बिहार का सत्यानाश(9)😢 बेतिया में मोहनदास ‘महात्मा गांधी’ बने 🙏 बेतिया में शिक्षा पदाधिकारी ‘भ्रष्ट’ मिले 😢 और पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शहादत दिवस पर ताली ठोकने लगे 😢

भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद की शुरुआत

बेतिया/पटना/नई दिल्ली: आज 30 जनवरी है। आज जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर प्रार्थना सभा में ताली बजाते देखा तो पटना के बांस घाट का वह दृश्य याद आ गया जब जयप्रकाश नारायण का अंतिम संस्कार किया जा रहा था। गंगा के किनारे इंदिरा गांधी के अलावे सैकड़ों गणमान्य व्यक्ति और लाखो लोग लोकनायक के अंतिम दर्शन करने उपस्थित थे। लोकनायक आठ अक्टूबर, 1979 को अंतिम सांस लिए। उस भीड़ में कोई ‘खैनी’ खाने के लिए उसे अपनी तलहत्थी पर रगड़ रहा था। इधर लोकनायक को मुखाग्नि दिया गया, उधर भीड़ में वह अदृश्य आदमी अपनी तलहत्थी पर खैनी को ठोका। कहते भी हैं भीड़ किसी की नहीं होती। पहले दो हाथ की तलहत्थी से निकली आवाज को ‘ताली’ समझकर क्षण भर में दो लाख हाथ की तलहत्थी ताली की गड़गड़ाहट में बदल गयी। इंदिरागांधी गुस्सा से लाल हो गई थी। खड़ी होकर भीड़ को इशारा कर रही थी – बंद करो ताली। लेकिन ताली तो बज चुकी थी। 

आज 46 वर्ष बाद, जिस प्रकाश नारायण के आंदोलन की पैदाइश नीतीश कुमार हैं, महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर ‘मूर्खता वश’ जिस तरह ‘ताली बजाने लगे’, यह इस बात का द्योतक है कि वे ‘मानसिक रूप से बीमार’ हो गए हैं। खैर।

आज से 77 वर्ष पहले गांधी के शरीर की हत्या कर दी गयी। लेकिन गांधी के विचारधारा को नहीं मार सके लोग । तत्कालीन समाज के ‘संभ्रात’ लोग गांधी की विचारधारा का भविष्य में बढ़ने वाले मोल के मद्दे नजर राजनीतिक महकमें से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक महकमें तक, रख लिए। वे जानते थे कि आगामी कई वर्षों तक देश में शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो पायेगा। लोग विवेकशील क्या, शिक्षित भी नहीं हो पाएंगे – मानसिक रूप से। जो शिक्षित होंगे उनकी शिक्षा नौकरी, व्यवसाय और अर्थोपार्जन के दरवाजे तक आते-आते दम तोड़ देगा। अगर ऐसा नहीं होता तो आज भी महिला-पुरुषों के बीच शिक्षा का अनुपात असमानता नहीं होता। समाज में अमीर-गरीब ही नहीं, गरीबी रेखा के बहुत नीचे तक, जाति-व्यवस्था में सहस्त्र फांक नहीं होता। वैसे नेता, अधिकारी भी नहीं चाहते हैं कि समाज में शिक्षित लोगों की संख्या बढ़े। कारण तो आप जानते ही हैं। 

कोई 108-वर्ष पहले मोहनदास करमचंद गांधी अविभाजित बिहार के चंपारण के बेतिया शहर पहुंचे थे। आग्रह पंडित राजकुमार शुक्ल की थी। शायद अप्रैल का महीना था और साल 1917 जब चम्पारण के किसान, खासकर जो नील की खेती करते थे, तत्कालीन ब्रितानिया हुकूमत के अधिकारियों के अत्याचार से पीड़ित था। त्रस्त किसान पंडित शुक्ल के माध्यम से गांधी तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहता था। पंडित शुक्ल उनकी आवाज को गांधी तक पहुंचाए और गांधी की आवाज भारतीय स्वाधीनता संग्राम में आग में घी का कार्य किया। गांधी बेतिया जिला मुख्यालय से भितिहरवा गांव पहुंचे किसानों से मिलने। गांधी की अगुआई में अहिंसक क्रांति की ऐसी बिगुल फूंकी कि पूरी दुनिया के लिए चम्पारण सत्याग्रह एक नजीर बन गया। गांधी ने न सिर्फ उन्हें अपना नेतृत्व प्रदान किया था, बल्कि संपूर्ण देश को आजादी की राह दिखाने का संकल्प भी लिया था। इसी भूमि पर मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बन गए – इतिहास गवाह है।

