झारखण्ड (1): बि.बि.महतो, ए.के. रॉय सहित सभी ‘वृद्ध’ मृत्यु को प्राप्त किये, शिबू सोरेन 80-पार, पुत्र जेल में, खेला शुरू – यानी एको अहं, द्वितीयो नास्ति

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (अभी जेल में) और उनकी पत्नी
झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (अभी जेल में) और उनकी पत्नी

रांची / धनबाद /पटना /नई दिल्ली : सन 1974 में जब देश में जयप्रकाश नारायण अपनी राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए सम्पूर्ण क्रांति भारत की सड़कों पर लाये थे, उसी समय मनमोहन देसाई के निर्देशन में ‘आशीर्वाद पिक्चर्स’ के झंडे तले एक फिल्म भारत के सिनेमा घरों में आयी थी। फिल्म का नाम “रोटी” था। इस फिल्म में राजेश खन्ना और मुमताज मुख्य भूमिका निभाए थे।

आज सुबह-सवेरे एफएम रेडियो पर “रोटी” फिल्म का एक गीत जिसे आनंद बक्शी ने लिखा था, संगीत दिया था लक्ष्मी कांत – प्यारेलाल, गायक थे किशोर कुमार और गीत के बोल थे : “यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो – जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो।” और सामने पठन -पाठन के टेबल पर तीन दशक पुराना झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से संबंधित मुकदमे का 500 से अधिक पृष्ठों वाला दस्तावेज रखा था। उन दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों पर ‘पैसे के लेनदेन के आरोप लगे थे।

उन दिनों दिल्ली में न्यायालय कवर करने वाले लगभग सभी संवाददाता सुबह-सवेरे से विज्ञान भवन में एकत्रित होते थे। वैसे मुकदमा था तो अदालत का और मुद्दा-मुद्दालय को अदालत में उपस्थित होना चाहिए थे, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था के मद्देनजर विज्ञान भवन कचहरी में तब्दील हो गया था। यहाँ देश-विदेश के बड़े-बड़े संपादक, विश्लेषक, ज्ञानी-महात्मा, आलोचक मोटे-मोटे बस्तों के साथ उपस्थित हो जाते थे।

वे सभी ‘संभ्रांत’ लोग कमर-गर्दन हिलाते, विक्टोरिया के देश की भाषा बोलते हम जैसे कचहरी कवर करने वाले छोटे-छोटे संवाददाता को प्रभावित करने की चेष्टा करते थे। पकड़कर ‘कोने में ले जाना, उनसे बतियाना उनके पास जो महत्वपूर्ण कागजात होते थे, उसे बेशर्मों की तरह मांगना बिना किसी लज्जा के, यह रोजमर्रे की बात हो गयी थी। आज बहुत ऐसे संपादक है जो उन दिनों भी सत्ता की गलियारे में कदमताल करते थे, आज भी वस्त्र बदलकर मटरगस्ती करते हैं अपने-अपने फायदे के लिए। कोई ‘राजनीतिक फायदा’ ढूंढते हैं कोई आर्थिक, कोई सामाजिक, कोई दबंगता के लिए । चेहरे पर कोई भी मलिनता नहीं।

उस दिन भी न तो पी वी नरसिम्हा राव के चेहरे पर शिकन थी और ना ही झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के आरोपी सांसदों के चेहरे पर कोई मलिनता । सभी बातें सामान्य थी जैसे ऐसा करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो।

विगत दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 25 वर्ष पूर्व जेएमएम मुक़दमे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस फैसले के विरुद्ध सात-न्यायमूर्तियों के एक खंडपीठ का गठन किया। जेएमएम मुक़दमे में उन दिनों सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायमूर्तियों के खंडपीठ ने निर्णय लिया था। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ का कहना है: “Prima facie, at this stage, we are of view that correctness of the view of majority in P V Narasimha Rao should be considered by a larger bench of 7-judges. A seven-judge Bench to decide if legislators who take bribes to cast a vote or deliver a speech in a ‘particular manner’ on the floor of the House are immune from criminal prosecution.”

