साख़ और सट्टा : गंगा किनारे की एक कहानी जिसने बिहार के पत्रकारों को दो फांक में बाँट दिया, पटना से दिल्ली तक हिला दिया

पत्रकार अंजनी विशाल, उनका वह अखबार 'पाटलिपुत्र टाइम्स' और विशाल की अपनी पत्नी कुसुम जी के साथ : जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला

पटना : आज के हिंदी भाषा-भाषी के पत्रकार इस बात को स्वीकार नहीं कर पाएंगे की उनकी भाषा में प्रकाशित अखबार और उसकी ख़बरें प्रदेश के सिंहासन को ही नहीं, देश की राजधानी और राजधानी के रायसीना हिल पर अंग्रेजों के ज़माने में बना भवन का नींव तक हिल गया था। आज के लोगबाग “हॉट” शब्द को ‘नग्नता’ का परिचायक मानते हैं, उस ज़माने में बिहार और दिल्ली “हॉट-लाईन” पर महीनों तक जुड़ा रहा और प्रदेश की तत्कालीन व्यवस्था की नग्नता को दिखता रहा। पटना की एक गली में रहने वाला वह पत्रकार रातो-रात विश्व पत्रकारिता के पटल पर छा गया। 

परिणाम यह हुआ कि प्रदेश में भाषा के आधार पर, या फिर अंग्रेजी भाषा के आस-पास रहने वाले पत्रकार बंधु-बांधव और हिंदी भाषा-भाषी के पत्रकार “दो-फांक” में बंट गए। पूरे प्रदेश में, खासकर पटना में पदस्थापित राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों के पत्रकारों के साथ-साथ पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अख़बारों के पत्रकारों में “भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद क्यों” की मानसिक दशा से ग्रसित हो गए । उस पत्रकार और उसकी कहानी की साख़ पर प्रश्न चिन्ह ;लगा दिया गया।अस्सी के दशक में घटने वाली उस ऐतिहासिक घटना को आज भी उस ज़माने के वरिष्ठ पत्रकारगण स्वीकारते हैं। 

यह अलग बात है कि उस हिंदी पत्रकार को, उस छायाकार को, जिसने उस कहानी को लिखा था, जिसने पटना में बहने वाली गंगा की अविरल धारा में धोने, छनने वाले उस नरमुंडों की तस्वीरों को अपने कैमरे में क्लिक-क्लिक किया था; उस कहानी के प्रकाशन के बाद जीवन के अगले दो दशक तक स्वयं और उसके परिवार के एक-एक सदस्यों को एक-एक सांस के लिए लड़ना पड़ा था। उसे अपने चार-वर्षीय इकलौता पुत्र को भी मृत्यु को सौंपना पड़ा था। परिवार को मुद्दत तक छिपते-छिपाते पटना और प्रदेश के अन्य शहरों में, गलियों में एक-एक सांस के लिए लड़ना पड़ा था। और अंत में उस लेखनी के तीन दशक बाद दोनों को अपनी पत्नी, बच्चों को छोड़कर, मृत्यु को वरन करना पड़ा । सोचिये जरूर क्योंकि हिंदी में बहुत ताकत है। यह अपनी भाषा है और अपनी भाषा में बात करने से, लिखने से शब्द ह्रदय से आते हैं। उस संवाददाता के प्रत्येक शब्द भी उसके हृदय से निकले थे।  

पाटलिपुत्र टाइम्स, पटना : 27 जून, 1985

बहरहाल, कोई दस साल पहले भारतीय प्रेस परिषद् के सम्मानित सदस्यगण पटना के दौरे पर थे। साल था 2012 और महीना फरवरी। उन दिनों भारतीय प्रेस परिषद् को बहुत सारी चिठियां प्राप्त हुई थी। बिहार के पत्रकारों ने अपनी-अपनी शिकायत दर्ज किये थे। उन लोगों का कहना था कि उनके लिए अब पत्रकारिता कर्तव्य का निर्वाह करना, मुफ्त से रिपोर्टिंग करना कठिन हो गया था। नौकरी जाने, स्थानांतरित किये जाने का खतरा उनके सर पर तलवार के तरह लटकता रहता है। अलग-अलग तरीकों से उन्हें उत्पीड़ित किया जाता है । 

