दरभंगा / पटना : गाँव-देहात में बड़े-बुजुर्ग कहते थे अपने घर में आग लगाकर दूसरों के घरों को प्रकाशमय करना मूर्खता का पराकाष्ठा है। उसी तरह जिस तरह अपने घरों के आईनों को तोड़-फोड़कर गली की नुक्कड़, सड़क के कोने पर स्थित पनवारी की दूकान पर टंगी आईने में अपना चेहरा देखना। कल बिहार और सुनते हैं झारखण्ड से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक में दरभंगा के महाराजाओं की कीर्तियों के छाव में उनकी तीसरी-चौथी पीढ़ी के वंशज अपना गुणगान करते यह संकल्प दोहराये हैं कि वे दरभंगा राज की, महाराजा की गरिमा को बहाल और बरकरार रखने में कोई कोताही नहीं करेंगे, अपने हितों के रक्षार्थ लोगों को बरगला रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि प्रदेश के राजनीतिक गलियारे में अपना स्थान बनाने का अनवरत प्रयास कर रहे हैं।
अगर कोई संवाददाता उन शब्दों को लिखा होता तो विश्वास करने के लिए कदम बढ़ता, लेकिन यह तो विज्ञापन था और विज्ञापन के माध्यम से अपना गुणगान करना यह तो वही बात हो गई जो बड़े-बुजुर्ग कहते थे – अपने घर के आईने को तोड़कर, बेचकर, दूसरों के घरों के आईने में अपना चेहरा देखना। इस इस बात का भी प्रमाण है कि आज भी दरभंगा राज के दीवारों को चाटुकार, चापलूस, खुशामदी, अवसरवादी घेरे रखें हैं और ऐतिहासिक दीवार के अंदर रहने वाले लोग आज़ादी के 76 वर्ष बाद भी ‘जीहुजूरी’ में अधिक विश्वास रखते हैं, चाहे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहे लाख नारा बुलंद करें ‘सोच बदलो – देश बदलेगा’ – दुःखद है।
आज अगर दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह जीवित होते तो 166 वर्ष के होते। अगर महाराजा रामेश्वर सिंह जीवित होते तो 164 वर्ष के होते। अगर उनके पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह जीवित होते तो 117 वर्ष के होते। लेकिन आज शरीर से कोई नहीं हैं। परन्तु इतने दशकों बाद भी बिहार, बंगाल, ओडिशा या मिथिला या देश-विदेश में रहने वाले शिक्षाविदों की नजरों में उनकी कृतियाँ मरणासन्न अवस्था में ही सही, जीवित है – अपनी क्षमता और ताकत पर ।
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह का जन्म 1858 में हुआ और महज 40 वर्ष की अवस्था में 1898 को उनका शरीर पार्थिव हो गया। उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह अपने बड़े भाई से महज दो साल छोटे थे। उनका जन्म 1860 में हुआ और वे 69 वर्ष की आयु में 1929 में अंतिम सांस लिए। महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह दरभंगा राज की गद्दी पर बैठे। इनका जन्म 1907 में हुआ और पहली अक्टूबर, 1962 को 54 वर्ष की आयु में वे अंतिम सांस लिए। कोई बासठ वर्ष पहले दरभंगा के महाराजा की मृत्यु के साथ दरभंगा राज का नींव हिल गया। राज की मिट्टियाँ दीवारों का साथ छोड़ने लगे। लाल दीवारों के परिसर में रहने वालों लोगों की किल्लत होने लगी। जो सांस ले रहे हैं उनमें आपसी तालमेल नहीं रहा। महाराजाओं द्वारा अर्जित सम्पत्तियों का बंदरबांट होने लगा। नाख़ून से दीवारों को नोचने की क्रिया-प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी और आज भी चल रही है।
लेकिन आज तक यह गुत्थी सुलझ नहीं पाया कि आखिर महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु कैसे हुई? आज शरीर से जीवित लोग भले इस बात का बाजारीकरण करते हों अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए – चाहे राजनीतिक हो अथवा सामाजिक, आर्थिक हो अथवा सांस्कृतिक – हकीकत और यथार्थ तो यही है कि महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की अंतिम सांस के साथ ही दरभंगा राज का यश, कीर्ति, ख्याति, शोहरत, प्रसिद्धि, संस्कृति, गरिमा, प्रतिष्ठा, सौभाग्य, अहिवात, सुहाग, खुशकिस्मती, मान-मर्यादा, गौरव, इज्जत, आदर, सत्कार सभी का अंतिम संस्कार उनके पार्थिव शरीर के साथ ही हो गया। तीन-तीन पत्नियों के होते हुए महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह निःसंतान मृत्यु को प्राप्त किये। आज जो भी यह दावा करते हैं कि वे अपने पूर्वजों की गरिमा को स्थापित करने की ओर उन्मुख हैं – झूठ बोल रहे हैं। उन्हें पहचान की किल्लत है।
