![मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का स्वागत करते। दोनों के चेहरे हो पढ़ें। नीतीश कुमार मन ही मन क्या कह रहे हैं, पढ़िए](http://www.aryavartaindiannation.com/wp-content/uploads/2025/01/Arif-7.jpg)
पटना / नई दिल्ली : जिस वर्ष पटना के वीणा सिनेमा गृह में मनोज कुमार द्वारा निर्देशित और निर्मित “शोर” सिनेमा का प्रदर्शन प्रारम्भ हुआ, साल 1972 था। उस वर्ष बिहार के वर्तमान लाट साहब आरिफ मोहम्मद खान की आयु 21 वर्ष रही होगी और वे भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित मतदान करने हेतु न्यूनतम आयु को प्राप्त किये होंगे। मनोज कुमार, जाया भादुड़ी, प्रेमनाथ, नंदा, कामिनी कौशल, मदनपुरी, असरानी और अन्य कलाकारों द्वारा अभिनीत कोई दो घंटा पचास मिनट के उस सिनेमा में एक गीत था:
पानी रे पानी,
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा,
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा,
जिसमें मिला दो लगे उस जैसा
इस गीत को लिखा था इंद्रजीत सिंह तुलसी और संगीत दिया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल तथा गाया था मुकेश और लता मंगेशकर। आज सुबह-सवेरे रेडियो पर इस गीत को सुनकर बिहार के लाट साहब याद आ गए। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से दिल्ली की सड़कों पर, राजनेताओं के घरों में, कार्यालयों में उनका आना-जाना याद आ गया। नब्बे के दशक में ऐतिहासिक हवाला काण्ड याद आ गया जिसे मैं इंडियन एक्सप्रेस अखबार के लिए कवर करता था।
‘शोर’ सिनेमा का वह गीत “पानी रे पानी” जैसे ही समाप्त हुआ, रेडियो पर सन 1970 में असित सेन द्वारा निर्देशित और मुशीर रियाज़ द्वारा निर्मित “सफर”, जिसमें शर्मीला टैगोर, राजेश खन्ना, अशोक कुमार, फिरोज खान जैसे कलाकार काम किये थे, का गीत जिसके गीतकार थे इंदीवर, संगीतकार कल्याण जी आनंद जी और गायक मुकेश बजने लगा। क्या इत्तिफाक था। गीत के बोल थे:
जो तुमको हो पसंद, वही बात करेंगे,
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे,
जो तुमको हो पसंद।
चाहेंगे, निभाएंगे, सराहेंगे आप ही को,
आँखों में दम है जब तक, देखेंगे आप ही को,
अपनी जुबान से आपके जज्बात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे
जो तुमको
देते न आप साथ तो मर जाते हम कभी के
पुरे हुए हैं आप से, अरमान जिंदगी के
हम जिंदगी को आपकी सौगात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे
जो तुमको हो पसंद
बहरहाल, कोई तीन दशक तक ‘बेरोजगार’ रहने के बाद 68-वर्ष की आयु में अंततः आरिफ मोहम्मद खान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह का आशीर्वाद मिल गया था। देश में 18 और अधिक वर्ष के कई करोड़ मतदाता आसमान की ओर टकटकी निगाह से आज भी देख रहे हैं कि मोदी जी की निगाह उनकी ओर भी हो। उनके शहर में, प्रदेश में कल-कारखाने खुले ताकि उन्हें भी रोजगार मिले, चाहे 58 या 60 वर्ष तक ही हो। वजह भी है जब 70 और अधिक वर्ष के लोग अंतिम साँस तक कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं तो युवकों को, युवतियों का क्या होगा? ख़ैर।