गाँधी की अहिंसक क्रांति के 108 साल और आज़ाद भारत के 78 साल बाद इसी बेतिया शहर में जहाँ सरकारी कर्मचारी समाज के बच्चों को शिक्षा का मार्ग बताते है, गांधी का अहिंसक मार्ग बताते हैं, भ्र्ष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बात करते हैं, उसी बेतिया के जिला शिक्षा पदाधिकारी रजनीकांत प्रवीण के घरों से निगरानी विभाग कई करोड़ “अवैध रूपये”, जिनपर महात्मा गांधी की तस्वीर छपी थी, जब्त करता है, वह भी 75 वें गणतंत्र से पूर्व। रजनीकांत प्रवीण लगभग तीन सालों से बेतिया में जिला शिक्षा अधिकारी के पद पर पदस्थापित थे। उनके बेतिया आवास के अलावे, समस्तीपुर, दरभंगा और मधुबनी स्थित ठिकानों पर छापेमारी के दौरान 2.50 करोड़ से अधिक नकद, लाखों के जेवरात तथा बड़ी संख्या में जमीन-जायदाद के साथ ही विभिन्न वित्तीय संस्थानों में निवेश से संबंधित कागजात बरामद हुए। 

बिहार से दूसरा गांधी कोई नहीं बन पाया। अलबत्ता, बिहार में ऐसे ‘रजनीकांत’ और ‘प्रवीण’ एक नहीं, हज़ारों तो हैं ही, लाखों होंगे। यह मैं नहीं प्रदेश के सम्मानित मुख्यमंत्री बाबू नितीश कुमार की देखरेख वाली सरकारी निगरानी विभाग कहता है। विगत कुछ दिन पूर्व निगरानी विभाग ने पद का दुरुपयोग करने वाले, भ्रष्ट या जिन पर विभागीय कार्रवाई चल रही हो, ऐसे सभी स्तर के कर्मियों की सूची जारी की।  उस सूची में ‘सम्मानित भ्रष्ट लोगों/अधिकारियों/पदाधिकारियों की संख्या 4517 थी। इसमें सभी विभागों के जिला स्तरीय कर्मियों और भ्रष्टाचार से जुड़े मामले में निजी लोगों की सूची भी शामिल थे। परंतु सबसे ज्यादा वैसे पदाधिकारियों या कर्मियों की संख्या है, जिन पर अपने पद के दुरुपयोग का आरोप लगा है। 

सभी स्तर के कर्मियों की इसी सूची में कुछ एक उच्च पद पर रह चुके राजनीतिक शख्सियत भी शामिल हैं। एक पूर्व विधान परिषद एवं विधान सभा अध्यक्ष के नाम भी शामिल हैं। इन आरोपी कर्मियों की सूची में सबसे ज्यादा शिक्षा विभाग से मुख्यालय से लेकर जिला एवं स्कूल स्तर तक के 930 कर्मियों के नाम हैं। इसके अलावा कृषि से 55, पशुपालन विभाग से 24, भवन निर्माण से 47, वाणिज्य कर के 11, सहकारिता विभाग के 63, ऊर्जा से 114, वित्त से 14, खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण से 72, वन से 30, सामान्य प्रशासन विभाग से 243, स्वास्थ्य से 160, गृह (जेल एवं अग्निशमन) से छह, उद्योग से 11, श्रम संसाधन से 22, खनन से सात कर्मियों के नाम शामिल हैं। 

आपको भी याद होगा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठे गोपालगंज की सभा में 84 सेकेंड तक महागठबंधन के नेताओं के समय की घोटालों की सूची लगातार 80 सेकेंड में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार के समय के 25 और लालू यादव के समय के 7 घोटाले गिनाए। इतना ही नहीं, कोई 12 वर्ष पहले बिहार में एक घटना घटी थी जो गर्भाशय शल्य-चिकित्सा घोटाला के नाम से विख्यात हुआ था। यह घोटाला राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत हुआ था जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं व युवतियों का अवैध तरीके से गर्भाशय निकाल कर बीमा की राशि हड़प ली गई थी। इसमें एक महिला का गर्भाशय निकालने के लिए 30 हजार रुपये बीमा की राशि  निर्धारित थी। 

