
डाक बंगला चौराहा (पटना): सत्तर के दशक से जिस तरह बिहार में अपराधियों का राजनीतिकरण शुरू हुआ था, बाद के वर्षों में अधिकारियों ने स्वयं अपना राजनीतिकरण प्रारम्भ कर दिया है। यानी कल राजनीति का अपराधीकरण हुआ था, आज राजनीति का अधिकारीकरण हो रहा है। वैसे सभी यही ताल ठोकते हैं कि ‘वे प्रदेश की भलाई के लिए कर रहे हैं, लेकिन इससे प्रदेश की कितनी भलाई हुई अथवा होगी, इस बात से वे भी भिज्ञ हैं और मतदाता तो अनभिज्ञ हैं ही नहीं, लाचार है।
अपराधियों ने जब सत्तर के कालखंड में इस बात को महसूस किया कि उनके बिना तत्कालीन राजनेताओं का अस्तित्व खतरे में आ सकता है, अपने अस्तित्व को मजबूत करने के लिए या फिर नेताओं का परस्पर लाभार्थी होने के उद्देश्य से स्वयं राजनीति में आने लगे। समय बदला और इस बदलते समय में राजनेताओं के पिछलग्गू अधिकारी जब इस बात को महसूस किए कि वे भी राजनीति में गोता लगा सकते हैं; अपने राजनीतिक मास्टर के बगल में बराबर की ऊँचाई में खड़े हो सकते है, अधिकारियों ने अपराधियों के राजनीतिक लाभ के तर्ज पर स्वयं का राजनीतिकरण शुरू कर दिया। वैसे भी प्रदेश का शैक्षिक दर इतना कम है कि मतदाता बात खुलकर बोल सकता है और न सोच सकता। उधर, चाहे अधिकारी हों या नेता, वे कभी चाहते ही नहीं कि मतदाता विचारवान हो। शब्द कटु है, लेकिन सत्य है और दुखद भी
यह बोलने अथवा लिखने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ तक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का प्रश्न है। इसका दृष्टान्त नब्बे के दशक में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयोग टी.एन. शेषन से बेहतर और कोई नहीं हो सकता। स्वतंत्र भारत में चुनावी गंदगी को साफ़ करने में अगर किसी का नाम लिया जाता है, या आने वाले दिनों में भी लिया जायेगा तो टी.एन. शेषन का नाम सर्वोपरि होगा। साल 1990-96 के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में शेषन ने चुनावी प्रणाली को साफ करने की प्रक्रिया शुरू की थी। मतदाताओं के लिए फोटो पहचान पत्र की शुरुआत इसी दिशा में एक कदम था। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि आदर्श आचार संहिता, जिसे तब तक अकादमिक हित का दस्तावेज माना जाता था, को पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा गंभीरता से लिया जाए। अपने पद से बाहर जाने के लिए आलोचनाओं का सामना करने के बावजूद, श्री शेषन ने बाहरी दुनिया को दिखाया कि उनका पद कोई आसान काम नहीं है।

शेषन अवकाश के बाद भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी के विरुद्ध गांधीनगर से चुनाव लड़े, हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 1997 में आर.के.नारायणन के विरुद्ध राष्ट्रपति के लिए चुनाव लड़े, हार का सामना करना पड़ा। अंततोगत्वा मन में अधूरे कार्यों को पूरे करने की इक्षा लिए 10 नवम्बर, 2019 को अनंत यात्रा पर निकल गए। शेषन महज एक दृष्टान्त थे एक अधिकारी के रूप में जो अपने कार्यकाल में वैसा बहुत कुछ किये, जो एक अधिकारी को करना चाहिए। उन्हें भी अंत में राजनीति में आने की लालसा हुई, लेकिन अधूरी रह गयी। हम पूरे देश की बात नहीं करेंगे, लेकिन जब बिहार की बात आएगी तो यह कहते, लिखते पीछे भी नहीं रहेंगे कि बिहार लोकसेवा आयोग के साथ-साथ संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में अव्वल आने के बाद, एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपना स्थान बनाने के बाद, सेवाकाल के दौरान अथवा सेवानिवृति के बाद, यहाँ तक कि नौकरी से त्यागपत्र देकर राजनीति में गोता लगाने के लिए आज अधिकारियों की संख्या क्यों बढ़ रही है?