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साल था 2019 और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिल्ली सल्तनत में आए पाँच वर्ष हो गये थे। उनके इर्द गिर्द वाले रहने वाले लोग नेताओं के बारे में उनका जीवन वृत्त और राजनीतिक चरित्र का विवरण प्रधान मंत्री कार्यालय तक पहुँचा चुके थे। तहक़ीक़ात के बाद रायसीना हिल से फरमान जारी हुआ। 6 सितम्बर, 2019 को आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को वामपंथी के गढ़ केरल का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। पांच वर्ष 117 दिन राज्यपाल भवन में रहने के बाद उन्हें चाणक्य-चन्द्रगुप्त-बुद्ध की नगरी में लाटसाहब बनाकर प्रेषित कर दिया गया। 73-वर्ष की आयु में नियोजन काल में बढ़ोत्तरी हो, इससे बेहतर और क्या हो सकता है।
बुद्ध की नगरी में इस बात की चर्चाएं आम हैं कि लाटसाहब का पद उन्हें प्रधानमंत्री का प्रसाद है, अन्यथा बिहार जैसे प्रदेश में बुलंदशहर में जन्म लिए व्यक्ति का क्या काम है? लोग तो यह भी कहते हैं कि बिहार में शायद अब ऐसा कोई शिक्षित, विचारवान, विवेकशील, दक्ष, सक्षम, दूरदर्शी व्यक्ति का अभाव ही नहीं, बल्कि किल्लत भी है जो प्रधानमंत्री की बैगनी रंग वाली आँखों का तारा हो। वैसे अपवाद छोड़कर आजादी के बाद से राजनीतिक पार्टियों ने, चाहे कांग्रेस हो, जनता पार्टी हो, एनडीए हो, यूपीए हो, भाजपा हो, सबों ने अपने-अपने कालखंडों में राजनीतिक दृष्टि से बिहार को नेताओं के लिए डंपिंग ग्राउंड या आराम कक्ष बनाकर ही रखा है। लाट साहब के अलावे कई ऐसे नेता हैं जिन्हे प्रदेश के विधानसभा, विधान परिषद और राज्यसभा में कुर्सी देकर उनके राजनीतिक गुरुओं ने ऋण मुक्त होने का प्रयास किया है। चलिए, यह शोध का विषय है।
पटना के डाकबंगला चौराहे से लेकर दिल्ली के कर्तव्य पथ तक लोग इस बात पर बारंबार चर्चा करते नहीं थक रहे हैं कि खान साहब को उनकी नौकरी में विस्तार और बिहार का लाट साहब आगामी चुनाब के मद्दे नजर किया गया है। वैसे ‘आलाकमान’ शब्द कांग्रेस के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन ‘सोच बदलो-देश बदलेगा’ नारा के तहत अब भाजपा में भी इस्तेमाल होने लगा है। तदनुसार भाजपा आलाकमान का मानना है कि खान साहब आगामी विधानसभा चुनाव में ब्रह्मास्त्र हो सकते हैं। बिहार में करीब 17+ फ़ीसदी मुसलमानों को आगामी चुनाब में वर्तमान राजनीतिक पार्टियों से काटकर भारतीय जनता पार्टी अपने पक्ष में लाने के लिए भेजी है ताकि मुसलंमान मतदाताओं को यह विश्वास हो कि मोदी सरकार उनके समुदाय के लोगों को भी लाट साहब बनाती हैं।
बिहार में 2011 जनगणना के अनुसार करीब 17557809 + मुसलमानों की आवादी है । अन्य राज्यों के अलावे किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कोशी का क्षेत्र मुस्लमान बाहुल्य जिला है। सांख्यिकी के अनुसार विगत ढ़ाई दशकों में बिहार में मुसलमानों की विभिन्न जाति आवादी औसतन 35 फीसदी बढ़ी है मसलन पसमंदा, शेख, अन्सारी सुरजापुरी, धुनिया और मन्सूरी। खैर।
मैं पटना के टीके घोष विद्यालय में पढ़ता था। उस विद्यालय के पुस्तकालय के दक्षिणी दीवार पर सामने डॉ. ज़ाकिर हुसैन की तस्वीर लगी थी। डॉ. हुसैन की तस्वीर के साथ प्रदेश के उन सभी राजनेताओं की तस्वीर पंक्तिबद्ध थी जिनका न केवल देश के स्वाधीनता आंदोलन में अमूल्य योगदान रहा था, बल्कि स्वतंत्र भारत में प्रदेश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक विकास में अनवरत योगदान हो रहा था। साल था 1968 और देश को आज़ाद हुए महज 21 वर्ष हुए थे। डॉ. जाकिर हुसैन सन् 1957 से 1962 तक बिहार के लाट साहब थे। जो तस्वीर हमारे विद्यालय के दीवार पर लटकी थी, वह तस्वीर उनके लाट साहब कार्यकाल वाली ही थी। हम सभी बच्चे उनकी कर्मठता, योग्यता के कारण नित्य नमन अवश्य करते थे। राज्यपाल की अवधि पूरा करने के पाँच साल बाद डॉ. जाकिर हुसैन देश का तीसरा राष्ट्रपति बने थे । डॉ. जाकिर हुसैन एक साल 355 दिन राष्ट्रपति कार्यालय में विराजमान रहे और कार्यालय में ही अंतिम सांस लिए।
