झारखंड (3) हैल्लो !!! ब्लैक पैंथर बोल रहा हूँ। कोयला बेचने वाला, चंदा वसूलने वाला झारखंड का मुख्यमंत्री बना, नेता अरबपति बना, मतदाता भिखारी

सूरज मंडल

रांची / नई दिल्ली : सत्तर के दशक के मध्य की बात है। तत्कालीन अविभाजित बिहार में युवा कांग्रेस के नेता प्रदेश की राजनीती पर पकड़ प्रारम्भ कर दिए थे। प्रदेश की प्रशासनिक-राजनीतिक व्यवस्था से लेकर दिल्ली तक अपने-अपने कार्यों से अपना स्थान बनाने का अनवरत प्रयास कर रहे थे। उन दिनों पटना से छह प्रमुख अख़बार प्रकशित होते थे – आर्यावर्त, दी इण्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप, कौमीआवाज और जनशक्ति। मैं आर्यावर्त-इंडियन पत्र समूह में नौकरी शुरु कर लिया था । उस ज़माने में अखबारों के पत्रकार/संवाददाता भी उन युवा नेताओं जैसा ही युवक थे। लेखनी में भी धार रखते थे। मैं तो बच्चा था महज साढ़े चौदह वर्ष का।

उन्हीं दिनों संध्या काल आर्यावर्त-दी इण्डियन नेशन अख़बारों के दफ्तरों में छोटानागपुर-संथाल परगना क्षेत्र के कुछ संथाली और आदिवासी युवकों के साथ, औसतन महीने में दो बार एक लम्बा-चौड़ा सुडौल शरीर वाला व्यक्ति, सफ़ेद कुर्ता-पैजामा पहने, आँखों पर फोटोक्रोमेटिक चश्मा लगाए, पैर में कपड़े का हाफ-जूता पहने सम्पादकीय विभागों में प्रवेश करते थे। उन्हें देखकर सम्पादकीय विभाग के लोग, विशेषकर संवाददाता काफी खुश होते थे। एक पल आवाज भी उठती थी “आओ शेर….. आओ….. ” सबों के चेहरों पर गजब का मुस्कान होता था। कुछ वर्षों बाद कलकत्ता और दिल्ली से प्रकाशित #दी स्टेट्समैन अखबार में वरिष्ठ संवाददाता श्री मोहन सहाय उन्हें “ब्लैक पैंथर ऑफ़ संथाल परगना” शीर्षक से भी अलंकृत किये अपने कहानी में।

कुछ पल सम्पादकीय विभाग में उपस्थित सभी लोगों से, जैसे श्री दुर्गानाथ झा, श्री मिथिलेश मोइत्रा, श्री सीता शरण झा, श्री डी एन सिंह, श्री केशव कुमार, श्री भाग्य नारायण झा, श्री बी एन सिंह, श्री दीनानाथ झा (संपादक) से बात कर एक टोली के साथ नीचे पिंटू होटल अथवा डाकबंगला चौराहे पर स्थित भारत कॉफी हाउस की ओर चहलकदमी करते निकल जाती थी। खबरों का खजाना थे वह व्यक्ति।

समयांतराल, जब दक्षिण बिहार के छोटानागपुर-संथाल परगना क्षेत्र के लोगों, खासकर आदिवासियों, संथालों की आवाज को (अलग राज्य की मांग) प्रखर करने की बात आयी, कांग्रेस से निकल कर झारखंड की ओर अग्रमुख हो गए और वहां के लोगों के कल्याणार्थ दक्षिण बिहार की राजनीति को एक आधार दिए।

उन दिनों ही नहीं, आज भी (अपवाद छोड़कर) झारखंड में शायद ही कोई नेता हुए या हैं, खासकर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में, जो ‘शिक्षित’, ‘पढ़े-लिखे’ लोगों को अपनी पार्टी में आने पर स्वागत करते हैं, जितना इन्हे शिक्षित व्यक्तियों के बीच रहने का शौक था। इसमें झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के संथापक नेताओं में शिबू सोरेन ही क्यों न हों। क्योंकि शिबू सोरेन को भी पढ़े-लिखे लोगों के बिच रहना, बाटकर अनपच सा लगता है। लेकिन इस फोटोक्रोमेटिक चश्मा वाले ‘ब्लैक पैंथर’ की बात ही कुछ अलग थी। पढ़े-लिखे लोगों को आकर्षित करने का अद्भुत गुण था उनमें।

लेकिन शिबू सोरेन में यह गुण नहीं के बराबर था। अगर ऐसा होता तो शायद झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से न तो उसके संस्थापक सदस्य बिनोद बिहारी महतो निकलते और ना ही ए के रॉय। कहते हैं कि ‘वैचारिक मतभेद’ के कारण दोनों अलग हुए, लेकिन आज महतो और राय तो नहीं है, लेकिन शिबू सोरेन यथार्थ जरूर जानते हैं।

बिनोद बिहारी महतो पेशे से वकील भी थे। वे धनबाद जिला कचहरी में प्रैक्टिस भी करते थे। जिला कोर्ट धनबाद समाहरणालय परिसर में स्थित था। यहाँ से कोई पचास कदम दूर परिसर क्षेत्र के बाहर हीरापुर चौराहे के सामने उनके नाम से एक बाजार भी था जहाँ उनका दफ्तर भी था। उस दफ्तर के आसपास समाज के गरीब-गुरबों का, शिक्षितों का बहुत बड़ा साम्राज्य नित्य खड़ा होता था, महतो से मिलने, कुछ कहने, कुछ सुनने के लिए।

एके राय अभियंता थे । लेकिन शिबू सोरेन उन दिनों भी चाहते थे और आज भी 80 वर्ष के उम्र में भी चाहते हैं कि वे अनपढ़,अशिक्षित जन समुदाय का ही नेतृव कर ‘सपरिवार’ सत्ता के सिंहासन पर बैठे रहे। ऐसा लगता है कि उन्हें पढ़े-लिखे लोगों से अधिक लगाव नहीं है। इसलिए, उन दिनों जब इस क्षेत्र में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ था, जब भी कोई शिक्षित व्यक्ति पार्टी की सदस्यता के लिए आगे आते थे, शिबू सोरेन का पहला प्रश्न होता था “इसे क्यों ले आये हो ?”