विगत पचास वर्षों का इतिहास अगर देखा जाए उन अधिकारियों का जो प्रशासनिक अथवा पुलिस सेवा के बाद/बीच में त्यागपत्र देकर अगर राजनीति में आये तो उससे प्रदेश को क्या मिला? जिन मतदाताओं ने उनके लिए अपनी बाएं हाथ की तर्जनी पर चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित स्याही लगाए ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो, वे अधिकारी से राजनेता बने लोग उन मतदाताओं के चेहरों पर कालिख पोतने के अलावे क्या दिए? उनके विधानसभा अथवा संसदीय क्षेत्र के मतदाता एक घूंट पानी के लिए, एक टुकड़ा दवाई के लिए, एक रोटी के लिए, एक नियोजन के लिए, अपने बाल-बच्चों की पढ़ाई के लिए उम्मीद की आस लिए सांस लेते लेते अंतिम सांस ले लिए, लेकिन न प्रदेश का हित हुआ और ना ही मतदाता का। आप माने अथवा नहीं, लेकिन यह एक गहन शोध का विषय है।
इतना ही नहीं, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जी. कृष्णाया की हत्या भी एक दृष्टान्त है। मधेपुरा के तत्कालीन राज नेता आनंद मोहन ने 5 दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या कर दी थी। आनंद मोहन उक्त अधिकारी को उनकी आधिकारिक कार से बाहर खींच लिया गया और पीट-पीट कर मार डाला था। सन 1985 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जी कृष्णैया वर्तमान तेलंगाना के महबूबनगर के रहने वाले थे। आनंद मोहन की रिहाई के तत्काल बाद जी कृष्णैया की विधवा ‘आश्चर्य’ व्यक्त की। आश्चर्य व्यक्त करना स्वाभाविक भी है। जी कृष्णैया की मृत्यु के बाद आनंद मोहन भले कारावास में हों, उनकी पत्नी श्रीमती लवली आनंद भारत के संसद में थी और बाद में पुत्र बिहार विधानसभा में विधायक। लेकिन जी कृष्णैया के बारे में, उनके परिवार के बारे में न तो व्यवस्था सोची और न ही राजनीतिक पार्टियों के नेता चाहे पटना के हों या दिल्ली में बैठे हों। वैसे चेतन आनंद यह कहते हैं कि ‘उस घटना के बाद दोनों परिवार काफी कुछ सहा है।’
समय का तकाजा देखिए। जिस राष्ट्रीय जनता दल के शीर्षस्थ नेता, जो बाद में ऐतिहासिक चारा घोटाला कांड में पहले आरोपी बने और फिर सजाभोक्ता के साथ-साथ मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर भी हुए, आनंद मोहन को कभी हाथ नहीं पकड़े, मदद नहीं किये। आज आनंद मोहन के पुत्र चेतन आनंद बिहार के शिवहर से राष्ट्रीय जनता दल के विधायक हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की देखरेख में प्रदेश सरकार द्वारा जेल मैनुअल के नियमों में संशोधन किया गया और एक आधिकारिक अधिसूचना के आधार पर आनंद मोहन सहित 27 आपराधिक-कैदियों को जो 14 साल या 20 साल कारावास की सजा काट चुके, रिहा करने का आदेश दिया गया। रिहाई से पहले 15 दिनों तक वे ‘पे-रोल’ पर थे।
अगर ख़बरों पर विश्वास करें तो आज 200 से अधिक भारतीय प्रशासनिक, पुलिस सेवा के अधिकारी, चिकित्सक, अधिवक्ता, और विभिन्न व्यवसायों के लोग विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के झंडों को अपने गले में बांध रहे हैं, उसके हो रहे हैं। वे कहते हैं बिहार का उद्धार होगा। सेवानिवृत्त पुलिस सेवा के अधिकारियों में आर. के. मिश्रा, एस. के. पासवान, के. के. वर्मा और के. बी. सिंह शामिल हैं। मिश्रा पूर्व डीजी (होमगार्ड) थे जबकि एसके पासवान छत्तीसगढ़ के डीजी (जेल) के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। इसके अलावे अजय कुमार द्विवेदी (पश्चिम चंपारण, सेवानिवृत्त विशेष सचिव, कैबिनेट, बिहार सरकार); अरविंद कुमार सिंह (भोजपुर, सेवानिवृत्त सचिव, पूर्व जिला मजिस्ट्रेट, कैमूर और पूर्णिया); ललन यादव (मुंगेर, सेवानिवृत्त आयुक्त, पूर्णिया, डीएम, नवादा, कटिहार); तुलसी हजार (पूर्वी चंपारण; सेवानिवृत्त प्रशासक बेतिया राज, बिहार सरकार); सुरेश शर्मा (गोपालगंज, सेवानिवृत्त संयुक्त सचिव, स्वास्थ्य विभाग, बिहार सरकार) और गोपाल नारायण सिंह (औरंगाबाद, सेवानिवृत्त संयुक्त (सचिव, ग्रामीण कार्य विभाग, बिहार सरकार) का भी नाम आता है।

