झारखंड (2) : शिक्षितों के इलाके का मुख्यमंत्री बने दसवीं कक्षा तक पढ़े चंपई सोरेन – इसे कहते हैं बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना

झारखंड के नए मुख्यमंत्री चंपई सोरेन
झारखंड के नए मुख्यमंत्री चंपई सोरेन

रांची / धनबाद / नई दिल्ली : मेरे बाबूजी एक अच्छे तांत्रिक थे। किताबों की दुनिया में मुदात बिताने के कारण वे तत्कालीन अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्से को बखूबी जानते थे। उस क्षेत्र के कई लोग उनके शिष्य भी थे जो अक्सरहां साठ – सत्तर – अस्सी के दशक में बाबूजी से मिलने आते थे अपनी-अपनी समस्याओं के निदानार्थ। बाबूजी उन्हें सिंदूर की एक पुड़िया के साथ कुछ लौंग-इलाइची – सुपारी दे देते थे। कहते थे समाप्त होने से पहले इसमें आप बाजार से खरीदकर मिला लेंगे। उन दिनों के दक्षिण बिहार के बारे में बाबूजी का शास्त्र यह हकता था कि “दक्षिण बिहार की मिट्टी किसी की नहीं हुई है, ना ही होगी। खुदा-न-खास्ते जिसका हुआ उसे जीवन पर्यन्त छोड़ा तो नहीं। लेकिन जीवन के अंतिम सांस से पहले सूद समेत सब कुछ वसूल लेती है और लेती रहेगी।”

बाबूजी 1992 में अपनी अनंत यात्रा पर निकले। मैं उनके जीवनकाल में ही रोजी-रोटी की तलाश में दक्षिण बिहार की ओर निकला था। आम तौर पर चलने की प्रक्रिया शुरू करने के क्रम में पुरुष का बायां पैर और महिलाओं का दाहिना पैर निकलता है (कभी आप भी आजमा कर देखें) । घर से मिकलने से पूर्व बाबूजी कहे थे: “उस क्षेत्र में अपना आशियाना नहीं बनाना। तुम बाहर के लोग रहोगे।” बाबूजी की बातें मैं समझ गया। और समझाता क्यों नहीं आखिर ज्ञान-विज्ञान तो आज भी जीवित हैं उनका। खैर।

नब्बे के दशक के पूर्वार्ध में दक्षिण बिहार के जमशेदपुर में भी ‘सत्ता की लड़ाई’ चल रही थी रुस्तमजी होमस्जि मोदी यानी रुसी मोदी वनाम जेजे ईरानी, रतन टाटा और अन्य। कहते हैं रुसी मोदी जमशेदपुर स्टील वर्क्स में फ्लोर ट्रेनी के रूप में सेवा की शुरुआत किये थे और पांच दशक में वे टाटा स्टील के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक बन गए। रुसी मोदी के बारे में लिखने की क्षमता मुझमें नहीं हैं। लेकिन जिस हालात में रुसी मोदी को कम्पनी से निकलना पड़ा या निकाले गए, वह शुभ नहीं था। कोई 53 साल का समय दिया था उस संस्थान में रुसी मोदी । टाटा के पर्यायवाची बन गए थे रुसी मोदी। लेकिन जो हुआ उस समय उस बाबूजी की बातें याद आ रही थी।

उस दिन जमशेदपुर में रुसी मोदी का एक प्रेस कांफ्रेंस था। तत्कालीन दक्षिण बिहार से प्रकाशित अख़बारों के लोग थे उपस्थित । मैं भी था दी टेलीग्राफ के तरफ से। कहानी तुरंत फोन से लिखना था। उस गेस्ट हाउस में खचाखच लोग भरे थे। जहाँ रुसी मोदी बैठे थे, सामने हॉल के दूसरे तरफ खाने-पीने का बंदोबस्त था। समय निकल रहा था। वहां उपस्थित कुछ लोग आज के लिए कहानी कर रहे थे, कुछ कल करते। यह आपस में तय हो चूका था। इधर रुसी मोदी की बात समाप्त हुई नहीं कि मैं बगल के कमरे की ओर बढ़ना चाहा। तभी एक भारी आवाज कान में गई “मिस्टर झा, कम हेयर।” यह आवाज रुसी मोदी की थी। मुझ जैसा छोटा पत्रकार का नाम उनके मुख से सुनकर बहुत अच्छा लगा था। मन में सोचने भी लगा था ‘रुसी मोदी मेरा नाम लिए हैं। ‘”

वे कुछ और बोलना छह रहे थे टेलीग्राफ को। उनकी बातों को सुनने के लिए मैं अपने ठेंघुने पर बैठकर उन्हें सुनने लगा। कुछ और सज्जन भी खड़े हो गए थे तब तक। वे जानते थे कि यह कहानी टेलीग्राफ जा रही है। कहानी अगली सुबह प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुयी।

जब प्रेस कांफ्रेंस के लिए गेस्ट हाउस की ओर जा रहा था तो बिष्टुपुर के चमरिया गेस्ट हाउस के सामने से निकल रहा था। चमरिया गेस्ट हाउस बिष्टुपुर के नॉर्दर्न टाउन में स्थित है। यह वही स्थान है जहाँ 8 अगस्त, 1987 को झारखंड के एक बेहतरीन नेता निर्मल महतो की हत्या की गई थी। उस समय निर्मल महतो अपने कुछ मित्रों के साथ खड़े होकर बात कर रहे थे। निर्मल महतो आल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन के संस्थापक भी थे। साथ ही, झारखण्ड राज्य के निर्माण में उनकी भूमिका बाहर महत्व पूर्ण थी, जो शायद तत्कालीन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के वररष्ठ नेताओं को हज़म नहीं हुआ था।