#अखबारवाला001 की झारखण्ड पर कहानी श्रृंखला में आज मुद्दत बात उस फोटोक्रोमेटिक चश्मा वाले नेता से बात हुई । जब अपना नाम बताया तो कुछ क्षण के लिए रुके। यादास्त तो उम्र के साथ कम होती है, लेकिन ख़त्म नहीं होती। मैं उन दिनों के उन संवाददाताओं का नाम बताने लगा जिनके साथ वे पिंटू या भारत काफी हाउस जाते थे; बहुत ही आदर-सम्मान के साथ घंटों गर्दन भर बात तो हुई।

लेकिन दूसरे ही क्षण अवरुद्ध कंठ से कहते हैं “जिस उद्येश्य के लिए, जिस आदिवासी, संथाली समुदाय के कल्याण के लिए दशकों लड़ाई लड़े, पुलिस की लाठी खाये, दर्जनों क्रांतिकारी शहीद हुए, आज दो दशक बाद भी उस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो पाई है झाजी। आप तो प्रारंभिक काल से क्रांति को देखे हैं, जानते हैं । सच से बहुत दूर हैं वर्तमान सत्ता में बैठे लोग। वे सच नहीं सुनते, सुनना पसंद करते। अगर ऐसा नहीं होता तो हम ही क्यों निकलते ? यहाँ एक आदमी का साम्राज्य है। वही राज करना चाहते हैं। आज पूरा प्रदेश लुटेरों के हाथ में है। आज भी आदिवासी, संथाली और अन्य दबे-कुचले लोग उपेक्षित हैं। जबकि सत्ता में बैठने वाले मलाई खा रहे हैं। कल जो दरिद्र थे, आज मालामाल हो गए हैं। और यही कारण है कि प्रदेश का (पूर्व) मुख्यमंत्री भी कारावास में है। ” उनकी बातों में बहुत सच्चाई थी। अन्यथा 48 वर्ष की आयु में कोई इतना माला-माल कैसे होता?

कल के उस ‘शेर’ और ‘ब्लैक पैंथ’र का नाम है डॉ. सूरज मंडल। ये वही सूरज मंडल हैं जो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को मजबूत राजनीतिक आधार दिया और पार्टी को जनमानस के बीच सशक्त बनाया। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में कभी नंबर दो की हैसियत रखने वाले डॉ.मंडल 1995 में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद के तब उपाध्यक्ष रहे जब शिबू सोरेन इसके अध्यक्ष थे। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से निकलने के बाद झारखण्ड विकास दल नामक राजनीतिक पार्टी की स्थापना करने वाले डॉ. मंडल कहते हैं कि 15 नवम्बर 2000 को अलग झारखण्ड प्रदेश के गठन होने के बाद भी आज झारखण्ड के लोग निरंतर राजनीतिक अस्थिरता को ही झेल रहा है। सत्ता में बैठे लोग अपने लिए अधिक चिंतित हैं, जनहित के लिए नहीं।

डॉ. मंडल कहते हैं कि वैसे चंपई सोरेन झारखण्ड के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले लिए हैं विगत दिनों लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि चंपई सोरेन कभी छोटानागपुर-संथाल परगना क्षेत्र के कोयला खदानों में साईकिल कोयला बेचते थे। तत्कालीन झारखण्ड के नेताओं के घरों के प्रवेश द्वारा पर सुरक्षा कर्मियों के साथ खड़ा रहते थे। पार्टी के लिए चंदा मांगने का काम करते थे । वैसे स्थिति में झारखंड को नेतृत्व करने वाले इस मुख्यमंत्री से किसी भी प्रकार की जनहित सम्बन्धी कार्यों की कल्पना करना मूर्खता है। चंपई सोरेन झारखंड के वैसे रबर स्टैंप मुख्यमंत्री साबित होंगे जिनसे झारखण्ड का कोई भला नहीं होने वाला है।

#अखबारवाला001 से बात करते डॉ मंडल कहते हैं कि “काफी लंबे अरसे बाद भले आंदोलनकारी के हाथ में झारखण्ड की सत्ता आयी, लेकिन जो भी सत्ता पर काबिज़ रहे उनके हाथों से झारखण्ड का कोई भला नहीं हुआ। चंपई सोरेन की राजनीतिक कैरियर पर नजर डाला जाये तो अपने पूरे जीवन भर उन्होंने कभी भी कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया और न ही उनसे आम लोगों का कोई भला हुआ है। हेमंत सोरेन की सरकार में भी परिवहन मंत्री के रूप में उन्होंने कुल मिलाकर नकारात्मक काम ही किया और सिर्फ मंत्री पद पर काबिज रहे।

डॉ मंडल कहते हैं कि जब 1989 के विधानसभा चुनाव में चंपई सोरेन को शिबू सोरेन ने अपनी पार्टी का टिकट नहीं दिया था तब उन्होंने ही उन्हें टिकट दिया था जिसके बाद वे घंटी छाप से लड़े और मोती मरांडी को पराजित किया था। इसलिये वे नये मुख्यमंत्री के बारे में बेहतर जानते हैं क्योंकि उन्हें बहुत नज़दीक से देखने का मौका उन्हें मिला है। जब शिबू सोरेन सिर्फ कागज़ी घोड़ा साबित हुए तो चंपई सोरेन से क्या आशा की जा सकती है?

डॉ मंडल का कहना है कि अब तक झामुमो जब-जब सत्ता में रही है तब उसने सत्ता का दुरुपयोग ही किया है। जमकर लूट मचाई, भ्रष्टाचार किया एवं परिवारवाद को हद दर्जे तक प्रोत्साहन दिया और केवल अपने स्वार्थ में लिप्त होकर केवल अपना और अपने परिवार को ही देखा ना कि झारखंड या यहाँ के लोगों का या देश का। आश्चर्य तो यह है कि यहाँ की सरकार झारखंड के व्यापक हित में और झारखंड आंदोलनकारियों द्वारा किये गये योगदान व बलिदान को भूल गयी है। यह क्षेत्र खनिज और वन संपदा से भरपूर होने के बावजूद दीन-हीन बना हुआ था।

अलग झारखण्ड राज्य आंदोलन के अग्रणी नेता, झारखण्ड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद के उपाध्यक्ष डॉ. सूरज मंडल कहते हैं कि राज्य के बेशकीमती खनिज एवं मानव संसाधन के बलबूते लोगों का जीवन स्तर ऊँचा करने और उनके चेहरे पर मुस्कान बिखरने की बजाय अपना पॉकेट भरने में लगे हैं। हेमत सोरेन की गिरफ़्तारी इसका दृष्टान्त हैं। झारखण्ड की 47.2 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है और भारत के सभी राज्यों की सूची में हम बिहार के ऊपर खड़े हैं जहाँ कुल जनसंख्या का 59.9 प्रतिशत गरीब है। जबकि पड़ोसी ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुल आबादी का क्रमश: 29.4 एवं 21.4 प्रतिशत गरीब है। वहीं पूरे देश में गरीबी का यह प्रतिशत 25.01 है।

