आज़ादी का 75 वर्ष, ‘अमृत महोत्सव’ और सत्तारूढ़ ही नहीं, कांग्रेस के संस्थापक ए ओ ह्यूम का कांग्रेस पार्टी द्वारा ही निरादर, दुःखद

कांग्रेस के संस्थापक ए ओ ह्यूम

नई दिल्ली: सन 1975 में रमेश सिप्पी के निर्देशन में एक ऐतिहासिक फिल्म “शोले” बनी थी। शोले फिल्म में फिल्म नायक ‘असरानी’ एक जेलर की भूमिका निभाये थे। एक खास अन्वेषण के दौरान जब वे जेल के कुछ सुरक्षा अधिकारियों के साथ निकलते हैं तो आदेश देते हैं “आधे दाएं जाओ – आधे बाएं जाओ – शेष मेरे पीछे आओ” – ‘शोले’ फिल्म में ‘असरानी के पीछे चलने वाला कोई सुरक्षाकर्मी नहीं था। आज ही नहीं, आने वाले समय में भी अगर कांग्रेस पार्टी के तथाकथित आला अधिकारी अपना-अपना ‘एट्टीच्यूड’ नहीं बदले तो असरानी की तरह ही ​कांग्रेस पार्टी के पीछे चलने वाला कोई नहीं होगा – एक ही परिवार खुद पार्टी भी होगा और खुद प्रजा भी। इसका मुख्य कारण है समय के साथ-साथ पार्टी के संस्थापक से लेकर वैसे तमाम लोगों की उपेक्षा, जिन्होंने पार्टी की नींव को मजबूत करने के लिए अपना सर्वस्व लुटा दिए। आज पार्टी में लोगों की सोच में इतनी किल्लत हो गयी है कि आज़ादी के 75 वें वर्ष में कांग्रेस पार्टी के संस्थापक के बारे में एक शब्द आज तक नहीं ​बोला गया, कहा गया। यह दुर्भाग्य है।

जिस समय  रमेश सिप्पी का “शोले” भारत के चलचित्र घरों में दर्शकों के लिए आयी थी, भारत के संसद में कांग्रेस के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में देश चल रहा था और संसद में कांग्रेस सदस्यों की संख्या 360 थी।  यह अलग बात है कि सन 1977 के चुनाव में उस 360 सीटों में से कोई 271 कुर्सियों पर गैर-कांग्रेसी सदस्य विराजमान हो गए। समय बदल रहा था। हां इतना अवश्य था कि श्रीमती इंदिरा गाँधी के ‘तेवर’ भले बदल रहे थे, कांग्रेस पार्टी के अंदर ही सहस्त्र-फांक हो रहे थे, लेकिन इतना तो तय था कि कांग्रेस के संस्थापक ए ओ ह्यूम का निरादर नहीं हुआ था। वर्तमान लोकसभा में कांग्रेस पार्टी की संख्या 53 है। 

इतना ही नहीं, अन्य राजनीतिक पार्टियां जो आज आसमान में उड़ रही हैं, पतंग जैसी, कल भारत भूमि के किसी कोने में गिरी पड़ी मिलेगी। राज्यों की विधानसभा से लेकर देश के लोकसभा – राज्यसभा तक न पार्टियों की सदस्यों को लोगबाग कुर्सी पर चढ़कर ढूंढेंगे। सत्य यही है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज ‘हर्यंक राजवंश’, ‘शिशुनाग राजवंश’, ‘महापद्मनंदा राजवंश’, ‘मौर्य राजवंश’, ‘नंदा राजवंश’, ‘शाका राजवंश’, ‘शुंगा राजवंश’, ‘इक्षाकु राजवंश’, ‘चोला राजवंश’, ‘पल्लवा राजवंश’, ‘कलिंगा राजवंश’, ‘गोनंदा राजवंश’ जैसे भारतवर्ष के सौ से अधिक राजवंशों का ‘जय-विजय-पराजय’ नहीं हुआ होता। आने वाली पीढ़ियां उन राजवंशों के राजनायकों को अपने-अपने मानसपटल से विस्मृत नहीं कर दिया होता। कल जिनकी ‘तूती बोलती थी, आज लोग ‘तुरतुरी’ बजा रहे हैं। आज जिनकी तूती’ बोली जाती है, कल उनकी भी ‘तुरतुरी’ बजाएगी जाएगी। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि ‘कल’ उन्होंने जो राष्ट्र के लिए किया, उसी की बुनियाद पर ‘आज’ हम बैंड-बाजा-बाराती हाँक रहे हैं। उन्हें “भूलना” एक सभ्य समाज की निशानी नहीं होगी। 