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि “There is an anomaly here. If a person [MP/MLA] accepts a bribe and votes, then there is immunity. If a person accepts the bribe and does not fulfill the bargain by abstaining from the vote or does not give the speech, he or she is liable to be punished.” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का मानना है कि “The purpose of these Articles is to ensure that MPs/MLAs are able to discharge their duties in an atmosphere of freedom without fear of consequences that may follow in the manner in which they speak or exercise their vote on the floor of the House… The objective of the immunity is not to set apart MPs/MLAs as members of the legislature who worked higher privileges in terms of the application of the general criminal law of the land which other citizens do not possess.”

यहाँ सर्वोच्च न्यायालय की वर्त्तमान व्यवस्था को इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के तीन संस्थापक सदस्यों में एक शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन ही सिर्फ ‘भ्रष्ट’ नहीं है, चोर नहीं नहीं, घपला में लिप्त नहीं हैं जिन्हें भारत सरकार का प्रवर्तन निदेशालय के अन्वेषणकर्ता जेल में ठूंस दिए। हकीकत यह है कि आज देश में “राजेश खन्ना-मुमताज’ अभिनीत ‘रोटी’ फिल्म का वह गीत ‘जिसने पाप न किया हो – जो पापी न हो’ अपवाद छोड़कर सभी पर लागु होता है – चाहे कोई भी हों।

यह बात अगर सिर्फ झारखण्ड के साथ देखें तो जब कलिंग युद्ध हुआ था तब निश्चय ही पाटलिपुत्र से योद्धा या भगोड़ा झारखण्ड का ही रास्ता अख्तियार किया था। मुगल हों या उनके पहले के हिंदू और अन्य राजे-रजवाड़े, सबने इस पठारी रास्ते का इस्तेमाल जरूर किया। लेकिन न तो वे यहाँ रहने आए, न ही इसके विकास और बसाहट से उनका कोई लेना-देना रहा। यहाँ के राजाओं या रियासतदारों से टैक्स लेना ही उनका एकमात्र कार्य रहा। अंग्रेजी हुकूमत के काल में इस क्षेत्र पर ध्यान जरूर दिया गया, लेकिन उनकी भी गिद्ध दृष्टि इस क्षेत्र के खनिजों पर थी, न की क्षेत्र के विकास पर, यहां रहने वाले आदिवासियों, संथालों के कल्याण पर, उनके विकास पर। वे यहाँ की मिट्टी को, संस्कृति को नोच-नोच कर मालामाल होना चाहते थे, हुए। और यह परंपरा आज भी जारी है।

हो सकता है कि आज के इतिहासकारों को, पत्रकारों को, तथाकथित समाजसेवियों को, राजनेताओं को, मंत्रियों को, संतरियों को यह बात हजम नहीं हो, क्योंकि आज लोगों को पढ़ने, किताब और दस्तावेज खंघालने की आदत रही नहीं, गूगल का अधिपत्य हो गया है। लेकिन अगर अबुल फजल की ‘आईन-ए-अकबरी’ या अंग्रेज चिकित्सक फ़्रांसिसी बुकानन को लोग पढ़ें अथवा नहीं, वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे लिखित “झारखण्ड: एक बेचैन राज्य का सुख” पढ़ लेंगे तो शायद लोग न केवल ‘झारखण्ड शब्द और राज्य’ के वजूद को समझ जायेंगे, बल्कि इस राज्य की गरिमा को, अस्तित्व को, मान को, सम्मान को, किस-किस ने अपने-अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए नोचा, खसोटा, पैरों तले दबाया, खून की होली खेला – भी जान जायेंगे।

कभी बिहार का ग्रीष्मकालीन राजधानी रहा रांची (आज का झारखंड राज्य की राजधानी) से लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सड़कों पर बड़े-बड़े विज्ञापन-बोर्ड पर लिखा दीखता था “हर लोगों के शरीर में स्टील है।” जब इस विज्ञापन को आज भारत के 28 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के नेताओं, सफ़ेद-पोश लोगों और तथाकथित समाजसेवियों के साथ देखता हूँ, तो लगता है कि अपवाद छोड़कर सभी के शरीर में ‘स्टील नहीं भ्रष्टता’ का बर्चश्व है। चाहे भारत के तक़रीबन 250000 ग्राम पंचायतों, 797 जिला परिषदों, विधान सभाओं, विधान परिषदों, लोकसभा या राज्य सभा में बैठे ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता का प्रतिनिधि’ ही क्यों न हों।