कल की ही तो बात है बिहार और झारखण्ड से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक में महाराजा की कीर्तियों को विज्ञापन के रूप में संतानहीन महाराजा के अनुज राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के कनिष्ठ पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह के सबसे छोटे पुत्र कपिलेश्वर सिंह की तस्वीर को प्रमुखता देते प्रकाशित किया गया। प्रदेश से प्रकाशित एक ऐसे समाचार पत्र में, जिसका वजूद न तो बिहार की मिटटी के साथ है और ना ही मिथिला की मिटटी के साथ (सिवाय व्यवसाय छोड़कर) में प्रकाशित विज्ञापन रूपी कहानी को देखकर, पढ़कर मन खिन्न हो गया। यह स्पष्ट हो गया की महाराजाधिराज की मृत्यु के 62 वर्ष बाद भी सामाजिक सम्मान के लिए दरभंगा राज के लोगों को महाराजाधिराज के पार्थिव शरीर के शरण में ही जाना होता है।
इन बासठ वर्षों में अपना कोई वजूद नहीं बना सके जिसकी छवि से बिहार ही नहीं, मिथिला ही नहीं, देश के लोग, विद्वान, विदुषी आकर्षित होते। अलबत्ता, सन 1930 और 1940 में अपने पिता महाराजा रामेश्वर सिंह के सम्मानार्थ उनके पुत्र महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित दो समाचार पत्र – आर्यावर्त और इंडियन नेशन – जिसकी तूती बोलती थी कभी, के नाम को, गरिमा को, प्रतिष्ठा को, कार्यालय का नामोंनिशान पटना के फ़्रेज़र रोड की मिटटी में मिला दिया । आने-जाने वाले लोग, जो महाराजा साहब को भी जानते थे, उनकी दान-वीरता को जानते थे, उनकी मानवीयता को जानते थे, देखे थे – अन्तःमन से उन्हें नमस्कार कर अश्रुपूरित अवस्था में आगे कदम कर लेते हैं। आखिर, वे भी करें तो क्या करें।
लेकिन दुर्भाग्य है। शिक्षित मनुष्य अथवा जो आज ही नहीं, आने वाले समय में भी शिक्षा के महत्व को समझेगा, वही दरभंगा राज या महाराजा श्री लक्ष्मेश्वर सिंह से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक के ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से इन तथ्यों को समझेगा, बचाने का प्रयास करेगा। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज के समय में सम्पूर्णता के साथ शिक्षा और सोच का नामोनिशान ख़त्म हो गया है, ख़त्म हो रहा ही। राज दरभंगा के महाराजों की कीर्तियाँ मिटटी में मिल गयी हैं। सबों की निगाहें अंततः उनकी सम्पत्तियों पर जा टिकी है, फिर आप क्या उम्मीद करते हैं कि महाराजा, महाराजाधिराज या महारानीजी की सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में जो योगदान हैं – वह बच पायेगा ? कभी नहीं।
आज नहीं तो कल, टीवी के किसी रियलिटी शो में 1000 रुपये का या फिर एक करोड़ रुपये का एक प्रश्न पूछा जाएगा कि भारत के वे कौन से महाराजा थे जिन्होंने अपने प्रदेश के लोगों को “आवाज़” देने के लिए, ताकि उनके राज्य के लोग बिना किसी भय के अपनी बातें कह सकें, लिख सकें, प्रकाशित कर सकें – दो समाचार पत्र प्रकाशित कर दिए । लेकिन उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों के बाद उस आवाज को बंद कर, मिटटी में मिला दिया गया और हज़ारों परिवारों का अस्तित्व समाप्त कर दिया गए – अपने हित लिए। आज नहीं तो कल जब भारत के महाराजाओं, जमीन्दारों पर गाँव के खलिहानों में, पंचायत के चबूतरों पर, मन्दिरों के चौखटों पर तत्कालीन लोग-बाग़ चर्चाएं करेंगे तो महाराजा दरभंगा लक्ष्मेश्वर सिंह, कामेश्वर सिंह का नाम लेते ही लोगों की आखें अश्रुपूरित हो जाएंगी। गंगा-यमुना की धाराओं जैसी बहती आखें उन महाराजाओं को अपने- अन्तःमन से प्रणाम भी करेंगे, उनके नामों को जमीन पर अपनी उँगलियों से मिटटी को खोदकर लिखेंगे भी, फिर उस नाम के सामने अपने-अपने मस्तष्क को झुकाकर उन्हें भावांजलि, श्रद्धांजलि भी देंगे – लेकिन उसके बाद महाराजाओं की अगली पीढ़ियों को, जो उनकी सम्पत्तियों का हिस्सेदार बने; क्या-क्या कहेंगे यह तो समय ही बताएगा।
