क्या ‘हावड़ा ब्रिज’ का नामकरण टाटा समूह के संस्थापक के नाम पर सोच रही है दिल्ली, क्योंकि 26,500 टन स्टील में ‘टाटा’ का योगदान 23,500 टन है

क्या दिल्ली हावड़ा ब्रिज का नामकरण टाटा समूह के संस्थापक के नाम पर सोच रही है

कोलकाता / नई दिल्ली : आप माने या नहीं माने। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता और हावड़ा जिला के बीच सदियों से बहने वाली हुगली नदी पर बने ऐतिहासिक पुल का नामकरण “टाटा स्टील” के नाम या फिर टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी नसरवनजी टाटा के नाम पर हो जाए तो आपको कैसा लगेगा?

आप शायद यह भी नहीं मानेंगे कि अविभाजित भारत में औद्योगिक क्रांति की बुनियाद रखने वाले जमशेदजी नसरवनजी टाटा, जिनके कारण ही आज भारत ही नहीं, विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में ‘स्टील का कुछ न कुछ फीसदी हिस्सा है’, आने वाले दिनों में हावड़ा ब्रिज उनके सम्मानार्थ उनके नाम पर कर दिया जाए ।

आप शायद यह भी नहीं मानेंगे कि 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता मिलने के बाद से आज तक पश्चिम बंगाल में सात राजनेताओं की ‘मुंडी’ प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 28 बार देखा गया। ये सभी हावड़ा ब्रिज से कोई पांच किलोमीटर दूर राइटर्स बिल्डिंग में आते गए, जाते गए। लेकिन किसी ने भी इस ऐतिहासिक ब्रिज को वह सम्मान नहीं दिया, जिसका वह हकदार है, आज भी । इतना ही नहीं, लोगों की मानसिकता तो इतनी लुढ़क गई कि उन्होंने इस ब्रिज के पायों को पीकदान तक बना दिया।

हावड़ा ब्रिज

धन्यवाद के पात्र हैं जमशेदजी नसरवनजी टाटा, उनका “टाटा स्टील”, जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा, नवल टाटा, केवषजी मानेकजी टाटा, रतन टाटा, नोएल टाटा, जिमी नवल टाटा और टाटा समूह के सभी रक्त-श्रृंखला, जिन्होंने कभी भी हावड़ा ब्रिज के निर्माण में टाटा स्टील के योगदान का ‘राजनीतिकरण’ नहीं किया, बल्कि राष्ट्र के निर्माण में टाटा समूह को कभी पीछे भी नहीं रहने दिया।

लेकिन, अगर भारत सरकार के सड़क-परिवहन मंत्रालय के साथ साथ साऊथ ब्लॉक के शीर्षस्थ सूत्रों को माना जाए तो देश के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी टाटा समूह के सम्मानार्थ, जमशेदजी नसरवनजी टाटा के सम्मानार्थ हावड़ा ब्रिज के नाम में बदलाव कर सकते हैं और इस सम्भावना को नजर अंदाज भी नहीं किया जा सकता है। सूत्रों के अनुसार जिस ब्रिज के निर्माण में कुल 26,500 टन स्टील का इस्तेमाल हुआ हो, जिसमें टाटा स्टील का 23,500 टन स्टील का योगदान हो; साथ ही विगत 79 वर्षों में पश्चिम बंगाल के भद्रजनों द्वारा कई टन पान-सुपारी-चुना-कथ्था से युक्त ‘पीक’ इस ब्रिज के पायों के जड़ों में थूका गया हो, फिर भी वह अपनी बुनियाद पर अटल हो – सम्मान तो बनता है।

ये भी पढ़े   शक के दायरे में हैं हामिद अंसारी क्योंकि "निगाहें मिलाने को जी चाहता है........"

इससे भी बड़ी बात यह है कि पश्चिम बंगाल ही नहीं, भारत का शान कहा जाने वाला इस ऐतिहासिक हावड़ा ब्रिज का इसके स्थापना काल से आज तक ‘आधिकारिक रूप से राष्ट्र को समर्पित नहीं किया गया है; ‘जनता के आने-जाने के लिए इसे खोल तो दिया गया, परन्तु इसका “लोकार्पण” आज तक नहीं हुआ है। यानी आज 79-वर्षों में यह “अनटच्ड” है। कहते हैं जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, जापान का एक बम्ब इस ब्रिज के आस-पास गिरा था। खैर।

