‘अपवाद छोड़कर’ बिहार के राजाओं की ‘गरिमा’ अगली पीढ़ियां ‘बरकरार’ नहीं रख सकीं ✍ वैसे समाज में शिक्षा का प्रचुर विकास हुआ, दुःखद 😢 (भाग-3)

नौका-विहार : राजकुमार श्यामनन्द सिंह अपने गुरुदेव भीष्मदेव चटर्जी के साथ

पूर्णिया / कटिहार : क्या दरभंगा, क्या मधुबनी, क्या डुमरांव, क्या गिद्धौर, क्या रामगढ़, क्या कुर्सेला, क्या बेतिया, क्या टेकारी, क्या जोगनी, क्या शिवहर …  बिहार ही नहीं, देश के सभी राज्यों में जिस जद्दोजेहद, मसक्कत, सेवा, त्याग, समर्पण के साथ तत्कालीन जमींदारों ने, राजाओं ने अपने-अपने घरानों को मजबूत बनाए, प्रजाओं के हितार्थ सामाजिक कल्याण का कार्य कर अपना नाम, शोहरत, धन, सम्पदा एकत्रित किये; उनके देहावसान के बाद (अपवाद छोड़कर) शायद ही कोई घराने के वंशज या घराना ऐसा बचा है, जो संपत्ति के बंटवारे को लेकर प्रदेश के उच्च न्यायालयों के रास्ते जिला न्यायालयों से देश के सर्वोच्च न्यायालय तक अपनी-अपनी अर्जियां नहीं जमा किये होंगे, परन्तु उनकी गरिमाओं को नहीं बरक़रार रख सके । इतिहास इस बात का साक्षी है कि ‘राजघराने में संपत्ति के लिए न्यायालयों में मुकदमा दर्ज करना ‘खास’ नहीं, ‘आम’ बात हो गयी है। 

शायद बहुत काम लोग इस बात से भिज्ञ होंगे कि देश में संविधान लागू होने के पूर्व ही ‘जमींदारी एबॉलिशन बिल्स’ अपना कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था। वैसे इसे स्वतंत्र भारत में महत्वपूर्ण ‘कृषि सुधार’ शब्दों से अलंकृत किया गया, और तत्कालीन संघीय प्रोविंसों मसलन: सेन्ट्रल प्रोविंस, युनाइटेड प्रोविंस, बिहार, असम, मद्रास और बम्बई में जमींदारी एबॉलिशन कमिटी के आदेशानुसार लागू कर दिया गया था। यह अलग बात है कि स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में उन जमींदारों ने तत्कालीन राजनेताओं को, क्रांतिकारियों को सभी तरह से मदद का हाथ बढ़ाये थे। 

इस नियम और कानून के बारे में विश्लेषण तो ज्ञानी-महात्मा करेंगे, लेकिन आज़ादी के चार साल बाद यानी सन 1951 में भारत का संविधान लागु होने के 15 दिनों के अंदर पहला संशोधन और फिर 1955 में दूसरा संशोधन कानून पारित किया गया। फिर सन 1956 में ‘जमींदारी एबॉलिशन एक्ट’ पारित हुआ। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकत है कि इस कानून के लागु होने के बाद तत्कालीन जमींदारों, राजाओं को जो ‘नुकसान की भरपाई’ की गई वह ‘कम’ ही नहीं ‘बहुत कम’ था। खैर। 

आज़ाद भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बाद, खासकर जमींदारों / राजाओं की प्रथम पीढ़ी अथवा आधिकारिक रूप से उनके उत्तराधिकारियों की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्तियों का (अपवाद छोड़कर) जो हश्र हुआ अथवा हो रहा है, वह सम्बद्ध क्षेत्र के लोग चश्मदीद गवाह रहे हैं, हैं। बिहार ही नहीं, देश के सभी राज्यों में, जमींदारी कानून के तहत जमींदारों / राजाओं / महाराजाओं की सम्पतियों पर आधिपत्य समाप्त हुआ (कानून के तहत छोड़े गए हिस्सों को छोड़कर); लेकिन समयांतराल उनके उत्तराधिकारियों, सम्बन्धियों, दूर-दराज के लोगों, राजनेताओं, दवंगों के द्वारा जिस कदर उनकी सम्पत्तियों को नेश्तोनाबूद किया गया, उनकी गरिमाओं को मिट्टी-पलीद किया, भारत का न्यायालय गवाह है। 