लोगबाग तो यह भी कहने लगे हैं, किताबों में लिखने लगे हैं कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित आर्यावर्त – इण्डियन नेशन समाचार पत्रों को “एक सोची-समझी साजिश के तहत पहले नेश्तोनाबूद किया गया, फिर बंद किया गया, फिर उस आवाज को भी बेच दिया गया। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह आर्यावर्त हिन्दी दैनिक और इण्डियन नेशन अंग्रेजी दैनिक को बिहार के लोगों की आवाज मानते थे। हज़ारो-हज़ार परिवारों के पेटों पर लात मारकर उन अख़बारों के बंद होने, भवनों को मिटटी में मिलने का अर्थ बिहार के लोगों को ‘मूक-बनाना’ हुआ, अस्तित्व मिटाना हुआ, महाराजाधिराज के प्रति बिहार के लोगों की आस्था, स्नेह, प्रेम, आत्मीयता को मिटटी में दफ़न करना हुआ।
कहीं ऐसा तो नहीं की पटना उच्च न्यायालय में न्याय-मिलने की अवधि कलकत्ता उच्च न्यायालय की तुलना में अधिक लम्बी होती है। इण्डियन नेशन – आर्यावर्त पत्र समूह (न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड) के स्वामी दिवंगत शुभेश्वर सिंह थे। महाराजा की मृत्यु के बाद यह संस्थान उन्हें “हिस्से” में मिला। उनकी मृत्यु के पश्चयात इस पत्र समूह का मालिक उनके पुत्रद्वय हुए। दसको पहले इन समाचार पत्रों का दफ्तर-जमीन बेच दिया गया। आज वहां एक मॉल है जिसका नाम ‘महाराजा कामेश्वर कॉम्प्लेक्स” है। प्रदेश के विद्वानों का, महाराजा के प्रति समर्पित लोगों का कहना है कि “आज महाराजाधिराज की अगली पीढ़ियां, जो सम्पत्तियों का मालिक बने, इतना भी उन्हें सामान नहीं समझे की इस कॉम्प्लेक्स में महाराजा साहेब के पूरा नाम उद्धृत करते। इतना ही नहीं, महाराजाधिराज का नाम कभी ‘मॉल’ के नाम के रूप में ‘वह भी अक्षरहीन’, या फिर दिव्यांगों को दी जाने वाली ट्राइस्किल के पीछे लिखा दीखता है – वह भी अशुद्ध, महाराजाधिराज कभी सोचे भी नहीं होंगे ।
आज स्थिति ऐसी है कि इंडियन नेशन प्रेस (न्यूज़ पेपर पब्लिकेशन लि, 42 चौरंगी (कलकत्ता ) अब रामबाग की अधिकांश जमीन भी बिक गयी है। सबसे पहले दिलखुश बाग का एरिया बिका फिर सिंह द्वार के समीप और सुनने में है कि मधुबनी स्थित भौरा गढ़ी का भी डील हो गया है । दरभंगा राज का क्रियाकलाप महाराजा के मृत्यु के बाद मुख्यतः लक्ष्मीकांत झा, दुर्गानन्द झा और पंडित द्वारिका नाथ झा के इर्द -गिर्द था । सबसे पहले तीनो राजकुमार (महाराजा के भतीजा) ने बेला पैलेस सहित 80 एकड़ का 1968 में सौदा किया और दरभंगा में बिना आवास के हो गए। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने सबसे छोटे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को अपने रामबाग में रखा। वसियत के अनुसार बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी के मृत्यु के बाद उनके महल पर राजकुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होगा। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह घर का नाम बेबी राजनगर रहने लगे और उनकी बड़ी पत्नी राजकिशोरी जी अपनी दोनों बेटी के साथ और मझले राजकुमार यजनेश्वर सिंह अपने परिवार के साथ यूरोपियन गेस्ट हाउस ऊपरी मंजिल पर उत्तर और दझिण भाग में आ गए।
