‘ब्राह्मणों’ को छोड़िए हुज़ूर, जयप्रकाश नारायण की जाति के लोग, यानी ‘कायस्थ’ भी, बिहार में ‘बढ़ई’, ‘नौआ, ‘मुसहर’ की संख्या से कम हैं

पटना का यह ऐतिहासिक गांधी मैदान और सहस्त्र खण्डों में बंटी मैदान की यह भूमि

पटना / नई दिल्ली: पटना का यह ऐतिहासिक गांधी मैदान और सहस्त्र खण्डों में बंटी मैदान की यह भूमि इस बात का गवाह है कि बिहार के लोग ‘रक्त के आधार पर एकीकृत नहीं अपितु जाति के आधार पर सहस्त्र खण्डों में विभाजित हैं। आकंड़ों के अनुसार 13 करोड़ 7 लाख 25 हज़ार 310 ‘मुंडी’ वाले प्रदेश ‘बिहार’ में सरकारी अधिकारी कुल 215 ‘जातियों’ को ढूंढे हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (कुर्मी) और उनके कनिष्ठ तेजस्वी यादव (ग्वाला) को प्रस्तुत किये हैं। आंकड़ों के इस खेल में प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के समुदाय के लोगों का पलड़ा अपने ‘चचाजान’ (मुख्यमंत्री नीतीश कुमार) के समुदाय (कुर्मी) से तक़रीबन 12 फ़ीसदी अधिक है। ऐसा लगता है कि बिहार के लोग अपने नेता सम्मानित रामानंद यादव, सम्मानित लालू प्रसाद यादव से अधिक ‘प्रभावित’ हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि कायस्थों की संख्या से ‘बढ़ई’, ‘नौआ (नाई), ‘मुसहर’ की संख्या ऊपर हो गई। इतना ही नहीं, ‘ब्राह्मण’ समुदाय (जेनऊधारी और बिना जेनऊ धारी) की जनसंख्या ‘गजबे तरीके से लुढ़क’ गई।

इतना ही नहीं, सत्तर के ज़माने में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण (कायस्थ) अपने कदमकुआं आवास से लेकर पटना के गाँधी मैदान के रास्ते पूरे भारत में सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल बजाये, नीतीश कुमार के कालखंड में सार्वजनिक हुए इस आंकड़े में ‘लालाजी (कायस्थ) लोग’ तो ‘निपट गए। यानी, जयप्रकाश बाबू द्वारा सत्ता के हस्तानांतरण के बाद बिहार के लोगों ने शनैः शनैः कायस्थ समुदाय के लोगों को दीवार के करीब पहुंचा दिए। आज इस आंकड़े में प्रदेश में कायस्थों की आवादी 0.60 फ़ीसदी आंकी गई है।

सरकारी आंकड़ों को वायुमंडल में आने के साथ ही, प्रदेश के शिक्षित, अशिक्षित, अनपढ़, जाहिल, गंवार, गरीब, धनाढ़्य, करिया, गोरा, लंगड़ा, लुल्हा, अकान, बहिर, आन्हर, अपंग, अपाहिज, सभी लोगों की नजर आगामी वर्ष होने वाले ‘आम चुनाव’ और फिर विधान सभा से लेकर जिला परिषद् के चुनाव की ओर केंद्रित हो गई हैं। सभी लोग अपने-अपने फ़िराक में है कि उनकी जाति के लोगों को, समुदाय के लोगों को चुनाव में, टिकट मिलने में कितना अवसर मिलेगा। वे कितनी ताकत से ‘भोंपा’ बजा सकते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि इस आंकड़े से प्रदेश में जातीय राजनीति प्रारम्भ हो गई। कौन जात के लोग किनके तराजू पर बैठेंगे, चर्चाएं आम हो गई है। कोई इस बात पर बोल भी नहीं रहा है लिख भी नहीं रहा है कि बिहार में इन जातियों के लोग कितने शिक्षित हैं? कितने अशिक्षित? कितने के पास हाथ में काम है? कितने सड़क पर बैठकर चिनियाबादाम और प्याज छील रहे हैं। कितने स्वस्थ्य हैं और कितने जीने के लिए सांस खींच रहे हैं ?