​डॉ. राजेंद्र प्रसाद और तत्कालीन राज्यपाल एम.ए. अय्यंगर

आइए, पहले नितीश कुमार के कालखंड में हुए घोटालों को गिनते हैं। दवा खरीद घोटाला, ट्रांसफाॅर्मर खरीद घोटाला, एस्टीमेट घोटाला, फर्टिलाइजर सब्सिडी घोटाला, मस्टर रोल घोटाला, राशन-किरासन घोटाला, शराब घोटाला, इंदिरा आवास घोटाला, मनरेगा घोटाला, शौचालय घोटाला, कोसी केनाल निर्माण घोटाला, मिड डे मील घोटाला, आंगनबाड़ी घोटाला, कुलपति घोटाला, पथ निर्माण घोटाला, पुल निर्माण घोटाला, शिक्षा अभियान घोटाला,  टेक्स्टबुक छपाई घोटाला, परिवहन घोटाला, वायरलेस बैटरी खरीद घोटाला, बियाडा जमीन घोटाला, बुद्ध स्मृति पार्क घोटाला और चावल घोटाला आदि। इतना ही नहीं, चारा घोटाला के अतिरिक्त यादव के कालखंड में अलकतरा घोटाला, इंजीनियरिंग कॉलेज घोटाला, व्याख्याता नियुक्ति घोटाला, सिपाही नियुक्ति घोटाला, नलकूप घोटाला, कंबल खरीद घोटाला, रेलवे घोटाला का नाम भी शामिल है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ दिन पहले राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव भी नीतीश कुमार पर लांछन लगाए कि उनके कालखंड में अब तक 55 से अधिक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं। यह सुनते ही भारत ही नहीं विश्व के लोग हंस देंगे। मुझे भी हंसी आ गयी। 

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चाहिए तो यह कि बुद्ध की धरती को, महावीर की धरती को, गुरु गोविंद सिंह की धरती को, चंद्रगुप्त की धरती को, आर्यभट्ट की धरती को, समुद्रगुप्त की धरती को, या उन तमाम महारथियों की धरती को जिनके नाम से कसमें खायी जाती है, ‘घोटालों का प्रदेश’ नाम से नामकरण कर दिया जाय। वैसे भी ‘नामकरण’ की राजनीती तो बिहार में खुलेआम होता है। यह अलग बात है कि लोक नायक जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के बाद जितने भी खादी घारी सिंहासन पर विराजमान हुए, उनमें (अपवाद छोड़कर) विरले ही कोई बचे जिनका नाम भ्रष्टाचार में लिप्त होने में, भाय-भतीजावाद को बढ़ावा देने में, अपने सम्बन्धियों और परिजनों को लाभ दिलाने में नहीं आया। 

लेकिन सत्तर के मध्य से, या यूँ कहें कि नब्बे के दशक से आज तक जितने भी नेता-अधिकारी-मंत्री इन कार्यों में लिप्त पाए गए, उस भ्रष्टाचार की गंगोत्री साठ के दशक में अपना नाम कमा लिया था। साठ के दशक में कई मंत्री, यहाँ तक कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध भी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का आरोप लग गया था और वादी-प्रतिवादी के रूप में वे न विकल राज्यपाल द्वारा स्थापित आयोग के समक्ष उपस्थित हुए, बल्कि अपनी सफाई में न्यायालय तक भी रेंगते पहुंचे। 

चलिए साठ के दशक में चलते हैं। साठ के दशक के उत्तरार्ध बिहार में कुछ समय तक कोई स्थिर सरकार नहीं थी। पहले बिनोदानंद झा के नेतृत्व में और फिर के.बी. सहाय के अधीन कुछ समय तक कांग्रेस की सरकार बनी। जब कांग्रेस की सरकार और उसका मंत्रिमंडल सत्ता से बाहर हो गया था, तो महामाया प्रसाद सिन्हा की अध्यक्षता में संयुक्त मोर्चा पार्टी द्वारा सरकार बनी थी। संयुक्त मोर्चा मंत्रिमंडल ने भी 25 जनवरी 1968 को इस्तीफा दे दिया और फिर बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में शोषित दल द्वारा सरकार बनी। मंडल की सरकार भी 22 मार्च 1968 को समाप्त हो गई और फिर आई भोला पासवान शास्त्री की सरकार। कांग्रेस मंत्रिमंडल के बने रहने के दौरान महामाया प्रसाद सिन्हा को कामाख्या नारायण सिंह,  उनके भाई बसंत नारायण सिंह और अन्य लोगों ने मदद की, जो विपक्ष में थे। जब संयुक्त मोर्चा मंत्रिमंडल अस्तित्व में आया वह 5 मार्च, 1967 से काम करना शुरू किया। 