देश के वरिष्ठ पत्रकार और इण्डियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के अध्यक्ष के विक्रम राव का कहना है कि ‘स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की समाप्ति के केवल साठ दिन शेष हैं। किन्तु जंगे – आजादी की वाहिनी रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक की भूमिका का कहीं भी सम्यक उल्लेख नहीं हुआ। इस पार्टी की मौजूदा मुखिया 76—वर्षीया सोनिया – राजीव गांधी ने भी प्रसार भारती से इस संदर्भ में कोई आग्रह नहीं किया। भले ही, ठीक उन्हीं की भांति, श्वेत त्वचा वाले यूरोपियन भारतमित्र—प्रशासक एलन ऑक्टेवियन ह्यूम कांग्रेस के जनक थे, 137 वर्ष पूर्व। सोनिया का ऐसा नजरिया दुखद है, जबकि मोतीलाल नेहरू की पोती का पोता राहुल गांधी भी कांग्रेस का छठा परंपरागत अध्यक्ष रह चुका है। पांचों पीढ़ियां क्रमश: लाभार्थी रहीं हैं। यह कैसा सियासी उपहास है?”

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विडंबना, विद्रोह भी। जबकि डा. भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल 2022) को आकाशवाणी-दूरदर्शन ने स्वाधीनता सेनानी के रुप में पेश किया था। बापू ने ”अंग्रेजों, भारत छोड़ो” का जब बिगुल बजाया था तो लाखों सत्याग्रही जेल गये। तब (1942) डा. अंबेडकर ब्रिटिश वायसराय की काबीना में मंत्री थे। साम्राज्यवादी अंग्रेज तब भारतीय विद्रोहियों को गोली से भून रहे थे। तुलना में एओ ह्यूम तो भारतीय स्वतंत्रता के उत्कृष्ट कोटि के समर्थक थे। संघर्षशील भी। उनके बारे में पाठ्यपुस्तकों में विस्तृत लेख होने चाहिये थे। नयी शिक्षा नीति के तहत ऐसा हो। अपेक्षित है।

विक्रम राव आगे लिखते हैं: “यूं भी लंदन के साम्राज्यवादी राज के विरुद्ध स्कॉटलैण्ड तीन सदियों से जंग छेड़े है। अभी दो वर्ष पूर्व ही यूरोपीय संघ का सदस्य बने रहने के जनमत संग्रह में स्कॉटलैण्ड मेम्बरी का पक्षधर था। मगर ब्रिटेन का बहुमत होने के कारण वह यूरोपीय संघ के बाहर हो गया। ह्यूम के ब्रिटेन—विरोधी अभियान को स्कॉटलैंड के परिवेश में देखें। ह्यूम स्कॉटिश है जो आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) में चयनित होकर भारत 1849 में आ गये थे। ईटावा के कलेक्टर नियुक्त हुये। ह्यूम ने इटावा के लोगों की जन स्वास्थ्य सुविधाओं के मद्देनजर मुख्यालय पर एक सरकारी अस्पताल का निर्माण कराया था तथा स्थानीय लोगों की मदद से उन्होंने ने खुद के अंश से 32 स्कूलों के निर्माण कराये, जिसमें 5683 बालक—बालिका अध्ययनरत रहे।” 

खास बात यह है कि उस वक्त बालिका शिक्षा का जोर न के बराबर था। तभी तो सिर्फ दो ही बालिकायें अध्ययन के लिये सामने आईं। ह्यूम ने इटावा को एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र बनाने का निर्णय लेते हुये अपने ही उपनाम से ह्यूमगंज की स्थापना करके बाजार खुलवाया जो आज बदलते समय में ह्यूमगंज के रूप में बड़ा व्यापारिक केन्द्र बन गया है। ह्यूम को उस अंग्रेज अफसर के रूप में माना जाता है जिसने अपने समय से पहले बहुत आगे के बारे में न केवल सोचा, बल्कि उस पर काम भी किया।

देश के वरिष्ठ पत्रकार और इण्डियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के अध्यक्ष के विक्रम राव