भारतीय प्रेस परिषद् ने यह भी कहा था कि बिहार के पत्रकारिता के इतिहास को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा सकता है क्योंकि बिहार में ‘भाषा मीडिया’ हमेशा प्रमुख भूमिका निभाई है। उनके लेखन में साहस दिखता है। राज्य की प्रति व्यक्ति कम आय और अशिक्षा की उच्च दर होने के बावजूद, बिहार का हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाएं भारतीय बाज़ार में अपना अधिपत्य जमाये हुए हैं। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण पत्रकारिता की गुणवत्ता, राज्य के पाठकों के ज्ञान और आलोचनात्मक विश्लेषण है। परिषद् ने यह भी स्वीकारा था बिहार की पत्रकारिता को देश की आदर्श पत्रकारिता का नींव मन जा सकता है। यहाँ पत्रकारिता की गुणवत्ता के मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया। अस्सी के दशक में जब जगन्नाथ मिश्र की सरकार ने प्रेस का मुंह बंद करना चाहा या प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के राज में आपातकाल लगाए जाने के दौरान बिहार के पत्रकार प्रेस की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए “जी जान” से लड़े। उल्लेखनीय है कि बिहार के पत्रकारों ने देश के कई मीडिया संस्थानों के “स्तम्भ के रूप” में कार्य किया है उनकी सोच “स्पष्ट” थी, उनमें लेखन का “साहस” था, उनके अंदर “सत्य”, “प्रतिबद्धता”, “निष्ठा” और “धैर्य” था। 

लेकिन वर्तमान काल में एक खतरनाक प्रवृत्ति देखने को मिली जिससे ऐसा पता चलता है कि सत्य को लिखने का अधिकार राज्य में खो गया है। यह केवल उस अधिकार का उल्लंघन नहीं है जिसकी गारंटी संविधान के अधीन दी गयी है अपितु यह स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिये भी एक खतरा है जिसके परिणामतः राज्य में एक अप्रिय स्थिति पैदा हो गयी है। मीडिया पर सरकार के प्रत्यक्ष दबाव के कारण छोटे से आंदोलन से संबंधित समाचार को भी राज्य में बंद कर दिया जाता है जो अन्यथा जनता की चिंता सम्बन्धी मामलों को उठाने के बारे में जाना जाता था। आंदोलन से संबंधित समाचारों को समाचार पत्रों के सार्वजनिक अंकों में स्थान नहीं दिया जाता है, जो सरकार के कार्यों के सम्बन्ध में असहज प्रश्न उठाने का साहस करते हैं और सुशासन की कमजोरियों और चूकों की ओर इशारा करती है। 

भारतीय प्रेस परिषद् के इस कथन के दो साल बाद एक ऐसे पत्रकार का देहांत होता है, जो देश के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ माह बाद, प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बिंदेश्वरी दुबे के कार्यकाल में एक ऐसी खबर का रहस्योद्घाटन किया था जिससे न केवल पटना, बल्कि बिहार, दिल्ली और विश्व में कोहराम मच गया था। उस पत्रकार की मौत की चर्चा (अपवाद छोड़कर) किसी भी अखबार में नहीं होता। आज उस घटना के 37-वर्ष बाद यह स्पष्ट रूप से अंकित नहीं किया जा सकता कि उस पत्रकार का वह संवाद गलत था, या संवाददाता गलत था, या उस संवाद को प्रकाशित करने के लिए संपादक गलत थे, संस्थान को चलाने वाले मालिक गलत थे, तत्कालीन व्यवस्था गलत थी, तत्कालीन प्रशासन में जुड़े लोगों की सोच गलत थी – लेकिन एक बात तो तय है कि उस कहानी को निरस्त करने के लिए प्रदेश के स्तर के पत्रकारों से लेकर – विशेषकर अंग्रेजी भाषा के पत्रकार – राष्ट्रीय स्तर तक के पत्रकारों में एकता का जो गोलबंदी हुआ, शायद वैसा गोलबंदी बिहार कभी नहीं देखा। 

वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानवर्धन मिश्र

तभी तो भारतीय की पत्रकारिता में पांचवीं पीढ़ी के वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, विशेषज्ञ ज्ञानवर्धन मिश्र कहते हैं: “सन 80 के दशक के मध्य बिहार का नरमुंड कांड न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया था। राजनीतिक गलियारे में इसकी तुलना बहुचर्चित भागलपुर ऑंखफोड़वा कांड से किया जाने लगा था। नरमुण्ड के व्यापार को उद्घाटित किया था पत्रकार अंजनी कुमार विशाल ने जो उस वक्त पटना से प्रकाशित दैनिक पाटलिपुत्र टाइम्स में बतौर उप संपादक कार्यरत थे। चूंकि इस घटना के प्रकाशन के बाद मैने पाटलिपुत्र टाइम्स में समाचार संपादक के रूप में ज्वाइन किया था इसलिए संबंधित समाचार का फॉलोअप तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा । हां, इस रिपोर्ट को छपने के बाद पटना के मीडिया जगत में हलचल अवश्य मची, खास कर अंग्रेजी मीडिया में। “भला मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज ज्यादा सफेद क्यों” कि मानसिकता वाले कुछ पत्रकार बंधुओं ने अंजनी विशाल के रिपोर्ट की खामियों को ही उजागर करना उचित समझा। जहां तक मुझे याद है छायाकार अमरेंद्र दूबे को फजीहत झेलनी पड़ी। पटना के घाट पर बिखरे नरमुंडों की तस्वीर के साथ विशाल जी की छपी रिपोर्ट ने सनसनी फैला दी थी। कलम के धनी अंजनी कुमार विशाल आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यह रिपोर्ट उनकी बराबर याद कराती रहेगी।”

वैसी स्थिति में भारतीय प्रेस परिषद् का यह कहना कि “बिहार के प्रतिबद्ध पत्रकारों ने  देश में “आदर्श पत्रकारिता” के क्षेत्र में एक नींव के रूप में कार्य किया है, बिहार की पत्रकारिता की गुणवत्ता कभी समझौता नहीं किया है, यहाँ के पत्रकार समाज तथा देश के लिए जिन मुद्दों को महत्वपूर्ण समझा है, उसे लिखने में कभी कोई कोताही नहीं किया – सत्य प्रतीत होता है। भले प्रकाशन के बाद उस कहानी के एक-एक शब्दों का राजनीतिकरण या व्यवसायीकरण हो गया हो । भारतीय प्रेस परिषद् यह भी स्वीकारा है कि बिहार के पत्रकारों ने देश के कई मीडिया संस्थानों के “स्तम्भ के रूप” में कार्य किया है क्योंकि उनकी सोच “स्पष्ट” थी, उनमें लेखन में “साहस” था, उनके अंदर “सत्य”, “प्रतिबद्धता”, “निष्ठा” और “धैर्य” था। खैर। 

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भारतीय प्रेस परिषद् 

उस दिन वृहस्पतिवार था और सं 1985 साल के जून महीने का 27 तारीख। जून महीने में मगध (पटना) का प्राकृतिक तापमान गोलघर की ऊंचाई पर चढ़ने की दिशा में अग्रमुख था। बक्सर होते ऋषिकेश और ऊपर गंगोत्री से आने वाली गंगा मगध भूमि पर संकुचित हो गयी थी, फिर भी प्रवाह में कोई कमी नहीं थी। शहर के प्राकृतिक तापमान में दिल्ली के तत्कालीन आलाकमान का निर्णय – चंद्रशेखर सिंह हटाओ – बिंदेश्वरी दुबे लाओ – यहाँ की राजनीतिक गर्मी को सड़कों पर पिघलते अलकतरा के कारण कहीं चिपक रहा था, तो कहीं लोग अपने चप्पल, जूते को वहीँ त्यागकर, ‘लू’ से बचने और ‘आकस्मिक मृत्यु’ से बचने के लिए इधर-उधर शरणागत हो रहे थे। भगवान् सूर्य भी जून के महीने में घरती पर अवतरित होने में शीघ्रता दिखाते हैं, उस दिन भी दिखाए थे । 

बाबू चंद्रशेखर सिंह प्रदेश के 16वें मुख्यमंत्री काल को कोई एक साल दो सौ दस दिवस समाप्त कर दिल्ली के आलाकमान के आदेश पर कोयलांचल के राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस के नेता बाबू बिंदेश्वरी दुबे को कार्यालय की चावी देकर ‘तथाकथित’ रूप से राजनीतिक संन्यास पर चले गए थे। दुबे बाबा सन् 1985 के मार्च के महीने में 12 तारीख को मगध के 17 वें राजा के रूप में पदस्थापित हो गए थे। अगर वे अकबर रोड स्थित अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के महामहिमों की नजर में आँख का तारा होते, तो 17 और दिवस कार्यालय में रहकर, चार वर्षीय कार्यकाल पूरा कर लेते। लेकिन किसी ने ‘आँख का काँटा’ बना दिया उन्हें और वे तत्काल प्रभाव से 14 फरवरी 1988 को भागवत झा ‘आज़ाद’ को फ़ाइल, कुर्सी, कागजात, चावी हस्तगत कराकर, मोह त्याग कर चले गए। 