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वैसे, मैं नहीं समझता हूँ आज बिहार के किसी भी विद्यालय में (अपवाद छोड़कर) प्रदेश में राष्ट्रपति के प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यपाल की तस्वीर दीवारों पर लटकती दिखती होंगी। वजह भी है। जयरामदास दौलतराम, माधवश्रीहरी अन्ने, रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर, जाकिर हुसैन, माड़भूषि अनन्तसायनम अय्यंगार, नित्यानंद कानूनगो (1971 का कालखंड तक) के बाद ऐसे प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले कोई भी व्यक्ति राज्यपाल के कार्यालय में नहीं आये जिनका प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रदेश के विकास से कोई भावनात्मक सम्बद्ध रहा हो।
स्वाभाविक है विद्यालयों में सन 1971 के बाद अपने प्रदेश के प्रथम नागरिक की तस्वीर का नहीं लटकना। इसके अलावे सत्तर के दशक के बाद से देश ही नहीं, बिहार में भी, जिस तरह कुकुरमुत्तों की तरह घर-घर, गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले नेताओं का अभ्युदय हुआ, शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा और शिक्षण पतन हुआ, शिक्षित और विचारवान व्यक्ति उन राजनेताओं के भय के कारण या तो प्रदेश की मिट्टी से पृथक हो गए, या फिर मिट्टी पलीद होने से बचने के लिए अपने सिद्धांतों के साथ स्वयं मिट्टी में मिल गए।
देवकांत बरुआ, आरडी भंडारे, जगन्नाथ कौशल, ए आर किदवई, पी वेंकट सुब्बैया, गोविन्द नारायण सिंह, रामचंद्र दत्तारे प्रधान, जगन्नाथ पहाड़िया, मोहम्मद यूनुस सलीम, मोहम्मद सफी कुरैशी, सुन्दर सिंह भंडारे, विनोद चंद्र पांडे, न्यायमूर्ति (सेवा निवृत) मंदगड़े रामा जॉइस, वेद प्रकाश मारवाह, बूटा सिंह, आर. एस. गवई, आर. एल. भाटिया, देवानंद कुंवर, डॉ. डी वाई पाटिल, केशरी नाथ त्रिपाठी, रामनाथ कोविंद, सत्यपाल मालिक, लालजी टंडन, फागु चौहान या फिर राजेन्द्र विश्वनाथ आर्लेकर, जो बिहार के लाट साहब की कुर्सी पर बैठे, प्रदेश के विकास में उनका क्या योगदान रहा, यह बात या तो वे स्वयं जानते होंगे अथवा राजभवन की कुर्सियां। प्रदेश के मतदाताओं को कुछ लेना देना नहीं है, चाहे शिक्षित हों या अशिक्षित।
सांख्यिकी कहता है कि बिहार का शैक्षिक दर 61.80 फीसदी है जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 71.20 फीसदी और महिलाओं की 51.50 फीसदी। वैसे प्रदेश की शैक्षिक पुस्तिका इस बात का दावा करती है कि विगत 20 वर्षों में बिहार का शैक्षिक दर जो 2001 में 47.00 फीसदी था, बढ़कर 61.80 फीसदी हुआ है। लेकिन वहीँ बाबू लोग यह भी कहते हैं कि इन सांख्यिकी में वे सभी अंक भी शामिल हैं जिनके बाल-बच्चे बिहार के बाहर के शैक्ष्णिक संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, शिक्षित हुए हैं। इतना ही नहीं, प्रदेश में शहरी और ग्रामीण शिक्षा दर में जो फासला है वही प्रदेश के राजनीतिक पार्टियों के नेताओं का भविष्य निर्धारित करता है। आंकड़े के अनुसार, शहरी क्षेत्र की साक्षरता जहाँ 71.9 फीसदी हैं, वहीँ ग्रामीण इलाके का 43.9 फीसदी है। यानी दोनों के बीच 28 फीसदी का फर्क है।