बहरहाल, पलाई केतात कलाँ में जन्म लिए श्याम किशोर जी जीवन के जद्दोजहद जूझने के बाद वर्तमान में झारखंड की राजधानी रांची में रहते हैं। जीवन की शुरुआत रांची एक्सप्रेस अख़बार के पहले अंशकालीन पत्रकार के रूप में शुरू किये। लेकिन लिखना आता था और बेहतरीन लिखने के लिए खूब पढ़ते भी थे, स्वाभाविक है ‘अंशकालीन’ से ‘पुर्णकालिन’ होना, वही भी रांची एक्सप्रेस में ही।

लेकिन कहते हैं ‘गुड़ का मार धोकड़ा (बोरी) जनता है”, इसलिए उन दिनों के पत्रकारों को, खासकर जो मुफस्सिल और जिला में कार्य करते थे, वही जानते थे कि 30 दिन सड़क पर चप्पल और दफ्तर में कलम रगड़ने के बाद कितने पैसे मिलते हैं और उस पैसे का क्या मोल होता है। तनखाह घर लेकर पहुँचते नहीं थे कि घर पर कागज पर फरिस्त बन जाता था – क्या लेना है और क्या इस माह नहीं लेकर अगले माह के बजट पर भार डालना है। आम तौर पर छोटे-छोटे शहरों में पत्रकारों की यही हाल है। उन दिनों मैं ही इसी का शिकार था।

इसी जद्दोजहद में बोकारो स्थित फुसरो बाजार के पास डीएवी विद्यालय में वे पढ़ाने लगे। लेकिन एक पत्रकार ‘शिक्षक’ कब बना है। आज ही नहीं, कल भी, ऐसे बहुत दृष्टान्त हैं जब एक शिक्षक, खासकर महाविद्यालय में पढ़ाने वाला, पढ़ने-पढ़ाने के साथ पत्रकारिता भी करते थे, लेकिन एक पत्रकार कभी शिक्षक बनकर जीवन यापन नहीं करते मैंने तो नहीं देखा बिहार में। श्याम किशोर जी बोकारो से धनबाद आ गए। साल 1991 था। धनबाद में ‘आवाज’ अखबार के ब्रह्मदेव शर्मा उनकी काबिलियत को समझे, परखे और आवाज अखबार का कलम हाथ में दे दिए। कुछ वर्ष बाद ये जमशेषपुर में अख़बार का स्थानीय संपादक भी बने और फिर आगे ‘जागरण’ झारखण्ड का कार्यकारी संपादक भी।

जिन दिनों श्याम किशोर जी धनबाद के आवाज अखबार में कार्यरत थे, मैं धनबाद में ही था। कुछ माह ‘आवाज’ अखबार के अंग्रेजी संस्करण ‘दी न्यू रिपब्लिक’ अख़बार में मैं भी एक संवाददाता था। परन्तु समय कुछ और चाहता था और मैं समय का सम्मान स्वयं से अधिक करता था। मैं अस्सी के दशक के उत्तरार्थ कलकत्ता से प्रकाशित ‘दी टेलीग्राफ’ अखबार का हो गया। बाद में उसी संस्थान के ‘संडे’ पत्रिका से जुड़ा फिर दक्षिण बिहार से राष्ट्र की राजधानी दिल्ली की ओर उन्मुख हो गया।

श्याम किशोर चौबे जी झारखंड राज्य के निर्माण की बातों को जब वह छोटानागपुर-संथाल परगना की मिट्टी के साथ-साथ तत्कालीन बिहार के नेताओं के मस्तिष्क में, खासकर जो इस क्षेत्र में रहते थे, यहाँ राजनीति दुकानदारी करते थे, आया था तब से लेकर उनसके निर्माण तक, जब सभी लोग मुख्यमंत्री के साथ-साथ मंत्रिमंडल में कुर्सी पर बैठने को लड़ना-मरना-मारना शुरू किया, बहुत ही विलक्षण शब्दों में वर्णां किया है।

आम तौर पर क़स्बा, जिला के पत्रकारों को दिल्ली के कर्तव्य पथ या विजय चौक पर वह ख्याति नहीं मिल पाती है, जिसके वे हकदार होते हैं, वसर्ते उनका कोई ‘राजनीतिक बाबूजी, दादा-परदादा’ नहीं हों। जिनके हैं उनकी तो बात निराली है। यहाँ तो चार बार बैंक मोड़ जाने के क्रम में, या फिर झरिया-कतरास सड़क पर दो बार ढिंसूम-ढिशुम देखने के बाद आज के लोग फिल्म बनाने लगते हैं। काश वे राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ के दफ्तर में या फिर बीपी सिन्हा के घर पर कैसे गोलियों की बारिश हुयी थी तो शायद वहीँ बेहोश हो जायेंगे। खैर।

दक्षिण बिहार के आज अनेकानेक पत्रकार बंधू बांधव हैं जो अपनी कलम से उस क्षेत्र के बारे में, वहां के लोगों के बारे में, खनिज सम्पदा के बारे में, माफिया के बारे में, उत्पीड़न के बारे में लिखे तो, लेकिन उनका अंतिम उद्देश्य अपने-अपने राजनितिक आकाओं की नजर में अव्वल बने रहना था, जिससे विधान सभा, लोक सभा, राज्य सभा की कुर्सी तक पहुँच सकें। यानी पत्र-पत्रिका और पत्रकारिता का स्वहित में उपयोग कर खुद तो आगे निकल गए, वहां की जनता और मतदाता वहीँ का वहीँ रह गया। विश्व नहीं हो तो पुरे क्षेत्र में भ्रमण-सम्मलेन करके देख लीजिये। खैर।