डॉ. मंडल का कहना है कि हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार केवल और केवल सत्ता पर काबिज रहने और अपने भ्रष्ट व्यवस्था को बरकरार रखा। यह किसी भी प्रदेश के लिए नकारात्मक स्थिति है। 1912 में झारखण्ड, बंगाल का ही हिस्सा था और बंगाल विभाजन के बाद यह बिहार का हिस्सा बना पर बिहार और झारखण्ड की जातिगत व्यवस्था व संरचना में मौलिक अंतर है. लेकिन 22 साल पहले बिहार से अलग होने के बाद भी आज भी झारखण्ड की जातिगत व्यवस्था में बहुत हद तक बिहार का ही प्रभाव है।

संथाल परगना के छह जिलों में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण न केवल झारखण्ड या यहाँ के लोगों बल्कि देश की सुरक्षा खतरे में हैं। घुसपैठियों की स्थिति चरम पर पहुँच चुकि है। परिणाम यह हुआ है कि विशेष रूप से जनजातीय समुदाय, मूलवासी और सामान्य वर्ग की लड़कियों पर उत्पीड़न के साथ ही उनकी ज़िन्दगी पर भी आफत है। लेकिन सरकार और व्यवस्था के लोग चुप हैं।

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इसी तरह, झारखण्ड की मौलिक जातिगत व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए सभी के आर्थिक उत्थान के लिए सरकारी एवं राजनीतिक स्तर पर कदम बढ़ाने की जरूरत थी। यदि ऐसा होता तो खेतौरी, घटवाल, कुरमी, भुईया आदि को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाता जबकि सूरी, तेली, कलवार, कुम्हार, कहार, सोनार आदि को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया जाता। ऐसा करने के बाद झारखण्ड विधानसभा में विधेयक पारित होता और उसे केंद्र की सहमति के लिए भेजा जाता तो यह बहुत ही अच्छा और किसी भी राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सभी के हित में होता जिससे किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन सरकार ने आनन-फानन में केवल और केवल राजनीतिक फायदे के लिए इस विधेयक को पारित करवाया जबकि इसमें झारखण्ड की सामाजिक भावना से खिलवाड़ हुआ और अनेक नजातीय समुदाय के सपनों को भी रौंद दिया गया।

डॉ. मंडल का मानना है कि समय बदल रहा है। केंद्र में सत्ता में बैठे लोगों की नजर, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह झारखंड की स्थिति से पल-प्रतिपल अवगत हो रहे हैं। स्वाभाविक है एक नई सोच के साथ इस प्रदेश में, यहाँ के जनमानस के के बेहतर जीवन के लिए कुछ बेहतरीन कदम उठाया ही जायेगा।

डॉ मंडल कहते हैं कि विगत दिनों झारखंड के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक इतिहास पर वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे एक बेहतरीन किताब का प्रकाशन किया है। चौबे धनबाद में ‘आवाज’ अखबार में भी काम किये। वहीँ किसी ज़माने में मैं भी काम करता था। डॉ. मंडल का मानना है कि जिस तरह चौबे ने उस पुस्तक में झारखंड क्रांति की शुरुआत से लेकर झारखंड राज्य के निर्माण तक की घटना को शब्दों में पिरोया है, आज के नेताओं के लिए एक शब्द कोष का काम करेगा। आज के संवेदनशील नेता इस बात को समझ पाएंगे कि इस राज्य के निर्माण में, यहाँ के आदिवासी, संथाली, अनुसूचित जाति, जनजाति के कल्याणार्थ क्रांतिकारियों ने कितना बलिदान दिया। डॉ. मंडल का मानना है कि वे तो एक सिपाही है और अंतिम क्षण तक प्रदेश की भलाई के लिए लड़ते रहेंगे।

ज्ञातव्य हो कि अगर अविभाजित बिहार के इस क्षेत्र की राजनीतिक व्यवस्था पर नजर डालें तो स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद 5 मार्च, 1949 को आदिवासी महासभा के स्थान पर झारखंड पार्टी का गठन किया गया।साल भर बाद हुए प्रांतीय चुनाव में इस नई-नवेली पार्टी ने 325 स्थानों में से 22 सीटों पर जीत दर्ज की। दो साल बाद 1952 में हुए प्रथम विधानसभा चुनाव में झारखंड पार्टी को 32 सीटें मिलीं, जबकि जनता पार्टी से जीतकर आया एक सदस्य भी उसमें शामिल हो गया। तब यह पार्टी बिहार विधानसभा में प्रमुख प्रतिपक्षी दल बन गई। उस समय लोकसभा में इस पार्टी को तीन सीटें मिलीं। 1957 के चुनाव में भी झारखंड पार्टी ने 32 सीटें हासिल की। पाँच वर्ष बाद 1962 के विधानसभा चुनाव में झारखंड पार्टी 20 सीटों पर सिमट गई। लोकसभा में भी उसके सदस्यों की संख्या छह से घटकर तीन पर आ गई। दरअसल, झारखंड पार्टी के तेवर में आती गिरावट ने चुनाव में उसकी लोकप्रियता कम की।

1955 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग की टीम राँची आई। तब जयपाल सिंह गायब हो गए। हालाँकि, वे झारखंड अलग राज्य के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ते रहे थे। यहाँ तक कि आयोग को दिए जाने वाले ज्ञापन पर उन्होंने दस्तखत तक नहीं किए। उन दिनों हालत यह थी कि चाहे बिहार सरकार हो कि केंद्र सरकार, झारखंड क्षेत्र को कैबिनेट में जगह तक न मिलती थी। उसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1 नवंबर, 1956 को देश में बंबई, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, केरल और मैसूर जैसे राज्य उभरे। आयोग छोटानागपुर तथा संथाल परगना के लिए ‘विशेष विकास बोर्ड’ बनाने की सिफारिश कर मौन हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी लोकप्रियता में आती कमी से जयपाल सिंह पस्तहिम्मत हो गए थे।

शायद इसी कारण चीन के खतरे से देश को बचाने के नाम पर 20 जून, 1963 को उन्होंने झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय करा दिया, हालाँकि, तब तक भारत-चीन युद्ध समाप्त हुए कई महीने गुजर चुके थे। यह अलग बात है कि इस विलयन के प्रसाद स्वरूप जयपाल सिंह को 3 सितंबर, 1963 को सामुदायिक विकास विभाग का मंत्री बना दिया गया। लेकिन 29 दिनों बाद ही तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने इस्तीफा दे दिया। नए मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय ने उनको अपनी कैबिनेट में जगह नहीं दी। उनकी जगह पर सुशील कुमार बागे को मंत्री बना दिया गया। तब जयपाल सिंह को लगा कि उन्हें न माया मिली और न ही राम। अलबत्ता, 1964 में उनकी दूसरी पत्नी जहाँआरा को केंद्र में उपमंत्री बनाया गया। 1952 के राज्यसभा चुनाव में दरभंगा महाराजा कामेश्वर सिंह और 1957 के लोकसभा चुनाव में बंबई के वकील मीनू मसानी, एरिक डिकोस्टा और धनबाद के उद्योगपति अर्जुन अग्रवाल जैसे लोगों को टिकट दिए जाने के कारण जयपाल सिंह पर उँगलियाँ उठने लगी थीं।

