दिया गया। 

साल 1835 के अधिनियम के अंतर्गत अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया गया था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम (कंपनी के अनुसार विद्रोह) के दौरान, कंपनी ने हज़ारों लोगों को बाज़ारों में और सड़कों पर लटकाकर मार डाला और बहुत से लोगों को कुचल डाला गया। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था। स्वतंत्रता संग्राम के अगले वर्ष एक नवंबर को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने कंपनी के अधिकारों को समाप्त कर शासन की बागडोर सीधे तौर पर अपने हाथों में ले ली। कंपनी की सेना का ब्रिटिश सेना में विलय कर दिया गया और कंपनी की नौसेना को भंग कर दिया गया। लॉर्ड मैकाले के अनुसार, कंपनी शुरू से ही व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी भागीदार थी, इसलिए कंपनी की आख़री साँसें 1874 तक चलती रही। उसी वर्ष, ब्रितानी अख़बार द टाइम्स ने दो जनवरी के अंक में लिखा, “इसने मानव जाति के इतिहास में ऐसा काम किया है, जैसा किसी और कंपनी ने नहीं किया और आने वाले सालों में कोई ऐसा करे इसकी संभवना भी नहीं है। 

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