बेला पैलेस के सौदा होने के कालखंड में मार्च 1967 में 92 लाख रूपये में राज ट्रेज़री का गहने और जवाहरात की नीलामी डेथ ड्यूटी चुकाने के लिए हुई जिसमे मशहुर MarieAntoinettee हार, धोलपुर क्राउन, नेपाली हार, और हीरे – जवाहरात थे। जिसे बॉम्बे के नानुभाई जौहरी ने खरीदा । बाम्बे के गोरेगांव में नानूभाई की नीरलोन नाम की कंपनी भी है। उसके बाद 45 लाख में रामेश्वर जूट मील, मुक्तापुर बिडला के हाथ, फिर वाल्फोर्ड ट्रांसपोर्ट कंपनी, कोलकाता डेविड के हाथ, दरभंगा हवाई अड्डा केंद्र सरकार ने ले ली। सुगर फैक्ट्री लोहट और सकरी, अशोक पेपर मील, हायाघाट, दरभंगा – लहेरियासराय इलेक्ट्रिक सप्लाई बिहार सरकार ने । विश्राम कोठी, दरभंगा और बॉम्बे का पेद्दर रोड, इनकम टैक्स के हाथ, दरभंगा हाउस शिमला, दरभंगा हाउस दिल्ली सेंट्रल गवर्नमेंट को, रांची का दरभंगा हाउस सेंट्रल कोल् फील्ड लिमिटेड को, फिर नरगोना पैलेस, राज हेड ऑफिस, यूरोपियन गेस्ट हाउस, मोतीमहल, राज फील्ड, राज प्रेस, देनवी कोठी, लालबाग गेस्ट हाउस, बंगलो नो. 6 और 11, राज अस्तबल, श्रोत्रि लाइन, सहित सैकड़ों एकड़ जमीन मिथिला विश्वविद्यालय को, रेल ट्रैक और सलून, वाटर बोट, बग्घी, फर्नीचर, कार रोल्स रायस- बेंटली – बियुक –पेकार्ड –शेवेर्लेट – प्लायमौथ – 50 एच् . पी जॉर्ज V बॉडी आदि ।
बड़ी महारानी के 1976 में देहांत होने और 1978 में पंडित लक्ष्मी कान्त झा के देहांत के बाद दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। श्री मदनमोहन मिश्र ( गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बड़े पुत्र), श्री द्वारिका नाथ झा और श्री दुर्गानंद झा तीनो ट्रस्टी के अधीन। फिर श्री दुर्गानंद झा के देहांत के बाद 1983 के आसपास श्री गोविन्द मोहन मिश्र ट्रस्टी बने और फिर उनके स्थान पर श्री कामनाथ झा ट्रस्टी बने । राजकुमार शुभेश्वर सिंह 1965 के आसपास दरभंगा राज के मामले में सक्रिय हो गये थे उन्हें रामेश्वर जूट मिल, फिर सुगर कंपनी और न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लिमिटेड का जिम्मेवारी मिली।
सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी रहे दरभंगा राज के मामले में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं था। राजनगर से वे गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बाद बंगला नंबर 1, गिरीन्द्र मोहन रोड में अपने दूसरी पत्नी और 5 पुत्री के साथ रहने लगे। स्व . महाराजाधिराज के तथाकथित परिवार के सदस्यों ने माननीय उच्चतम न्यायालय में एक फॅमिली सेटलमेंट नो . 17406-07ऑफ़ 1987 में फॅमिली सेटलमेंट हुआ। जिसमे महाराजा के वसीयत के विपरीत छोटी महारानी के जिन्दा रहते कुल संपत्ति का एक चौथै हिस्सा पब्लिक चैरिटी को मिला और 1/4 छोटी महारानी, 1/4 राजकुमार शुभेश्वर सिंह और उनके दोनों पुत्र को और 1/4 में मंझले राजकुमार के पुत्रों और बड़े राजकुमार के 7 पुत्रियों को मिला।
मुग़ल शासनकाल हो या ब्रितानिया सरकार का शासन, दरभंगा के राजा-महाराजाओं ने कभी अपने साम्राज्य की भूमि, साम्राज्य में रहले वाले लोग, उनका खेत-खलिहान, राज की संपत्ति, राज का किला आदि के रक्षार्थ ‘युद्ध के लिए सज्ज’ नहीं हुए। कभी शस्त्र नहीं उठाये जनता के सम्मानार्थ, उनके रक्षार्थ । सम्पूर्ण जीवनकाल अपनी धन अर्जित करने, दान देने में और शोहरत कमाने में मशगूल रह गए। स्वाभाविक है ‘चारदीवारी के अंदर रहने वाला परिवार’, महिलाएं, बच्चे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपेक्षित ही नहीं, बहुत अधिक उपेक्षित होगा। दरभंगा राज के पतन का सबसे बड़ा कारण रहा महाराज द्वारा परिवारों का मनोवैज्ञानिक उपेक्षा। भारत में जिस तरह मुग़ल साम्राज्य और ब्रितानिया सरकार का अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन हुआ, ‘कुछ अपवाद छोड़कर’ उत्तर बिहार के दरभंगा राज और वहां के राजाओं-महाराजाओं की कथा-व्यथा, अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन लगभग वैसे ही है।