पार्टी का कांग्रेस में विलय कराने के बाद तो जैसे वे श्रीहीन ही हो गए। यह अलग बात है कि 1967 के लोकसभा चुनाव में भी वे खूँटी क्षेत्र से मामूली अंतर से जीत गए, लेकिन उनका रुतबा खत्म हो चुका था। वे अब विवादों में आ चुके थे। 1970 में उनके देहांत के साथ उनकी कथाएँ ही जीवित रह गईं। जयपाल सिंह द्वारा पार्टी का कांग्रेस में विलय करा देने से विक्षुब्ध गुट ने लगे हाथ दनादन सभाएँ कर झारखंड पार्टी में नई जान फूँकने की कवायद शुरू कर दी। उसने सितंबर 1963 में बीरमित्रापुर में महाधिवेशन कर लाल हरिहर नाथ शाहदेव को अध्यक्ष तथा लाल रणविजय नाथ शाहदेव को महासचिव और अन्य पदों पर भी चयन कर पार्टी का गठन कर दिया। बाद में यह दल निरल एनम होरो यानी एन.ई. होरो के नेतृत्व में चला तो बस, चला ही। कोई विशेष योगदान न रहा।

झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय के बाद हालाँकि जनजातीय परामर्शदातृ समिति और छोटानागपुर संथाल परगना स्वशासी विकास प्राधिकार का गठन किया गया, लेकिन इनका कोई उल्लेखनीय योगदान न रहा। झारखंड अलग राज्य की माँग दब तो गई, लेकिन अंदर-ही-अंदर धुआँती रही। अगले कुछ वर्षों तक झारखंड के नाम पर तरह-तरह के आंदोलन और संगठन बनते-बिगड़ते रहे। अलबत्ता 12 मार्च, 1973 को झारखंड पार्टी ने निरल होरो की अध्यक्षता में दिल्ली में बड़ा प्रदर्शन कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को झारखंड अलग राज्य बनाने का माँगपत्र सौंपा। उनका कहना था कि बागुन सुंब्रई के नेतृत्व वाली अखिल झारखंड पार्टी, सेत हेंब्रम की ‘हुल झारखंड पार्टी’ भी इस विषय पर एकमत हैं।

आदिवासियों को उनकी जमीन वापस दिलाने और उन्हें सूदखोर महाजनों से मुक्ति दिलाने में सरकारी व्यवस्था कारगर नहीं हो पा रही थी। ऐसे ही समय में झारखंड मुक्ति मोर्चा नामक संगठन का उदय हुआ। इसके पूर्व बिरसा सेवा दल जैसा उग्र दल विशेष प्रभाव न छोड़ सका था। उधर शिबू सोरेन सोनोत संथाली समाज और विनोद बिहारी महतो शिवाजी समाज नामक संगठन चला रहे थे। इनके तेवर काफी उग्र थे। शिबू के बचपन में ही 1957 में उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या सूदखोर महाजनों ने कर दी थी। इसके प्रतिकार में वे अपना संगठन चला रहे थे, जिसका उद्देश्य नशाखोरी रोकना, शिक्षा का प्रसार, महाजनों से जमीन बचाना आदि था, लेकिन उसकी उग्रता का भी ठिकाना नहीं था। इसी कारण उनको लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। 4 फरवरी, 1973 को शिबू सोरेन के सोनोत संथाल समाज और विनोद बिहारी महतो के शिवाजी समाज ने मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो का गठन किया, जिसको प्रखर मजदूर नेता ए.के. राय का वैचारिक समर्थन मिला।

शीघ्र ही ए.के. राय इनसे गहरे जुड़ गए। इन तीन नेताओं ने प्रचंड आंदोलन प्रारंभ कर दिया। झामुमो ने खदानों और औद्योगिक मजदूरों को तो अपने साथ जोड़ा ही, गैर-आदिवासियों में भी पैठ बनानी शुरू कर दी। अगले साल जब इस संगठन का स्थापना दिवस समारोह धनबाद के पोलो मैदान में मनाया गया, तो इसमें अपना खाना-पानी लेकर दूर-दूर से पैदल आए हजारों लोग शामिल हुए। उस समय विनोद बिहारी महतो आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत पटना जेल में बंद थे। हत्या और डकैती जैसे मामलों में वांछित होने के कारण अज्ञातवास में रहने के बावजूद शिबू सोरेन उस सभा में आए, दहाड़े और चलते बने। पुलिस टापती रह गई। उसी समय धनबाद में के.बी. सक्सेना जैसे सुलझे अधिकारी ने डिप्टी कमिश्नर का पदभार सँभाला। उन्होंने तमाम परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन करने के बाद शिबू सोरेन के खिलाफ जारी वारंट वापस कराया और उनको लोकतांत्रिक तरीके से अपना आंदोलन जारी रखने पर राजी कराया।

कहने की बात नहीं कि शिबू को संथाल आदिवासियों का भरपूर समर्थन था, तो विनोद बिहारी महतो के कारण कुरमियों का भी समर्थन मिल रहा था, जबकि ए.के. राय के कारण वे कोलियरी और औद्योगिक मजदूरों के बीच भी प्रसिद्धि पा सके। सूरज मंडल के भी मोरचे से जुड़ जाने के कारण यह संगठन चल निकला। लेकिन शिबू, विनोद बिहारी और ए.के. की तिकड़ी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकी। 1980 में शिबू और ए.के. के रास्ते अलग-अलग हो गए, जबकि 1984 में विनोद बिहारी महतो का भी साथ छूट गया। ए.के. राय छोटे से लालखंड के पक्षधर थे, तो शिबू वृहद झारखंड के।

आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी। इससे प्रभावित होकर अलग झारखंड राज्य के आंदोलन ने अचानक जोर पकड़ लिया। प्रायः सभी दलों ने झारखंड प्रकोष्ठ का गठन करना प्रारंभ कर दिया। उसी साल सितंबर में छोटानागपुर संथाल परगना क्षेत्र के मंत्रियों, विधायकों ने अलग राज्य के समर्थन में माँगपत्र तैयार किया। शीघ्र ही एक संघर्ष समिति का गठन कर लिया गया, जिसका अध्यक्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कार्तिक उराँव को बनाया गया। इसमें समाज के हर वर्ग के लोगों को शामिल किया गया। कुछ काल बाद नेतरहाट में हुई बैठक में तीन दर्जन से अधिक सांसद, विधायकों ने धमकी दी कि सरकार ने अलग राज्य का गठन नहीं किया तो वे जनता पार्टी की सरकार गिरा देंगे। 1978 की इस घटना के बाद झामुमो और झारखंड पार्टी अपने-अपने ढंग से आंदोलन चलाते रहे।