लेकिन उस बृहस्पतिवार के सुबह-सवेरे बिहार के ‘ऐतिहासिक मुख्यमंत्री’ डॉ जगन्नाथ मिश्र के संरक्षण में जन्म लिए पटना के नाला रोड-बारीपथ मिलन-स्थल के सामने स्थित विशालकाय सफ़ेद रंग के मकान, जिसके आगे भव्य रूप में ‘ब्रह्मकुमारी’ की तस्वीर के साथ एक विशालकाय बोर्ड टंगा था; से प्रकाशित “पाटलिपुत्र टाइम्स” के प्रथम पृष्ठ के बीचो-बीच एक बक्से में आठ कॉलम में कुछ तस्वीरों के साथ जो कहानी प्रकाशित हुई, वह संचार साधनों की किल्लत के बाबजूद पटना, बिहार, दिल्ली, एशिया महादेश ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को हिला कर रख दिया। वैसी स्थिति में उस समाचार के विरुद्ध, उस संवाददाता के विरुद्ध, उसके साख के विरुद्ध खड़ा होना, उसे ‘निरस्त’ करने के लिए स्थानीय पत्रकारों का “गोलबंदी” होना स्वाभाविक था। 

इस कहानी का परिणाम यह हुआ कि बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में दुबे बाबा भी दिल्ली से सीधा “लाल-लाइन” पर जुड़ गए। प्रदेश के घुटने कद से लेकर, ठेंघुने और आदम-कद के नेता से लेकर, अधिकारी तक आठो पहर स्थानीय शासन की लाल बत्ती से जुड़ गए। फाइलों को कोई काले अक्षर में “टिपण्णी” देकर प्रेषित कर रहे थे, तो कोई “हरे रंग की स्याही” से।  कोई “लाल रंग” से टिप्पणी को रंग रहे थे, तो कोई गुस्से में टिप्पणियों को फाड़ कर कबाड़खाने में फेक रहे थे। फरमान जारी हो गया था कि पूरे शहर से अखबार को उठा लो। मगघ की भूमि पर रहने वाले लगभग सभी चिकित्सकों का, चिकित्सा-क्षेत्र से जुड़े व्यापारियों का, चिकित्सालयों में सामान आपूर्ति कर्ताओं का रक्तचाप प्रदेश की गर्मी की तरह ऊपर चढ़ रहा था। शहर के पुलिस थानों से प्रदेश के पुलिस मुख्यालयों तक, थाना प्रभारी से लेकर राज्य के गृह मंत्री तक – सभी लाल, पीला, हरा, ब्लू और काले रंग के फाइलों के साथ मुख्यमंत्री कार्यालय के सामने पंक्तिबद्ध हो रहे थे। पटना स्थित मुख्यमंत्री का कार्यालय, मुख्यमंत्री और अन्य अधिकारियों सहित दिल्ली के प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधा गर्म तार पर जुड़ा था। 

अख़बार के आठ कॉलम को चार कॉलम कम्पोजिशन में परिवर्तित कर चार तस्वीरों के साथ कहानी प्रकाशित हुई थी। शीर्षक था: “मासूम बच्चों का सर कलम कर रहे हैं कंकालों का सौदागर” – इस समाचार के लेखक थे युवा पत्रकार अंजनी विशाल (अब दिवंगत) और छायाकार थे अमरेंद्र दुबे (अब दिवंगत) – उस वृहस्पतिवार के संस्करण में जितनी भी तस्वीरें प्रकाशित हुई थी वह कोई छः माह पूर्व भोपाल में शुरू हुए ऐतिहासिक, अमानवीय ‘गैस त्रादसी” के समरूप था। भोपाल गैस त्रादसी 2 दिसंबर, 1984 से प्रारम्भ हुआ था।