श्याम किशोर जी कहते हैं उन दिनों ज्ञानरंजन ने टी. मुचिराय मुंडा को साथ लिया और बिहार कांग्रेस की मान्यताओं से उलट झारखंड राज्य गठन के समर्थन में दनादन बैठकें, रैलियाँ शुरू कर दीं। राँची में भी कांग्रेस दो फाड़ हो चुकी थी, इसी कारण साल भर पहले राजीव गांधी द्वारा गठित क्षेत्रीय कांग्रेस कमिटी का नाम बदलकर झारखंड कांग्रेस करने के प्रस्ताव पर खूब झिकझिक हुई, लेकिन अंततः प्रस्ताव पारित हो गया। वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर कैबिनेट में शामिल रहे सुबोध कांत सहाय को जून 1992 में झामुमो में शामिल कर राज्यसभा चुनाव का प्रत्याशी बना दिया गया। इस मुद्दे पर झामुमो में खूब तनातनी हुई, जिसको लालू प्रसाद ने भी हवा दी। अंततः 5 अगस्त को शिबू गुट ने लालू सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जबकि जमशेदपुर के सांसद कृष्णा मार्डी ने अपना समर्थन जारी रखा।

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उसी दिन औपचारिक रूप से झामुमो दो फाड़ हो गया। शिबू गुट में चार सांसद और नौ विधायक रहे, जबकि मार्डी गुट में दो सांसद और नौ विधायक रहे। मार्डी ने अपने गुट का अध्यक्ष टेकलाल महतो को बना दिया। इस समय तक झारखंड के पक्ष में राजनीतिक स्थिति बन चुकी थी, जबकि लालू प्रसाद इसके विरोध में थे। इससे झारखंड क्षेत्र के जनता दल के नेताओं में बेचैनी थी। अक्तूबर में इस बेचैनी का विस्फोट लालू कैबिनेट के तीन मंत्रियों करमचंद भगत, मंगल सिंह लमाय और लक्ष्मण राम सहित बिहार प्रदेश जनता दल के उपाध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी, बिहार खनिज विकास निगम के अध्यक्ष लालचंद महतो और पार्टी महासचिव गौतम सागर राणा के सामूहिक इस्तीफे के रूप में हुआ। चतुर लालू ने इनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया।

मार्च 1995 में बिहार विधानसभा का चौंकाने वाला चुनाव परिणाम आया। जनता दल ने तो स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया, लेकिन झारखंड क्षेत्र की 81 सीटों में से भाजपा को सर्वाधिक 22 सीटें मिल गईं। झामुमो को 16 और जनता दल को 15 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस 13 पर अटक गई। चुनाव से पहले केंद्र और बिहार सरकार की सहमति से झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् विधेयक पारित हो चुका था, लेकिन भाजपा इसे झुनझुना करार देकर पूर्ण राज्य की माँग पर अड़ी हुई थी। वह इसके लिए आंदोलन भी चला रही थी। चुनाव में कांग्रेस झारखंड के संदर्भ में कोई स्पष्ट दृष्टिकोण लेकर नहीं उतरी थी। झामुमो का मानना था कि स्वशासी परिषद् लेकर आधी लड़ाई जीत ली गई है, पूर्ण राज्य असल उद्देश्य है। 9 अगस्त को फीके माहौल में इस परिषद् को अस्तित्व में लाते हुए शपथ ग्रहण करा दिया गया।

शिबू सोरेन इसके अध्यक्ष सह मुख्य कार्यकारी पार्षद, उनके हनुमान कहे जाने वाले सूरज मंडल उपाध्यक्ष सह उपमुख्य कार्यकारी पार्षद और 88 सदस्य बनाए गए। इसमें अकेले झामुमो के 41 सदस्य थे। जनता दल के 31 और बाकी दलों के 18 सदस्य थे। इसमें कांग्रेस के तीन ही सदस्य थे। अगले दिन राँची के आड्रे हाउस में शिबू सोरेन ने इसके कार्यालय का उद्घाटन किया। इसके बाद हुई पहली बैठक में 2 फरवरी, 1972 से 5 जुलाई, 1995 तक जिन आंदोलनकारियों के विरुद्ध मुकदमे हुए थे, उनकी सूची मँगाकर मुकदमों की वापसी की अनुशंसा बिहार सरकार को भेजने का निर्णय लिया गया। झारखंडी राजनेताओं की नीयत समझिए, यह मुद्दा अभी तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है।

इस परिषद् का अगले छह महीने में विधिवत् चुनाव का प्रावधान था, जो राजनीतिक तिकड़मबाजियों की बदौलत कभी अमल में नहीं लाया गया। अलबत्ता, प्रावधानों के तहत 14 पार्षदों के बीच विभिन्न विभागों का बँटवारा कर दिया गया। बाद में वे लोग मंत्रीवत् सुख भोगने लगे। शिबू सोरेन सभापति और सूरज मंडल उपसभापति बन गए। कोई विपक्षी दल नहीं था। सभी सदस्य मनोनीत थे। कुछ तो बिहार विधानसभा का सदस्य रहते हुए यहाँ मनोनीत किए जाने के कारण दोहरा लाभ ले रहे थे।