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उधर बिहार में सरकार बनाओ, सरकार गिराओ खेल चलने लगा। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की दो गिरफ्तारियों ने उनको अधिक लोकप्रिय बना दिया और वे 1980 के लोकसभा चुनाव में अपार बहुमत से सत्ता पर पुनः काबिज हो गईं। उसी साल मई-जून में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान के बीच राँची सीट से यूथ कांग्रेस के तेज-तर्रार नेता ज्ञानरंजन को पहली बार खड़ा किया गया, जो न केवल विधानसभा पहुँचने में सफल रहे, अपितु अपने राजनीतिक कौशल से इंदिरा गांधी के प्रिय पात्र भी बन गए। कारण था कि जनवरी, 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने आक्रामक तेवरवाले झामुमो का कांग्रेस से चुनावी समझौता करवा दिया था।

इधर बिहार विधानसभा के चुनाव का झारखंड पार्टी ने बहिष्कार कर दिया, जिससे झामुमो को अवसर मिल गया। वह अच्छी-खासी संख्या में विधायक लेकर पटना पहुँचा। यह वही समय था, जब विश्व बैंक के सहयोग से सिंहभूम के 892 वर्ग किलोमीटर में फैले सारंडा वन क्षेत्र में सागवान के पौधे लगाए जा रहे थे। आदिवासियों के बीच अफवाह फैला दी गई कि सागवान का पेड़ जमीन को बरबाद कर देता है। नतीजन, झामुमो ने वहाँ पेड़ काटो अभियान चला दिया था। प्रशासन के साथ हुई तनातनी के कारण 60 लोग गिरफ्तार कर लिये गए। इस घटना के विरोध में गुवा में प्रदर्शन के दौरान 8 सितंबर, 1980 को फायरिंग हुई, जिसमें 11 आदिवासी मारे गए, जबकि उनके तीरों से चार पुलिसकर्मी भी मारे गए। इस घटना के बाद कांग्रेस और झामुमो में तीव्र मतभेद हो गए।

मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने ‘दुस्साहसियों को कुचल देंगे’ जैसा बयान दिया। उसके ठीक पहले सिंहभूम में 21 वन विश्रामागारों और दस पुल-पुलियों को विस्फोटकों से उड़ा दिया गया था। तेजी से बदल रहे सियासी हालात के बीच सीपीआई ने झारखंड आंदोलन को समर्थन दे दिया, जबकि मुख्यमंत्री रहते हुए अलग राज्य के तीव्र विरोधी लोकदल नेता कर्पूरी ठाकुर ने भी वन प्रांत की वकालत कर दी। कांग्रेस के साथ झामुमो के गठबंधन से क्षुब्ध विनोद बिहारी महतो, जो बिहार विधानसभा में दल के नेता थे, विरोध में वक्तव्य देने लगे। अंततः 1984 का अंत होते-होते उन्होंने अलग झामुमो की घोषणा कर डाली। लोकसभा चुनाव हार चुके शिबू सोरेन ने 1985 में जामा सीट से विधानसभा चुनाव जीतकर सदन में पार्टी का नेता पद सँभाल लिया। इसके पहले सारंडा वन क्षेत्र के अंतर्गत ‘कोल्हान रक्षा संघ’ नामक एक संगठन खड़ा कर 1981 में अलग देश की माँग कर दी गई।

बाद में इन कथित आंदोलनकारियों ने ग्राम रक्षा दल बनाकर ‘चोर मारो’ अभियान चलाया। वे बदले की भावना से ग्रस्त हो गए, क्योंकि जनसमर्थन नहीं मिल रहा था। इसलिए उन्होंने सामूहिक अपहरण और सामूहिक हत्या को अंजाम देना शुरू कर दिया। पोड़ाहाट स्टेट के अंतर्गत आने वाले पूरे इलाके में दहशत और आतंक का माहौल कायम हो गया। 1983-84 में इस पूरे प्रकरण की दैनिक ‘राँची एक्सप्रेस’ की ओर से चौबे और विद्याभूषण मिश्र ने प्रभावित क्षेत्रों में जाकर धारावाहिक रिपोर्टिंग की थी, जो खूब चर्चित हुई थी। यह मामला संसद् में भी गूँजा। सुप्रीम कोर्ट से भी जमानत न मिलने के कारण लंबे जेल प्रवास के बाद सवैया और टोपनो खुद को वकील बताते हुए कोल्हान इस्टेट की बात करने लगे। यह विषय इतना चर्चित हुआ कि अंग्रेजी और हिंदी के राष्ट्रीय दैनिकों ने संपादकीय कॉलम में जगह दी। धीरे-धीरे यह मामला शांत हुआ।

लेकिन बाद के वर्षों में यह इलाका नक्सलियों की गोलियों से गूँजने लगा। झारखंड राज्य बनाने का श्रेय भले ही भाजपा और कांग्रेस लें, लेकिन उनको शुक्रिया अदा करना चाहिए ‘आदिवासी महासभा’, झारखंड पार्टी और झामुमो का, जिन्होंने अलग-अलग हालात में यह विजन दिया और किसी-न-किसी हद तक उस पर डटे रहे। यह बात इसलिए कि सभी बड़े दल इस विषय को सिरे से खारिज करते रहे, लेकिन 1984 आते-आते सभी ने इस पर गंभीरता बरतनी शुरू कर दी। बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी एक-एक अलग राज्य बनाने की माँग उठ रही थी। इसलिए भी झारखंड को महत्त्व मिलने लगा। यह बात इससे भी समझ में आती है कि 1984 में मकर संक्रांति के अवसर पर पलामू के बेतला में भाजपा के राज्य अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी द्वारा आयोजित बड़े पिकनिक में जुटे समरेश सिंह, रीतलाल प्रसाद वर्मा, ललित उराँव, रुद्र प्रताप षाडंगी, छत्रुराम महतो जैसे नेताओं ने आम सहमति कायम कर अलग ‘वनांचल’ राज्य की माँग उठाने की ठानी।