इससे पहले के वर्षों में डॉ. अजय कुमार, जो 1986-1996 तक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे, जमशेदपुर के पुलिस अधीक्षक भी थे, राजनीति में प्रवेश किये। रामचन्द्र प्रसाद सिंह, भाप्रसे के अधिकारी थे, नीतीश कुमार के मुख्य सचिव भी थे, राजनीति में चादर ढंक लिए, कहे प्रदेश का भलाई करेंगे। कभी जनता दल यूनाइटेड में रहे, कभी भाजपा में कटवत बदल लिए फिर अपनी पार्टी बनाये। उससे भी पहले दिल्ली के पुलिस आयुक्त निखिल कुमार, जिनका परिवार प्रदेश की राजनीति में ही सांस लिया, सेवा के पश्चात सांसद बने, फिर राजनीति में गोता लगाते गए।
भाप्रसे के एक और अधिकारी यशवंत सिन्हा 24 वर्ष सरकारी सेवक रहने के बाद पहले जनता दल के हुए, फिर बाद में भाजपा के हो गए। केंद्र में मंत्री भी बने। बाबू जगजीवन राम की पुत्री श्रीमती मीरा कुमार, 1973 में भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी बनी, राजनीति में डुबकी लगा दीं। लोक सभा की अध्यक्षा भी बनी। 1975 बैच के भाप्रसे राजकुमार सिंह जिन्होंने लालू यादव के कहने पर लाल कृष्ण आडवाणी को उनके प्रथम रथयात्रा के दौरान गिरफ्तार किया था, भाजपा के हो गए, केंद्र में मंत्री भी बने। गुप्तेश्वर पाण्डे अवकाश के पूर्व नौकरी छोड़ दिए और राजनीति में कम्बल ढँक लिए। सुनील कुमार आज नितीश के मंत्रिमंडल में बैठे हैं। लेकिन बिहार को छोड़िये, उनके संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं को क्या मिला ?
उसी भाप्रसे-भापुसे यात्रा की अगली कड़ी में विगत दिनों भारतीय पुलिस सेवा के एक और अधिकारी बिहार में बहती राजनीतिक धारा में गोंता लगा दिए। महाराष्ट्र के मूलवासी शिवदीप लांडे, अब महाराष्ट्र के लोगों के लिए नहीं, बल्कि बिहार के लोगों की भलाई के लिए लड़ाई लड़ेंगे। महाराष्ट्र के ‘शिवसेना’ के तर्ज पर लांडे ने ‘हिंद सेना’ नाम से नई राजनीतिक पार्टी की शुरुआत की। पटना में प्रेस सम्मेलन में उन्होंने इसकी घोषणा करते कहा कि उनकी पार्टी बिहार के लोगों के हक के लिए लड़ेगी और सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उनके अनुसार, आजादी के 78 साल के बाद भी प्रदेश में जो बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए थी, वह नहीं पहुंची। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास को अपनी पार्टी का प्रमुख कार्य सूची बताया।
लांडे के अनुसार, वे पुलिसिंग किये हैं, इसलिए जानते हैं कि बिहार में हर साल करीब 2700 से 3000 हत्याएं होती हैं। इनमें से करीब 57% हत्या जमीन विवाद को लेकर होती हैं। यानी हर साल 1500 से ज्यादा लोग सिर्फ जमीन के झगड़े में मारे जाते हैं। हर दिन 4 से 5 लोग मारे जाते हैं। वैसी स्थिति में एक आम आदमी को न्याय कैसे मिलेगा? उनका कहना है कि ‘बहुत से लोग सोचते हैं कि न्याय उनकी जेब में है लेकिन उनकी पार्टी का ‘न्याय’ का अवधारणा सिर्फ उनके लिए है जो सच्चे गरीब, वंचित और पीड़ित हैं। लांडे ने कहा कि उनकी पार्टी का प्रतीक ‘त्रिपुण्ड और खाकी’ होगा, जो उनके अब तक के जीवन दर्शन को दर्शाता है। यह प्रतीक मानवता, न्याय और सेवा को दर्शाएगा।

2006 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे लांडे ने पिछले साल सितंबर में सेवा से इस्तीफा दे दिया था। लांडे ने कहा, “18 साल तक वर्दी में बिहार की सेवा करने के बाद अब मैं जनता के बीच एक नई भूमिका में आना चाहता हूं। हिन्दू सेना पार्टी बिहार को बदलने और विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए काम करेगी।” महाराष्ट्र के अकोला जिले में जन्मे लांडे ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद सिविल सेवा में कदम रखा था। बिहार में उनकी पहली पोस्टिंग नक्सल प्रभावित मुंगेर जिले में हुई थी। स्वयं को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करते शिवदीप लांडे ने कहा कि अब हमारा उद्देश्य युवाओं को जोड़ना, संगठन खड़ा करना और चुनाव के लिए वैचारिक ताकत तैयार करना है। शायद लांडे साहब इस बात से भिज्ञ नहीं हैं कि 1974 में जयप्रकाश नारायण ने भी ‘छात्रों को, युवाओं को संगठित कर सत्ता की लड़ाई लड़े थे। आज वही लड़ाकू सत्ता की गलियारे में बैठे हैं और प्रदेश का क्या हश्र है, यह न तो पुलिस फाइल से छिपा है और ना ही अदालत से।” खैर।