परिषद् के गठन के साथ झारखंड नामधारी दलों में विवाद शुरू हो गया। और तो और, झामुमो के महासचिव शैलेंद्र महतो ने परिषद् से खुद को अलग ही रखा। उन्होंने व्यंग्य में इसे ‘शिबू सोरेन, सूरज मंडल प्राइवेट लिमिटेड’ का नाम दिया। उनको शो कॉज किया गया और अंततः दिसंबर में हुई पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में निर्णय लेकर उनको महासचिव पद से हटा दिया गया। अगले ही महीने 7 जनवरी, 1996 को उन्होंने तथा झामुमो महिला मंच की संयोजक मंजु राय सहित अन्य ने अटल बिहारी वाजपेयी की सभा में भाजपा जॉइन कर ली, लेकिन ज्यादा दिनों तक वहाँ टिक न सके। 18 मार्च को भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देते हुए उन्होंने कहा कि वे पार्टी के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के एक कथन से मर्माहत हुए हैं।

वाजपेयी ने कहा था कि यदि उनको मालूम होता कि जुलाई 1993 में नरसिंह राव सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान के लिए झामुमो सांसदों, जिनमें शैलेंद्र महतो भी शामिल थे, ने 40-40 लाख रुपए लिये थे, तो वे इनको अपने दल में शामिल ही न कराते। इस मामले का भांडा फोड़ा था, ‘राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा’ नामक संस्था के अध्यक्ष रवींद्र कुमार ने। उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में फरवरी 1996 में दायर पीआईएल में सांसद रिश्वत कांड में साढ़े तीन करोड़ के लेन-देन का आरोप लगाते हुए जाँच की माँग की थी। अदालती आदेश पर सी.बी.आई. ने जून में पूर्व पीएम नरसिंह राव, उनके कैबिनेट सहयोगी कैप्टन सतीश शर्मा और बूटा सिंह सहित तत्कालीन झामुमो सांसदों पर एफ.आई.आर. दर्ज की थी।

नवंबर 1995 में राँची में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अश्विनी कुमार ने घोषणा की, आगामी लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा की सरकार बनी तो वनांचल राज्य बना दिया जाएगा। अगले साल 1996 में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अलग राज्य के मसले पर झारखंड नामधारी दलों, कांग्रेस और जनता दल के प्रति आक्रामक तेवर अपनाते हुए, उनकी निष्ठा पर सवाल उठाया और उन्हें अलग राज्य विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया। इस संबंध में उसने स्थानीय अखबारों में बड़े- बड़े विज्ञापन छपवाए। झामुमो ने भी अलग राज्य का राग अलापा, लेकिन कांग्रेस असमंजस में दिखी।

चौबे जी कहते हैं: कमाल देखिए, भाजपा को इस क्षेत्र की 14 सीटों में से 12 हासिल हो गईं। झामुमो और कांग्रेस को एक-एक सीट मिल सकी। इस चुनाव से पहले 1993 का जो झामुमो सांसद रिश्वत प्रकरण उभरा था, उसका परिणाम चुनाव में तो देखने को मिला ही, 5 सितंबर को दिल्ली में सांसद शिबू सोरेन, पूर्व सांसद सूरज मंडल और साइमन मरांडी तथा जमशेदपुर में पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो को सी.बी.आई. ने गिरफ्तार कर लिया। उसने दिल्ली, राँची, पटना, संथाल परगना और जमशेदपुर में छापामारी कर कई बैंक खातों और अन्य दस्तावेजों का पता लगाया। करीब चार महीने बाद 3 जनवरी, 1997 को हाईकोर्ट ने इन लोगों को जमानत दे दी।

15 अगस्त, 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने उद्बोधन में हालाँकि उत्तराखंड के गठन के लिए विधेयक लाने की घोषणा तो की, लेकिन झारखंड या वनांचल का नाम तक नहीं लिया। इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई और भाजपा ने 10 और 11 सितंबर, 1996 को झामुमो की तर्ज पर झारखंड में आर्थिक नाकेबंदी कर सबका ध्यान खींचा।

झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् बिना मतलब का साबित हो रहा था और पटना-दिल्ली से अलग राज्य विषयक कोई ठोस संकेत न मिलने से बेचैनी चारों ओर थी। इसी बीच चारा घोटाले में लालू प्रसाद का नाम आ जाने से पटना की सरकार संकट में फँस गई थी। लालू जनता दल के अध्यक्ष न बन सके, तो उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल नामक अलग दल बना लिया। सवाल सदन में उनके दल के समर्थन का उठा तो झारखंड पर उनका ध्यान गया। यही वह अवसर था, जिसको झामुमो भुना सकता था और उसने भुनाया भी। इसके 16 विधायकों को अपने पक्ष में करने की गरज से लालू ने एक तो 9 जुलाई, 1997 को झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् को व्यापक अधिकार देने की घोषणा की, दूसरे 22 जुलाई को विधानसभा में अलग झारखंड राज्य के गठन का प्रस्ताव भी पारित करा दिया।