बहरहाल, ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ में प्रकाशित वह कहानी मूलतः गंगा नदी से जुड़ी हुई थी जिसे भारतीय परंपरा में देवी और मां के रूप में माना जाता है। कुल 2,525 किलोमीटर की दूरी तय करती और बंगाल की खाड़ी में विलय होने के पहले गंगा नदी उत्तराखंड में 110 किलोमीटर, उत्तरप्रदेश में 1, 450 किलोमीटर, बिहार में 445 किलोमीटर और पश्चिम बंगाल में 520 किलोमीटर की दूरी तय करती है। अपनी औसत गहराई 16 मीटर (52 फीट) और अधिकतम गहराई 30 मीटर (100 फीट) के साथ गंगा नदी देश के कई महत्वपूर्ण शहरों को छूती गुजरती है, मसलन – ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपूर, इलाहाबाद, कन्नौज, बनारस, मिर्जापुर, फर्रुखाबाद, फतेहगढ़, चकेरी, पटना, जमालपुर, मुंगेर, भागलपुर, मुर्शिदाबाद, बरानगर, कलकत्ता आदि । सोन इसके दाहिने किनारे पर मिलने वाली प्रमुख सहायक नदी है। बायें तट पर मिलने वाली महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी व महानंदा हैं। इसी तरह, यमुना, गंगा की सबसे पश्चिमी और सबसे लंबी सहायक नदी है। प्रयाग में यमुना अपना अस्तित्व गंगा में विलय कर देते हैं। पश्चिम बंगाल में प्रवेश करने के बाद, यह तीन नदियों में विभाजित हो जाती है – एक:  हुगली नदी, या आदि गंगा, दूसरी: पद्म नदी बांग्लादेश में और बंगाल की तरफ बहती है, और तीन: अजय नदी बर्दवान और बीरभूम जिलों के माध्यम से बहती है। प्राचीन काल से ही गंगा पवित्र नदियों में से एक मानी जाती रही है। 

खैर। इसे विधि का विधान कहें या कलम की हार, जिस छायाकार (अमरेंद्र दुबे) और पत्रकार (अंजनी विशाल) ने पटना स्थित गंगा किनारे सैकड़ों नरमुंडों को धोते, छानते देख तस्वीरें खिंचा था, अपने कलम से सम्पूर्ण घटनाओं को शब्दबद्ध किया था, सम्पादकीय कक्ष में बैठे तत्कालीन सहायक संपादकगण सम्बद्ध कहानी के एक-एक शब्दों को पढ़कर एक-एक तार को जोड़ा था; संपादक उसे पढ़कर 11-शब्दों में सम्पूर्ण कहानी को बांधकर “मासूम बच्चों का सर कलम कर रहे हैं कंकालों का सौदागर” शीर्षक के साथ अपने अखबार के प्रथम पृष्ठ में प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था – उस पत्रकार लेखक का चार-साल का एक मात्र बेटा अपने जीवन को देखे बिना उस अल्पायु में गंगा नदी में विलीन हो गया। पिता की अनुपस्थिति में उसके पार्थिव शरीर को उसकी माँ को ईश्वर के पास भेजना पड़ा। कहते हैं – यह कहानी के प्रकाशन का ही एक परिणाम था। खैर। 

अखबार में प्रकाशन के बाद सम्पूर्ण पटना, सम्पूर्ण बिहार के स्थानीय और राष्ट्रीय अख़बारों से जुड़े पत्रकार, प्रदेश के प्रशासन के आला अधिकारी, उस समाचार के “साख” पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे। उस नौनिहाल को पिता के संरक्षण से, पिता के गोद से अलग अपनी बड़ी बहनों, माँ के साथ कभी पिता के मित्रों के घर, तो कभी पिता के पैतृक घर, तो कभी अपने ननिहाल में छिपते -छिपाते जीना पड़ रहा था। माँ अपने चारो बच्चों को अपनी आँचल में छिपाये जीवन से जद्दोजेहद कर रही थी। खुद का, पति का, बच्चों की साँसे बंद करने की साजिश चतुर्दिक चल रहा था। 

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जब वे थे: पत्रकार अंजनी विशाल और उनकी पत्नी कुसुम विशाल