विशेषज्ञों का मानना है कि 3 – 4 फीसदी मतों के इधर-उधर से सरकार का गठन और सरकार का पतन हो जाता है, यहाँ तो 28 फीसदी अशिक्षित, अनपढ़ मतदाता सभी राजनीतिक पार्टियों का केंद्र बिंदु होता है। इतना ही नहीं, शहरी क्षेत्रों में जहाँ पुरुषों की साक्षरता दर 79.9 फीसदी है, वहीँ शहरी क्षेत्र के महिलाएं 62.6 फीसदी है। जबकि, ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष 57.1 फीसदी साक्षर है और महिलाएं 29.6 फीसदी ही साक्षर है। अशिक्षा में अल्पसंख्यकों का दर सबसे अधिक है। स्वाभाविक है इन अशिक्षित मतदाताओं को लुभाने के लिए, अल्पसंख्यकों के मतों को जाति के आधार पर काटने, बांटने, छांटने के लिए आला नेता तो उपाय ढूंढेंगे ही। अब परजीवी नेताओं को देखें। आज देश की अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है, बिहार में दागी और जेल में सजा काट रहे विधायकों समेत पूर्व विधायकों की मौज चल रही है, क्योंकि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार 991 विधायकों के पेंशन पर हर महीने 4.94 करोड़ रुपये खर्च कर रही है, यह अनुत्पादक है। यह बात मैं नहीं शिव प्रकाश राय की आरटीआई के जवाब में हुआ है।
चलिए डॉ. श्रीकृष्ण सिंह पथ, टेलर रोड, राजबंशी नगर में विचरण करते हैं। कहते हैं कि बिहार के वर्तमान लाट साहब उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की पैदाइश है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण किये हैं। सं 1972-1973 के कालखंड में जब देश में राजनीतिक भूचाल लाने की व्यूह रचना बन रही थी, जय प्रकाश नारायण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चे बना रहे थे, आरिफ मोहम्मद खान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। इससे पहले वे छात्र संघ का सचिव थे। सत्तर के कालखंड में ही वे अपने गृह जिला के सियाना विधानसभा क्षेत्र से भारतीय क्रांति दल के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके।
जीत हासिल 1977 में हुई और 26 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। राजनीति में प्रवेश के लिए हरी झंडी से स्वागत हो गया। छब्बीस वर्ष की आयु में विधायक होना, वह भी उस समय जब देश में स्वतंत्र भारत के तत्कालीन राजनेताओं द्वारा सत्ता के गलियारे में अपनी पैठ ज़माने के लिए राजनीतिक आज़ादी के लिए दूसरी लड़ाई लड़े जाने के लिए बीजारोपण हो रहा था।दिल्ली पर सत्ता हासिल करने के लिए देश में उभरते नेताओं का एक विशाल समूह मन ही मन राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘सिंहासन खाली करो की जनता आ रही है’ का पाठ कर रहे थे। देश में कोहराम मच गया था। आंदोलन को नेतृत्व का अभाव था और उस अवसर पर जयप्रकाश नारायण का अभ्युदय हुआ।
जयप्रकाश नारायण भी कभी कांग्रेस में थे, लेकिन समयान्तराल कांग्रेस के विपक्षी हो गए। उसी राजनीतिक उथल-पुथल में खान साहब कांग्रेस के हो गए। वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष में भाजपा के लिए आरिफ़ मोहम्मद खान सबसे दक्ष दिखे मोदी को, खासकर जब बिहार में विधानसभा का चुनाब होने वाला है। वैसे भी आरिफ मोहम्मद खान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा द्वारा पोषित, सम्पोषित नहीं होने के बाद भी समय को ध्यान में रखकर उनकी ही बातों को देश के सामने रखते चले गए। स्वाभाविक है जब एक अल्पसंख्यक समुदाय का आदमी उनकी (भाजपा और आरएसएस) बातों को परोसेगा तो आकर्षण तो होगा ही।