पहली घोषणा के तहत स्वशासी परिषद् के अध्यक्ष को राज्य योजना बोर्ड का उपाध्यक्ष तथा उपमुख्यमंत्री और उपाध्यक्ष को कैबिनेट मंत्री तथा कार्यकारिणी सदस्यों को उपमंत्री का दर्जा दे दिया गया। परिषद् को बीडीओ, सीओ, इंजीनियरों, डॉक्टरों आदि के तबादले का अधिकार भी दे दिया गया। 14 जुलाई को विधानसभा का मानसून सत्र शुरू होते ही लालू को विश्वास मत अर्जित करना था, जो उन्होंने कांग्रेस के बायकाट और झामुमो के समर्थन के साथ अर्जित कर लिया। 22 जुलाई को छोटानागपुर और संथाल परगना के जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य के गठन का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पारित करवाकर केंद्र से एतद्‍‍ विषयक सिफारिश उन्होंने कर दी।

इस अवसर पर उन्होंने अपनी कहीं गई बात ‘झारखंड मेरी लाश पर बनेगा’ वापस लेते हुए कहा, ‘अब वे अलग राज्य के लिए झारखंडी भाइयों संग मिलकर लड़ेंगे।’ 28 नवंबर, 1997 को कांग्रेस ने केंद्र की संयुक्त मोर्चे की इंद्र कुमार गुजराल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। गुजराल सरकार गिर गई। राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने लोकसभा भंग करते हुए, 15 मार्च, 1998 तक चुनाव करा लेने का आदेश जारी किया। इस चुनाव में भाजपा ने वनांचल और झामुमो ने झारखंड का राग जोर-शोर से अलापा। भाजपा तो 12 सीटें पा गई, लेकिन झामुमो साफ हो गया। शेष दो सीटें कांग्रेस के हाथ लगीं।

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चुनाव बाद केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई, लेकिन उम्मीद के विपरीत अलग राज्य विषय पर कुछ हो नहीं पा रहा था। पूर्ण बहुमत नहीं होने के कारण भाजपा को सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी, शिव सेना और समता को लेकर आशंका थी। इधर झारखंड से जुड़े भाजपा के सभी 12 सांसदों और विधायकों में रोष फैल रहा था। उनको भय सताने लगा था कि यदि चुनावी वादे के मुताबिक संसद् के पहले ही सत्र में अलग राज्य का विधेयक न लाया गया, तो बड़ी थूकमफजीहत होगी, क्षेत्र में घुसना मुश्किल हो जाएगा। इन लोगों ने बैठक कर घोषणा की कि संसद् के चालू सत्र में अलग वनांचल राज्य का विधेयक न लाया गया तो वे इस्तीफा दे देंगे। संबंधित पत्र प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भेज दिया गया।

इन्हीं परिस्थितियों में 29 जून को केंद्रीय कैबिनेट ने वनांचल, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ राज्य के गठन और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित कर दिया। साथ ही इन तीनों प्रस्तावित राज्यों की भौगोलिक सीमाओं और वित्तीय पहलुओं के अध्ययन के लिए मंत्री स्तरीय समिति के गठन का भी प्रस्ताव पारित किया। 20 अगस्त, 1998 को राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने अलग राज्य विधेयक संसद् में पेश करने की अपनी मंजूरी दे दी।

तत्पश्चात् केंद्रीय कैबिनेट ने वनांचल, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड विधेयक मंजूर कर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया। इसके बाद आवश्यक प्रक्रियाएँ पूरी करने के निमित्त ये विधेयक गृह मंत्रालय को समर्पित कर दिए गए। वनांचल विधेयक संबंधी प्रस्ताव बिहार सरकार को प्रेषित कर 22 सितंबर तक राय देने को कहा गया। लालू की उलझन बढ़ गई। उन्होंने तो चारा घोटाला मामले में जेल जाने से ठीक पहले अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर और उनकी सरकार को टिकाऊ बनाने के इरादे से झारखंड का प्रस्ताव पारित कराया था, अन्यथा वे इसके पक्ष में तो थे नहीं।

जो भी हो, इस विषय पर बेमन से ही सही, 18 सितंबर को बिहार विधानमंडल का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। लालू पलटी मारते हुए 22 जुलाई, 1997 के उस प्रस्ताव की वापसी का मसौदा लाने पर आमादा हो गए, जिसमें केंद्र को अलग झारखंड राज्य के गठन की अनुशंसा की गई थी। वे अपना पुराना स्टैंड दोहराने लगे, ‘झारखंड मेरी लाश पर बनेगा।’ टालने के अंदाज में वे चार राज्यों के हिस्सों को मिलाकर वृहद झारखंड की बात करने लगे। इस पर दिल्ली में बैठे शिबू सोरेन ने गहरी नाराजगी जताई और उन्होंने राबड़ी सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

प्रतिक्रिया में राबड़ी सरकार ने झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् के अध्यक्ष पद से शिबू को और उपाध्यक्ष पद से सूरज मंडल को बरखास्त कर दिया। इस प्रकार झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् को भंग किए जाने पर राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने नाराजगी जताई और राबड़ी सरकार से कारण पृच्छा की। झामुमो के समर्थन वापस लेने से चिंतित लालू मंडली ने कांग्रेस को पटाने की कोशिश की। कांग्रेस विधायक दल की बैठक में यह बात साफ हो गई कि बिहार के रहने वाले कांग्रेसी नेता भी नहीं चाहते थे कि झारखंड बने।

इस संबंध में उन्होंने हाईकमान को दिग्भ्रमित करते हुए सूचित किया कि झारखंड के विधायक अनुशासनहीनता बरत रहे हैं। खैर, कांग्रेस के बिहार प्रभारी माधव राव सिंधिया के हस्तक्षेप से स्पष्ट हुआ कि संसद् में अलग राज्य विधेयक आने पर उसका समर्थन किया जाएगा। इसके कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस कार्यसमिति ने एतद्विषयक फैसला लिया था। इससे बिहार में कांग्रेस के विधायकों का रुख नरम पड़ा।

