एफआईआर संख्या 573/1994 ✍ ‘त्रिया भाग्यम, पुरुषस्य चरित्रं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः’ सुभाषित के शब्द उलट-पुलट गए, तभी तो श्रीमती रेखा गुप्ता मुख्यमंत्री बनी

लक्ष्मी नारायण राव, पूर्व डीसीपी, दिल्ली पुलिस

नई दिल्ली: जब सितम्बर 19, 1994 को अपरान्ह काल 2 बजकर 15 मिनट में राजौरी गार्डन के प्रथम प्राथमिकी पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 18 पर प्रथम प्राथमिकी संख्या 573/94 लिखा जा रहा था, उस दिन और उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम महाविद्यालय की छात्रा सुश्री रेखा गुप्ता को ज्ञात नहीं था कि अगले वर्ष वे दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की महासचिव बनेंगी और उसके अगले वर्ष छात्रसंघ की अध्यक्षा। शायद उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होगा कि उस तारीख से 31 वर्ष बाद जब पहली बार दिल्ली विधान सभा की विधायिका चुनी जाएँगी, उसी चयन के साथ वे प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनेंगी। इसी को कहते ‘भाग्य’ कहते हैं।

पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुख्यात अपराधी बृज मोहन त्यागी की पहचान हो गई थी। उत्तर प्रदेश और दिल्ली सरकार के तरफ से उसके सर पर तीन लाख रुपये इनाम की घोषणा सरकार कर दी थी। दोनों प्रदेशों की पुलिस, ख़ुफ़िया के लोग अपराधियों के चाल चलन, क्रिया कलापों के साथ साथ उनकी गतिविधियों पर पैनी निगाह रखे थे। उस कालखंड में दिल्ली पुलिस का मनोबल अपने कप्तान तत्कालीन दिल्ली पुलिस आयुक्त एमबी कौशल के कारण अपनी स्थापना काल के बाद पहली बार मजबूत हुई थी। तभी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव की घोषणा हुई। साल 1994 था और महीना सितंबर।

Delhi Police ShootOut 1994 : L N Rao

छात्रसंघ चुनाव का तारीख 16 सितंबर को निर्धारित था। अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी से समर्थित अभ्यर्थियों का साथ देने, चुनाव में प्रचार-प्रसार करने के लिए देश के सभी शहरों और विश्वविद्यालयों से छात्रों का आना जाना शुरू हो गया था। उस चुनाव में कांग्रेस समर्थित नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया और भारतीय जनता पार्टी / राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अभ्यर्थी छात्र संघ के चुनावी मैदान में अपनी-अपनी टोपी उछाले थे। तभी एक दिन दिल्ली पुलिस के ख़ुफ़िया सूत्र के रडार पर पश्चिम उत्तर प्रदेश के बृज मोहन त्यागी की मारुति कार दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में दिखाई दी।

श्रीमती रेखा गुप्ता मुख्यमंत्री

विगत दिनों जब दिल्ली की शालीमार बाग विधानसभा क्षेत्र से पहली बार की विजेता श्रीमती रेखा गुप्ता को दिल्ली की मुख्यमंत्री के लिए चुना गया, सभी अवाक रह गए। भारतीय जनता पार्टी के आला कमानों, ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की नज़रों में श्रीमती रेखा गुप्ता दिल्ली की राजनीति में अमिट छाप छोड़ेंगी, यह सोचकर उन्हें भीड़ से अलग कर दिया गया। इस खबर के साथ ही दिल्ली ही नहीं, देश दुनिया से प्रकाशित अखबारों, पत्रिकाओं में, टीवी चैनलों पर कहानियों का सिलसिला जारी हो गया। सभी शब्दों से श्रीमती रेखा गुप्ता के स्वेटर बुनने लगे।

लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम महाविद्यालय 1992-1995 में स्नातक (वाणिज्य) की छात्रा रही उस ज़माने की सुश्री गुप्ता, जो अपने महाविद्यालय में छात्र-छात्राओं का प्रतिनिधित्व करने के शुरुआती दिनों में राजनीति में पुरुषों के तेवर को आंक चुकी थी, आज शायद इस बात से भिज्ञ हैं कि ‘इस पुरुष प्रधान राजनीतिक व्यवस्था में एक महिला को नेतृत्व करना कितना दुःखमय होता है।’ शायद वे जानती हैं कि हरेक महिला श्रीमती इंदिरा गांधी या श्रीमती शीला दीक्षित नहीं हो सकती, जहाँ तक राजनीतिक व्यवस्था में पुरुषों को उनकी औकात दिखाने का सवाल है। उनके मन में दृष्टांत भी है – श्रीमती सुषमा स्वराज को कैसे तत्कालीन पुरुष नेता मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर कर दिये थे।

याद भी होगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के भगत सिंह कॉलेज के पुस्तकालय अध्यक्ष, जो बाद में प्रदेश की राजनीति में प्रवेश लिए, साहेब सिंह वर्मा मोहतरमा सुषमा स्वराज को बाहर निकालकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए थे। हवाला कांड में तत्कालीन मुख्यमंत्री और दिल्ली की राजनीति के पर्यायवाची मदन लाल खुराना का नाम आने के बाद, यहाँ तक कि न्यायालय से उन्हें सम्मानपूर्वक बरी होने के बाद भी तत्कालीन भाजपा के नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक उन्हें पुनः पहुँचने नहीं दिए। अवसर का लाभ साहेब सिंह वर्मा ने उठाया।

श्रीमती सुषमा स्वराज की कुर्सी लेते साहेब सिंह वर्मा

आज खुराना की अगली पीढ़ी को राजनीति में पैर रखने का भी स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार था। साहेब सिंह वर्मा के पुत्र प्रवेश वर्मा, जिन्होंने दिल्ली के पूर्व-मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संस्थापक अरविन्द केजरीवाल को 25000 मतों से परास्त कर विजयी हुए, भाजपा 26 साल बाद सिंहासन पर पहुंची, ‘उप-मुख्यमंत्री’ बनकर कैसे सांस ले सकते हैं। वर्मा दो बार के सांसद रह चुके हैं और अपने पिता के अंतिम सांस से पहले दिल्ली की राजनीति को समझ चुके हैं। वैसी स्थिति में आप माने अथवा नहीं, दिल्ली की चौथी महिला और भाजपा की दूसरी महिला मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता अंदर से भयभीत हैं। वे पहली बार विधायक बनी हैं। उनके साथ अनुभवी विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं और मुख्यमंत्री के लायक भी हैं। ख़ैर।

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लेकिन दिल्ली के राजनीतिक गलियारे वाले लोगों का कहना है कि श्रीमती रेखा गुप्ता भी तो तीन बार पार्षद रह चुकी हैं और दक्षिण दिल्ली नगर निगम (एसडीएमसी) की पूर्व मेयर भी रही हैं। वह 2007 और 2012 में उत्तरी पीतमपुरा (वार्ड 54) से दिल्ली पार्षद चुनाव के लिए चुनी गई थीं। वे भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और इससे पहले वह भारतीय जनता पार्टी, दिल्ली की महासचिव रह चुकी हैं । अब गलियारों के नेताओं को कैसे समझाया जाय कि सांसद और पार्षद में बहुत फर्क होता है – जनाब।

मदन लाल खुराना (पूर्व मुख्यमंत्री)

वैसे राजनीतिक विशेषज्ञ लिखते हैं कि भाजपा-शासित राज्यों में एक भी महिला मुख्यमंत्री नहीं थी और दिल्ली में पार्टी ने महिला को मुख्यमंत्री बनाकर उस कमी को दूर कर दी है। श्रीमती रेखा गुप्ता वैश्य समाज से आती हैं। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के वैश्य आधार को अपने साथ जोड़े थे। विजेंद्र गुप्ता को अगर मुख्यमंत्री बनाया जाता तो वे भी बनिया समाज के ही होते। गलियारे में लोगों का मानना है कि भले सतही राजनीति पर दिल्ली के भाजपा नेताओं में ‘गलफ़ुल्ली’ नहीं दिखे, लेकिन हकीकत यह है कि सभी फलेरिया रोग से ग्रसित हो गए हैं। उनका यह भी मानना है कि मोदी-शाह के डर से भले भाजपा का कोई ‘महत्वाकांक्षी’ नेता श्रीमती रेखा गुप्ता का विरोध करने का दुस्साहस नहीं करे, लेकिन भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती है – इसकी गारंटी कौन देगा ?