17 मार्च, 1967 को तत्कालीन राज्यपाल एम.ए. अय्यंगर ने अपने भाषण में घोषणा की कि वर्तमान के.बी.सहाय सहित कुछ मंत्री, जो अभी पद पर आसीन नहीं हैं, के आचरण के खिलाफ जांच की जाएगी। मंत्रिपरिषद ने आरोपी और उनसे संबंधित सामग्रियों की प्रारंभिक जांच करने के लिए 22 जुलाई, 1967 को एक कैबिनेट उप-समिति का गठन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि बिहार के राज्यपाल ने 1 अक्टूबर, 1967 को जांच आयोग अधिनियम की धारा-3 के तहत एक अधिसूचना जारी की, जिसके द्वारा राघवेंद्र नारायण सिंह और अंबिका शरण सिंह के खिलाफ भी जांच का आदेश दिया गया।

कृष्ण​ बल्लभ सहाय, राम लखन सिंह यादव और अन्य

आरोपियों में सर्वप्रथम थे कृष्ण बल्लभ सहाय। सहाय 16 अप्रैल, 1946 से 5 मई, 1957 तक और 29 जून, 1962 से 2 अक्टूबर, 1963 तक मंत्री का पद संभाले थे। फिर 2 अक्टूबर, 1963  से 5 मार्च, 1967 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए। दूसरे आरोपी थे – महेश प्रसाद सिन्हा, जिन्होंने 29 अप्रैल, 1952 से 5 मई, 1957 तक तथा 15 मार्च, 1962 से 5 मार्च, 1967 तक मंत्री थे। तीसरे थे – सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, जो 18 फरवरी, 1961 से 5 मार्च, 1967 तक मंत्री थे। चौथे थे – राम लखन सिंह यादव, जो 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक मंत्री थे। पांचवां नाम जुड़ा था राघवेन्द्र नारायण सिंह, जो 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक राज्य मंत्री थे और छठा नाम जुड़ा था अंबिका शरण सिंह, जो 6 मई, 1967 से 2 अक्टूबर, 1963 तक उप-मंत्री थे और 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक राज्य मंत्री थे।

इन सभी पर आरोप यह था कि वे अपने आधिकारिक पद या पदों का दुरुपयोग और शोषण करके, अपने लिए, अपने नाम से या बेनामी रूप से, और अपने परिवार, रिश्तेदारों और अन्य व्यक्तियों के लिए, जिनसे उनका हित था, आर्थिक और अन्य लाभ प्राप्त किए और उन्हें प्राप्त करने में मदद किये । इस मिलीभगत के कारण वे अपने परिवार, रिश्तेदारों और अन्य व्यक्तियों के लिए जिनसे उनका हित था, विशाल संपत्ति अर्जित की और अवैध लाभ कमाया। यह भी आरोप लगा था कि वे सभी अपने कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार, पक्षपात, सत्ता का दुरुपयोग और अन्य कदाचार में लिप्त रहे। अतः लोकहित में आयोग का गठन और निष्पक्ष जांच आवश्यक प्रतीत हुआ। जांच का काम सर्वोच्च न्यायालय के  सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री टी. एल.  वेंकटराम अय्यर को सौंपा गया। आयोग को 6 नवंबर, 1967 से अपना कार्यभार संभाला और आयोग को निम्नलिखित मामलों की जांच करने और रिपोर्ट देने का निर्देश दिया। 

तत्कालीन राज्यपाल एम.ए. अय्यंगर ने जांच आयोग अधिनियम, 1952 (1952 का IX) की धारा-3 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए आयोग को आदेश दिया कि निम्नलिखित मामलों की जांच की जाय : 

(क) उपर्युक्त प्रत्येक व्यक्ति, उसके परिवार, रिश्तेदारों और अन्य व्यक्तियों, जिनमें वह हितबद्ध था, के स्वामित्व और कब्जे में परिसंपत्तियों और आर्थिक संसाधनों की सीमा क्या थी, (i) पदावधि के आरंभ में और (ii) उसके द्वारा पूर्वोक्त रूप से धारित प्रत्येक पदावधि के अंत में। 