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देश के जाने माने पत्रकार और जी-फाइल के संपादक अनिल त्यागी कहते हैं कि “आरिफ मोहम्मद खान अच्छा वक्ता है, अच्छा अधिवक्ता है, लेकिन जब राजनीति में जीवित रहने का प्रश्न उठता है तो उनके पास विकल्प क्या है? कोई दो दशक तक राजनीति में बेरोजगार रहने के बाद ”बुद्धम शरणम् गच्छामि” के जगह ”कमलम शरणम गच्छामि” कर आरिफ मोहम्मद खान राजनीति में जीवित हो गए। कांग्रेस में जा नहीं सकते, जनता दल या बहुजन समाज पार्टी से निकले हुए हैं, समाजवादी में देख नहीं सकते या देश के अन्य राजनीतिक पार्टियां उन्हें स्थान क्यों दे? वैसी स्थिति में भाजपा का टोपी पहन लिए। जहाँ तक बिहार का राज्यपाल होने का सवाल है, चुनाव सर पर है, आरिफ मोहम्मद खान मुसलमान हैं और बिहार में मुसलमानों की संख्या सरकार बनाने और सरकार गिराने में अपना भूमिका अदा करने की क्षमता रखता है। स्वाभाविक है कि भाजपा को लाभ होगा।”
त्यागी आगे कहते हैं कि बिहार में “नीतीश कुमार को मनोभ्रंश (डेमेन्सिया) की बीमारी हो गयी है। बिहार की राजधानी पटना की गलियों से लेकर राज्य के सबसे बाहरी जिलों के खेतों तक, लोग अपने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कथित रहस्यमयी बीमारी के बारे में बात कर रहे हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में कोई नहीं जानता, लेकिन हर कोई इसके बारे में अटकलें लगाता है। चिकित्सा विशेषज्ञ भी हैरान हैं। वे चिकित्सा की सीमाओं को पार करने और वैज्ञानिक अनिश्चितता के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन जब दबाव डाला गया और जांच की गई, तो उनमें से कुछ ने तर्क दिया कि मुख्यमंत्री संभवतः कुछ बीमारियों से पीड़ित हैं जो अंततः तंत्रिका कोशिकाओं के विनाश और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकती हैं या पहुंचा रही हैं। आम बोलचाल में इसे डिमेंशिया कहा जाता है। लेकिन स्पष्ट निष्कर्ष पर न पहुंचें।”
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“राजनीतिक पंडितों का मानना है कि बिहार पर राज्य के एक पूर्व मुख्य सचिव और बिहार कैडर के एक आईएएस अधिकारी का शासन है, जो केंद्र में प्रधानमंत्री कार्यालय के मैट्रिक्स और भूलभुलैया के भीतर तैनात हैं। बिहार पर दिल्ली का शासन है, पटना पर नई दिल्ली का। नीतीश बाबू के कथित असामान्य व्यवहार पर भी विचार करें- पटना रैली और राज्य विधानसभा के सेंट्रल हॉल में पीएम नरेंद्र मोदी के पैर छूना। उनके पार्टी के सदस्य उनके अपरंपरागत व्यवहार के बारे में बात करते हैं। चूंकि यह मुख्यमंत्री की आलोचना करने या उनके बारे में बुरा बोलने का गलत समय है, इसलिए कोई भी उंगली या हाथ नहीं उठा रहा है। जेडीयू के अलावा, यह भाजपा के लिए भी अनुकूल है, यहां तक कि तेजस्वी यादव को भी, जिनकी नजर राज्य की गद्दी पर है।” स्वाभाविक है इस मनोभ्रंश का इस्तेमाल तो कोई करेगा ही।