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झारखंड में नोचने-खसोटने की क्रिया 15 नवम्बर, 2000 से अधिक हो गई जब ‘सफ़ेद वस्त्र’ वाले तथाकथित समाजसेवी, गरीबों के मसीहा, आदिवासियों, संथालों को उनका हक़ दिलाने वाले राजनेताओं के रूप में झारखण्ड में कुकुरमुत्तों की तरह पनपने लगे। वैसे आज़ादी के बाद से अविभाजित बिहार के इस क्षेत्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के दबंग यहाँ खून की होली खेलते रहे अपना-अपना बर्चस्व स्थापित करने के लिए और पत्र-पत्रिका वाले पत्रकार उन्हें माफिया शब्द से अलंकृत करते गए, जैसे कोई नागरिक सम्मान से विभूषित किया जा रहा हों। मजदूरों, श्रमिकों को छोड़कर यह आंकना इस पठारी क्षेत्र में मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है कि कौन किसका हितैषी है – खासकर जो बेहतरीन, साफ़-सुधरे, सुगन्धित वस्त्रों में लिपटे हैं, चाहे अधिकारी हो, पदाधिकारी हो, नेता हो, अभिनेता हो या पत्रकार। इस इलाके से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में बिरले ही नहीं, शायद कोई नहीं, होंगे जिनका ‘कागज पर छपे गांधी की तस्वीरों के साथ मिलीभगत नहीं हो।

विगत दिनों श्री श्याम किशोर चौबे साहेब से बात हो रही थी। चौबे साहेब झारखण्ड पर एक बेहतरीन किताब लिखे हैं जिसे प्रभात प्रकाशन ने छापा है। चौबे जी ‘बेबाक’ हैं – बोलने में भी और लिखने में भी। चौबे जी अपने सम्पूर्ण पत्रकारिता अनुभव को शब्दों के सहारे इस किताब में कहने-लिखने की कोशिश किये हैं। यह किताब आने वाले दिनों में ‘मेहनत नहीं करने वाले’ पत्रकारों, शोधकर्ताओं, लेखकों के लिए बहुत अधिक मददगार होगा। यह सत्य है।

खासकर इस किताब के अंतिम अध्याय “फ्लैश बैक” के रूप में झारखंड के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को जिस तरह जोड़कर शब्दबद्ध किया है, वह भारत के किसी पत्रकारिता संस्थानों से किसी भी भाषा में पत्रकार की उपाधि लिए नहीं कर सकता है। अपने पत्रकारिता जीवन में उन्होंने छोटानागपुर-संथालपरगना क्षेत्र में जहाँ-जहाँ क़दमों के निशान छोड़े थे, तीन दशक और अधिक समय बाद, उन स्थानों पर पुनः भ्रमण-सम्मेलन कर, उन स्थानों से मिलकर, वहां छुटी /रखी बातों को चुन-चुनकर शब्दों में पिरोया है।

खैर। विगत दिनों जब झारखण्ड के मुख्यमंत्री को प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी दबोचकर कारावास खींच कर ले गए तो यह प्रकरण राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए झारखण्ड के इतिहास में एक और अध्याय जोड़ा। वैसे अयोध्या में राम की प्रतिमा स्थापित हो गयी है। कृष्ण के गीता के स्थान पर अब भगवान् राम की प्रतिम शपथ खाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन इस पठारी क्षेत्र से लेकर कलकत्ता, पटना, नागपुर, कानपूर, बनारस, दिल्ली के शायद ही कोई नेता होंगे, अधिकारी होंगे जिनके मन में झारखंड को लूटने की इक्षा नहीं पनपती होगी, लुटे होंगे, आज भी । मेरे बाबूजी कहते थे ‘मेहनत से दो वक्त की रोटी खाई जा सकती है। लोगबाग धनाढ्य और दबंग समाज और राष्ट्र को लूट कर ही बनते हैं।” मेरे बाबूजी कभी गलत नहीं थे।