(ख) क्या उपर्युक्त नामित व्यक्तियों में से प्रत्येक ने अपने द्वारा धारित पद या पदों के कार्यकाल के दौरान अपने आधिकारिक पद या पदों का दुरुपयोग और शोषण करके कोई संपत्ति, आर्थिक संसाधन या लाभ या अन्य लाभ प्राप्त किए हैं और क्या उक्त अवधि या अवधियों के दौरान उसके परिवार, रिश्तेदारों और अन्य व्यक्तियों, जिनमें वह हितबद्ध था, ने उसके ज्ञान, सहमति या मिलीभगत से संपत्ति, आर्थिक संसाधन, लाभ या अन्य लाभ प्राप्त किए हैं; 

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(ग) क्या उपर्युक्त व्यक्तियों में से प्रत्येक अन्यथा भ्रष्टाचार, पक्षपात, सत्ता का दुरुपयोग और अन्य कदाचार में लिप्त था और यदि हां, तो किस हद तक। 

​रामलखन सिंह यादव

अधिसूचना में आगे कहा गया: “जांच के दायरे पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, आयोग विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों के संबंध में ऊपर नामित व्यक्तियों के दुर्भावनापूर्ण और भ्रष्ट आचरण की जांच करेगा और उस पर रिपोर्ट देगा:

(i) कार्यों के लिए अनुबंध; 
(ii) खनिज रियायत प्रदान करना तथा पट्टों, लाइसेंसों और परमिटों को जारी करना और उसका नवीकरण करना, विशेष रूप से खानों, खनिजों, वनों, वन-उत्पादों, अलौह धातुओं, मिलों, बिजली के उत्पादन और वितरण, नौकाओं, परिवहन आदि के संबंध में।
(iii) भंडार एवं सामग्री की खरीद एवं आपूर्ति। 
(iv) अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण, पदोन्नति आदि, 
(v) मामलों को संस्थित करना और वापस लेना; 
(vi) अपराधियों एवं भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण; 
(vii) सरकारी बकाया, ऋण और करों की छूट; 
(viii) सरकारी धन एवं संपत्ति का दुरुपयोग; 
(ix) भूमि का अधिग्रहण, पुनः अधिग्रहण, बंदोबस्त और पट्टा; 
(x) चेक-पोस्टों के माध्यम से धन का संग्रहण; और 
(xi) कोई अन्य मामला जो जांच के दौरान आयोग के संज्ञान में लाया जा सकता है। बाद में बिहार सरकार ने 31 अक्टूबर 1967 को निर्णय लिया कि खंड (घ) को हटा दिया ।

इस घटना के बाद कृष्ण बल्लभ सहाय और उनके पूर्व सहयोगियों द्वारा संविधान के अनुच्छेद – 226 और 227 के तहत पटना उच्च न्यायालय में एक आवेदन दिया गया, जिसमें बिहार सरकार द्वारा जारी अधिसूचना सं. एसओ 255, दिनांक 1 अक्टूबर, 1967 (अनुलग्नक बी) को रद्द करने की प्रार्थना की गई है, जिसके तहत जांच आयोग अधिनियम, 1952 की धारा – 3 के तहत जांच आयोग की नियुक्ति की गई थी। आयोग का काम “भ्रष्टाचार, पक्षपात, सत्ता का दुरुपयोग” आदि सहित कुछ कथित कदाचारों की जांच करना था। कहा जाता है कि याचिकाकर्ताओं ने बिहार में कांग्रेस पार्टी के शासनकाल के दौरान मुख्यमंत्री और मंत्रियों के पद पर रहते हुए ये अपराध किए थे। यह कालखंड था 1946 से 1967 तक।  