बिहार के राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि “बिहार में कुल मतदाताओं की संख्या 7.80 करोड़ है। इनमें 18-19 साल के सर्वाधिक कम उम्र के मतदाताओं की संख्या आठ लाख है। युवा में शुमार 30-39 आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या 2.04 करोड़ है। आमतौर पर यह माना जाता है कि ज्यादातर प्रौढ़ या बुजुर्ग मतदाता किसी न किसी दल के कोर वोटर होते हैं, जबकि युवा मतदाताओं का दिमाग कोरे स्लेट की तरह होता है। यानी ये फ्लोटिंग वोटर हैं। इन्हें जिस भी किसी दल या नेता पर विश्वास जम गया, वे उसी की ओर मुखातिब हो जाते हैं। बिहार में चूंकि ऐसे वोटरों की तादाद एक चौथाई है, इसलिए हर नया दल युवा को ही टारगेट करता है। जन सुराज के प्रशांत किशोर भी युवाओं की बात शिद्दत से रखते हैं। अब हिन्द सेना के शिवदीप लांडे भी युवाओं को लेकर ही राजनीति करने की बात कह रहे हैं।”
चलिए आगे बढ़ते हैं। मोहम्मद यूनुस (1 अप्रैल, 1937 से 19 जुलाई, 1937) और श्रीकृष्ण सिन्हा (20 जुलाई, 1937 से 31 अक्टूबर, 1939 तथा 23 मार्च, 1946 से 14 अगस्त, 1947 तथा 15 अगस्त, 1947 से 31 जनवरी, 1961) तक के मुख्यमंत्री कार्यालय का कालखंड कुछ क्षण के लिए अलग रखते हैं। साल 1961 के बाद साल 2025 तक बिहार को कुल 22 चेहरे मुख्यमंत्री के रूप में मिला। प्रदेश का आवाम साठ के दशक के कालखंड में क्या सोचता था, उसे भी अगर विश्रामावस्था में रखते हैं तो आज के मतदाताओं की नजर में इन 22 मुख्यमंत्रियों में कौन कैसा है? यह सभी ‘मन-आत्मा और शरीर से जीवित’ पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ राजनेता जानते हैं।
बिहार के लोगों का मानना है कि “इन 22 मुख्यमंत्रियों में सिवाय श्री भोला पासवान शास्त्री के अलावे कोई भी मुख्यमंत्री अग्निकुंड में प्रवेश कर अपनी छवि, अपनी ईमानदारी, मतदाता के प्रति अपनी वफ़ादारी की परीक्षा देने का कूबत नहीं रखता है। भ्रष्टाचार से लेकर अपराधों की दुनिया से प्रत्यक्ष ना सही, अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध रखता ही है। अगर भारत के निर्वाचन आयोग अपने कार्यालय में इन सम्मानित महानुभावों और राजनीतिक पार्टियों के झंडे तले राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले नेताओं द्वारा प्रस्तुत हलफनामे की तहकीकात करे, तो शायद दूघ और पानी की धाराएं अलग-अलग प्रवाहित दिखाई देगी। लेकिन निर्वाचन आयोग ऐसा नहीं कर सकती हैं और वह भी संविधान की धाराओं से बंधी है।”
भारत को आज़ादी मिलने के बाद 15 अगस्त, 1947 से आज तक अविभाजित और विभाजित बिहार को दो दर्जन मुख्यमंत्री मिला। श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर नीतीश कुमार के बीच ब्राह्मण, क्षत्रिय, राजपूत, दलित, कायस्थ, मुसलमान, ग्वाला और कुर्मी जाति के नेता प्रदेश का राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व किये। इन विगत वर्षों में बिहार मे आधे कालखंड में लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी और नीतीश कुमार कुछ 35 वर्षों तक (कुछ समय अन्य) मुख्यमंत्री के कार्यालय में विराजमान रहे, शेष 35 वर्षों में कांग्रेस पार्टी के नेताओं के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने मुख्यमंत्री पद संभाले। लेकिन श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र (1990) तक 35 वर्षों में विभिन्न मुख्यमंत्री के कालखंड में बिहार का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य और अन्य मौलिक क्षेत्रों की सेवाओं में जितना पतन हुआ, 1990 में लालू यादव का बिहार के राजनीतिक पटल पर अभ्युदय के बाद, उनकी पत्नी और अंततः नीतीश कुमार के कालखंड में बिहार रसातल की ओर चला गया, जा रहा है।