मुग़ल सल्तनत में जिस तरह अकबर, शाहजहां, जहाँगीर और औरंगजेब का नाम इतिहास के पन्नों से नहीं मिटाया जा सकता है, दरभंगा राज में भी, राजा महिनाथ ठाकुर, राजा राघव सिंह, राजा नरेंद्र सिंह को अपने-अपने साम्राज्यों को बचाने, बढ़ाने के लिए नहीं भुलाया जा सकता। दरभंगा राज के स्थापना काल से इसके पतन तक सिर्फ ये ही तीन राजाओं का नाम उल्लिखित दीखता है, जो अपने प्रान्त को बचाने के लिए, अपने नागरिकों के जान-माल की रक्षा के लिए, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए, आर्थिक, सामाजिक समृद्धि सुरक्षित करने के लिए अपनी “अंतिम साँसों” का परवाह किये, हथियार उठाये, जान की बाजी लगाए, और युद्ध-क्षेत्र में सज्ज हो गए। इन राजाओं के बाद, दरभंगा राज में जितने भी राजा-महाराजा, यहाँ तक की महाराजाधिराज हुए, किन्ही का नाम आधुनिक भारत के इतिहास में “योद्धा” के रूप में उल्लिखित नहीं है, महाराणा प्रताप की तरह। हाँ, मुगलिया शासन के बाद, ब्रितानिया शासन में अपने भी “दानशीलता” को लेकर, सेवा-सुश्रुषा को लेकर ही जाने गए – योद्धा के रूप में नहीं।
उससे भी बड़ी बात यह है कि दरभंगा अंतिम तीन राजाओं – महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह – जिनका नाम इतिहासकारों ने “स्वर्णाक्षरों” में लिखा है, जहाँ तक देश में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, भौगोलिक, आध्यात्मिक समृद्धि और विकास का प्रश्न है, उनकी दानशीलता का प्रश्न है, उनकी मानवीयता का प्रश्न है। परन्तु महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद आज की पीढ़ी को इस बात की पीड़ा है कि महाराजाधिराज के साथ साथ, उनके भाई राजकुमार विशेश्वर सिंह भी, अपने जीवन-काल में कभी दरभंगा राज के चहारदीवारी के अंदर रहने वाले अपने सम्बन्धियों को, लोगों को, बच्चों को, महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने, जीवन में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने, लोगों से मिलने-जुलने का कभी कोई अवसर नहीं दिए। उन लोगों ने चहारदीवारी के अंदर रहने वाले लोगों के लिए वे सभी सुख-सुविधाएँ तो दिए जो मानव-शरीर को जीवित रहने के लिए आवश्यक था, परन्तु किसी भी सदस्य को वह ‘संवेदनात्मक, भावनात्मक स्पर्श नहीं मिल पाया जो मानव-जीवन को प्रफुल्लित रहने, हंसने-हंसाने, मानसिक विकास के लिए आवश्यक था। यह दुर्भाग्य रहा जिसकी पीड़ा आज की पीढ़ियां भुगत रही है।
चाहे महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह हों, चाहे महाराजा रामेश्वर सिंह हों या महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह हों, उनके जीवन काल की शायद ही कोई तस्वीर आज किसी के पास होगी या दरभंगा राज के पुतकालयों में, या पानी-बारिस में सड़ रहे पुराने दस्तावेजों में होगी, शायद ही कोई उसे ‘एक पुरातत्व के रूप में ही सही’, संजोकर रखे होंगे जिसमें महाराजाधिराज अथवा उनके भ्राता अपनी पत्नियों को, घर के बच्चों को, भतीजे-भतीजियों सम्बन्धियों को एक पिता के रूप में, परिवार के एक अभिभावक के रूप में, एक पति के रूप में उन सबों को दरभंगा अथवा दरभंगा से बाहर होने वाले किसी भी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ले गए हों।
यह अलग बात है कि ब्रितानिया सरकार के आगमन के बाद या फिर देश में स्वाधीनता संग्राम की बिगुल बजने के बाद महाराजाधिराज और राजबहादुर विशेश्वर सिंह सैकड़ों, हज़ारों कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए। इतना ही नहीं, सैकड़ों बार ब्रितानिया सरकार के आला अधिकारी, भारत के तत्कालीन राजनेता दरभंगा पधारे थे। सभी अपने में ही मग्न थे। परिवार और बच्चों को जरूरत का सामान दे देना, भोजन-वस्त्र-आवास-आभूषण की पर्याप्त उपलब्धि करा देना ही उन लोगों के नजर में ‘सर्वोपरि” था। अपनी प्रतिष्ठा को उत्कर्ष पर ले जाने में सभी मग्न थे। धन अर्जित करने में मग्न थे। दानशीलता को बढाकर “वह-वाही” लूटने में मग्न थे, खुद मुस्कुराने में मग्न थे – परन्तु कभी नहीं