चलिए तीन दशक पीछे चलते हैं। उस दिन जब पहली बार छात्र नेता के रूप में सुश्री रेखा गुप्ता अपनी दौलत राम कालेज में प्रतिनिधि चुनी गई थी। साल था 1994 और उसी वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सफ़ाया हो गया था। एक भी उम्मीदवार विजय नहीं हो पाया था। इसका मुख्य कारण था तत्कालीन अख़बारों में एक समाचार का प्रकाशन – पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराधी बृज मोहन त्यागी और अन्य की पुलिस मुठभेड़ में मौत। त्यागी छात्र संघ चुनाव में एक ख़ास पार्टी के उम्मीदवारों की मदद करने आये थे। तारीख़ 15 सितंबर 1994 था और अगले दिन 16 सितंबर को छात्रसंघ का चुनाव था। अख़बारों के पन्नों पर प्रकाशित काला अक्षर विद्यार्थी परिषद के छात्र नेताओं का भविष्य उस वर्ष काला कर दिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संध में अध्यक्ष और महासचिव के लिए शपथ लेती सुश्री अलका लम्बा और सुश्री रेखा गुप्ता

अगले वर्ष यानी 1995 के चुनाव में सुश्री रेखा गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का महासचिव बनी और उसके अगले वर्ष छात्र संघ का अध्यक्ष। उस घटना के 31 वर्ष बाद, या यूँ कहें कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के इतिहास में सुश्री रेखा गुप्ता पहली नेता रहीं तो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंची । वैसी स्थिति में इस पुरुष प्रधान राजनीतिक गलियारे में श्रीमती रेखा गुप्ता हजम कैसे होंगी? आखिर सर्वोच्च सत्ता तो पुरुष अपने हाथो में ही रखना चाहता है।

अगर ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री कार्यालय में किसी महिला को अपनी कुर्सी पर बैठने का मार्ग प्रशस्त करते। समय का खेल देखिये, आगामी सितम्बर, 2025 को सम्मानित मोदी जी 75 वर्ष के हो जायेंगे और 19 जुलाई, 2025 को श्रीमती रेखा गुप्ता 50 वर्ष पूरा करेंगी। तो क्या यह मीड की जा सकती है कि आने वाले दिनों में श्रीमती रेखा गुप्ता को संसद के ऊपरी सदन के रास्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बना देंगे? जहाँ तक महिला सशक्तिकरण का सवाल है – शायद नहीं, शायद कभी नहीं।

बहरहाल, कल दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी से मुलाकात हुई। अवकाश प्राप्त करने के सालों बाद आज भी दिल्ली पुलिस के कर्मी, यहाँ तक कि अधिकारी भी, उनका नाम बहुत सम्मान के साथ लेते हैं। उन्हें ‘कर्मठ’ अधिकारी के रूप में स्वीकारते हैं। उन्हें ‘एनकाउंटर विशेषज्ञ’ से भी अलंकृत करते हैं। नाम है – लक्ष्मी नारायण राव यानी एल एन राव।

आज का राजौरी गार्डन का क्षेत्र

राव साहब उस तारीख का चश्मदीद गवाह हैं जिस तारीख को ‘आज की दिल्ली की मुख्यमंत्री महाविद्यालय में नेता बन रही थी, विश्वविद्यालय छात्रसंघ का नेता बनना चाहती थी। शायद उन दिनों वे सपने में भी नहीं सोची होंगी कि दो गुजरती मिलकर उन्हें दिल्ली सल्तनत की मुख्यमंत्री बना देंगे। उन दिनों उनकी आयु महज 20 वर्ष थी। और घटना दक्षिण दिल्ली के राजा दर्दें चौराहे पर हुई थी जब मारुति कार में बैठे पश्चिम उत्तर प्रदेश के अपराधी बृज मोहन त्यागी को सैंडविच बनाकर गोलियों से चली कर दिया गया था।’