आज आज़ादी के 75-वर्ष बाद (अपवाद छोड़कर) प्रदेश के जमींदारों के आज की पीढ़ियों को देखकर, उनकी सम्पत्तियों को देखकर, उनकी कीर्तियों को नेश्तोनाबूद होते देखकर मन और आत्मा अश्रुपूरित हो जाता है। कल जिन चौखटों पर समाज के लोगों के कल्याणार्थ राजा, महाराजाओं, जमींदारों की मानवता और मानवीयता चौबीसो-घंटे तत्पर रहता था, आज वह चौखट कराह (अपवाद छोड़कर) रहा है। संपत्ति के बंटबारे को लेकर देश के न्यायालयों में लाल वस्त्र में बंधे लाखों-लाख दस्तावेज बिलख रहे हैं। 

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इस बात से सभी अवगत है कि राजघराने में संपत्ति के लिए जिला न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमा दायर करना ‘खास’ नहीं, ‘आम’ बात है। वजह यह है कि संपत्ति एक निर्जीव वस्तु होने के बावजूद, स्वयं इतना सामर्थ्यवान होता है कि पृथ्वी के सभी ‘सजीवों’ को, विशेषकर मनुष्य जाति की प्रजाति को अपनी ओर बिना किसी रंग, जाति, धर्म का भेद-भाव के अपनी ओर आकर्षित करने की बेशुमार कूबत रखता है। यह बात भारत के संभ्रांत और धनाढ्य अधिक समझेंगे। 

भारत में, खासकर मिथिला क्षेत्र में, शायद ही कोई महामानव होंगे, महिला होंगी जो अपने पूर्वजों के देहावसान के बाद उनकी संपत्ति में अपने हिस्से की बात नहीं किये हों। आम तौर पर मिथिला के समाज में परिवार के मुखिया के देहावसान के बाद संपत्ति का बंटवारा जिस द्रुत गति से होता है, शायद संपत्ति बनाने में परिवार के मुखिया को अपना जीवन निकाल देना होता है और इस वेदना तथा संवेदना को ‘मुफ्त में मिलने वाली संपत्ति के मालिक भी नहीं समझते हैं । शब्द बहुत कटु है, लेकिन सत्य यही है।  

इतना ही नहीं, संपत्ति के लिए पुत्र को पिता के खिलाफ, भाई को भाई के खिलाफ, बहन को भाई के खिलाफ, माँ-दादी को बेटे-पोते के खिलाफ, बेटे-पोते को माँ-दादी के खिलाफ, भतीजे हो चाचा के खिलाफ जाने में मिनट की देरी नहीं होती। अगर ऐसा नहीं होता तो आज देश के न्यायालयों में तक़रीबन 10848584 दीवानी मुकदमें, जिसमें अधिकांश भूमि/संपत्ति विवाद से सम्बंधित है, लंबित नहीं होता। वैसे मिथिला राज्य के प्रस्तावित जिलाओं के न्यायालयों को देखें, तो भूमि और संपत्ति से सम्बंधित विवाद लाखों में मिलेंगे। इसका जीवंत दृष्टान्त है दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद दरभंगा राज का, राज की संपत्ति का ‘विनाशकारी हश्र’ है । वैसे संपत्ति के बंटवारे के मामले में ‘न्यायालयों का शरण लेना’ ‘अपने-अपने सम्बन्धियों पर मुकदमा करना’ मिथिला के मिथिलेश के परिवारों के सदस्यों का जवाब नहीं। खैर।  

राजाबहादुर लीलानंद सिंह (1816-1883)

बहरहाल, बनैली राज के गिरिजानंद सिंह, जो अपने पूर्वजों के धरोहर, उनकी कीर्तियों को, जनहित में उनके द्वारा सम्पादित कार्यों को सुरक्षित और संरक्षित रखने के साथ-साथ भरसक आगे बढ़ाने का अनवरत कोशिश कर रहे है, आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से कहते है कि “बनैली राज में राजा लीलानंद सिंह की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद ही उनकी पत्नी रानी सीतावती देवी ने 1888 ई में अपने नाबालिग बेटों की तरफ से पद्मानन्द सिंह के विरुद्ध बंटबारे का मामला दायर किया। पद्मावती ने रानी सीतावती को इस्टेट में हिस्सा देने से साफ़ इंकार कर दिया था, परन्तु बाद में अपनी पत्नी पद्मावती के दवाब में आकर संधि के लिए राजी हो गए। कुँवर कलानंद और कुँवर कीर्त्यानंद को राज बनैली में 9 आना का हिस्सा मिला और पद्मानंद 7 आना लेकर अलग हो गए।” 