उधर बिहार विधानसभा में कुछ और ही गुल खिल रहा था। वनांचल विधेयक विषय पर बुलाए गए विशेष सत्र के पहले दिन श्रद्धांजलि सभा ही हुई। दूसरे दिन 19 सितंबर को बिना कार्यमंत्रणा समिति के निर्णय के बेमतलब का विश्वास मत प्रस्ताव ले आया गया, जिस पर काफी हंगामा हुआ। अंततः वनांचल विधेयक चर्चा के लिए पेश किया गया, जिस पर दोनों पक्षों की ओर से गरमागरम बहस हुई।

22 जुलाई, 1997 को झारखंड राज्य के गठन का जो प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया था, उसमें बड़ी चालाकी से इस राज्य की सीमा का उल्लेख नहीं किया गया था। लालू मंडली अब उसी को हथियार बनाकर छोटानागपुर-संथाल परगना के 18 जिलों के बजाय चार राज्यों के 26 जिलों के वृहद झारखंड की पैरोकारी पर आमादा हो गई। बहुत संभव है कि झारखंड विरोध के नाम पर लालू बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन और पुख्ता करने की चाल भी चल रहे हों, लेकिन झारखंड के लिए तो वे विलेन ही साबित हो रहे थे। इन्हीं राजनीतिक तिकड़मबाजियों के बीच बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक विधानसभा में पेश किया गया, जो 107 के मुकाबले 181 मतों से गिर गया।

हालाँकि, इसका कोई विशेष संवैधानिक महत्त्व नहीं था, क्योंकि बिहार विधानमंडल को केवल अपनी राय देनी थी, जिसको मानने के लिए केंद्र बाध्य नहीं था। जो भी हो, बिहार विधानसभा के फैसले के विरुद्ध 16 राजनीतिक दलों ने 21 सितंबर, 1998 को झारखंड बंद का आह्व‍ान किया, जो ऐतिहासिक रूप से सफल रहा।

उस समय भी पटना में लालू प्रसाद ने एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया, जो बहुत चर्चित रहा। उन्होंने कहा था, ‘बिहार का बँटवारा कर देने से सारा ‘सोना’ झारखंड में चला जाएगा। यहाँ केवल बालू बचेगा, तो क्या बिहार बालू फाँककर रहेगा?’ उधर बिहार में कानून-व्यवस्था की दिनोदिन बिगड़ती स्थिति को आधार बनाते हुए राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने अपनी रिपोर्ट में बिहार विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा कर दी। केंद्र ने यह प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजा, लेकिन उन्होंने उसे लौटा दिया।

संयोग देखिए, करीब चार महीने बाद बिहार के नारायणपुर में 11 दलितों की हत्या कर दी गई। इससे क्षुब्ध केंद्र सरकार ने 12 फरवरी, 1999 को राबड़ी सरकार को बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करने का प्रस्ताव भेजा, जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई। हालाँकि, इसे लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि राज्यसभा में इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं मिल सकी।

16 दिसंबर, 1998 को केंद्रीय कैबिनेट के निर्णय के अनुसार संसद् के शीत सत्र में 22 दिसंबर को उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों से संबंधित विधेयक लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन वनांचल का मामला राजद और सपा के विरोध के कारण अटका ही रहा। जैसे-तैसे दूसरे दिन वनांचल विधेयक पेश किया भी गया, तो भारी शोरगुल से परेशान लोकसभा अध्यक्ष जी.एम.सी. बालयोगी ने सत्र दो दिन पहले ही स्थगित कर दिया।

चार महीने बाद 17 अप्रैल, 1999 को लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विश्वास मत पेश किया, तो सरकार एक वोट से गिर गई। राष्ट्रपति ने कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, तो सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने अंतिम समय में डिच कर दिया। मामला बन न सका। इस प्रकार लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई। मध्यावधि चुनाव के सिलसिले में 11 सितंबर, 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी और 13 सितंबर को राँची में सोनिया गांधी ने राँची में अलग राज्य बनाने का वादा किया। 6 अक्तूबर को आए चुनाव परिणाम में भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। झारखंड की 14 सीटों में से उसे 12 मिल गईं। कांग्रेस को दो सीटें हासिल हुईं।

13वीं लोकसभा के चुनाव के बाद अक्तूबर 1999 में सत्ता में आई भाजपा ने वनांचल सहित उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ राज्य के गठन की बात दोहराई। 25 अक्तूबर को संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने भी तीन नए राज्यों के गठन की बात कही। उधर लालू प्रसाद ने ऐलानिया तौर पर कहा कि वे बिहार का बँटवारा किसी कीमत पर नहीं होने देंगे। उन्होंने इस मसले पर बिहार बंद, संसद् का घेराव और दिल्ली मार्च तक की बात कही। 8 जनवरी, 2000 को चुनाव आयोग ने बिहार सहित चार राज्यों में चुनाव की घोषणा कर दी।

इसी चुनाव अभियान में हजारीबाग आईं सोनिया गांधी ने 4 फरवरी को कहा कि यदि केंद्र और बिहार में कांग्रेस की सरकार होती तो झारखंड राज्य बहुत पहले बन जाता। इस चुनाव में कांग्रेस खुलकर अलग राज्य के समर्थन में आई थी। हफ्ते भर के अंदर 10 फरवरी को बोकारो में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा, ‘वनांचल राज्य बनेगा और जरूर बनेगा।’ बिहार विधानसभा के चुनाव में खंडित जनादेश मिला। 324 सीटों में से राजद को बिहार बँटवारे के जबरदस्त विरोध के नाम 123 सीटें हासिल हो गईं। एनडीए को 124 सीटें मिलीं। दोनों दलों में से कोई भी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था, फिर भी सरकार तो बननी ही थी।