इन विगत वर्षों में मतदाता जितने ही गरीबी की रेखाओं से कई मील नीचे धंस रहे हैं, उनके नेता जमीन के ऊपर उतने ही उठ रहे हैं। वैसी स्थिति में इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता है कि सत्ता और सिंहासन के लोभ के कारण प्रदेश के अधिकारी सरकारी नौकरियों को छोड़कर सरकार ही बनने के लिए आकर्षित होते हों।खैर।
बिहार का पहला मुख्यमंत्री बने श्री कृष्ण सिन्हा (26 जनवरी, 1950 से 31 जनवरी, 1961) तक। इसके बाद आये दिप नारायण सिंह (1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी 1961) तक। बिनोदानंद झा 18 फरवरी 1961 से 2 अक्टूबर 1963 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में रहे। कृष्ण बल्लभ सहाय 2 अक्टूबर 1963 से 5 मार्च 1967, महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968, सतीश प्रसाद सिंह 28 जनवरी 1968 से 1 फरवरी 1968, बी.पी. मंडल 1 फरवरी 1968 से 22 मार्च 1968, भोला पासवान शास्त्री 22 मार्च 1968 से 29 जून 1968 / 22 जून 1969 से 4 जुलाई 1969 / 2 जून 1971 से 9 जनवरी 1972, सरदार हरिहर सिंह 29 जून 1968 से 26 फरवरी 1969, दारोगा प्रसाद राय 16 फरवरी 1970 से 22 दिसंबर 1970, कर्पूरी ठाकुर 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 / 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979, केदार पांडे 19 मार्च 1972 से 2 जुलाई 1973, अब्दुल गफूर 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975, जगन्नाथ मिश्र 11 अप्रैल 1975 से 30 अप्रैल 1977 / 8 जून 1980 से 14 अगस्त 1983 / 6 दिसंबर 1989 से 10 मार्च 1990, राम सुन्दर दास 21 अप्रैल 1979 से 17 फरवरी 1980, चंद्रशेखर सिंह 14 अगस्त 1983 से 12 मार्च 1985, बिंदेश्वरी दुबे 12 मार्च 1985 से 13 फरवरी 1988, भागवत झा आज़ाद 14 फरवरी 1988 से 10 मार्च 1989 और सत्येंद्र नारायण सिन्हा 11 मार्च 1989 से 6 दिसंबर 1989 तक।
डा. जगन्नाथ मिश्र के बाद नब्बे के दशक में जब जनता दल के तत्कालीन नेता लालू यादव प्रदेश का राजनीतिक कमान हाथ में लिए, तत्कालीन मतदाताओं के साथ-साथ युवा पीढ़ियों के मन में एक विश्वास जगा। लोगों का मानना था कि जयप्रकाश नारायण का सपना, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता – सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है – का भावार्थ साकार होगा। प्रदेश का छात्र नेता, जो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान प्रशासनिक अत्याचार को अपने सर पर, पीठ पर, कमर पर लाठियों के माध्यम से सहा था, अपने प्रदेश में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करेगा जो उस कालखंड के ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक दृष्टान्त के रूप में उद्धत किया जायेगा।

लेकिन, प्रदेश की तत्कालीन आवादी 870,452,165 में 28,227,746 पुरुष और 24,366,539 महिला मतदाताओं का मनोबल और विश्वास चकनाचूर हो गया। जिन लोगों ने लालू यादव को चुनकर सड़क से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाये थे, गलत सिद्ध हुए, जब लालू यादव अपने दूसरे कालखंड के प्रारंभिक वर्षों में बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, पूरे विश्व में ”चाराचोर” के नाम से कुख्यात हुए। उस समय लालू यादव जो मुख्यमंत्री कार्यालय से निकले, कभी वापस नहीं आ सके। वैसे मुख़्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकलने के बाद भी उन्होंने नेपथ्य से अपनी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी के माध्यम से सिंहासन पर विराजमान रहे। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी या मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने के वावजूद राबड़ी देवी प्रदेश की मतदाताओं के विश्वास और अपेक्षाओं पर खड़ी नहीं उतरीं। इसका मुख्य कारण था ‘अशिक्षा’, जिसे पति-पत्नी द्वय अपने जीवन में कभी महत्व नहीं दिए। अगर देते तो शायद अपनी अगली पीढ़ी के दोनों पुत्रों को शिक्षा की दुनिया में अव्वल बनाते। यही कारण है कि बिहार में शिक्षा का जो पतन कर्पूरी ठाकुर (आज भारत रत्न की उपाधि से अलंकृत हैं) के कालखंड से प्रारम्भ हुआ, लालू यादव – राबड़ी देवी – नीतीश कुमार के कालखंड आते आते नेश्तोनाबूद हो गया, ध्वस्त हो गया। दृष्टान्त प्रदेश की साक्षरता दर है।
वैसे भारतीय राजनीति में ‘रामायण’ का चाहे जितना भी दृष्टान्त दिया जाय, वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में ‘विभीषणों’ का भरमार है और ‘भरत’ का घोर किल्लत है। यह किल्लत देश में तो है ही, बिहार में तो यत्र-तत्र-सर्वत्र है। अवसर की तलाश में गिद्ध जैसे लोग बैठे हैं। सत्ता में बने रहने और सत्ता से बाहर रहने पर शक्ति में जो कमी होती है, लालू यादव इस बात को मन ही मन स्वीकार लिए थे। लेकिन भारत का न्यायालय, देश की जाँच एजेंसियों की निगाह चौबीसों घंटा लालू यादव पर टिकी थी। जैसे ही चारा घोटाला काण्ड अख़बारों के पन्नों पर, न्यायालयों के फाइलों में आया, नितीश कुमार अवसर का लाभ उठाने हेतु सज्ज होने लगे। राजनीतिक शतरंज की गोटियां बिछने लगी। कल तक लालू यादव को बड़े भाई कहने वाले नीतीश कुमार सत्ता की गलियारे में लालू यादव की मुख्यमंत्री पत्नी को परास्त करने के लिए आगे आ गए।
नीतीश कुमार के बारे में उनके राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस की सोच को जया जेटली ने भी उद्धृत किया है एक किताब में : “वे (जॉर्ज फर्नांडिस) हमेशा कहते थे कि नीतीश कुमार एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके दिमाग को वे कभी नहीं समझ सकते। सबसे बढ़कर एक लोकतांत्रिक व्यक्ति होने के नाते, जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने की तारीख पर सहमत होने से इनकार कर देते थे या ऐसी बैठकों के दौरान बनी आम सहमति को पलट देते थे, तो वे रात में अकेले उनसे मिलने आते थे और अपने विचार रखते थे, जिस पर वे अमल करने पर ज़ोर देते थे। अक्सर, इस वजह से पार्टी ने अच्छे लोगों को भाजपा में खो दिया; ये वे लोग थे जो अक्सर मेरे साथ चाय पीते थे और नीतीश कुमार के बारे में अपनी पीड़ाएँ साझा करते थे। मैंने जॉर्ज फर्नांडिस को ऐसी बातें बताना अपना कर्तव्य समझा, लेकिन मैं यह भी जानता था कि इससे अनजाने में उनकी चिंताएँ बढ़ जाएँगी। वे हमेशा बड़े लक्ष्य की खातिर तर्कहीन बातों को तर्कसंगत बनाने के लिए उनके आगे झुक जाते थे।”

खैर। राजनीतिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो विगत 35 वर्षों से बिहार के सत्ता के सिंहासन पर दो व्यक्तियों का आधिपत्य रहा है – लालू यादव और कंपनी तथा नीतीश कुमार। 35 वर्षों का आधिपत्य होना और प्रदेश का उत्तरोत्तर पिछड़ा होते जाना – इस बात का प्रमाण है कि दोनों को प्रदेश के विकास से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं है। अलबत्ता, 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव और उनके परिवार जिस तरह सत्ता के ऊपर कब्ज़ा किये, वह आने वाले समय में इतिहास के पन्नों में काले अक्षर से लिखा जायेगा। आज भी उनके परिवार में दोनों पुत्र विधान सभा और दो संसद में (पत्नी-राज्य सभा और पुत्री लोक सभा) में बैठी है। अगर समुदाय की ही बात करें तो जिस गरीब-गुरबा, पिछड़ा, यादव आदि जातियों के नाम पर वे राजनीति में बरकरार रहे, उनके परिवार से बाहर कोई उस योग्य नहीं है?