गिरिजानंद सिंह के अनुसार, “राजा पद्मानंद सिंह पिता की भांति दान शील तो थे ही, भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। देवघर के बैद्यनाथ मंदिर के सिंह द्वार का निर्माण राजा पद्मानंद सिंह ने कराया था। सन 1902 ई. में पांच बीघा जमीन और प्रचुर धन देकर उन्होंने पूर्णिया में ‘विक्टोरिया मेमोरियल टाउन हॉल’ का निर्माण भी करवाया। उनके बड़े बेटे कुँवर चन्द्रानन्द सिंह मानसिक रूप से अविकसित थे और यही कारण था कि एक योग्य वारिस के आभाव में पद्मानंद भौतिक मूल्यों के प्रति अति असावधान हो गए और अत्यधिक खर्च करते हुए गले तक कर्ज में धंस गए।”  

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सन 1908 ई में कुँवर चन्द्रानन्द सिंह की मृत्यु के बाद उनकी विधवा रानी चन्द्रावती देवी, 7 आना इस्टेट की मालकिन बनी। बाद में, रानी चन्द्रावती ने 3 आना हिस्सा अपने दायाद कीर्त्यानंद, रमानन्द और कृष्णानंद के हाथों बेचकर अपने ससुर द्वारा लिए गए कर्जों की चुकती कीं । रानी चन्द्रावती की मृत्यु के बाद 4 आना इस्टेट में से डेढ़ आना राजा कीर्त्यानंद को, और ढ़ाई आना उनकी ननद राजकुमारी मोती दाईजी के बेटों को मिला।” 

गिरिजानन्द सिन्हा आगे कहते हैं कि “राजा पद्मानन्द सिंह के दूसरे पुत्र कुमार सूर्यानंद सिंह बड़े होनहार और ओजस्वी थे। परन्तु दुर्भाग्यवश वे किशोरावस्था में ही चल बसे और राजकुमारी मोती दाई के वंशज बनैली राज की रामनगर शाखा के रूप में जाने गए।” सिन्हा साहब के अनुसार, “राजा पद्मानंद की पत्नी पद्मावती देवी द्वारा 1912 ई. में और उनकी पुत्रवधू रानी चंद्रावती देवी द्वारा 1924 ई. में बनारस में तारा मंदिर ट्रस्ट और श्यामा मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की गई। श्यामा मंदिर ट्रस्ट के अंतर्गत 1927 में ‘आदर्श रानी चंद्रावती श्यामा महाविद्यालय’ खोला गया जिसे आज भी बनारस के संस्कृत शिक्षा संस्थानों में अग्रणी माना जाता है।”

राजाबहादुर पद्मानन्द सिंह (मृत्यु: 1912)

गिरिजानन्द सिन्हा के अनुसार, “राजा लीलानंद सिंह के दूसरे पुत्र राजा कलानंद सिंह बहादुर का जन्म 1880 ई. में हुआ। जन्म के 30 वें वर्ष के जनवरी माह में, यानी 1910 में ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें ‘राजा’ की उपाधि मिली। राजा लीलानंद सिंह के तीसरे पुत्र, राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह का जन्म 1883 (23 सितम्बर) को हुआ और ब्रिटिश सरकार ने इन्हे 1914 में ‘राजा’ और पुनः 1919 में ‘राजा बहादुर’ की पदवी से सम्मानित किया। कलानंद और कीर्त्यानंद में बड़ी मैत्री थी। रानी पद्मावती देवी की मदद से इन दोनों ने राजा पद्मानन्द के हिस्से के 7 आने को ठीका प्रबंध पर ले लिया और यह व्यवस्था 1936 तक चलती रही। सन 1919 तक दोनों भाई साथ-साथ ड्योढ़ी बनैली चंपानगर में रहे और वह काल राज बनैली का स्वर्णिम काल रहा।”

राजा कलानंद सिंह के पुत्र कुमार रामानंद सिंह अपने पिता के सम्मान और स्मृति में गढ़बनैली में एक अंग्रेजी माध्यम उच्च विद्यालय की स्थापना किये और उसका नाम “कलानंद उच्च विद्यालय’ रखा। इसी तरह, पूर्णियां बालिका उच्च विद्यालय को उन्होंने तीन बिधा जमीन और प्रचुर धन देकर जिले में स्त्री शिक्षा के प्रति अपना कर्तब्य निभाया। इतना ही नहीं, गढ़बनैली में अपना निजी अतिथि भवन देकर ‘रामानंद मध्य विद्यालय’ खुलवाया। जलालाबाद (मुंगेर) में स्थित ‘रामानंद हाई स्कूल’ भी उन्हीं की देन है। पूर्णिया में चिकित्सा सुविधा में विकास लाने की दिशा में कुमार रामानंद सिंह द्वारा की गई सेवा को भुलाया नहीं जा सकता। एक लाख रुपयों का दान देकर अस्पताल परिसर में उन्होंने एक भवन बनवाया जिसे आज भी ‘रामानंद ब्लॉक’ के नाम से जाना जाता है। साथ ही, अस्पताल के विकास के लोइये आर्थिक सहायता की गई। उन्होंने गढ़बनैली में ‘कलावती दातव्य औधालय’ की स्थापना की जो उनकी माता की स्मृति में है। 