उस दिन वह नौनिहाल अपने ननिहाल लखीसराय के घर से कोई पचास कदम दूर मिट्टी में खेल रहा था, तभी उसे किसी अनजान ने कुछ खाने को दिया। वह खाते-खाते अपनी माँ के पास आ रहा था, लेकिन उसे नहीं मालूम था कि उसका प्रत्येक अगला कदम माँ से उसकी दूरी को बढ़ा रहा है। उसकी सांसों की संख्या कम होती जा रही है। फिर सामने माँ खड़ी थी, उसके मुख में सफ़ेद झाग और जीवन की कुछ अंतिम चंद सांसे। वह माँ को देख रहा था – माँ, बहने, समाज के लोग उसे देख रही थी और वह अपने जीवन की अंतिम यात्रा पर निकल रहा था। जिस वक्त वह अपना अंतिम सांस लिया पिता मौत के डर से बिहार के किसी अन्य स्थानों पर छिपे थे। वह सदा के लिए जाते अपने पुत्र को भी नहीं देख सके और वह चार वर्ष का नौनिहाल का पार्थिव शरीर गंगा को सुपुर्द कर दिया गया। पटना, फतुहा, बख्तियारपुर, बाढ़ और लखीसराय ये पांच रेलवे स्टेशन उस दिन भी थे, आज भी हैं; दूरियां कोई 135 किलोमीटर। आज उसके पिता भी उसी नौनिहाल के पास हैं। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम उस समाचार के तत्कालीन पत्रकार और उस कहानी के लेखक अंजनी विशाल (अब दिवंगत) की विधवा कुसुम विशाल के बात किया। कुसुम जी अपनी तीनों विवाहित बेटियों के साथ रह रही हैं। उनके पति अपनी सभी बेटियों का विवाह अपने जीवन काल में ही कर दिए थे। बेटे का बाल्यकाल में, वह भी पिता को देखे बिना, जाने के सदमे से आज भी नहीं निकली हैं; लेकिन उनकी बेटियों ने अपने पिता के जाने के बाद उन्हें जिस तरह का बेहतरीन जीवन दी, शायद बहुत कम बेटियां देती हैं, वह भी विवाहोपरांत। 

जब हमने उनसे बात करने की शुरुआत की, वे कहती हैं: “पटना के बहुत से पत्रकारों का नाम आज भी मेरे जेहन में है।  कुछ को देखा भी हूँ, कुछ को बिना देखे उनकी बातों से उनके बारे में कल्पना करती हूँ, क्योंकि विशाल जी पटना के उस समय के लगभग सभी पत्रकारों की चर्चा घर पर किया करते थे। कुछेक पत्रकारों को छोड़कर, मैं आज भी आभारी हूँ और जीवन पर्यन्त आभारी रहूंगी अपने पति के पत्रकार मित्रों, सहकर्मियों का जिन्होंने जीवन के उस जेद्दोजेहद काल में हमारे परिवार के पीठ के पीछे अडिग दिखे। आपका नाम भी मेरे पति लिया करते थे। इसलिए नाम सुनकर आज बहुत अच्छा लगा की इतने दिन के बाद भी मैं आप लोगों के बीच जीवित हूँ।”

कुसुम विशाल अपने पति का नाम सुनकर, अपने पति के पुराने मित्रों का नाम सुनकर जिन्हे वे जानती है, कुछ पल रुक गईं। साँसें बता रही थी कि वे स्वयं को बोलने लायक बना रही थी । फिर अवरुद्ध गला से कहती हैं:  “आज अचानक अपने मित्रों के मार्फ़त वे फिर बहुत याद आ गए। मेरे पिता सरकारी कर्मचारी थे। हम सभी लखीसराय में रहते थे। मेरी शादी सन 1979 में फरवरी महीने में हुई। अंजनी जी लिखने के बहुत शौक़ीन थे। भागलपुर में उन दिनों जिला स्तर का एक अखबार था, उसमें कार्य करते थे। वे पटना से प्रकाशित ‘नवविहार’ और ‘समरक्षेत्र’ के लिए भी लिखते थे। उन दिनों वे प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण कर रिपोर्टिंग किया करते थे। उनकी अभिरुचि ‘मानवीय’ कहानियों में अधिक थी। एक बार वे रांची (कांके) के पागल खाने पर विस्तार से कहानी लिखे। इसके बाद वे पाटलिपुत्र टाइम्स में आ गए। यह अखबार विशाल जी का पहला प्रदेश स्तर का अखबार था। इस अखबार में उन दिनों कार्य करने वाले सभी अनुभवी लोग थे जो शहर के विभिन्न अख़बारों से यहाँ आये थे। उस समाचार के प्रकाशन से पहले तक उन्हें नाम से भले लोग नहीं पहचानते थे, सिवाय मित्रों के। लेकिन ‘नरमुंड’ काण्ड, भले हम लोगों का जीवन भूचाल ला दिया, हम सभी भीषण त्रादसी की दौड़ से गुजरे, लेकिन यह भी सत्य है कि वह खबर उन्हें एक पहचान भी दी।”