हावड़ा ब्रिज और हुगली नदी

बहरहाल, बिमल रॉय की फिल्म “दो बीघा जमीन”, ऋत्विक घटक की “बारी थाके पा लिए”, सत्यजित रॉय की “पारश पथ्थर”, मृणाल सेन की “नील आकाशेर नीचे”, शक्ति सामंत का “हावड़ा ब्रीज”, चाईना टाउन, अमर प्रेम, गांधी, पार, तीन देवियाँ, राम तेरी गंगा मैली, युवा, परिणिता, ब्योमकेश बक्शी और न जाने कितने फिल्म होंगे जो हावड़ा ब्रीज पर, इसके नीचे बहने वाली हुगली नदी की धाराओं में बनी है और आज भी दर्शकों के मानस पटल पर छाए हैं, चाहे भारत में रहते हों अथवा विश्व के किसी कोने में। यह सच है कि कलकत्ता लोग दो चीजों को देखने आते हैं – एक हावड़ा ब्रीज और दूसरा विक्टोरिआ मेमोरियल। कहते हैं की विक्टोरिआ मेमोरियल की बनाबट, नक्कासी को देखकर बंगाल के लोग उसे कलकत्ता का ताजमहल कहते हैं।

कहते हैं कि हावड़ा ब्रिज को दुनिया के सबसे अच्छे कैंटिलीवर पुलों में शामिल किया जाता है। हुगली नदी पर खड़ा यह पुल चंद खंभों पर टिका है। लेकिन इंजीनियरों का कहना है कि इन खंभों को अब जंग लगने लगा है। और इस जंग की वजह है पान। इस पुल से रोजाना लाखों लोग पान चबाते हुए गुजरते हैं और थूकते हुए निकल जाते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि पान में ऐसी चीजें होती हैं जो बेहद खतरनाक किस्म के यौगिक बना सकती हैं और स्टील को खत्म कर सकती हैं। कोलकाता की सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैब का मानना है कि थूक के साथ मिलकर पान में मौजूद चीजें स्टील पर एसिड सरीखा असर छोड़ती हैं।

ये भी पढ़े   #भारतकीसड़कों से #भारतकीकहानी (1) ✍ मोदी​ की दिल्ली

यह पुल बेहद मजबूत है और बरसों से बंगाल की खाड़ी के तूफानों को सहन कर रहा है। यही नहीं, 2005 में एक हजार टन वजनी कार्गो जहाज इससे टकरा गया था, तब भी पुल का कुछ नहीं बिगड़ा था। यहां से लगभग 5 लाख लोग रोज गुजरते हैं, इसलिए पुलिस हर आदमी को थूकने से रोक नहीं सकती। इसके लिए एक अभियान की जरूरत है, जिसके जरिए लोगों में पुल की अहमियत को लेकर जागरुकता पैदा हो सके।

हावड़ा ब्रिज

सत्तर साल से भी पहले निर्मित हावड़ा ब्रिज इंजीनियरिंग का चमत्कार है। यह विश्व के व्यस्ततम कैंटीलीवर ब्रिजों में से एक है। कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने वाले इस पुल जैसे अनोखे पुल संसार भर में केवल गिने-चुने ही हैं, इसे कलकत्ता का “गेट वे” भी कहा जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कोलकाता और हावड़ा के बीच बहने वाली हुगली नदी पर एक तैरते हुए पुल के निर्माण की परिकल्पना की गई। तैरते हुआ पुल बनाने का कारण यह था कि नदी में रोजाना काफी जहाज आते-जाते थे। खम्भों वाला पुल बनाते तो जहाजों का आना-जाना रुक जाता।

अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई, जिसमें 23500 तन टाटा स्टील का योगदान था । इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा।

ये भी पढ़े   We drive our huge cars and drop a bomb of 4 kgs of carbon dioxide every kms: Social innovator Sonam Wangchuk

मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फ़ुटपाथ छोड़ा गया था। सन् 1943 में इसे आम जनता के उपयोग के लिए खोल दिया गया, बिना किसी “लोकार्पण” के । आधिकारिक सूत्रों के अनुसार यह ब्रिज ७०हज़ार से अधिक वाहनों और लाखों लाख पैदल यात्रियों को नित्य ढोता है।

मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाला हावड़ा ब्रिज जब बनकर तैयार हुआ था तो इसका नाम था न्यू हावड़ा ब्रिज। 14 जून 1965 को गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर इसका नाम रवींद्र सेतु कर दिया गया पर प्रचलित नाम फिर भी हावड़ा ब्रिज ही रहा। इसपर पूरा खर्च उस वक्त की कीमत पर ढाई करोड़ रुपया (24 लाख 63,887 पौंड) आया। इस पुल से होकर पहली बार एक ट्रामगाड़ी चली थी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here