याचिकाकर्ता सभी कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे, जो फरवरी, 1967 में हुए चुनावों में पराजित हुई थी। प्रतिद्वंद्वी दलों ने महामाया प्रसाद सिन्हा के साथ गठबंधन की सरकार बनाई थी जिसमें सभी आरोपी मंत्रिमंडल के शुरू से ही सदस्य हैं। इसी दौरान खलील अहमद भी राजनीति में जुड़े थे। अहमद पहले कई वर्षों तक पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे, और बाद में उन्हें मुख्य न्यायाधीश के रूप में उड़ीसा स्थानांतरित कर दिया गया। जब मार्च, 1967 में गठबंधन सरकार बनी तो वे उड़ीसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे, और बाद में वहीं से सेवानिवृत्त हुए। अवकाश के बाद उन्हें इस गठबंधन की सरकार में मंत्री बनाया गया था।जुलाई, 1967 में गठबंधन मंत्रिमंडल के सदस्य भोला प्रसाद सिंह ने घोषणा की थी कि पूर्व मंत्रियों के विरुद्ध आसन्न जांच ने उन्हें परेशान कर दिया है और वे गठबंधन सरकार को हटाने या राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए हताशाजनक प्रयास कर रहे हैं। प्रारंभिक सुनवाई के लिए 6 नवंबर, 1967 की तारीख तय की है।

आरोप था कि कृष्ण बल्लभ सहाय तथा वर्तमान मुख्यमंत्री श्री महामाया प्रसाद सिन्हा के बीच लंबे समय से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता थी। महामाया प्रसाद सिन्हा लंबे समय से कांग्रेस पार्टी में पद तथा सत्ता पाने के लिए बहुत उत्सुक थे। उनकी महत्वाकांक्षा मुख्य रूप से कृष्ण बल्लभ सहाय की गतिविधियों के कारण विफल हो गई। इस निराशा के कारण उन्होंने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दे दिया तथा प्रतिद्वंद्वी पार्टी बना ली जो सत्ता में  थी। यह भी आरोप लगाया गया है कि महामाया प्रसाद सिन्हा कृष्ण बल्लभ सहाय से नाराज़ थे क्योंकि उन्होंने “गुड़ कांड” के नाम से जाने जाने वाले उनके कुकृत्यों को उजागर किया था। उन्होंने उन्हें 1952 में बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होने से रोका था, और उन्होंने उन्हें पिछले मंत्रालय में कोई भी पद देने से मना कर दिया था, जिसमें विधान परिषद की अध्यक्षता भी शामिल थी।

इस बीच, रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह के संबंध में, यह कहा गया कि वे कृष्ण बल्लभ सहाय के घातक दुश्मन थे, और उन्होंने महामाया प्रसाद सिन्हा से हाथ मिला लिया, जो कृष्ण बल्लभ सहाय के राजनीतिक दुश्मन और प्रतिद्वंद्वी थे। रामानन्द तिवारी और खलील अहमद के विरुद्ध भी आवेदन में विशिष्ट उदाहरण दिए गए हैं, जिनसे यह पता चला कि वे कृष्ण बल्लभ सहाय के विरुद्ध द्वेष रखते थे, क्योंकि उन्होंने व्यक्तिगत अनुग्रह प्रदान करने के लिए उनकी विशेष प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी।

​जय प्रकाश नारायण कभी ऐसा हुआ करते थे

याचिकाकर्ताओं ने अपने आवेदन में स्वयं यह तर्क दिया है कि वर्तमान सरकार के सदस्यों के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और शत्रु कोई और नहीं बल्कि कृष्ण बल्लभ सहाय थे, तथा अन्य याचिकाकर्ताओं को अधिसूचना में इसलिए शामिल किया गया क्योंकि वे उनके समर्थक थे। फिर भी निवेदन के समर्थन में हलफनामा कृष्ण बल्लभ सहाय द्वारा नहीं बल्कि राम लखन सिंह यादव द्वारा दिया गया है, जो दावा किये कि उन्हें इनमें से कई आरोपों की व्यक्तिगत जानकारी है। यह आरोप लगाया गया कि रामानंद तिवारी ने अपने बेटे के खिलाफ लंबित आपराधिक मामले को वापस लेने के उद्देश्य से व्यक्तिगत रूप से कृष्ण बल्लभ सहाय से संपर्क किया।  यादव सहाय से नाराज थे क्योंकि उन्होंने उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। इस कथित अनुरोध के बारे में बोलने के लिए सक्षम व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि सहाय थे जिसे उन्होंने बयान के समर्थन में हलफनामा नहीं दिया। फिर, खलील अहमद, जब वे पटना उच्च न्यायालय के अवर न्यायाधीश थे, तब कहा जाता है कि उन्होंने सहाय से पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए व्यक्तिगत अनुरोध किया था। इस उदाहरण का समर्थन स्वयं सहाय द्वारा दायर हलफनामे से भी किया जाना चाहिए था, लेकिन नहीं किया गया। 