इसका वजह यह है कि आज झारखंड ही नहीं, बिहार ही नहीं, देश में पंचायत से लेकर, जिला परिषदों, अन्य विधानसभाओं, लोकसभा, राज्यसभा तक आपराधिक गतिविधियों में लिप्त तथाकथित ‘समाजसेवियों’ और ‘नेताओं’ की किल्लत नहीं है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, संसद के 763 सदस्यों (सांसदों) में से 306 यानी 40 फीसदी सांसद विभिन्न प्रकार के आपराधिक मामलों में लिप्त है। यह सांख्यिकी भी एडीआर या एनईडब्ल्यू का अपना आंकड़ा नहीं है। यह तो वे आंकड़े हैं जो चुनाव से पूर्व सभी ‘अभ्यर्थी’ (बाद में मानवीय सांसद) चुनाव आयोग को हलफनामें में लिखे हैं। आंकड़े में यह भी कहा गया है कि लगभग 194 (25%) सांसदों ने गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध आदि से संबंधित मामले शामिल हैं। इन आंकड़ों में बिहार (50%) में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों का प्रतिशत सबसे अधिक है।

वापस पहले पटना चलते हैं। बिहार विधानसभा में बैठे सम्मानित विधायकगण अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के लिए, क्षेत्र के लिए विकार के जितने भी नगारा पीट लें, हकीकत यह है कि आज़ादी के बाद आज भी, या यूँ कहें कि विगत 22-मुख्यमंत्रित्व काल से आज तक, मतदाताओं का आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक विकास कितन हुआ है – यह बात तो विधायक भी जानते हैं और मतदाता महाशय तो जानते ही हैं।

अगर विधायकों को आपराधिक मानचित्र पर आंकड़ों के साथ लाएं तो आपराधिक आरोपों वाले 163 विधायकों में से 123 या कुल विधायकों में से आधे पर गंभीर अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया है – 19 पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या का आरोप है, 31 विधायकों पर हत्या के प्रयास का आरोप है, और आठ पर उनके खिलाफ महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामले हैं।

आंकड़ों के अनुसार, राजद के 74 में से 54 (73 प्रतिशत) विधायक कथित आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। भाजपा के 73 में से 47 (64 प्रतिशत) विधायक आपराधिक चार्ट पर अंकित हैं । मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के 43 में से 20 विधायक भी आपराधिक हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन के सभी पांच विधायकों के खिलाफ आपराधिक आरोप हैं।

फिर झारखण्ड आइये। सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जिस बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और ए के राय ने झारखंड के लोगों के विकास के लिए झारखण्ड मटकी मोर्चा का निर्माण किया था जिसमें बिनोद बिहार महतो अध्यक्ष बने थे, सोरेन महासचिव का पद संभाले थे, उसमें अब बिनोद बिहार महतो जीवित नहीं हैं। राय साहब भी अब नहीं रहे। शिबू सोरेन 80 वर्ष के हो गए। शरीर से भी बहुत स्वस्थ नहीं रहते।

झारखंड में मुख्यमंत्री के तौर पर हेमंत सोरेन की यह दूसरी पारी थी। इसके पूर्व भी वह लगभग डेढ़ साल तक झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। अलग-अलग अवधि को जोड़कर देखा जाए तो मुख्यमंत्री के रूप में सर्वाधिक कार्यकाल झारखंड में अर्जुन मुंडा का रहा है। वह अलग-अलग समय में तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हैं। इसके अलावा शिबू सोरेन भी तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं, हालांकि उनका कार्यकाल कम ही रहा है।

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हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के साथ ही राज्य में बहुमत से सरकार बनने के बावजूद कार्यकाल पूरा नहीं करने वाले मुख्यमंत्रियों में उनका नाम भी शामिल हो गया है। झारखंड में अब तक एक ही मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपना कार्यकाल पूरा किया है। रघुवर की सरकार में भाजपा को बहुमत हासिल हुआ था। और इसके बाद हुए चुनाव में झामुमो, राजद और कांग्रेस के गठबंधन को बहुमत मिला जिसके नेता के तौर पर हेमंत सोरेन को चुना गया। इसी के साथ हेमंत का कार्यकाल शुरू हुआ और चार साल तक हिचकोले खाते हुए सरकार आगे बढ़ती रही। बड़े बहुमत के बावजूद हेमंत की सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। बुधवार को हेमंत सोरेन के इस्तीफे के बाद चम्पाई सोरेन को नया नेता चुन लिया है।