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राज्यपाल ने एनडीए विधायक दल के नेता नीतीश कुमार को आमंत्रित कर बहुमत साबित करने के लिए दस दिनों का समय दिया। विरोध में राजद ने बिहार बंद बुलाया, जिसका दक्षिण बिहार यानी झारखंड में असर नहीं पड़ा। नीतीश कुमार ने दस मार्च को विश्वास मत पर बहस के बाद बिना मतविभाजन कराए इस्तीफा दे दिया। राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय ने अगले दिन राजद की राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई।

उन्होंने 16 मार्च को एनडीए, झामुमो आदि के बहिष्कार के बीच विश्वास मत प्राप्त कर लिया। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर और अलग राज्य के गठन की शर्त पर राजद को समर्थन दिया। उनके पक्ष में 166 मत पड़े। 29 मार्च को राष्ट्रपति ने तीनों राज्यों के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इसके तत्काल बाद वनांचल विधेयक केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को भेजते हुए 12 मई तक मंतव्य माँगा। बिहार सरकार ने विधानमंडल का विशेष सत्र 24 अप्रैल से बुलाया। छोटानागपुर और संथाल परगना के 18 जिलों को मिलाकर अलग राज्य के गठन का केंद्रीय विधेयक दोनों सदनों में चर्चा के बाद स्वीकृत कर लिया गया। संशोधन स्वरूप वनांचल की जगह झारखंड नाम प्रस्तावित किया गया, जिसे भाजपा ने भी मान लिया।

उधर दिल्ली में मामूली पेच फँसा हुआ था। केंद्र सरकार का कहना था कि अलग राज्य विधेयक को मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने कतिपय संशोधनों के साथ समय रहते स्वीकृत कर वापस कर दिया था, लेकिन बिहार ने इसमें विलंब किया। ऐसे में संशोधनों के अध्ययन में देर हो रही है। विधेयक लाने में कुछ समय लग सकता है। झारखंडी सांसदों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से भेंट कर झारखंड विधेयक उसी सत्र में पेश करने का दबाव बनाया। लेकिन ऐसा न हो सका। केवल आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा।

महीने भर बाद 2 अगस्त को बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक लोकसभा में पेश किया गया और उसी दिन थोड़ी खिच-पिच के बाद इसे पारित कर दिया गया। यह प्रक्रिया पूरी होते-होते रात के लगभग 11 बज गए। रेडियो और टी.वी. से जैसे ही यह जानकारी मिली, राँची में ऐतिहासिक उत्सव मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत हुआ मानो होली, दीवाली, सरहुल, ईद, क्रिसमस सब एकसाथ मनाए जा रहे हैं! खूब आतिशबाजी हुई और पटाखे भी फोड़े गए। अबीर-गुलाल उड़े और मिठाइयाँ भी बँटीं।

श्रेय लेने की होड़-सी मच गई। 11 अगस्त को राज्यसभा में भी यह विधेयक ध्वनिमत से पारित हो गया। लगभग 62 वर्षों के संघर्ष के बाद संवैधानिक तौर पर अलग राज्य बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाने पर सच कहिए तो झारखंड की असल बात यहीं से शुरू होती है। किसकी बनेगी सरकार? कौन होगा मुख्यमंत्री? कैसा होगा अपना यह सपनों का राज्य?

‘प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः’ की तरह पहली ही सरकार के गठन में जोड़-तोड़ की राजनीति की नींव पड़ गई। भाजपा चाहती थी कि पहली सरकार उसकी बने, तो झामुमो अपनी सरकार बनाना चाहता था। 81 विधानसभा क्षेत्र वाले झारखंड में भाजपा के 32 विधायक थे, तो झामुमो के महज 12। इसके बावजूद झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बनने का हौसला पाले हुए थे। वे कभी इस द्वारे तो कभी उस द्वारे डोल रहे थे। वे झारखंड को अपने संघर्ष की देन मान रहे थे, तो भाजपा अपने राजनीतिक कौशल का परिणाम मान रही थी। कांग्रेस भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी। उन दिनों जो गतिविधियाँ थीं, उनसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शिबू सोच रहे थे कि उनके संघर्ष को मान्यता देते हुए भाजपा उनकी झोली में झारखंड डाल देगी। वे आधे-आधे समय तक राज चलाने की भी बात कर रहे थे। वे खुद को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने में चूक नहीं रहे थे।

भाजपा को इस बात का गुमान था कि एक तो केंद्र में उसकी सरकार है, दूसरे झारखंड में उसके मित्र दल समता के पाँच और जदयू के तीन विधायकों की बदौलत उसकी संख्या 40 तो ऐसे ही है, एक, दो, तीन विधायकों का जुगाड़ होना मुश्किल नहीं हैं, क्योंकि निर्दलीय या एक-दो विधायकों वाले दल पलड़े का वजन देखकर अपने बाट-बटखरे रखते हैं। वनांचल कांग्रेस के समरेश सिंह, निर्दलीय माधव लाल सिंह तथा यूजीडीपी के सुदेश महतो और जोबा माँझी इसी बात को जाँच-परख रहे थे।