उन्होंने उस समय कहा कि झारखंड नामधारी दलों द्वारा निकटतम पड़ोसी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों सहित 26 जिलों को मिलाकर अलग राज्य की माँग बेतुकी है। इसलिए नए राज्य की चौहद्दी छोटानागपुर और संथाल परगना तक ही सीमित रखना उचित होगा। भाजपा के वृहद प्लेटफाॅर्म तक यह बात पहुँचाई गई तो आंतरिक बहस-मुबाहिसों और समर्थन विरोध का दौर चलने लगा। करीब चार वर्ष पहले जनसंघ घटक के जनता पार्टी से अलग होने के बाद बनी भाजपा ने छोटानागपुर संथाल परगना के लिए अलग क्षेत्रीय समिति बनाने की मंजूरी दे दी। कांग्रेस पहले ही ऐसा कर चुकी थी। अलग राज्य विषय पर झामुमो की बढ़ती सक्रियता और स्वीकार्यता तथा झारखंड पार्टी के छीजन के साथ-साथ भाजपा और कांग्रेस की राजनीति के लिए यह मुद्दा एक अच्छा प्लेटफाॅर्मबन गया।

भाजपा ने वनांचल भजना प्रारंभ कर दिया। सितंबर 1985 में पटना में पूर्वी क्षेत्रीय परिषद् की बैठक में भाग लेने आए केंद्रीय गृहमंत्री शंकर राव चव्हाण को ज्ञापन सौंप छोटानागपुर संथाल परगना के 50 सांसदों, विधायकों ने अलग राज्य की पुरजोर तरीके से माँग उठाई। शिबू सोरेन ने तो यहाँ तक कह दिया कि सरकार यदि छोटानागपुर संथाल परगना को केंद्र शासित प्रदेश बना दे तो वे झारखंड राज्य की मांग त्याग देंगे। सन् 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सौंपे गए ज्ञापन में इस इलाके की ऐतिहासिक, भौगोलिक, जातीय, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जरूरतों का उल्लेख करते हुए अलग राज्य की वकालत की गई। उसी कालखंड यानी 1984 के लोकसभा चुनाव में झारखंडी दलों का सफाया हो जाने के बाद एकता प्रयास के तहत झारखंड समन्वय समिति तो बनाई ही गई, असम के ‘ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन’ (आसू) की तर्ज पर आजसू का गठन भी किया गया। असम के छात्र संगठन ‘आसू’ के प्रचंड आंदोलन के कारण बांग्लादेशी घुसपैठ पर केंद्र सरकार एक्शन लेने को विवश हो गई थी और यहाँ तक कि आंदोलनकारी छात्र नेता प्रफुल्ल कुमार महंत प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना सके थे।

इस बात को समझते हुए झामुमो ने 1986 में ‘ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन’ यानी आजसू का गठन किया। इसके महीने भर बाद ही झामुमो अध्यक्ष निर्मल महतो ने आजसू अध्यक्ष सूर्य सिंह बेसरा और दो अन्य को प्रफुल्ल कुमार महंत के पास आंदोलन के गुर सीखने को भेजा। बेसरा 1989 में विधायक चुने गए।

यहाँ इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि ए.के. राय और विनोद बिहारी महतो से विलगाव के बाद शिबू सोरेन ने बड़ी दूरदर्शिता के साथ जमशेदपुर के निर्मल महतो को 1984 में पार्टी का अध्यक्ष बनाया था। वे 1980 से ही झामुमो से जुड़े हुए थे। निर्मल महतो के कारण पार्टी का महतो बेस कायम रहा, दूसरे कोल्हान में पहुँच बढ़ाने में सुविधा हो गई। निर्मल जुझारू और साहसी नेता थे, जिनकी अगस्त क्रांति के दिन 1987 में जमशेदपुर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। खैर, 1986 में आजसू ने जमशेदपुर में छात्र एवं बुद्धिजीवी सम्मेलन किया। इसके मुख्य अतिथि थे, राँची विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. रामदयाल मुंडा। इनके अतिरिक्त कई प्रोफेसर और बड़े नेता इसमें शरीक हुए। सम्मेलन में विभिन्न छात्र संगठनों न आजसू को झामुमो की छाया से दूर रखने की पुरजोर वकालत की तो झामुमो अध्यक्ष निर्मल महतो ने उदारतापूर्वक सूर्य सिंह बेसरा को मुक्त कर दिया।

इस सम्मेलन में छोटानागपुर संथाल परगना के जिलों के अलावा वृहद झारखंड के तौर पर निकटतम पड़ोसी उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के कतिपय इलाकों को मिलाकर 26 जिलों के झारखंड की माँग पर आंदोलन की रणनीति तय की गई। इसके कुछ ही दिनों बाद दिसंबर में बंगाल के झाड़ग्राम में आजसू का पहला महाधिवेशन कर आजसू का स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखने की घोषणा कर दी गई। गठित नई समिति में प्रभाकर तिर्की को अध्यक्ष और सूर्य सिंह बेसरा को महासचिव बनाया गया। दो महीने ही बाद आजसू के एक प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री के निजी सचिव माखनलाल फोतेदार को बिहार सरकार द्वारा की जा रही नजरअंदाजी और झारखंड अलग राज्य का औचित्य बताते हुए ज्ञापन दिया।

जुलाई 1987 में उन्होंने यही ज्ञापन तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन को भी सौंपा। दो महीने बाद आजसू ने झारखंड बंद का आह्व‍ान कर डाला। इस दौरान कुछ स्थलों पर व्यापक तोड़ फोड़ हुई। असम से मिले गुरुमंत्र से दो कदम आगे बढ़कर आजसू ने झारखंडी सांसदों, विधायकों से इस्तीफे की माँग कर डाली। उसका कहना था कि जब तक झारखंड राज्य नहीं बनाया जाता, तब तक इस इलाके में चुनाव ही नहीं होने देंगे। इसके अलावा उसका यह भी अल्टीमेटम था कि यदि 31 अक्तूबर तक अलग राज्य नहीं बनाया जाता तो संगठन ‘रेल रोको और रास्ता रोको’ आंदोलन करेगा। आजसू की इस कार्यशैली से झारखंडी एकता की बात बनती, इसके पहले ही बिगड़ गई।

झामुमो और झारखंड पार्टी ने खुद को अलग कर लिया। झारखंड आंदोलन से जुड़े विभिन्न गुटों द्वारा जाने-अनजाने परस्पर प्रतिकूल कार्य किए जाने के कारण उत्पन्न कटुता के माहौल में झारखंड बुद्धिजीवी मंच ने सार्थक भूमिका निभाते हुए करीब तीन दर्जन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों की समन्‍वय समिति बनवाने में सफलता पाई। उसके सम्मेलन में तैयार घोषणा-पत्र में बिहार के 12 जिले राँची, सिंहभूम, लोहरदगा, गुमला, पलामू, गिरिडीह, हजारीबाग, धनबाद, दुमका, गोड्डा, देवघर और साहिबगंज; उड़ीसा के चार क्योंझर, मयूरभंज, सुंदरगढ़, संबलपुर; मध्य प्रदेश के दो सरगुजा, रायगढ़ और पश्चिम बंगाल के तीन जिले पुरुलिया, बाँकुड़ा और मिदनापुर को मिलाकर 21 जिलों के झारखंड गठन का आंदोलन चलाने की बात कही गई। इन सभी जिलों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समान बताते हुए कहा गया कि इनकी परंपराएँ भी एक समान हैं।