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इस संवाददाता से बातचीत करते हुए दक्षिण दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में अपने आवास पर राव साहब कहते हैं कि ‘अगर हम नब्बे के दशक के शुरुआती या मध्य से पुलिस के कामकाज की बात करें, तो उस समय मोबाइल फोन या संचार के कोई अन्य तेज़ साधन नहीं थे। यहां तक कि पुलिस थाने, जो किसी विशेष क्षेत्र में पुलिस के कामकाज की रीढ़ होते हैं, भी कर्मचारी भी भारी कमी से जूझते थे और उनका नेतृत्व इंस्पेक्टर रैंक के केवल एक अधिकारी द्वारा किया जाता था। वे अधिकारी स्टेशन हाउस ऑफिसर के रूप में जाने जाते थे।

लक्ष्मी नारायण राव

वे कहते हैं कि साल 1994 की बात है जब तत्कालीन दिल्ली पुलिस के आयुक्त एमबी कौशल के कार्यकाल में दिल्ली पुलिसकर्मियों का मनोबल कुतब मीनार जैसी बढ़ी। कुल 364 इंस्पेक्टर और 107 सहायक पुलिस आयुक्त (ACsP) रैंक के बीच प्रमोशन की बाढ़ आ गई थी। दिल्ली के लगभग सभी पुलिस स्टेशनों में एक और इंस्पेक्टर की तैनाती कर दी गई थी। इस प्रोन्नति में इंस्पेक्टर को एडिशनल एस एच ओ का नाम दिया गया था, जिसका काम एस एच ओ को उनके दिन-प्रतिदिन के काम में सहायता करना और क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाए रखना था। दिल्ली के पुलिस स्टेशनों पर अतिरिक्त इंस्पेक्टरों की तैनाती के पीछे का उद्देश्य दिल्ली में अपराध को नियंत्रित करना था।

राव साहब कहते हैं कि नब्बे के दशक की शुरुआत से दिल्ली में अपराध की स्थिति में भारी बदलाव आया था। उस समय नागरिकों में संगठित अपराधियों के गिरोहों के बारे में डर का माहौल था, जो जबरन वसूली और अपहरण में शामिल थे। उन दिनों अपराधियों के ज़्यादातर गिरोह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के दक्षिण-पश्चिमी इलाकों से आते थे, जिन्हें दिल्ली में अपराधियों के नजफगढ़ बेल्ट के नाम से जाना जाता था। इनमें कुख्यात अपराधी गिरोह थे मित्राऊ गांव का अनूप-बलराज गिरोह और दिचाऊ कलां गांव का कृष्ण पहलवान गिरोह, दोनों ही दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के नजफगढ़ इलाके में थे। उन दिनों दिल्ली में दोनों गिरोहों का आतंक था। 1993 के जून महीने में नजफगढ़ में दिनदहाड़े दो व्यापारियों की दोहरी हत्या की वारदात हुई थी। इस गंभीर घटना के चलते व्यापारियों ने इलाके में अपराध की स्थिति के विरोध और आक्रोश में बंद का आह्वान किया था। व्यापारी भाइयों की इस दोहरी हत्या के मामले में अनूप-बलराज गिरोह पर शक था।