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कुमार रमानन्द सिंह के छोटे भाई कुमार कृष्णानंद सिंह बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक थे और प्रजाजनों के बीच उनका बड़ा ही सम्मान था।बाद  में  वे सुलतानगंज जा बसे। गढ़बनैली के महल और उद्यान अपने सौंदर्य, भव्यता और स्थापत्य कला के लिए मशहूर थे। ‘नबका पक्का’ नामक महल रामानंद सिंह की कलात्मक रुचियों का प्रमाण है। सन 1936 ई इस महल का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ परन्तु उनकी असामयिक मृत्यु के कारण वह आज भी अधूरा ही रहा । वैसे तो समुच गढ़बनैली ही एक सुन्दर, सुनियोजित नक़्शे के अनुसार बना था, परन्तु ‘सिंह दरवाजे’ के सामने एक सौ बीघे में फैला हुआ उद्यान और सफ़ेद सीमेंट से बनाया गया नक्काशीदार नाट्यशाला अपनी सुंदरता के लिए प्रख्यात था। कला भवन नाम से प्रसिद्द वहां के राजप्रासाद को जिले का  सर्वाधिक विशाल भवन होने का गौरव प्राप्त था। परन्तु दुर्भाग्यवश रामानंद के वंशज उसे संभल नहीं सके। फिर भी ड्योढ़ी के कुछ बचे हुए अंश आज भी दर्शनीय हैं। 

गिरिजानंद सिन्हा

गिरिजानंद सिन्हा आगे कहते हैं कि “राजा कृत्यानंद सिंह के बड़े पुत्र कुमार श्यामनन्द सिंह के समय में बनैली का नाम शास्त्रीय संगीत के संरक्षक और प्रचारक के रूप में उभरा और 1938 से 1965 तक चम्पानगर ड्योढ़ी में भारतीय शास्त्रीय संगीत का भव्य आयोजन होता रहा। इस कालखंड में भारत के लगभग सभी महान कलाकारों ने यहाँ अपनी प्रस्तुति की। इन संगीत सम्मेलनों के फलस्वरूप ही पूर्णियां की जनता शास्त्रीय संगीत के प्रति अधिक जागरूक होती गई और पूर्णियां की संस्कृति के साथ संगीत का नाम सदा के लिए जुड़ गया। कुमार श्यामानन्द सिंह स्वयं भी एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ थे और ख्याल तथा बंदिश गाने में उन्हें महारत हासिल थी। कलकत्ता के पंडित भीष्मदेव चटर्जी, आगरा के उस्ताद बाचू खाँ, दिल्ली के उस्ताद मुज़फ़्फ़र खाँ, इलाहाबाद के पंडित भोलानाथ भट्ट सरीखे संगीत के दिगज्जों से कुमार श्यामानंद सिंह ने प्रशिक्षण लिया था। 

चंपानगर-पूर्णिया में लोग आज भी इस बात को भूले नहीं हैं की कुमार श्यामानंद सिंह एक उच्च कोटि के खिलाड़ी भी थे। फुलबॉल के क्षेत्र में जिला स्तर पर और बिलियर्ड्स के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें ख्याति प्राप्त थी। बनैली की चंपानगर शाखा की तरफ से उन्होंने जिला खेलकूद संघ को अपना निजी मैदान देकर पूर्णिया खेलकूद जगत को एक अमूल्य उपहार दिया। अखिल भारतीय संगीत नाटक अकादमी में उन्होंने बिहार का प्रतिनिधित्व भी किया और 1948 ई. में प्रयाग संगीत समिति द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में दीक्षांत भाषण भी दिया था। सन 1966 के बाद वे पूर्णिया के निकटवर्ती क्षेत्र में भक्ति संगीत के प्रचार-प्रसार के प्रति समर्पित रहे। सन 1994 ई. में वे महादेव के पास कूच कर गए। 

यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि बनैली चंपानगर की ड्योढ़ी और महल आदि पुराने भवन स्थापत्य कला की दृष्टि से दर्शनीय तो है ही, तत्कालीन जमींदार-राजाओं के आवासीय संरचना के मॉडल के रूप में भी विद्यमान है। सन 1869-70 ई. में रानी चण्डेश्वरी देवी द्वारा स्थापित देवघरा और 1897 ई. में रानी सीतावती देवी द्वारा निर्मित सीतेश्वर महादेव और राधा-कृष्ण मंदिर यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं। 

क्रमशः 

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