विक्रम राव का कहना है कि “यह गोरा भारतीय अधिकारी श्रीमद्भगवद्गीता का दैनिक पाठ करता था। उनकी दृष्टि में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महान राष्ट्रभक्त थे। अंग्रेजी सरकार ने तिलक को विद्रोही रचनाओं के कारण सात वर्ष की सजा दी थी। इटावा के कलेक्टर के दौर में ह्यूम का किस्सा मशहूर था। तभी 1857 का स्वतंत्रता संघर्ष शुरु हुआ। इस भारत प्रिय गोरे अधिकारी की हत्या पर बागी सिपाही आमादा थे। इसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढ़पुरा पहुंच गए और सात दिनों तक छिपे रहे। अपनी जान बचाए जाने का पाठ ह्यूम कभी नहीं भूले। ह्यूम न बचते अगर उनके साथियों ने उनको चमरौधा जूता न पहनाया होता। सिर पर पगड़ी न बांधी होती और महिला का वेश धारण कर सुरक्षित स्थान पर न पहुंचाया होता। ह्यूम ने इटावा से भाग कर आगरा के लालकिले में शरण ली। उनके भारतीय वफादार सहयोगियों ने उनकी जान बचाई।”
 
ह्यूम का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रति सहानुभूति तथा समर्थन का एक ऐतिहासिक कारण रहा। ब्रिटिश सेना ने 1 मई 1707 में स्कॉटलैण्ड को  भारत की भांति इंग्लैंड का एक उपनिवेश बना दिया था। स्कूली बच्चों को याद होगा कि एक स्कॉट बादशाह था, रॉबर्ट ब्रूस। वह छह बार युद्ध में पराजित हो कर राजधानी एडिनबर्ग की निकट पहाड़ियों की गुफा में वह छिप गया था। वहां उसने देखा एक मकड़ी अपना जाल बनाती छह बार विफल हुयी। अंतत: सातवीं बार वह कामयाब हो गयी। यह बड़ा उत्साहवर्धक था, राजा ब्रूस के लिये। वह रणभूमि में फिर गया और विजयी हुआ। तभी से इंग्लैंड के पराधीनता के विरुद्ध सदियों तक का संघर्ष स्कॉटलैण्ड ने शुरु किया। ह्यूम की भांति स्कॉटलैण्ड से गुलाम भारत में आये सभी अफसर हिन्दुस्तान की जंगे आजादी के हिमायती रहे। सक्रिय रहे।

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बहरहाल, इटावा के हजार साल इतिहास के झरोखे में इटावा नामक ऐतिहासिक पुस्तकों में दर्ज ह्यूम की बारे में इन अहम तथ्यों का उल्लेख करते हुए केकेपीजी कालेज के इतिहास विभाग के प्रमुख डा.शैलेंद्र शर्मा के अनुसार एओ ह्यूम को वैसे तो आम तौर सिर्फ कांग्रेस के संस्थापक के तौर पर जाना और पहचाना जाता है लेकिन ह्यूम की कई पहचानें रही हैं। ह्यूम को उत्तर प्रदेश के इटावा में जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये साड़ी पहन कर ग्रामीण महिला का वेश धारण कर भागना पड़ा था। ए.ओ़ हृयूम तब इटावा के कलेक्टर हुआ करते थे । 

कहा जाता है कि आजादी के मतवालों ने ह्यूम और उनके परिवार को मार डालने की योजना बनाई जिसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढपुरा पहुंच गए और सात दिनों तक बढपुरा में छिपे रहे। उन्होंने कहा ह्यूम ना बचते अगर उनके हिंदुस्तानी साथियों ने उनको चमरौधा जूता ना पहनाया होता, सिर पर पगड़ी ना बांधी होती और महिला वेश धारण कर सुरक्षित स्थान पर ना पहुंचाया होता। ह्यूम ने इटावा से भाग कर आगरा के लाल किले मे शरण लेनी पडी। अंग्रेज अधिकारी के भारतीय वफादार सहयोगियो ने मदद कर उनकी जान बचाई। 

वर्ष 1912 मे इटावा के मूल निवासी डा.श्रीराम महरौत्रा लिखित पुस्तक लक्षणा का हवाला देते हुए चंबल अकाईब के मुख्य संरक्षक किशन मेहरोत्रा का कहना है कि 1857 की क्रांति में लगभग पूरे उत्तर भारत में अंग्रेज अफसर जान बचाते फिर रहे थे। इनमें से कई लखनऊ की रेजीडेंसी या आगरा किले मे छिप गये थे। अपने परिवार के साथ लंबे समय तक आगरा मे रहने के बाद 1858 के शुरुआत मे ह्यूम ने भारतीय सहयोगियों की मदद से इटावा वापस आकर फिर से अपना कामकाज शुरू किया ।