भाजपा की ओर से भाव न पाकर शिबू अंततः राजद, कांग्रेस की ओर मुड़े। सवाल तो खुद भाजपा के अंदर भी था। कौन बनेगा मुख्यमंत्री? शालीन और पुराने भाजपाई तथा केंद्र में कैबिनेट मंत्री रह चुके सांसद कड़िया मुंडा का भी नाम उभरा। वे प्रधानमंत्री वाजपेयी की पसंद बताए जा रहे थे, लेकिन गृहमंत्री आडवाणी का दिमाग कुछ और ही सोच रहा था। सीएम का नाम तय करने के लिए दिल्ली में 23 अक्तूबर को भाजपा मुख्यालय के एक बंद कमरे में झारखंडी सांसदों, विधायकों से अलग-अलग रायशुमारी की गई।

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का नाम रायशुमारी में आगे रहा। पखवाड़े भर के अंदर 6 नवंबर को जब उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया तो कुछ भी ढका-छिपा न रहा। कड़िया मुंडा का मन बहलाने के लिए बाबूलाल द्वारा छोड़ा गया पद देने की पेशकश हुई, तो उन्होंने झटके से मना कर दिया। इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री के अंदाज में बाबूलाल पटना, गिरिडीह होते हुए 12 नवंबर की रात राँची पधारे। 14 नवंबर को दिगंबर जैन भवन में एनडीए विधायक दल की बैठक बुलाई गई।

केंद्रीय पर्यवेक्षक मदन लाल खुराना के आग्रह पर जदयू के इंदर सिंह नामधारी ने एनडीए विधायक दल के नेता के तौर पर बाबूलाल का नाम प्रस्तावित किया, जबकि समता पार्टी के रमेश सिंह मुंडा ने समर्थन किया। इससे पहले ही भाजपा ने बाबूलाल को पार्टी विधायक दल का नेता चुन लिया था। छनकर यह बात भी सामने आई थी कि इंदर सिंह नामधारी को मंत्री पद का ऑफर दिया गया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया तो उनको स्पीकर पद दिया गया। एकीकृत बिहार में चारा घोटाले को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले और बिहार विधान परिषद् के सदस्य सरयू राय ने भी मंत्री पद की पेशकश को ना कह दिया।

वनांचल भाजपा के सह प्रभारी सरयू राय और अवधेश नारायण सिंह दक्षिण बिहार (अब झारखंड) से चुनकर विधान परिषद् में आए थे। झारखंड गठन के समय उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से आग्रह किया कि विधानसभा के 81 विधायक तो झारखंड विधानसभा के सदस्य बन जाएँगे, लेकिन वहाँ विधान परिषद् नहीं रहने के कारण उन लोगों की सदस्यता वहाँ नहीं जा सकती। ऐसे में टर्म पूरा होने तक उन लोगों को परिषद् का सदस्य रहने दिया जाए। आडवाणी ने इस बात पर हामी भरी और कहा कि यूपी के बँटवारे के समय यूपी विधान परिषद् के जो सदस्य उत्तराखंड से चुनकर आए थे, वे उत्तराखंड के एसोसिएट सदस्य हो गए थे। इसी तरह झारखंड से चुनकर आए परिषद् के सदस्यों को टर्म पूरा होने तक झारखंड विधानसभा का एसोसिएट सदस्य बनाया जा सकता है। आडवाणी ने तत्कालीन गृह सचिव कमल पांडे से पुनर्गठन बिल में संशोधन करवाया और जो बिल पास हुआ, उसमें विधान परिषद् के सदस्यों को एसोसिएट सदस्य माना गया।

बाद में परिषद् के सदस्यों से ऑप्शन माँगा गया, तो अवधेश नारायण सिंह ने बिहार चुना और सरयू राय ने झारखंड को अपना राजनीतिक ठिकाना बनाया। यह बात अवधेश नारायण सिंह ने 16 अप्रैल, 2015 को पटना में बिहार विधान परिषद् के सभागार में सरयू राय के अभिनंदन समारोह में कही थी। यह अभिनंदन समारोह झारखंड में रघुवर दास के मुख्यमंत्रित्व वाली एनडीए सरकार में सरयू राय को मंत्री बनाए जाने पर आयोजित किया गया था। उसी समारोह में सरयू राय ने कहा था, ‘साल 2000 में जब झारखंड और बिहार अलग हो रहे थे, नीतीश कुमार ने मुझे मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया था।

कैलाशपति मिश्र और लालकृष्ण आडवाणी ने इस पर हामी भरते हुए कहा था कि नई सरकार बन रही है। बाबूलाल मरांडी उसके मुख्यमंत्री बन रहे हैं। आप उनकी सरकार में वित्तमंत्री हो जाइए और सरकार आप लोग मिलकर चलाइए। बहरहाल, अपने ज्ञान, विद्वत्ता, शुचिता और स्वच्छ छवि के लिए चर्चित इंदर सिंह नामधारी और सरयू राय जैसे नेताओं ने मंत्री पद ठुकराकर जो मिसाल कायम की थी, उसका रंचमात्र भी परवर्ती काल के झारखंड में नहीं दिख रहा।

बहरहाल, सरायकेला के विधायक दसवीं पास चंपई सोरेन झारखंड के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में कल शपथ लिए। इसे कहते हैं “बिल्ली के भाग्य से छींका का टूटना।” इधर हेमंत सोरेन जेल गए, उधर शिबू सोरेन के हितैषी मुख्यमंत्री बने।

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