इस कवायद के तत्काल बाद बिरसा जयंती के अवसर पर 15 नवंबर को राँची के मोरहाबादी मैदान में विशाल एकता रैली भी की गई। चार दिन बाद झारखंड बंद का आह्व‍ान अमल में लाया गया। अगले महीने दिल्ली जाकर झारखंड समन्‍वय समिति के विसेश्वर प्रसाद केशरी, संतोष राणा, सूर्य सिंह बेसरा, संजय बसु मल्लिक और इसलामुद्दीन ने राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया। ज्ञापन में 40 वर्षों के झारखंड आंदोलन के विवरण के अलावा प्रस्तावित 21 जिलों वाले झारखंड में आर्य, द्रविड़ और आस्ट्रिक संस्कृति के लोगों के सदियों से सहअस्तित्व और अंतःसंपर्क में बने रहने का भी उल्लेख था। इससे पहले नवंबर में राँची पधारे केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह ने राँची विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. रामदयाल मुंडा से झारखंड आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आंदोलन से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्ट माँगी, जो बाद में केंद्र के साथ वार्त्ता का आधार तो बनी ही, इस मामले को सुलझाने के लिए 24 सदस्यीय समिति के गठन का भी रास्ता निकला।

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उधर, अप्रैल 1988 में आगरा अधिवेशन में भाजपा ने बिहार से अलग कर वनांचल राज्य बनाने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी, तो इसके राज्य संगठन की गतिविधियाँ तेज हो गईं। नवंबर में भाजपा ने राँची में बड़ी रैली कर वनांचल आंदोलन में कूद पड़ने का हौसला दिखाया। यह वह दौर था, जब झारखंड आंदोलन गति पकड़ चुका था और बारंबार पटना, दिल्ली तक संदेश जा रहा था, लेकिन कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहा था। 20 अप्रैल, 1989 से झारखंड समन्‍वय समिति और आजसू ने तीन दिनों के झारखंड ‘बंद’ का आह्व‍ान किया। इस दौरान व्यापक हिंसा और तोड़-फोड़ हुई। अगले महीने बिना अन्य दलों को विश्वास में लिये आजसू नेता दिल्ली जाकर गृहमंत्री बूटा सिंह से मिले, तो झामुमो की आलोचना के शिकार बने। इतना जरूर हुआ कि इससे दिल्ली के कान खड़े हुए और उसने बातचीत के दरवाजे खोल दिए। 31 मई को पटना में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों संग झारखंड समन्‍वय समिति की वार्त्ता हुई, जिसका कुल जमा परिणाम यही रहा कि माँगपत्र दिल्ली भेज दिया गया।

अब तक की पूरी कवायद का एक निष्कर्षयह भी था कि पटना और दिल्ली यह मानने को विवश हो गए थे कि झारखंड क्षेत्र की उपेक्षा होती रही है। 7 जून को पहली बार दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह संग झारखंडी नेताओं की वार्त्ता हुई। इसका फलाफल बस, इतना ही रहा कि अगले महीने बिहार, बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के सरकारी प्रतिनिधियों संग विमर्श की बात तय हो गई। इस बीच झामुमो ने बिरसा पुण्यतिथि, 9 जून को झारखंड ‘बंद’ और अगले दिन से छह दिनों तक आर्थिक नाकेबंदी का ऐलान कर दिया। ‘बंद’ का तो विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन आर्थिक नाकेबंदी ने जबरदस्त तरीके से ध्यान खींचा। यह अलग बात है कि दिल्ली से बातचीत के लिए निमंत्रण मिलते ही चार दिनों बाद झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन ने आर्थिक नाकेबंदी वापस ले ली।

महीने भर के अंदर 5 जुलाई को सभी आठ झामुमो विधायकों ने इस्तीफा देकर नया संकेत दे दिया कि अब प्रचंड आंदोलन होगा। 11 अगस्त और 4 सितंबर को दिल्ली में पुनः त्रिपक्षीय वार्त्ता हुई, जिसके फलस्वरूप झारखंड विषयक समिति का गठन संभव हो सका। यह समिति कुछ विशेष न कर सकी, क्योंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई। केंद्र और राज्यों में नई सरकारें आ गईं। जाहिर है कि स्थितियाँ बदल गईं। 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के घोषणा-पत्रों में झारखंड की चर्चा तो जरूर थी, लेकिन अलग राज्य जैसी बात किसी में नहीं थी। चुनाव परिणाम अद्भुत रहा। भाजपा ने 14 में से 5, जनता दल ने तीन, झामुमो ने तीन और एक सीट मार्क्सवादी समन्‍वय समिति ने जीत ली।

पाँच वर्ष पूर्व जिस कांग्रेस ने सभी 14 सीटें जीत ली थीं, वह इस बार दो सीटों पर सिमट गई। तीन महीने बाद फरवरी 1990 में बिहार विधानसभा के चुनाव में हालांकि कांग्रेस ने झारखंड के लिए कई लुभावने कार्यक्रमों की घोषणा की, लेकिन कोई लाभ न हुआ। भाजपा ने 21, कांग्रेस ने 20 और झामुमो ने 19 सीटें हासिल कीं। बिहार में लालू प्रसाद के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी, जिसको झामुमो व वामदलों ने समर्थन दिया, जबकि भाजपा ने बाहर से समर्थन देने की घोषणा की। केंद्र में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को समर्थन दे रहे झामुमो की धमकियों के बाद वार्ता का दौर चला, लेकिन तब तक अयोध्या के राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा की रथ यात्रा प्रारंभ हो गई।

भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी समस्तीपुर में 23 अक्तूबर को गिरफ्तार कर लिये गए और 30 अक्तूबर को अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियाँ चलीं, जिससे पाँच कारसेवकों की मृत्यु हो गई। देशभर में हिंसा फैल गई। भाजपा ने वी.पी. सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वह सरकार 7 नवंबर को सिधार गई। पटना में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी को पार्टी विधायक दल के नेता पद के चुनाव से ऐन पहले चुनाव में भाग लेने से रोक दिया गया और निलंबित भी कर दिया गया। विधानसभा चुनाव में पूरे बिहार की 324 सीटों में भाजपा को 39 सीटें मिली थीं, जिनमें से 21 सीटें 81 सीटों वाले छोटानागपुर संथाल परगना क्षेत्र में हासिल हुई थीं। नामधारी पर उम्मीदवारों के चयन में धाँधली का आरोप लगाया गया था। उन्होंने 7 मार्च को दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी से भेंट कर प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।