मुठभेड़ के बाद लिखा गया प्राथमिकी संख्या 573/94

चेहरे पर ओज लिए राव साहब कहते हैं कि “पश्चिमी जिले के तत्कालीन डीसीपी दीपक मिश्रा दक्षिण-पश्चिमी जिले का कार्यभार देख रहे थे, क्योंकि दोहरे हत्याकांड की घटना वाले दिन इलाके के तत्कालीन डीसीपी यूएनबी राव छुट्टी पर थे। दीपक मिश्रा नजफगढ़ बाजार पहुंचे और व्यापारियों के साथ बैठक की। उन्होंने कई सुधारात्मक उपायों की घोषणा की। अंत में उन्होंने व्यापारियों को आश्वासन दिया कि एक महीने के भीतर गिरोह के सभी मुख्य सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। नजफगढ़ के व्यापारियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए, दीपक मिश्रा ने मुझे, तत्कालीन एसएचओ तिलक नगर और रविशंकर, तत्कालीन इंस्पेक्टर स्पेशल स्टाफ वेस्ट डिस्ट्रिक्ट को बुलाया और हमारी पसंद के अपराधियों के एक गिरोह के सभी सदस्यों को पकड़ने का काम सौंपा।

मैंने कृष्ण पहलवान गिरोह के सभी मुख्य सदस्यों को पकड़ने का विकल्प चुना और रविशंकर को अनूप-बलराज गिरोह के अपराधियों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया गया। हम दोनों को विशेष टीम गठित करने के लिए कहा गया और टीम में शामिल करने के लिए अपनी पसंद के कर्मचारियों को चुनने की पूरी छूट दी गई। हमें दोनों को सौंपे गए काम के लिए 25 दिन का समय दिया गया और इन अपराधियों की तलाश के सिलसिले में यदि हमें आवश्यकता हो तो दिल्ली छोड़ने की अनुमति दी गई। हम दोनों ने दिन-रात कड़ी मेहनत की, जैसा कि कहावत है “भगवान उनकी मदद करते हैं जो खुद की मदद करते हैं”

मुठभेड़ के बाद लिखा गया प्राथमिकी संख्या 573/94

राव साहब कहते हैं: “मैं जुलाई 1993 के महीने में जनकपुरी पुलिस स्टेशन के इलाके में एक संक्षिप्त मुठभेड़ के बाद कृष्ण पहलवान को उसके तीन खूंखार साथियों के साथ हथियार और गोला-बारूद के साथ गिरफ्तार करने में सफल रहा, यानी जिस दिन मुझे यह काम सौंपा गया था, उसके 18 दिनों के भीतर। लगभग 4-5 दिनों के बाद रविशंकर ने बलराज को उसके तीन साथियों के साथ एक संक्षिप्त मुठभेड़ में गिरफ्तार करने में भी सफलता पाई, जिसमें गांव जोंटी के नरेंद्र भी शामिल थे। हालांकि, इन दोनों गिरोह के सदस्यों से पूछताछ के दौरान पता चला कि वे अपनी व्यक्तिगत रंजिश के चलते आपराधिक गतिविधियों में अधिक शामिल थे और जबरन वसूली के रैकेट में ज्यादा शामिल नहीं थे।”

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दक्षिण पश्चिमी दिल्ली के दो बड़े गिरोहों की गिरफ्तारी के बाद भी दिल्ली वालों को फिरौती के लिए आने वाली कॉल और अपहरण की धमकियों से कोई खास राहत नहीं मिली। इसकी मुख्य वजह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराधियों की हरकतें थीं। इनमें कुख्यात अपराधी महेंद्र फौजी, सतबीर गुज्जर, दिल्ली के केशव गुज्जर, मेरठ के बृजमोहन त्यागी, बागपत के राजबीर रमाला और रणपाल गुज्जर थे। इन अपराधियों को उत्तर प्रदेश के नेताओं का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होने का संदेह था। इसलिए बिना किसी ठोस सबूत के इन पर हाथ डालना ज्यादा मुश्किल था। दूसरे, इनके राजनीतिक संरक्षण के कारण आम लोग/पीड़ित इनके खिलाफ बयान देने के लिए आगे नहीं आते थे।