सोचे की चारदीवारी के अंदर रहने वाले लोग, रहने वाले बच्चे भी हंसना चाहते हैं। उनकी भी इक्षा होती है कि वे समाज के दूसरे लोगों को अपने गले लगाकर इस बात को महसूस करें कि समाज के अन्य लोगों के शरीर में, बच्चों में भी नसों में भी रक्त बहते हैं, रक्त के संचार से शरीर में एक स्पंदन भी होता है जिसे अनुभव भी किया जा सकता है और इसके लिए चारदीवारी से बाहर निकलना या फिर बाहर के लोगों को अंदर आने देना, महत्वपूर्ण था। आज जो नोच-खसोट हो रहा है, महाराजाओं की गरिमा का घज्जि उड़ाया जा रहा है – शायद उसका ही परिणाम हो।
अनेकानेक अनुत्तर-प्रश्न आज भी उस चारदीवारी के अंदर मुद्दत से भ्रमण कर रही है। लोग बोलना चाहते हैं, लेकिन बोल नहीं पाते। भावनात्मक और संवेदनात्मक रूप से पूछने वालों की घोर किल्लत है। जिस तरह भवनों, किलों की दीवारें मुद्दत से सुख गयी हैं, रंगों के लिए तरस गयी है, चतुर्दिक उनके आस-पास कहीं पीपल तो कहीं बरगदों के पौधे बृक्षों का रूप ले लिए हैं, जो इस बात का गवाह है कि उस चारदीवारी के अंदर न सौ-साल पहले कोई आत्मीयता थी, और ना आज है। महाराजा का शरीर जब तक पार्थिव नहीं हुआ था, वे अपने नाम,शोहरत अर्जित करने में मशगूल थे, परिवार, बच्चे उपेक्षित रहे। उनके शरीर को पार्थिव होने के बाद उनकी सम्पत्तियाँ उस चारदीवारी के अंदर मानवता को पुनः स्थापित नहीं कर सकी।
ऐसा लगता है कि मानवीयता, सामाजिकता, अपनापन, स्नेह, उदगार, मुस्कान, ख़ुशी सभी के “स्तन सुख गए हों” – महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थी औसतन अन्य लाभार्थियों से (सभी खून का सम्बन्ध है) एक तो मिलते नहीं, बातचीत भी मुद्दत में ही होती है – अगर कभी “ईद का चाँद दिख गया, गले में आवाज भी आ गयी, तो सबों की उपस्थिति ऐसी होती है जैसे कोई किसी को जानता नहीं। सभी एक दूसरे को महाराजा के वसीयत में लिखे गए शब्दों को देखने लगते हैं, एक दूसरे को मिली सम्पत्तियों को आंकने लगते हैं। अब उन्हें कैसे कहा जाय, समझाया जाय की न तो महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, न तो महाराजा रामेश्वर सिंह और ना ही महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपनी अर्जित सम्पत्तियों को अपने साथ ले गए – मानसिक पतन का पराकाष्ठा।
राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक सबों ने मिथिलांचल की गरिमा को बढ़ाने में, मिथिला का नाम रोशन करने में चाहे जो भी भूमिका निभाए हों; इस सत्यता से भी इंकार नहीं नहीं किया जा सकता है कि दरभंगा के राजा-महाराजाओं ने अपने ही घर में महिलाओं को छोड़िये, पुरुषों को भी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुख्या धाराओं में कभी पैर रखने नहीं दिया। उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों से स्वयं को अवगत भी होने नहीं दिया। घर के चारदीवारी के बीच, घर के लोगों के बीच रहना ही उनका प्रारब्ध रहा। इस राजनीति के पीछे परिवार का अनुशासन तो कोई नहीं हो सका। हाँ, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि तत्कालीन राजा-महाराजा सभी एक भय के वातावरण में जी रहे थे – मुगलों की तरह कहीं घर का ही कोई संतान ‘राजगद्दी के लिए’ हथियार न उठा ले, राज-सत्ता पर धाबा नहीं बोल दे। हो तो कुछ भी सकता था। कहीं इसी भय से “राजा-महाराजा” के अलावे “परिवार के अन्य महिला-पुरुषों को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने का, आधुनिकता और समय के अनुसार स्वयं को सज्ज करने का, तत्कालीन वातावरण को समझने का मौका ही नहीं दिया गया। जो कुंठित मानसिकता का एक जीता-जागता उद्धरण है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज दरभंगा राज, राज की वर्तमान पीढ़ी का यह हश्र भी नहीं होता।