आलोचक से लेकर प्रशंसक तक भले समुद्र को स्याही बनाकर लिखते रहें, हकीकत यही है कि व्यवस्था द्वारा जारी जाति आधारित गणना के मुताबिक, बिहार में कुल आबादी 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 और 215 जातियां हैं, जिसमें सबसे अधिक जनसंख्या यादव जाति की 14.26% है। अन्य जातियों की जनसंख्या दुसाध 5.31%, रविदास 5.25%, कुशवाहा 4.2%, ब्राह्मण 3.65%, राजपूत 3.45%, मुसहर 3.08%, कुर्मी 2.87%, भूमिहार 2.86%, मल्लाह 2.60%, वैश्य 2.31%, धानुक 2.13%, नोनिया 1.91%, चंद्रवंशी 1.64%, नाई 1.59%, बढ़ई 1.45%, कायस्थ 0.60% हैं। यानी कल समाज में सम्मानित ‘लालाजी समुदाय (कायस्थ समुदाय) आज बिहार में ‘बिलुप्त प्राणियों’ की सूची की ओर अग्रसर हैं। यादवों की तुलना में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार भी शीध्र ‘बिलुप्त प्राणी’ की सूची में होंगे। इसका कारण क्या हो सकता है यह गहन शोध का विषय है। यदि जाति-श्रेणी के हिसाब से देखें, तो सबसे अधिक अत्यंत पिछड़ी जातियां 36.%, पिछड़ा वर्ग 27%, अनुसूचित जाति 19.6%, अनुसूचित जनजाति 1.6% और अनारक्षित वर्ग 15.5% है।

इसमें पुरुषों की कुल संख्या 6 करोड़ 41 लाख 31 हजार 990 है, जबकि महिलाओं की संख्या 6 करोड़ 11 लाख 38 हजार 460 है। अन्य की संख्या 82 हजार 836 पाई गई है। गणना के अनुसार 1000 पुरुषों पर 953 महिलाएं हैं। बिहार में साल 2011-2022 के बीच हिंदूओं जनसंख्या कम हुई है। इस दौरान मुस्लिम जनसंख्या बढ़ी है। आज जारी किए गए जातीय गणना की रिपोर्ट के साथ राज्य में धार्मिक जनसंख्या भी सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अभी हिंदू आबादी करीब 82% (81.99) और मुस्लिम आबादी 17.7% है। जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदू आबादी 82.7% और मुस्लिम आबादी 16.9% थी।

ये भी पढ़े   गंगा की 'मृत धाराओं को जीवित करना' यानी भारत की 'संस्कृति, अध्यात्म और गरिमा को पुनः स्थापित करना' है 

इस जाति आधारित गणना को दो बार में पूरा किया गया है। पहला चरण 7 जनवरी से शुरू हुआ था। इस चरण में मकानों की सूचीकरण, मकानों को गिना गया। यह चरण 21 जनवरी 2023 को पूरा कर लिया गया था, जबकि दूसरा चरण 15 अप्रैल से शुरू हुआ। इसे 15 मई को पूरा हो जाना था। आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आबादी सबसे ज्यादा 36% (4,70,80,514) और पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12% (3,54,63,936) है। वहीं, अनुसूचित जाति की आबादी 19.65% (2,56,89,820) और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.68% (21,99,361) है। वहीं अनारक्षित आबादी यानी ऊंची जाति की संख्या 15.52% (2,02,91,679) सामने आई है।

दशकों पूर्व पटना से प्रकाशित ‘दी सर्चलाइट’ अख़बार और अख़बार में प्रकाशित पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्द