उनका कहना था कि टिकट बँटवारे के समय से ही उनकी उपेक्षा की जा रही थी, इसलिए वे यह पद बोझ मान रहे हैं। इसके कुछ ही दिनों बाद भाजपा ने समरेश सिंह को भी निलंबित कर दिया। पार्टी सोच रही थी कि दोनों नेता सार्वजनिक तौर पर माफी माँगेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ महीनों बाद दिसंबर में एक एक कर दोनों को दल से निष्कासित भी कर दिया गया। दोनों नेताओं ने मिलकर ‘संपूर्णक्रांतिदल’ नामक पार्टी बना ली, जिसका जल्द ही जनता दल में विलय हो गया। नामधारी परिवहन और राजस्व मंत्री बन गए। वर्ष 1998 में वे भाजपा नेताओं के अनुरोध पर पुनः भाजपा में चले गए, लेकिन कुछ ही साल बाद वे रामविलास पासवान की पहल पर जदयू में चले गए। 1990 के अंतिम दिन झारखंड के लिए थोड़े खुशफहमी भरे रहे, क्योंकि वी.पी. सिंह की सरकार के पतन के बाद दिल्ली में सजपा नेता चंद्रशेखर सिंह की सरकार बनी और विश्वास मत के एक दिन पहले 15 नंवबर को चंद्रशेखर ने शिबू सोरेन को पत्र लिखकर सूचित किया था कि दिसंबर से पहले झारखंड समस्या का समाधान कर लिया जाएगा।

इसके बावजूद झामुमो ने चंद्रशेखर सरकार के पक्ष में मतदान नहीं किया। इसी के साथ बिहार में लालू सरकार को भी विश्वास मत प्राप्त करने की नौबत आ गई, क्योंकि भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया था और कांग्रेस भी समर्थन नहीं कर रही थी। अलबत्ता, झामुमो ने बाहर से समर्थन किया था। लालू ने विश्वास मत प्राप्त कर लिया। लेकिन जैसा कि सभी जानते हैं, चंद्रशेखर सरकार पहले दिन से ही सूली पर टँगी हुई थी, जिसका फंदा कांग्रेस के समर्थन वापसी के साथ 6 मार्च, 1991 को कट गया। इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में वनांचल और उत्तरांचल राज्य को शामिल कर लिया, जबकि कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया। उधर कांग्रेस प्रमुख राजीव गांधी ने संविधान के तहत झारखंड समस्या के समाधान की बात जरूर कही, लेकिन इससे आगे वे नहीं बढ़ सके। साथ ही राज्य में झामुमो, झारखंड पार्टी और आजसू आमने-सामने हो गए और हैरानी की बात यह कि तीनों दलों ने एक-दूसरे को झारखंड विरोधी कहने में कोई परहेज नहीं किया।

परिणाम यह कि कांग्रेस साफ हो गई, भाजपा 5, झामुमो 6, जनता दल दो और भाकपा ने एक सीट जीत ली। इस दसवीं लोकसभा के चुनाव की तैयारियों के दौरान ही लालू प्रसाद ने ‘झारखंड क्षेत्र विकास परिषद्’ के गठन की घोषणा कर दी। इस अधिकारविहीन परिषद् को 1 अगस्त, 1991 को भारी अवरोध-विरोध के बीच बिहार विधानसभा में मंजूरी भी मिल गई। इस विधेयक को केंद्र की मंजूरी आवश्यक थी। इस सूरत में तरह-तरह के विवादों और आरोप-प्रत्यारोपों के बीच इसका संशोधित स्वरूप चार वर्ष बाद 1995 में लागू हो सका। 1992 झारखंड आंदोलन के लिहाज से घटनाओं से लबरेज रहा। आजसू और झारखंड पीपुल्स पार्टी ने तिलका माँझी जयंती के अवसर पर राँची में अल्टीमेटम दिया कि 29 फरवरी तक झारखंड राज्य की घोषणा नहीं हुई तो बम, गोली और बारूद गूँजेंगे। 2 से 6 मार्च तक उन्होंने आर्थिक नाकेबंदी की भी घोषणा कर डाली।

उसी दिन यानी 11 फरवरी को उनकी रैली में शामिल लोगों द्वारा मचाए गए उत्पात ने आर्थिक रैली की विकरालता का संकेत दे दिया। बढ़ते तनाव को देखते हुए 28 फरवरी को दिल्ली में गृहमंत्री शंकर राव चव्हाण ने झामुमो सांसदों और लालू प्रसाद से वार्त्ता की, लेकिन कोई परिणाम न निकला। आजसू ने 1 मार्च को ‘बंद’ कराया, जो असरदार रहा, जबकि झामुमो ने 21 मार्च को झारखंड ‘बंद’ कराया, जो तोड़ फोड़, हिंसा और आगजनी से भरपूर रहा। झामुमो ने अगले दिन से दस दिवसीय आर्थिक नाकेबंदी जारी कर दी, जिसमें तकरीबन 300 करोड़ की क्षति का अनुमान लगाया गया। इस बीच 28 मार्च को दिल्ली में पुनः वार्त्ता हुई, लेकिन वह भी बहुत सार्थक न हो सकी। 8 सितंबर को पुणे में केंद्रीय गृहमंत्री शंकर राव चव्हाण ने कह दिया कि झारखंड समस्या का समाधान उसे राज्य या केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिया जाना ही है।

यह बयान विवादों में घिर गया, क्योंकि बाद में चव्हाण अपनी इस बात से मुकर गए। उनके बयान पर पर्याप्त राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई। लालू प्रसाद ने पटना में सर्वदलीय बैठक बुला ली, जो किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकी, क्योंकि भाजपा अलग राज्य के समर्थन में थी, तो लालू का सहयोग कर रही सीपीआई भी उसी मत की थी। झामुमो इस बैठक में था ही नहीं। 11 सितंबर को लालू दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने प्रधानमंत्री नरसिंह राव से लंबी वार्त्ता की। वहाँ से निकले तो संवाददाताओं से उन्होंने खुशी-खुशी कहा कि प्रधानमंत्री ने झारखंड मुद्दे पर सभी दलों से विमर्श करने का उनका सुझाव मान लिया है। उसी समय लालू ने एक बड़ी विवादास्पद बात कह डाली। बोले, ‘झारखंड मेरी लाश पर बनेगा।’ उधर भाजपा अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने राँची में चुनौती भरे शब्दों में कहा, ‘हम छोटानागपुर संथाल परगना के 16 जिलों को मिलाकर अलग वनांचल राज्य से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।’ नाजुक परिस्थितियों का आकलन करने में कांग्रेस के ज्ञानरंजन काफी आगे रहे।

झारखंड पर कहानी श्रृंखला जारी है। ……

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