इन सभी मामलों में, राम लखन सिंह यादव का हलफनामा प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिए भी पर्याप्त नहीं था। यह अत्यधिक असंभव लगा कि भले ही उन दो व्यक्तियों द्वारा कृष्ण बल्लभ सहाय से ऐसे व्यक्तिगत अनुरोध किए गए हों, वे उन्हें किसी अन्य व्यक्ति, जैसे कि राम लखन सिंह यादव की उपस्थिति में किया होगा। इसलिए न्यायालय राम लखन सिंह यादव के हलफनामे को खारिज कर दिया क्योंकि इससे प्रथम दृष्टया यह साबित होता था कि रामानंद तिवारी और खलील अहमद कृष्ण बल्लभ सहाय से नाराज थे, क्योंकि उन्होंने मांगे जाने पर उन्हें व्यक्तिगत लाभ नहीं दिया। 

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आयोग की नियुक्ति का निर्णय मार्च, 1967 में ही लिया गया था, जब वे उड़ीसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहे थे। यह सच है कि वे 1 अक्टूबर को विवादित अधिसूचना जारी होने से पहले मंत्री बन गए थे; लेकिन वह अधिसूचना केवल विधानसभा में राज्यपाल द्वारा दिए गए आश्वासन को लागू करने के लिए जारी की गई थी, और जहां तक इस अधिसूचना के जारी होने का संबंध है, श्री खलील अहमद पर कोई दुर्भावना नहीं लगाई जा सकती। जहां तक कृष्ण बल्लभ सहाय, कामाख्या नारायण सिंह तथा श्री बसंत नारायण सिंह के बीच घातक दुश्मनी का सवाल था, याचिकाकर्ताओं की ओर से सेन ने न्यायालय का ध्यान मिनरल डेवलपमेंट लिमिटेड बनाम बिहार राज्य के मामले में की गई टिप्पणी की ओर आकर्षित किया। उस  टिप्पणी में कृष्ण बल्लभ सहाय और कामाख्या नारायण सिंह के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को न्यायिक रूप से देखा गया था। 

न्यायालय के अनुसार, “इस आवेदन के उद्देश्य के लिए, मैं यह मानूंगा कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के अलावा, एक ओर कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह और दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ सहाय के बीच भी घातक व्यक्तिगत दुश्मनी थी। जहां तक वर्तमान मंत्रिमंडल के शेष सदस्यों का सवाल है, याचिकाकर्ता प्रथम दृष्टया यह साबित करने में भी विफल रहे हैं कि उनमें  कोई व्यक्तिगत दुश्मनी या द्वेष है। महामाया प्रसाद सिन्हा के खिलाफ आरोप उनकी राजनीतिक गतिविधियों से संबंधित थी । और  उन्हें  सहाय का “राजनीतिक शत्रु और प्रतिद्वंद्वी” बताया गया । जांच आयोग की नियुक्ति का उद्देश्य याचिकाकर्ताओं को “राजनीतिक जीवन” से बाहर निकालना और इसे “राजनीतिक प्रतिशोध” के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना बताया गया है।” 

​के बी सहाय

न्यायालय ने यह महसूस किया कि “अब विचारणीय महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या मात्र इस आरोप के आधार पर कि वर्तमान सरकार के सदस्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं और पूर्व सरकार के सदस्यों के साथ उनकी राजनीतिक दुश्मनी है ? यह माना जा सकता है कि इस आवेदन को स्वीकार करने के लिए प्रथम दृष्टया पर्याप्त आधार हैं। महाधिवक्ता ने सही कहा कि सरकार के किसी भी लोकतांत्रिक रूप में जहां पार्टी प्रणाली प्रचलित है, चुनावों में पिछली सरकार की हार के बाद गठित नई सरकार में अनिवार्य रूप से पिछले मंत्रियों के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन शामिल होंगे, और यदि केवल इसी आधार पर यह माना जाता है कि अधिनियम की धारा-3 के तहत नई सरकार द्वारा शक्ति का प्रयोग दुर्भावनापूर्ण है, तो अधिनियम के प्रावधानों को पिछले मंत्रियों के आचरण की जांच में कभी भी लागू नहीं किया जा सकता है और वह धारा उस उद्देश्य के लिए एक मृत पत्र बन जाएगी। यह तर्क, मुझे लगता है, बहुत ही उचित है। अधिनियम की धारा-3 सरकार को जांच आयोग नियुक्त करने की शक्ति प्रदान करती है, बशर्ते कि उस धारा में उल्लिखित अन्य शर्तें पूरी हों।”