लालू के कालखंड में हत्या, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आम था। उस काल खंड के जो भुक्तभोगी हैं, आज भी कलाप रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार के राज में, जिन्हें सभी ‘सुशासन बाबू’ के नाम से अलंकृत किये हैं, रिश्वतखोरी की प्रथा अनियंत्रित है, अपने उत्कर्ष पर है और यह कतई नहीं माना जायेगा कि इसमें सत्ता के गलियारे में बैठे लोग, सत्ता से संरक्षित अधिकारियों, नेताओं का हाथ नहीं है।” और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिला स्तर से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर तक, बिहार के बारे में, बिहार की राजनीति के बारे में, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, सांस्कृतिक स्थिति, शैक्षिक स्थिति, स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में लिखने वाले कभी इन बातों को उजागर नहीं किये, कर रहे हैं। नीतीश के राज में जो बुनियादी ज़रूरत है – शिक्षा, स्वास्थ्य सभी चरमरायी हुई है।
2025 में होने वाली विधानसभा का चुनाव अपनी शुरूआती तारीख से 18 वीं संख्या की होगी। सं 1951 में बिहार में बिहार में विधानसभा चुनाव की शुरुआत हुई थी। अन्य चुनावों की बात और परिणाम अगर छोड़ भी दें तो आज़ादी के बाद बिहार में पहली बार 1977 में कांग्रेस पार्टी बड़ी तरह परास्त हुई। उस कालखंड में विधानसभा के 324 सीटों में कांग्रेस पार्टी महज 57 सीटों पर सिमट गई। लेकिन जो भी पार्टी सरकार में आयी, वह पांच वर्ष पूरा नहीं कर पायी। परिणाम स्वरुप तीन वर्ष बाद 1980 में मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी 169 सीटों पर कब्ज़ा कर पूर्ण बहुमत के साथ सर्कार भी बनायीं। वैसे 1980 से पहले प्रदेश में दो बार मध्यवर्ती चुनाव हुआ था। पहला चुनाव संपन्न हुआ था 1969 में और दूसरा 1972 में। सन 1969 में कांगेस को 118 स्थान मिले थे जबकि सं 1972 के मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 318 सीटों में से 167 स्थान मिले थे।

प्रदेश का चुनावी इतिहास इस बात का गवाही है कि कांग्रेस पार्टी को उखाड़ फेंकने के लिए बनी जनता पार्टी 1977 के चुनाव में जहाँ 214 स्थान प्राप्त की थी, वहीँ 1980 के चुनाव में 42 सीटों के साथ चौधरी चरण सिंह वाली सेकुलर जनता पार्टी सबसे बड़ी दूसरी पार्टी थे। उस चुनाव में सीपीआई को 23, भारतीय जनता पार्टी को 21, इंडियन कांग्रेस (यु) को 14, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 11, जनता पार्टी (जेपी) को 13, जनता पार्टी (राजनारायण) को एक तथा 23 निर्दलीय विधायक जीतकर विधान सभा पहुंचे थे। 1985 के चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर आयी थी जहाँ उसने 323 संख्या वाली विधान सभा में 196 सीटें प्रतप्त की थी जो बहुमत से अधिक थी। नौवां विधान सभा का कालखंड में डॉ. जगन्नाथ मिश्र 94 दिनों (6 दिसंबर, 1989 से 10 मार्च, 1990) के मुख्यमंत्री थे। प्रदेश के लोग इस बात से इंकार नहीं करेंगे 10 मार्च 1990 से प्रदेश रसातल की ओर उन्मुख हो गया।
10 मार्च 1990 से 28 मार्च 1995 तक लालू प्रसाद यादव दसवें विधान सभा में जनता दल का प्रतिनिधित्व करते पूरा किया। लालू यादव के दूसरे कालखंड में ऐतिहासिक चारा घोटाला गबन का पर्दाफास हुआ। यह अलग बात है की लालू यादव उसके बाद भी नेपथ्य से अपनी पत्नी को सत्ता प्रदानकर मुख्यमंत्री कार्यालय का छवि थामे थे, लेकिन मतदाताओं की नज़रों में लालू यादव का सक्रीय राजनीति से बाहर थे। 11 वीं विधानसभा काल को पूरा करने में राबड़ी देवी 25 जुलाई 1997 से 11 फरवरी 1999 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रही। लालू यादव का चारा घोटाला कांड में मुख्य अभिययुक्त होते ही वे जनता दल को छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल बना लिया था। यानी राबड़ी देवी अपने नवनिर्मित पार्टी की पहली मुख्यमंत्री थी।