झारखंड के पांचवें मुख्यमंत्री के रूप मधु कोड़ा में 18 सितंबर 2006 को दिलाई गई थी। कोडा भारत के किसी भी प्रदेश में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मुख्यमंत्री बनने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं। मधु कोड़ा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन के एक कार्यकर्ता के रूप में हुई थी बाद में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य बने। 2000 के झारखण्ड विधान सभा के चुनावों में वे भाजपा उम्मीदवार के रूप में जगन्नाथपुर विधानसभा सीट से चयनित हुए। बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में वे पंचायती राज मंत्री मंत्री बने और बाद में वे 2003 में अर्जुन मुंडा की सरकार बनने के बाद भी इसी पद पर काबिज रही।2005 की विधानसभा चुनावों में उन्हें भाजपा द्वारा उम्मीदवार बनाने से मना कर दिया गया। इसके बाद वे एक निर्दलीय के रूप में उसी विधानसभा सीट से चुने गये। खंडित जनादेश के कारण वे भाजपा के नेतृत्व में बननेवाली अर्जुन मुंडा की सरकार का उन्होंने बाहर से समर्थन किया और उन्हें खान एवं भूवैज्ञानिक मामलों का मंत्री बनाया गया।

हेमंत सोरेन के खिलाफ दो अलग-अलग मामले चल रहे हैं। इनमें पहला मामला अवैध खनन लीज पट्टे से जुड़ा है, जबकि दूसरा अवैध जमीन घोटाले से जुड़ा है। एक मामला पद के दुरुपयोग का भी चल रहा है। जिससे जुड़ी रिपोर्ट चुनाव आयोग राज्यपाल को सौंप चुका है। जमीन घोटाले के मामले में जांच से खुलासा हुआ कि फर्जी दस्तावेजों के जरिए सैकड़ों एकड़ जमीन का फर्जी सौदा हुआ है और इसमें छोटे से बड़े कार्यालयों के अधिकारी और बड़े-बड़े कारोबारी भी शामिल हैं। इन सबके तार आखिर में मुख्यमंत्री तक जुड़ रहे थे। यह मामला सेना की जमीन के सौदे से जुड़ा हुआ है। फर्जी नाम और पते के आधार पर सेना की जमीन की खरीद और बिक्री हुई। इस मामले में रांची नगर निगम ने प्राथमिकी दर्ज करवाई थी। ईडी ने उसी प्राथमिकी के आधार पर ईसीआईआर (प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट) दर्ज की थी और जांच शुरू की थी।

सोरेन को इस मामले में बार-बार समन जारी किया जा रहा था। जमीन घोटाले के मामले में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के एक अधिकारी छवि रंजन और दो व्यापारियों सहित चौदह लोगों को गिरफ्तार किया गया था। छवि रंजन तब झारखंड के समाज कल्याण विभाग के निदेशक और रांची के उपायुक्त के रूप में कार्यरत थे। इसी तरह, सोरेन के मीडिया सलाहकार, साहिबगंज जिले के अधिकारियों और एक पूर्व विधायक के परिसरों पर छापेमारी की थी। ईडी ने साहिबगंज जिले में कुल 28 जगहों पर छापेमारी की थी। सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा के घर से 5.31 करोड़ रुपये जब्त किए थे और बताया था कि उनके 27 बैंक खातों में 11 करोड़ रुपये जमा थे। इसके बाद ईडी ने पंकज मिश्रा को भी समन जारी किया था और फिर पीएमएलए के तहत उनकी गिरफ्तारी की थी। इसके बाद एजेंसी ने पीएमएलए अदालत में 16 सितंबर 2022 को आरोपपत्र दाखिल किया। इस आरोपपत्र में झामुमो के पूर्व कोषाध्यक्ष रवि केजरीवाल का बयान भी दर्ज था।