उधर 1757 में पलासी का युद्ध, 1764 में बक्सर का युद्ध से कंपनी की शक्ति मजबूत हुई। और शाह आलम की नियुक्ति बंगाल का राजस्व कलेक्टर, बिहार और उड़ीसा। यानी कंपनी राज गंगा के तटवर्ती इलाकों पर अपना झंडा गाड़ दिया। फिर समयांतराल दक्षिण भारत के बड़े क्षेत्रों के नियंत्रण स्थापित कर लिया। रानी पद्मावती के बाद, दरभंगा राज का कमान राजा प्रताप सिंह (1778-1785), राजा माधव सिंह (1785-1807), महाराजा छत्र सिंह (1807-1839), महाराजा रूद्र सिंह (1839-1850), महाराजा महेश्वर सिंह (1850-1860) इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे। फिर आये महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह (1880-1898) महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह (1898-1929) इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ का अन्य उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाए तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर का अवशेष भवन और सूखता पोखर गवाह है उन दिनों का। नौलखा भवन 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था। कहा जाता है कि राज की राजधानी दरभंगा से राजनगर लाने का प्रस्ताव था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ये माँ काली के भक्त थे और तंत्र विद्या के ज्ञाता भी थे। जून 1929 में इनकी मृत्यु हो गयी।
अंत में, महाराजा रामेश्वर सिंह के बाद महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा राज के गद्दी पर बैठे। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। वे अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी थी। वे अनेकानेक कंपनियों की शुरुआत किये थे जिससे प्रान्त का विकास हो, लोगों को रोजगार मिले, शिक्षा मिले। आय के नये स्रोत बने। प्रदेश में इन्होने दो अख़बारों का प्रकाशन प्रारम्भ किये – आर्यावर्त और इण्डियन नेशन तथा मैथिलि के विकास के लिए मिथिला मिहिर नमक पत्रिका। वे संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे। सन् 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ।
ज्ञातब्य हो कि जब महाराजा रमेश्वर सिंह अपने मानवीय-धार्मिक-राजनीतिक कार्यों के उत्कर्ष पर थे उसी समय सर हेनरी कॉटन भारत के असम के तत्कालीन चीफ़ कमीशनर से प्रभार लेकर असम के नए कमीश्नर बन गए थे। इन राज्यों में 12 जून, 1897 को भूकंप आया था। इस भूकंप और उसके बाद महाराजा रमेश्वर सिंह का योगदान ‘स्वर्णाक्षरों” में लिखने योग्य है। लेकिन लिखेगा कौन? यहाँ तो सभी सोने के पीछे भाग रहे हैं। टाईम्स ऑफ़ इण्डिया का यह सम्पादकीय इस बात का गवाह है कि तत्कालीन महाराजा दरभंगा श्री रामेश्वर सिंह जी और उनके पूर्व उनके अग्रज महाराजा श्री लक्ष्मेश्वर सिंह न केवल अपने सल्तनत के लोगों के लिए चिंतित रहते थे, बल्कि देश की सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा के विकास और आर्थिक उन्नति के लिए भी उतने ही संवेदनशील थे। उनके ह्रदय में अपने परिवार और परिजनों के प्रति सकारात्मक विचार प्रति-पल उद्वलित होते थे। लेकिन आज और आज की पीढ़ी अपने पूर्वजों के उस सम्मान को, उस संवेदना को, बरकरार रखी ? असम के लोग कहते हैं – नहीं।
बहरहाल, 12 जून, 1897 उत्तर-पूर्व भारत में आये भूकंप के बाद जिस सम्मान के साथ दरभंगा राज के महाराजाओं ने गौहाटी के ऐतिहासिक कामाख्या मन्दिर का जीर्णोद्धार किये, जिस तरह नीलांचल पर्वत पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर का जीर्णोद्धार किये, उसी नीलांचल पर्वत श्रृंखला पर ऐतिहासिक आठ-कमरों का आवास बनाये, कामाख्या संस्था को दरभंगा की मिट्टी रहते मंदिर और उसके आस-पास के क्षेत्रों का विकास करने के प्रति बचनबद्धता दिखाए, जिस तरह कामाख्या संस्था के तत्कालीन पंडितों से लेकर अधिकारियों तक दरभंगा राज के एक सदस्य को कामाख्या ट्रस्ट में आजीवन-सदस्यता हेतु बचनबद्धता दिखाए – आज तक किसी ने चूं तक नहीं किये।