डॉ. संतोष सारंग के अनुसार बिहार देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने जाति आधारित गणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया है। अंग्रेजों के राज में अंतिम बार 1931 में जाति जनगणना रिपोर्ट जारी हुई थी। इसी रिपोर्ट के आधार पर अबतक सरकारें जन कल्याणकारी योजनाएं और नीतियां बनाती रही हैं। नब्बे के दशक से देश में दो तरह की राजनीतिक और सामाजिक धाराएं बहती रही हैं – एक हिंदुत्व की और दूसरी सामाजिक न्याय की। मंडल कमीशन लागू होने के बाद सामाजिक न्याय का स्वर मुखरित हुआ, जाति की राजनीति तेज हुई और दलित-पिछड़ी आबादी को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी बढ़ी। लेकिन जाति की सही संख्या पता नहीं होने के कारण आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी से ये वर्ग लंबे समय तक वंचित रहे।

इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के साथ ही देश की राजनीति ‘धर्म बनाम जाति’ के दो धड़ों में बंट गयी है। अब राजनीतिक दल और आम लोग इस आकलन में जुट गए हैं कि इससे चुनावी फायदा किसे होगा, इंडिया गठबंधन को या फिर एनडीए को। बिहार में आरक्षण और जाति का सवाल बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा रहा है। 1990 के बाद राज्य में लगातार दलित-पिछड़ों की कही जानेवाली सरकारें ही बनती रही हैं। डॉ. नारंग के रिपोर्ट के अनुसार, बीच-बीच में सत्ता में बीजेपी भी आई, लेकिन जेडीयू से गठबंधन के साथ ही. आज भी अकेले अपने दम पर बीजेपी के सत्ता में आने की उम्मीदें क्षीण दिखती हैं। कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही सवर्ण और वैश्य वोटर बीजेपी के साथ चला गया, जिसे इस पार्टी का कोर वोटर कहा जाता है।

क्योंकि इन आंकड़ों का यदि विश्लेषण करें, तो सबसे अधिक 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जातियों की आबादी है, जिनमें लगभग 100 से अधिक जातियां आती हैं। इनमें से बहुत सारी जातियां हैं, जिनका न तो किसी पार्टी के संगठनों में और न विधानसभा या विधान परिषद में प्रतिनिधित्व है। कोई कह रहे हैं कि आने वाले चुनाव में राजनीतिक पार्टियों का लिटमस टेस्ट होगा, जिसमें देखना होगा कि क्या ये पार्टियां टिकट बंटवारे के दौरान कोटि और जातियों का कितना ध्यान रखती हैं तो कोई कह रहे हैं कि बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। अत्यंत पिछड़ी जातियां 36 फीसदी है। 40 का 36 फीसदी करीब 14 होता है। तो क्या इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में अत्यंत पिछड़ी जातियों को 14 सीटें देंगी?

आप तो जनबे करते होंगे कि 20 जनवरी 2023 को भारत का सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार में जाति आधारित जनगणना करने के लिए बिहार सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली विभिन्न दलीलों पर विचार करने से इनकार कर दिया। जाति-आधारित सर्वेक्षण के खिलाफ यूथ फॉर इक्वेलिटी समूह सहित कई याचिकाकर्ताओं द्वारा याचिका दायर की गई थी। बिहार के सम्मानित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि यह कवायद जाति जनगणना नहीं है, बल्कि यह एक जाति सर्वेक्षण है।

ये भी पढ़े   आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू 👁 कल के श्री वाजपेयी जी के चहेते आज पटना में 'फीता काटने में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहे हैं 😢 हाय रे राजनीति

4 मई 2023 को, पटना उच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में जाति आधारित सर्वेक्षण पर रोक लगा दी, और राज्य सरकार को अब तक एकत्र किए गए सर्वेक्षण डेटा को सुनवाई की अगली तारीख (3 जुलाई, 2023) तक संरक्षित रखने का निर्देश दिया। बिहार सरकार ने पटना उच्च न्यायालय को सूचित किया कि “सर्वेक्षण” का 80% पूरा हो गया था। पटना उच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में बिहार सरकार से 11 बिंदुओं पर सवाल पूछे। बिहार सरकार ने प्रतिवाद किया कि एक केंद्रीय कानून, सांख्यिकी संग्रह अधिनियम, 2008 राज्य सरकार को जाति सहित सभी प्रकार की जनगणना और सर्वेक्षण करने का अधिकार देता है।