उधर देश के जाने माने पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक उमाकांत लखेड़ा कहते हैं कि “यह आज की बात नहीं है। आरिफ़ मोहम्मद पहले युवा कांग्रेस वाले समूह में आये। अरुण नेहरू, सत्यपाल मालिक, अरुण सिंह आदि थे। अस्सी के दशक में कांग्रेस में शामिल हुए और शामिल होते ही 1980 में कानपुर और 1984 में बहराइच से लोकसभा के लिए चुने गए। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने। अच्छे वक्ता तो शुरू से रहे, समय को परखने की कला भी जानते थे, जानते हैं। सन 1986 में, उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बिल के पारित होने पर मतभेदों के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस छोड़ दी, जिसे राजीव गांधी ने लोकसभा में पेश किया था। वह मुस्लिम पुरुषों को कुरान के अनुसार इद्दत अवधि के बाद अपनी तलाकशुदा पत्नी या पत्नियों को कोई रखरखाव देने से बचने में सक्षम बनाने वाले कानून के खिलाफ थे और इस मुद्दे पर राजीव गांधी के साथ मतभेदों के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया।”
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यह सब तब शुरू हुआ जब 62 वर्षीय मुस्लिम महिला शाह बानो ने अप्रैल 1978 में अपने तलाकशुदा पति मोहम्मद अहमद खान, जो कि मध्य प्रदेश के इंदौर में एक प्रसिद्ध वकील थे, से भरण-पोषण की मांग करते हुए अदालत में याचिका दायर की। शाह बानो के पति खान ने नवंबर में बाद में तीन तलाक बोलकर उसे तलाक दे दिया और कहा कि वह उसे कोई भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि वह इस्लामी कानून के तहत उसकी पत्नी नहीं है। दोनों की शादी 1932 में हुई थी और उनके पाँच बच्चे थे – तीन बेटे और दो बेटियाँ। शाह बानो के पति ने खान और उनकी दूसरी पत्नी के साथ रहने के बाद तीन साल पहले उसे घर से बाहर जाने के लिए मजबूर किया था। शाह बानो, जो अपने पति के खिलाफ अदालत गई थी, ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 123 के तहत अपने और अपने पांच बच्चों के लिए भरण-पोषण का दावा दायर किया। अगस्त 1979 में, शाह बानो ने स्थानीय अदालत में भरण-पोषण का मामला जीत लिया, जिसने खान को उसे भरण-पोषण प्रदान करने का आदेश दिया। हालांकि, खान ने इस आधार पर दावे का विरोध किया कि भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार पति को तलाक के बाद केवल इद्दत अवधि के लिए भरण-पोषण प्रदान करना आवश्यक है। कई साल बाद शाह बानो ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में संशोधित भरण-पोषण भत्ते की मांग करते हुए एक और याचिका दायर की। अप्रैल 1985 में, एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया और उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया कि वह अपने पति से भरण-पोषण पाने की हकदार है।
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने मामले में गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को बरकरार रखा, इस फैसले ने मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़े मामलों में न्यायिक अतिक्रमण के दावे को लेकर एक राजनीतिक विवाद को जन्म दिया। ऐतिहासिक फैसला, जिसने नियमित अदालतों में विवाह और तलाक के मामलों में समान अधिकारों के लिए मुस्लिम महिलाओं की लड़ाई की नींव रखी थी, मुस्लिम समुदाय के भीतर अच्छा नहीं रहा। 1984 में चुनी गई तत्कालीन राजीव गांधी सरकार पर मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण अधिनियम), 1986 पारित करने के लिए दबाव डाला। इस कानून ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। 1986 के मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों पर संरक्षण) अधिनियम ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को कमजोर कर दिया और तलाकशुदा महिला को केवल इद्दत की अवधि के दौरान या तलाक के 90 दिनों बाद तक भरण-पोषण देने की अनुमति दी।