बक्शी गुलाम मोहम्मद के मामले एआईआर 1967 एससी 122 में, सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने निश्चित रूप से माना है कि सत्ता में रहने वाली सरकार किसी पूर्व मुख्यमंत्री या मंत्री के आचरण की जांच के लिए आयोग नियुक्त कर सकती है, जैसा भी मामला हो। यदि उत्तरवर्ती मंत्रालय में ऐसे लोग शामिल हैं जो पूर्व मंत्रियों के राजनीतिक या व्यक्तिगत मित्र हैं, तो उनसे उनके आचरण की जांच के लिए आयोग नियुक्त करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए, एक बार यह स्वीकार कर लिया जाता है कि पूर्व मंत्रियों के आचरण की जांच उत्तरवर्ती सरकार द्वारा की जा सकती है, क्योंकि यह सार्वजनिक महत्व का मामला है (बशर्ते कि अन्य शर्तें पूरी हों), तो यह अनिवार्य रूप से इस प्रकार है कि दोनों के बीच राजनीतिक दुश्मनी का कोई खास महत्व नहीं रह जाता।
धारा-3 के तहत “उपयुक्त सरकार” को किसी भी व्यक्ति के आचरण की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त करने की वैधानिक शक्ति प्रदान की, यह जानते हुए कि संविधान में परिकल्पित किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में, वर्तमान में सत्ता में मौजूद पार्टी में, कई मामलों में, ऐसे लोग शामिल होंगे जो अपने पूर्ववर्तियों के कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन हैं। इस ज्ञान के साथ, यदि संसद वास्तव में वर्तमान में सत्ता में मौजूद सरकार को अपने पूर्ववर्तियों के आचरण की जांच करने के निर्देश देने से अयोग्य ठहराना चाहती थी, तो उसने अधिनियम में ही यह प्रावधान करके इस इरादे का संकेत दिया होता कि पूर्व मंत्रियों के आचरण की जांच का आदेश सत्ता में मौजूद सरकार द्वारा नहीं बल्कि एक स्वतंत्र निकाय द्वारा किया जा सकता है।

न्यायालय ने कहा कि “मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अधिनियम में इस तरह के प्रावधान की अनुपस्थिति किसी वादी को दुर्भावना के आधार पर वैधानिक शक्ति के प्रयोग की वैधता को चुनौती देने से पूरी तरह वंचित कर देती है। मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि दुर्भावना के आरोप केवल इस आधार पर नहीं होने चाहिए कि नई सरकार के सदस्य अपने पूर्ववर्तियों के कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और शत्रु हैं। यह सच है कि इस नियम को शिथिल करना होगा जहाँ प्रयोग की जाने वाली वैधानिक शक्ति न्यायिक प्रकृति की हो। यह अच्छी तरह से स्थापित है कि न्यायिक शक्ति का प्रयोग इस तरह से किया जाना चाहिए कि यह सुनिश्चित हो कि न केवल न्याय हो बल्कि ऐसा लगे कि न्याय किया गया है।”

न्यायालय ने आगे कहा कि “हालाँकि, यह सिद्धांत यहाँ लागू नहीं हो सकता क्योंकि श्री सेन ने यह तर्क नहीं दिया है कि अधिनियम की धारा-3 के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए सरकार ने न्यायिक शक्ति का प्रयोग किया है। रामकृष्ण डालमिया बनाम श्री न्यायमूर्ति तेंदुलकर के प्रसिद्ध मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के उनके आधिपत्य ने माना कि धारा-3 के तहत नियुक्त आयोग भी न्यायिक शक्ति का प्रयोग नहीं करता है। आयोग की नियुक्ति करने वाली सरकार को न्यायिक शक्ति का प्रयोग करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसलिए, दुर्भावनापूर्ण इरादे को स्थापित करने के उद्देश्य से, याचिकाकर्ताओं को उनके और वर्तमान सरकार के सदस्यों के बीच मात्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और दुश्मनी के अलावा कुछ अन्य सामग्री भी प्रस्तुत करनी चाहिए।”

क्रमशः ……

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