7 जुलाई 2023 को, पटना उच्च न्यायालय ने सर्वेक्षण के विभिन्न पहलुओं को चुनौती देने वाली कुल 8 जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। बाद में, 1 अगस्त 2023 को, पटना उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि बिहार में जाति सर्वेक्षण कराना वैध और कानूनी है। मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की खंडपीठ ने सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज करते हुए अपने 101 पेज के फैसले में आदेश पारित किया। बिहार के जाति-आधारित सर्वेक्षण का दूसरा चरण 2 अगस्त 2023 को फिर से शुरू हुआ। 21 अगस्त 2023 को, पटना उच्च न्यायालय ने जाति सूची से ट्रांसजेंडरों को हटाने की मांग करने वाली एक रिट याचिका का निपटारा किया, और कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति बिहार सरकार को एक जाति के रूप में न माने जाने के लिए अभ्यावेदन दे सकते हैं।

बिहार सरकार ने इस याचिका पर जवाबी हलफनामा दायर कर अदालत को सूचित किया था कि 25 अप्रैल 2023 को गणनाकारों को लिंग के लिए तीन विकल्प रखने का निर्देश देकर इस विसंगति को दूर किया गया था। 21 अगस्त 2023 को, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की पीठ ने केंद्र सरकार से सर्वेक्षण के संभावित परिणामों के संबंध में सात दिनों के भीतर जवाब देने को कहा और बाद में मामले को 28 अगस्त 2023 को फिर से सुनवाई के लिए निर्धारित किया।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया कि भारत की जनगणना अधिनियम 1948 केवल केंद्र सरकार को जनगणना और जनगणना जैसी कार्रवाई करने की अनुमति देता है। बाद में शाम को, यह अपने पिछले हलफनामे से पीछे हट गया और एक नया हलफनामा दायर किया जिसमें दावा किया गया कि पैराग्राफ “अनजाने में घुस गया” . बिहार सरकार ने अपनी पहले बताई गई स्थिति को दोहराया कि सांख्यिकी संग्रह अधिनियम, 2008 उसे सामाजिक न्याय के हित में इस तरह की गणना प्रक्रिया आयोजित करने का अधिकार देता है। 6 सितंबर 2023 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की पीठ ने मामले को 3 अक्टूबर के लिए स्थगित कर दिया और स्पष्ट किया कि उसने सर्वेक्षण के प्रकाशन पर कोई रोक नहीं लगाई है।

वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर बिहार में परिवार की संख्या एक करोड़ 89 लाख थी। 12 वर्षों में इसमें एक करोड़ 61 लाख वृद्धि होने की संभावना जताई जा रही है। इसी तरह राज्य में एक से सवा करोड़ घर या बसावट होने का भी आंकलन किया जा रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार पटना में प्रति परिवार में सदस्यों की संख्या औसतन 4.1 थी जो 2022 में बढ़ाकर 5.3 हो गई है यानी प्रति परिवार सदस्यों की संख्या में 1.2 की बढ़ोतरी हुई है। पटना जिले की जनसंख्या 58 लाख से बढ़कर 73 लाख हो गई है। पिछले 11 वर्षों में पटना की जनसंख्या में 15 लाख से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। राजनीतिक जानकार तो यहाँ तो कहते हैं कि इंडिया गठबंधन की एकजुटता बनी रही और बेहतर रणनीति के साथ यदि चुनावी बिसात बछायी गई, तो राज्य में लालू-नीतीश पासा पलट सकते हैं। ​