परिणाम: असम राज्य में महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक अर्जित लाखों-लाख एकड़ भूमि और अन्य सम्पत्तियाँ न केवल मिथिलांचल से प्रवासित लोगों ने अधिपत्य जमा लिए, बल्कि स्थानीय लोगों ने भी लूट के उस दौड़ में स्वयं को पीछे नहीं रहा। कहा जाता है कि भुनेश्वरी मंदिर के पास नीलांचल पर्वत पर बना वह पुरात्तव जैसा आवासीय महल पर भी स्थानीय लोगों का कब्ज़ा है। कामाख्या के स्थानीय लोगों का कहना है कि उस भवन में असम सरकार के कोई अधिकारी विगत पांच दसक से भी अधिक समय से रह रहे हैं। इस दिशा में न तो कभी महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट अथवा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाऊंडेशन द्वारा पहल किया गया।
टाईम्स ऑफ़ इण्डिया का यह सम्पादकीय महाराजा सर रामेश्वर सिंह की कामाख्या यात्रा के साथ-साथ स्थानीय लोगों की शिकायतों के निवारण के इर्द-गिर्द लिखा गया है। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि कैसे महाराजा रामेश्वर सिंह अपने बड़े भाई महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के कार्यों की भूरी-भूरी प्रसंशा किये थे; बल्कि इस बात को भी स्पष्ट लिखा है कि वे सामाजिक कार्यों में, स्थानीय लोगों के कल्याणार्थ, अपने बड़े भाई के पदचिन्हों पर ही चलेंगे। यह भी उद्धृत किया है कि कैसे महाराजा साहेब ने तत्कालीन असम के कमिश्नर द्वारा किये गए कार्यों की प्रशंसा किये हैं। साथ ही, तत्कालीन हुकूमत और व्यवस्था में दरभंगा राज की पकड़ के कारण लोगों को विस्वास दिलाये की वे स्थानीय लोगों के कल्याणार्थ वह सभी कार्य निष्पादित करेंगे, जो बड़े भाई करते थे। साथ ही, यह भी विस्वास दिलाया की उनकी बातों को व्यवस्था कभी भी ठुकराएगी नहीं।
अपने बड़े भ्राता के मृत्यु के उपरान्त वे सन 1898 में महाराजा बने और जीवन पर्यन्त महाराजा रहे। वे भारतीय सिविल सेवा में भर्ती हुए थे और दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट भी रहे। लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे। वह 1899 में भारत के गवर्नर जनरल की भारत परिषद के सदस्य थे और 21 सितंबर 1904 को एक गैर-सरकारी सदस्य नियुक्त किये गए थे जो बम्बई प्रान्त के गोपाल कृष्ण गोखले के साथ बंगाल प्रांतों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वह बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष, राज्य परिषद के सदस्य, कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल के ट्रस्टी, हिंदू विश्वविद्यालय सोसायटी के अध्यक्ष, एम.ई.सी. बिहार और उड़ीसा के सदस्य और भारतीय पुलिस आयोग के सदस्य (1902–03) थें। उन्हें 1900 में कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया गया था। वह भारत पुलिस आयोग के एकमात्र सदस्य थें, जिन्होंने पुलिस सेवा के लिए आवश्यकताओं पर एक रिपोर्ट के साथ असंतोष किया, और सुझाव दिया कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती एक ही परीक्षा के माध्यम से होनी चाहिए। केवल भारत और ब्रिटेन में एक साथ आयोजित किया जाएगा। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भर्ती रंग या राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं होनी चाहिए। इस सुझाव को भारत पुलिस आयोग ने अस्वीकार कर दिया। उन्हें 26 जून 1902 को नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर (KCIE) के नाम से जाना गया, 1915 की बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में एक नाइट ग्रैंड कमांडर (GCIE) में पदोन्नत किया गया और उन्हें नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का नाइट कमांडर नियुक्त किया गया, 1918 बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में सिविल डिवीजन (KBE) में। (क्रमशः …..)