हेमंत सोरेन को पहला समन 8 जुलाई को जारी किया गया था और 14 अगस्त को हाजिर होने के लिए कहा गया था। इसके बाद समय-समय पर उन्हें समन जारी किए गए और हाजिर होने के लिए कहा गया। लेकिन सोरेन नहीं पहुंचे। एजेंसी ने पूछताछ के लिए उन्हें खुद ही समय और जगह तय करने के लिए भी कहा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। 13 जनवरी को 8वें समन के बाद पहली बार सोरेन से पूछताछ हुई। 10वां समन 27 जनवरी को जारी किया गया और उनसे 29 जनवरी से 31 जनवरी के बीच समय और स्थान तय करने के लिए कहा गया था। कथित मनी लॉन्ड्रिंग का मामला अलग है।

विगत सोमवार को हेमंत सोरेन के दिल्ली स्थित आवास पर छापेमारी की थी। इस छापेमारी के दौरान बंगले से 36 लाख रुपये नकद बरामद किए गए, साथ ही दो लग्जरी कार भी जब्त की गई हैं। ईडी ने बंगले से नकदी के साथ ही एक हरियाणा नंबर की बीएमडब्लू कार और कुछ अहम दस्तावेज भी बरामद किए हैं।

‘रोटी’ फिल्म का गीत और अधिक सुनने का मन करेगा जब आपको यह मालूम होगा कि भारत के लोकसभा और राज्यसभा के प्रति सांसद की औसत संपत्ति ₹38.33 करोड़ है। – सभी जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता से – चयनित प्रतिनिधि है। घोषित आपराधिक मामलों वाले सांसदों की औसत संपत्ति ₹50.03 करोड़ है, जबकि बिना आपराधिक मामले वाले सांसदों की औसत संपत्ति ₹30.50 करोड़ है। इसी तरह, 385 भाजपा सांसदों की प्रति सांसद औसत संपत्ति ₹18.31 करोड़ है। कांग्रेस सांसदों की औसत संपत्ति ₹18.31 करोड़ है। इसी तरह, 36 टीएमसी सांसदों के पास औसत संपत्ति 8.72 करोड़ रुपये, 31 वाईएसआरसीपी सांसदों के पास औसत संपत्ति 8.72 करोड़ रुपये है।

बहरहाल, रांची के एक सज्जन #अखबारवाला001 से कहते हैं: “बस इतना समझ लीजिये हुज़ूर कि खेल शुरू हो गया है और इस खेल में आने वाले समय ,में सभी प्रतिपक्ष के ‘आपराधिक किस्म के नेता’ कारावास में रहेंगे। पुराने नेता बुजुर्ग हो गए या मृत्यु को प्राप्त कर लिए। नए गुणहीन है, कमजोर हैं। कल भी लोग पैसे के लिए इधर से उधर हो जाते थे, आज तो जैसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय मुद्राओं का मोल गिरा है, यहाँ देश में लोगों का चारित्रिक गन भी स्थिर नहीं रह पाया।”

#अखबारवाला001 को चौबे जी कहते हैं: “1937 के बिहार विधानसभा चुनाव में छोटानागपुर और संथाल परगना के 38 निर्वाचन क्षेत्रों से जनजातियों की तीन संस्थाओं उन्नति समाज, छोटानागपुर कैथोलिक सभा और छोटानागपुर किसान सभा ने भाग लिया था। इस चुनाव में छोटानागपुर कैथोलिक सभा के दो उम्मीदवार ही जीत सके थे। इस जबरदस्त पराजय के कारण तीनों संगठनों में 1938 में एकता हुई। एक नया संगठन बना, जिसका नाम था – ‘आदिवासी महासभा।’ इसके द्वितीय अध्यक्ष जयपाल सिंह मुंडा बनाए गए, जिन्होंने दस साल पहले 1928 में भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व करते हुए एम्सटर्डम ओलंपिक में गोल्ड जीता था। जयपाल सिंह उच्च शिक्षित व्यक्ति थे, जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पीजी डिग्री हासिल की थी। उनकी काबिलियत के कारण उन्हें भारतीय संविधान सभा का सदस्य बनाया गया था। आदिवासी महासभा के प्रथम अध्यक्ष थियोडोर सुरीन तथा मंत्री पॉल दयाल चुने गए थे।