ये भी पढ़े   #भारतकीसड़कों से #भारतकीकहानी (12) ✍️ 'तिरंगा' उत्पादक और विक्रेता तिरंगे का व्यापार करते हैं 😢

डीडब्ल्यू के पत्रकार मनीष कुमार लिखते हैं कि “पीछे मुड़कर देखें तो साफ है कि मंडल कमीशन के बाद की राजनीति के कारण ही क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ। बिहार में आरजेडी और जेडीयू तथा यूपी में समाजवादी पार्टी ओबीसी का जबरदस्त समर्थन पाने में कामयाब रहे। आज भी इन पार्टियों की राजनीति इन्हीं जातियों पर आश्रित है। अपरोक्ष रूप से इसका विरोध कर रही बीजेपी की जान सांसत में है। यही वजह है कि रिपोर्ट जारी होने के चंद घंटे बाद ही नरेंद्र मोदी ने ग्वालियर में एक जनसभा में नीतीश पर निशाना साधते हुए कहा कि, “ये लोग पहले भी जात-पात पर लोगों को बांटते रहे हैं और आज भी यही पाप कर रहे हैं।​ मोदी की बेचैनी भी उसी ओबीसी वोट बैंक को लेकर है, जिसके साथ आने से बीजेपी का जनाधार बढ़ा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस से तीन गुणा अधिक ओबीसी सीट मिली थी। लोकसभा चुनाव तो दूर की बात, पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में भी बीजेपी के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई है।”

राजनीति के जानकार बताते हैं कि जिस भी सीट पर बीजेपी यादव को उतारती है वहां भी बीजेपी को यादवों का वोट वहीं मिलता है। आरजेडी का राजनीतिक आधार यादव-मुस्लिम समीकरण रहा है। यह अलग बात है कि विगत वर्षों में बहुत सारी जातियां खिसक कर बीजेपी के साथ चली गई। लेकिन सवाल है कि जाति गणना के आंकड़े आने के बाद क्या राजनीतिक समीकरण बदलेगा?

क्या है आरक्षण का खेल​: राज्य में ईबीसी की आबादी 36.01 प्रतिशत है, जिसके लिए मौजूदा आरक्षण 18 प्रतिशत है, जबकि पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 27 प्रतिशत है, जिसके लिए 12 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था ​है। यानि बिहार में ओबीसी कैटेगरी के लिए कुल आरक्षण 30 फीसद है, जबकि उनकी आबादी 63 प्रतिशत हो गई ​है। करीब 92 साल पुराने आंकड़ों के अनुसार देश में 52 प्रतिशत ओबीसी ​है। अगर देश की जातीय गणना के परिणाम इसी तरह रहे तो ओबीसी आरक्षण बढ़ाने की मांग तो जोर पकड़ेगी ही, समाज में जातिगत दूरी भी ​बढ़ेगी। जानकार बताते हैं कि बिहार में जातीय गणना की रिपोर्ट में अनुमान से अधिक बढ़ी ओबीसी की आबादी को देखकर अब देशभर में ऐसी जनगणना कराने की मांग ​बढ़ेगी।

जानकार का कहना है कि उत्तर प्रदेश सहित कई अन्य राज्यों में इसकी मांग तो शुरू ही हो गई ​है। बिहार में एनडीए के सहयोगी दल हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा तथा लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों गुट एवं रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया भी देशभर में ऐसी गणना के पक्षधर ​हैं। आने वाले दिनों में इस मांग के साथ ही केंद्र की नौकरियों में ओबीसी के लिए तय 27 प्रतिशत आरक्षण को भी बढ़ाने का दबाव ​बढ़ेगा। जातिवार गणना की रिपोर्ट जारी होने के साथ ही बिहार से दिल्ली तक के सियासी हलकों में तूफान आ गया ​है। राहुल गांधी ने भी कहा है, ‘‘बिहार में ओबीसी, एससी-एसटी 84 प्रतिशत ​है, देशभर में गणना ​हो। जितनी आबादी, उतना हक ​मिले।”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here