राजीव गांधी के मुस्लिम तुष्टीकरण के सबसे मुखर विरोधी आरिफ मोहम्मद खान के रूप में अपनी सरकार के भीतर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। राजीव गांधी सरकार में राज्य मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने संसद के पटल पर शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का जोरदार बचाव किया था। हालांकि, जब मुस्लिम कट्टरपंथियों ने राजीव गांधी पर दबाव डालना शुरू किया, तो सरकार ने शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को दरकिनार करने के लिए एक कानून लाने के लिए यू-टर्न ले लिया। जब राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए मौलवियों के दबाव में आकर हार मान ली, तो निराश आरिफ मोहम्मद खान ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल से बाहर निकलने और कांग्रेस पार्टी छोड़ने का फैसला किया।
फिर बाबरी मस्जिद का ताला खुलने की बात आयी। साल था 1986 और उस घटना में भी आरिफ मोहम्मद खान घटनाओं के केंद्र में थे। आरिफ मोहम्मद का मानना था कि बाबरी मस्जिद का ताला खुलना हिंदू समुदाय की मांगों को पूरा करने के लिए एक संतुलनकारी कार्य था, क्योंकि राजीव गांधी सरकार ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए भरण-पोषण पर शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की मांगों के आगे घुटने टेक दिए थे। खान का मानना था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले (शाह बानो मामले) को पलटने और ताले हटाने की घोषणा दो सप्ताह के भीतर हुई। अधिकांश लोगों को यह एक संतुलनकारी कदम लगा और उन्हें उम्मीद थी कि अब दोनों आंदोलनकारी पक्ष संतुष्ट होंगे।
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1986 में ताले खोलने के पीछे की राजनीति पर बोलते हुए खान ने कहा था कि “एआईएमपीएलबी ने जोर देकर कहा कि शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ‘मिल्ली तशक्खुस’ के लिए खतरा है, जो एक अलग और विशिष्ट सामुदायिक पहचान है, और उन्होंने आंदोलन के दौरान बहुत आक्रामक और धमकी भरी भाषा का इस्तेमाल किया… लेकिन 15 जनवरी, 1986 को इस आशय की घोषणा ने एक गंभीर झटका दिया और एक सप्ताह के भीतर सरकार को शाह बानो मामले से ध्यान हटाने के लिए कुछ करने की आवश्यकता महसूस हुई।” उन्होंने कहा था कि, “उस समय अयोध्या काम आया और स्थानीय प्रशासन – यानी जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक – व्यक्तिगत रूप से जिला न्यायालय (फैजाबाद) के समक्ष पेश हुए और कहा कि विवादित ढांचे के मुख्य द्वार से ताला हटाने से कोई कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा नहीं होगी।”फरवरी 1986 में फैजाबाद जिला न्यायालय के आदेश पर बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए। खैर।