11 फरवरी – 9 मार्च 1999 तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा। 9 मार्च 1999 से 2 मार्च 2000 तक 11 वीं विधानसभा में वे फिर मुख्यमंत्री बनी। अब तक देश में राजनीतिक भूचाल आ गया था। उधर दिल्ली में भी सभी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी ऊपर टिकी थी। अब तक जॉर्ज फर्नाडिस के सहयोग से समता पार्टी का भी गठन हो गया था और नितीश कुमार दिल्ली से पटना के सिंहासन की ओर उन्मुख हुए थे – सात दिनों के लिए 3 मार्च 2000 से 10 मार्च 2000 तक। लेकिन 11 मार्च 2000 से 6 मार्च 2005 तक फिर राबड़ी देवी का समय था। यह उनका अंतिम यात्रा था मुख्यमंत्री कार्यालय में। 24 नवम्बर 2005 (14 वें विधानसभा का कालखंड से) वर्तमान तक कई बार, कई पार्टियों के साथ तालमेल बैठने, हटाने के बाद भी नीतीश कुमार वर्तमान हैं।

एक दशक पहले 2015 के एक अध्ययन के मुताबिक, उस समय बिहार के नवनिर्वाचित 243 विधायकों में से 142 यानी 58 फीसदी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बिहार इलेक्शन वाच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के अध्ययन के मुताबिक, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कुल विधायकों में से 90 (40 फीसदी) पर हत्या, हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे संगीन मामले दर्ज हैं। 70 विधायकों पर आरोप तय किए जा चुके हैं। अध्ययन के मुताबिक, ‘अपने खिलाफ आपराधिक मामले बताने वाले 142 विधायकों में से 70 (49 फीसदी) ने बताया है कि अदालत उनके खिलाफ पहले ही आरोप तय कर चुकी है।’ 11 विधायकों पर हत्या या हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है। इनमें से चार राष्ट्रीय जनता दल के हैं।
एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) की ओर से किए गए विश्लेषण में देश भर में राज्य विधानसभाओं और केंद्रशासित प्रदेशों में वर्तमान विधायकों की ओर से चुनाव लड़ने से पहले दायर किए गए शपथ पत्रों की पड़ताल की गई और संबंधित विवरण प्राप्त किया गया। विश्लेषण में 28 राज्य विधानसभाओं और दो केंद्र शासित प्रदेशों में 4,033 में से कुल 4,001 विधायकों का विवरण शामिल है। एडीआर ने कहा कि विश्लेषण में शामिल विधायकों में से 1,136 या लगभग 28 प्रतिशत ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं।
इस रिसर्च में खुलासा हुआ है कि बिहार के 67 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बिहार के 242 विधायकों में से 161 विधायक दागी हैं। यानी इन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। विधायकों के आंकड़ों को देखें तो केरल में 135 में से 95 विधायकों यानी 70 प्रतिशत ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इसी तरह दिल्ली में 70 में से 44 विधायक (63 प्रतिशत), महाराष्ट्र में 284 में से 175 विधायक (62 प्रतिशत), तेलंगाना में 118 विधायकों में से 72 विधायक (61 प्रतिशत) और तमिलनाडु में 224 विधायकों में से 134 (60 प्रतिशत) ने अपने हलफनामे में स्वयं के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले घोषित किए हैं।

कैलाशपति मिश्र (1980-81/1984-87), इन्दर सिंह नामधारी (1988-90), ताराकांत झा (1990-93), अश्वनी कुमार (1994-96), यशवंत सिन्हा (1997-98), नन्द किशोर यादव (1998-2003), गोपाल नारायण सिंह (2003-05), सुशील कुमार मोदी (2005-06), राधा मोहन सिंह (2006-10), सी.पी. ठाकुर (2010-13), मंगल पांडे (2013-16), नित्यानंद राय (2016-19), संजय जायसवाल (2019-23), सम्राट चौधरी (2023-24) और दिलीप कुमार जायसवाल (2024 से अब तक) ये सभी पिछले 44 वर्षों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने। सवाल यह है कि इन लोगों के कार्यकाल में भाजपा मजबूत हुआ, पार्टी मजबूत हुयी, भाजपा में बिहार के मतदाताओं का रुझान क्या रहा, यह इस बात का ,प्रमाण है कि आज भी 43 विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं और भाजपा के नेता उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं। 2015 में विधानसभा में भाजपा के विधायकों की संख्या भले 53 से बढ़कर 17वीं विधानसभा में 74 हो गया हो; लेकिन यह संख्या भाजपा की अपनी नहीं है। यह संख्या नीतीश कुमार द्वारा दान स्वरुप हैं। 2015 में जनता दल यूनाइटेड की विधानसभा में संख्या 71 थी, जो 17वीं विधानसभा में 43 हो गयी। राष्ट्रीय जनता दल की संख्या भले 80 से घटकर 75 हो गया हो, लेकिन आज भी मतदाताओं के बीच उसकी पकड़ है।
क्रमशः …..