दरअसल,चर्बी लगे कारतूसों के कारण 6 मई 1857 में मेरठ से सैनिक विद्रोह भड़क गया था। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली से लगे हुए अन्य क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्यधिक संवेदनशील घोषित कर दिये थे। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भारतीयों की संख्या भी बड़ी मात्रा में थी। ह्यूम ने इटावा की सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रख कर शहर की सड़कों पर गश्त तेज कर दी थी। 16 मई 1857 की आधी रात को सात हथियारबंद सिपाहियों को शहर कोतवाल ने पकडा। ये मेरठ के पठान विद्रोही थे और अपने गांव फतेहपुर लौट रहे थे। 

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इस बारे में कलेक्टर ह्यूम को सूचना दी गई। इस बीच विद्रोहियों ने कमांडिंग अफसर कॉर्नफील्ड पर गोली चला दी लेकिन वह बच गया। इस पर क्रोधित होकर उसने चार विद्रोहियों को गोली से उड़ा दिया लेकिन तीन विद्रोही भाग निकले। इटावा में 1857 के विद्रोह की स्थिति भिन्न थी। इटावा के राजपूत विद्रोहियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहे थे। 19 मई 1857 को इटावा आगरा रोड पर जसवंतनगर के बलैया मंदिर के निकट बाहर से आ रहे कुछ सशस्त्र विद्रोहियों और गश्ती पुलिस के मध्य मुठभेड़ हुई। विद्रोहियों ने मंदिर के अंदर घुस कर मोर्चा लगाया। कलेक्टर हयूम और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डेनियल ने मंदिर का घेरा डाल दिया । गोलीबारी में डेनियल मारा गया और हयूम वापस इटावा लौट आए जबकि पुलिस घेरा डाले रही लेकिन रात को आई भीषण आंधी का लाभ उठा कर विद्रोही भाग गये। ए.ओ.हयूम की देशी पलटन को बढपुरा की ओर रवाना करने के निर्देश दिया गया इस पलटन के साथ इटावा में रह रहे अग्रेंज परिवार भी थे,इटावा के यमुना तट पर पहुंचते ही सिपाहियों को छोड़कर बाकी सभी इटावा वापस लौट आये ।

इसी बीच हयूम ने एक दूरदर्शी कार्य किया कि उन्होंने इटावा में स्थित खजाने का एक बडा हिस्सा आगरा भेज दिया था तथा शेष इटावा के ही अंग्रेजों के वफादार अयोध्या प्रसाद की कोठी में छुपा दिया था। इटावा के विद्रोहियों ने पूरे शहर पर अपना अधिकार कर लिया और खजाने में शेष बचा चार लाख रूपया लूट लिया। इसके बाद अंग्रेजों को विद्रोहियों ने इटावा छोडने का फरमान दे दिया। इटावा में अपने कलेक्टर कार्यकाल के दौरान ह्यूम ने अपने नाम के अंग्रेजी शब्द के एच.यू.एम.ई. के रूप में चार इमारतों का निर्माण कराया जो आज भी हयूम की दूरदर्शिता की याद दिलाते है। चम्बल फाउंडेशन ने अध्यक्ष शाह आलम कहना है कि इटावा मे चार फरवरी 1856 को इटावा के कलेक्टर के रूप मे हृयूम की तैनाती अंग्रेज सरकार की ओर से की गई । इटावा मे वह 1867 तक तैनात रहे। यहां आते ही अंग्रेज अधिकारी ने अपनी कार्यक्षमता का परिचय देना शुरू कर दिया । 

16 जून 1856 को ह्यूम ने इटावा में जन स्वास्थ्य सुविधाओं को मद्देनजर मुख्यालय पर एक सरकारी अस्पताल का निर्माण कराया तथा स्थानीय लोगो की मदद से हृयूम ने खुद के अंश से 32 स्कूलो को निर्माण कराया जिसमें 5683 बालक बालिका अध्ययनरत रहे । ह्यूम ने इटावा को एक बडा व्यापारिक केंद्र बनाने का निर्णय लेते हुए अपने ही नाम के उपनाम से हयूमगंज की स्थापना करके हॉट बाजार खुलवाया जो आज बदलते समय मे होमगंज के रूप मे बडा व्यापारिक केंद्र बन गया है। स्थानीय रक्षक सेना के गठन की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। 1856 में ए.ओ.हयूम इटावा के कलेक्टर बन कर आये। कुछ समय तक यहां पर शांति रही। डलहौजी की व्यक्तिगत संधि के कारण देशी राज्यों में अपने अधिकार हनन को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त हो चुका था।

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