इस घटना के बाद आरिफ मोहम्मद खान जनता दल में शामिल हो गए और 1989 में फिर से लोकसभा के लिए चुने गए। जनता दल के शासन के दौरान खान ने नागरिक उड्डयन और ऊर्जा मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्य किया। जनता दल को भी उन्होंने नमस्कार किया और फिर कांशीराम-मायावती वाली बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए। शायद यह सब इसलिए किये होंगे कि कांग्रेस छोड़ने के बाद कांग्रेस उन्हें टिकट देने की बात सोचती भी नहीं। फिर जनता दल में भी उनके सम्बन्ध अच्छे नहीं रहे। संसद में बैठन के लिए बहुजन समाज पार्टी के अलावे दूसरा कोई विकल्प नहीं था। सन 1998 में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर बहराइच से लोकसभा में प्रवेश किया। खान ने 1984 से 1990 तक मंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली। यानी सन 1990 के बाद राजनीतिक दृष्टि से ‘बेरोजगार’ रहे। देश की बदलती राजनीतिक व्यवस्था, स्वरूप और नेतृत्व को भांपते 2004 में आरिफ मोहम्मद खान भारतीय जनता पार्टी। कहते हैं उस वर्ष कैसरगंज निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए।
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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की राजनीतिक कालखंड से लेकर 2000 के दशक वाले राजनीतिक कालखंड तक, देश में न केवल गंगा सफाई योजना और नामानि गंगे योजनाओं के तहत गंगा का पानी और प्रवाह बढ़ता गया, बदलता गया; देश में राजनीतिक नेतृते के साथ-साथ विचारधारों में में आमूल परिवर्तन आये। ‘सोच बदलो’ और ‘देश बदलेगा’ का नारा भी बुलंद हुआ। वैसे में बुलंदशहर का वह व्यक्ति राजनीति में जीवित रहने के लिए भाजपा के शरण में आ गया।
वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय प्रेस पूर्व सदस्य राजीव रंजन नाग का कहना है कि “आरिफ मोहम्मद खान हिन्दू, हिन्दुत्वा, संस्कृति, धार्मिक सभी ग्रंथों को पढ़ लिए हैं, कंठस्थ कर लिए हैं जो अंततः भाजपा और नरेंद्र मोदी, अमित शाह की बोली में निहित होता है। अपनी वाक्पटुता के कारण खान किसी को भी दस मिनट में प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। अन्यथा औसतन राजनीतिक पार्टियों में उनका कालखंड पांच साल से अधिक नहीं होता है चाहे कांग्रेस हो, जनता दल हो, बहुजन समाज पार्टी हो। आज भाजपा में है। कल अगर बिहार में भाजपा की सरकार नहीं बन पाई (जिसके निमित्त उन्हें भेजा गया है ताकि मुसलमानों का मत भाजपा के पक्ष में किया जा सके) तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें उठाकर कर्तव्य पथ पर रख दिया जाय। ये किरण बेदी जैसा व्यक्तित्व तो रखते नहीं।”
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बहरहाल, शायद देश के मतदाता भूल गए हों, लेकिन न्यायालय के दस्तावेजों में आरिफ मोहम्मद खान का भी नाम ऐतिहासिक हवाला खंड में उद्धृत था। हवाला मामले में सीबीआई का तर्क था कि वे रिश्वत के तीन प्राप्तकर्ताओं में से एक थे। वैसे न्यायालय सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया था।
अब सवाल यह है कि नीतीश कुमार और लालू यादव दिखाने के लिए पटना के गांधी मैदान में जितना कबड्डी-कबड्डी खेलें, कुस्ती लड़ें, पटना से दिल्ली और मुंबई तक अखबारवाले, टीवी वाले जो भी कहें, लिखें, दिखाएं – इतना गाँठ बाँध लीजिये भाजपा की सरकार के नाम पर, भाजपा का मुख्यमंत्री के नाम पर दोनों “सहोदर भाइयों से भी बढ़कर हैं। अब सुशिल मोदी हैं नहीं और बिहार में भाजपा का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो प्रदेश में भाजपा के लिए ब्रह्मास्त्र बनकर खड़ा रहे। हम तो कहेंगे कि आरिफ मोहम्मद खान को यहाँ से निवृत होने के बाद आजीवन पेंशन की व्यवस्था कर दिए हैं मोदी जी।