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श्याम किशोर चौबे कहते हैं कि “मध्यकाल में मुसलिम इतिहासकारों ने छोटानागपुर का उल्लेख ‘झारखंड’ के रूप में किया। संभवतः जंगल एवं झाड़ की अधिकता के कारण यह नाम उनके द्वारा दिया गया। बंगाल चिकित्सा सेवा में 1794 से 1815 तक कार्यरत रहे अंग्रेज डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ने लिखा—‘काशी से लेकर वीरभूम तक का सारा पहाड़ी प्रदेश झारखंड था। दक्षिण में वैतरणी इसकी सीमा थी’। ‘अकबरनामा’ के विवरण के अनुसार छोटानागपुर खास एवं उड़ीसा के ट्रिब्यूटरी स्टेट झारखंड कहलाते थे। अबुल फजल लिखित ‘आईन-ए-अकबरी’ में दरशाए गए मुगल साम्राज्य के मानचित्र में झारखंड का विस्तार वर्तमान मध्य प्रदेश और बिहार के क्षेत्रों में फैला था।”

राजनीतिक रूप से छोटानागपुर का जिक्र 13वीं सदी से मिलता है। उत्तरी उड़ीसा के गंग वंश के राजा नरसिंह देव-2 ने खुद को ‘झारखंड का राजा’ घोषित किया था। नरसिंह देव-2 के ताम्रपत्र में झारखंड का उल्लेख है। मुगलकाल में छोटानागपुर को ‘खुखरा’ या ‘कोकरह’ कहा गया। ब्रिटिश काल में कोकरह ही धीरे-धीरे चुटिया नागपुर, चुटा नागपुर और अंततः छोटानागपुर के नाम से विख्यात हुआ। 1802 तक केवल राँची जिले वाले क्षेत्र को छोटानागपुर या नागपुर कहा जाता था। 1812 के बाद यह नाम संपूर्ण छोटानागपुर क्षेत्र को दिया गया।

डाल्टन, बॉल और बेल, एस. सी. राय, ब्रेडले-बर्ट, राँची जिले का सर्वेक्षण प्रतिवेदन, इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया और राँची जिला गजेटियर (1917) जैसे लेखक और दस्तावेज बताते हैं कि पहले असुर और तब मुंडा छोटानागपुर में स्थापित थे। 1820 में वाल्टर हेमिल्टन द्वारा लिखित एवं लंदन से प्रकाशित ‘ज्योग्राफिकल स्टैटिस्टिकल एंड हिस्टोरिकल डिस्क्रिप्शन ऑफ हिंदुस्तान’ में छोटानागपुर क्षेत्र को ‘चुटा’ (छोटा) नाम से अभिहित किया गया है। लगता है कि मराठों के भोंसले परिवार द्वारा अधिकृत नागपुर से छोटानागपुर क्षेत्र को अलग दिखाने के लिए चुटा (छोटा) शब्द हैमिल्टन ने चुना। हेमिल्टन ने छोटानागपुर के बारे में लिखा‘…और भी आगे दक्षिण में तीसरा और ऊँचा क्षेत्र है, जो 18,000 वर्गमील में फैला है, काफी मूल्यवान् है। यह ऊँचा क्षेत्र आजकल का पलामो, रामगढ़ और चुटानागपुर में सम्मिलित है, जिसके पश्चिम में इलाहाबाद का सूबा, गोंडवाना एवं दक्षिण में उड़ीसा और पूरब में बंगाल है।’

यह जानकारी 1815 में पहली बार प्रकाशित ‘ईस्ट इंडिया गजेटियर’ में भी मिलती है। ब्रिटिश शासन के आरंभिक काल में सरकारी प्रतिवेदनों एवं दूसरे प्रकाशनों में वर्तमान छोटानागपुर को सामान्यतः नागपुर कहा गया है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब 12 अगस्त, 1771 को तत्कालीन शासक द्रीपनाथ शाहदेव के साथ भू-लगान संबंधी समझौता किया, तब इस क्षेत्र को कुकराह कहा। 12 अगस्त, 1774 को छोटानागपुर में प्रवेश करने वाले प्रथम ब्रिटिश ऑफिसर कैप्टन कैमक ने फोर्ट विलियम के गवर्नर को 18 सितंबर, 1799 को लिखे एक पत्र में इस क्षेत्र को नागपोर संबोधित किया। 1912 से पूर्व झारखंड, बंगाल का एक भाग था।