उसके बाद तत्कालीन दीपक मिश्रा साहब ने मुझ पर फिर से भरोसा जताया और पश्चिमी यूपी के कुख्यात अपराधियों को पकड़ने का काम सौंपा। मुखबिरों की मदद से मैंने अगस्त 1994 में नई दिल्ली के तिलक नगर थाना क्षेत्र में एक संक्षिप्त मुठभेड़ के बाद केशव गुज्जर और उसके साथियों को हथियारों और गोला-बारूद के साथ पकड़ा। उस पर दिल्ली और यूपी पुलिस की तरफ से 2 लाख रुपये का इनाम था। इसके बाद मैंने मेरठ यूपी के खूंखार अपराधी बृज मोहन त्यागी को पकड़ने के प्रयासों पर काम करना शुरू कर दिया, जो कथित तौर पर जबरन वसूली करने, दिल्ली के व्यापारियों को सुरक्षा राशि के लिए धमकाने और कॉन्ट्रैक्ट किलिंग आदि में शामिल था। उस पर 1994 के DUSU चुनावों में NSUI के उम्मीदवारों को धमकाने का भी संदेह था।

मुठभेड़ के बाद लिखा गया प्राथमिकी संख्या 573/94

दिल्ली विश्वविद्यालय के आस-पास के इलाकों में उसकी गतिविधियों के बारे में खुफिया नेटवर्क की मदद से, 15 सितंबर 1994 को बृज मोहन त्यागी को उसकी कार में देखा गया। मैंने अपनी पुलिस टीमों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के इलाके से राजौरी गार्डन तक उसका पीछा किया, जहाँ उसे एक व्यापारी को मारने के लिए जाना था क्योंकि उसके पास उसे मारने की 50 लाख रुपये की सुपारी थी। हालाँकि, यह उक्त व्यापारी के साथ-साथ मेरी टीम की अच्छी किस्मत थी, कि हमने उस दिन दोपहर लगभग 2.15 बजे राजा गार्डन चौक के ट्रैफिक पॉइंट पर बृज मोहन त्यागी की कार को घेर लिया। जैसे ही हम उसकी कार तक पहुँचने वाले थे, उसकी तरफ से गोलीबारी शुरू हो गई। उसके बाद उसके और मेरी टीम के बीच मुठभेड़ हुई। अंततः उस मुठभेड़ में बृजमोहन त्यागी अपने एक साथी अनिल मल्होत्रा के साथ मारे गए।

उस मुठभेड़ में मैं और मेरी टीम के दो सदस्य यानी ​हेड कांस्टेबल सुनील शर्मा और कांस्टेबल बिजेंद्र सिंह भी गोली लगने से घायल हो गए। अपराधियों की गोलीबारी में तीन आम लोग/राहगीर भी घायल हो गए। उनके सिर पर यूपी और दिल्ली पुलिस की तरफ से तीन लाख रुपये का इनाम था। इस मुठभेड़ को प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खूब सराहा और उस समय इसे “असली मुठभेड़” करार दिया। मेरे पेट में गोली लगने से मैं गंभीर रूप से घायल हो गया और लगभग दो सप्ताह तक डीडीयू अस्पताल के आईसीयू में रहा। मुझे अपने वरिष्ठ अधिकारियों, सहकर्मियों, मित्रों, शुभचिंतकों आदि से पूरा सहयोग मिला और उन सभी के आशीर्वाद और “सर्वशक्तिमान” की कृपा से मैं बच गया।

दिलचस्प बात यह है कि ​दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव में ​अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् उम्मीदवारों के समर्थन में बैनर/पोस्टर, हमलावर अपराधी बृजमोहन त्यागी की कार से बरामद किए गए थे, जिन्हें अगले दिन यानी 16 सितंबर 1994 को ​चुनाव के दिन मीडिया ने प्रकाशित किया था। संभवतः बृजमोहन त्यागी की पुलिस के साथ मुठभेड़ और DUSU चुनाव में ABVP उम्मीदवारों का समर्थन करने की इसी खबर के कारण ​छात्र संघ के चुनाव में विद्यार्थी परिषद् को चारों पदों पर हार का सामना करना पड़ा था।

​अगले वर्ष सुश्री रेखा गुप्ता विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में महासचिव के पद पर विजय हुई और उसके अगले वर्ष अध्यक्ष बनी। जिस वर्ष वे महासचिव चुनी गयी, उस वर्ष सुश्री अलका लम्बा अध्यक्ष बनी थी। क्रमशः….

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