1 अप्रैल, 1912 को जब बिहार, बंगाल से अलग हुआ, तो झारखंड बिहार का हिस्सा बन गया। अप्रैल 1936 में जब बिहार को विभाजित कर उड़ीसा का गठन किया गया, तो झारखंड क्षेत्र के गांगपुर, बोनाई आदि जिले उड़ीसा को दे दिए गए। जशपुर, उदयपुर और सरगुजा क्षेत्र मध्य प्रांत को भेंट कर दिए गए, जो बाद में मध्य प्रदेश का भाग बने और जब मध्य प्रदेश को विभाजित कर छत्तीसगढ़ का गठन 1 नवंबर, 2000 को किया गया तो ये इलाके इस नवोदित राज्य का भाग बन गए। आजादी के बाद भारत गणराज्य का जब पुनर्गठन किया गया तो सरायकेला और खरसावाँ रियासतें 1948 में बिहार में सम्मिलित कर दी गईं। झारखंड गठन के बाद यह क्षेत्र इसका भाग बन गया।

1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की अनुशंसा पर झारखंड के मानभूम का एक बड़ा हिस्सा बंगाल को दे दिया गया और इसका एक छोटा भाग धनबाद के नाम से रह गया। इस प्रकार इतिहास के विभिन्न कालखंडों में झारखंड क्षेत्र कई राज्यों का अंग रहा और समय-समय पर इसका अंग-भंग होता रहा। परिणामस्वरूप प्रादेशिक और राजनीतिक इकाई के रूप में झारखंड जहाँ एक ओर अलग-अलग सत्ता के अधीन रहा, वहीं दूसरी ओर इसके अंग-भंग से इसकी सांस्कृतिक और प्रजातीय विविधता के तत्त्व दूसरे राज्य का भाग बनते चले गए, जिन्हें ‘झारखंड आंदोलन’ के दौरान झारखंड में शामिल करने की माँग उठती रही।

जनजातीय समाज, संस्कृतिऔर शासन-व्यवस्था यह आदिवासी राज्य नहीं है, लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्र तो है ही। असुर, पहाड़िया आदि के बाद इस क्षेत्र में मुंडा, उराँव, हो, संथाल इत्यादि जनजातियों का आगमन हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार शरतचंद्र राय के अनुसार मुंडाओं का झारखंड में प्रवेश ई.पूर्व 600 में हुआ था। इस इलाके में 1,206 से उराँव और 1,790 से संथालों का आगमन प्रारंभ हुआ।

आज की तारीख में यहाँ 32 जनजातियाँ रहती हैं, जिनमें आठ आदिम जनजातियाँ हैं। ये आदिम जनजातियाँ हैं—असुर, बिरहोर, बिरिजिया, माल पहाड़िया, परहिया, सौर पहाड़िया और सबर। आदिम जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अधिक खराब है। उनकी आबादी वैसे ही अत्यल्प है। 2011 की जनगणना में राज्य में जनजातीय आबादी 86,85,042 पाई गई थी, इसमें भी आदिम जनजातियों की संख्या मात्र 3.38 प्रतिशत ही है। आबादी के हिसाब से बड़ा प्रतिशत रखने वाले संथाल, उराँव और मुंडा राजनीतिक, आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत सक्षम हैं।

जनजातियों की बसाहट क्षेत्रवार है। गुमला, लोहरदगा, लातेहार जैसे इलाकों में उराँव की बसाहट है, तो खूँटी, सरायकेला, खरसावाँ आदि में मुंडा, पश्चिम सिंहभूम में हो और संथाल परगना, रामगढ़ और पूर्वी सिंहभूम में संथालों की। जातीय स्वाभिमान कह लीजिए या जातीय कट्टरता ऐसी कि जिस इलाके में जिस जनजातीय आबादी की बहुलता है, उस इलाके में उसी जाति का जनप्रतिनिधि चुनाव जीत सकता है। आदिवासी गाँवों की संरचना में खेती-बाड़ी और अन्य कार्यों में सहायक जातियों की बसाहट होती है और सभी मिल-जुलकर रहते हैं तथा सभी सबके काम निपटाते हैं। इनके पर्व-त्योहारों में धनी-गरीब का कोई भेद नहीं होता।

झारखंड पर कहानियों की श्रंखला जारी। ….

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