कहते हैं सत्तर के दशक के मध्य में जब प्रदेश का कमान पहली बार डॉ जगन्नाथ मिश्र के हाथों में आया, तब तक डॉ मिश्र का दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के अनुज राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह के कनिष्ठ पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह के साथ छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। डॉ मिश्र, जो झंझारपुर से विधायक थे, 11 अप्रैल, 1975 को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके थे। कोई दो वर्ष उन्नीस दिनों तक कुर्सी पर विराजमान रहे और 30 अप्रैल, 1977 को विधानसभा भंग होने और राष्ट्रपति शासन लगने के बाद सत्ता से अलग हुए थे। प्रदेश की राजनीतिक गलियारे में उनकी तूती बोली जाती थी।

सं 1975-1977 के बीच इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित ‘आपातकाल’ के ‘अधिकारों’ को भी उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया। ‘आपातकाल’ के दौरान कुमार शुभेश्वर सिंह, जो उस समय दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड का अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक भी थे, को अपने सामने “नतमस्तक” करना चाहते थे। कहा जाता है कि वे किसी भी तरह से महाराजाधिराज द्वारा स्थापित और पटना से प्रकाशित “आर्यावर्त” और “इण्डियन नेशन” समाचार पत्रों को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे, बंद कर देना चाहते थे। समाचार पत्र के दफ्तर से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय और अन्य सरकारी दफ्तरों में इस बात का एहसास होने लगा था। जो अंततः ‘आर्यावर्त’ और इण्डियन नेशन’ के पन्नों में प्रकाशित होने वाले ‘विज्ञापनों’ में, अख़बारों के घटते पन्नों में दिख रहा था। इसी बीच पटना से “आज” हिंदी दैनिक का संस्करण प्रारम्भ हुआ। साल था 1979 और तारीख 28 दिसंबर। उस समय “आज” अखबार में बेहतरीन पत्रकारों का जमघट था। ज्ञानवर्धन मिश्र ‘आज’ संस्करण के शुरूआती दिनों से थे जो सन 1982 आते-आते पटना संस्करण के ‘कर्ता-धर्ता’ बन गए। 

उधर, 30 अप्रैल 1977 से 7 जून, 1980 तक बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था। कर्पूरी ठाकुर, रामसुंदर दास कुछ महीनों के लिए मुख्यमंत्री तो बने, लेकिन प्रदेश में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। फिर 8 जून, 1980 को आठवें विधान सभा में डॉ जगन्नाथ मिश्र पुनः मुख्यमंत्री कार्यालय में आसीन हुए। यह समय बिहार की पत्रकारिता जगत के लिए काला अवधि था। अपने दिल्ली आला कमान यानी श्रीमती इंदिरा गाँधी को खुश रखने के लिए उन्होंने बिहार में “प्रेस बिल” लाया, जिसे 1982 में पेश किया गया। इस बिल के अनुसार राज्य सरकार के खिलाफ संवेदनशील लेखों को, समाचारों को, छवियों को छपने से रोकना था। यह एक प्रकार का बिहार के अखबारी दुनिया में आपातकाल जैसा ही था। इस नियम का उल्लंघन करने पर जुर्माने के साथ-साथ 5 साल तक सजा का प्रावधान था। साथ ही, इस विधेयक के बाद पुलिस ऐसी कोई भी शिकायत मिलने पर पत्रकारों को गिरफ्तार कर सकती थी। पटना में “आज” का संस्करण तारो-ताजा था। 

अंजनी विशाल

उन दिनों इन्डियन नेशन के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा की अध्यक्षता में बिहार का पत्रकार संघर्ष समिति दिल्ली के बोट क्लब पर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया। करीब 3000 से अधिक पत्रकारों, लेखकों, विद्वानों, विदुषियों ने इस संघर्ष में अपना योगदान दिया। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के तत्कालीन संपादक खुशवंत सिंह, वरिष्ठ पत्रकार चलपति राव, राजनेता मधु दंडवते, अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेता इंद्रजीत गुप्त, इंटक के एन. के. भट्ट के अलावे जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी उस आंदोलन का साथ दिया। 

इस आंदोलन में पटना की सड़कों पर ‘आर्यावर्त’, इण्डियन नेशन’, ‘सर्चलाइट’, ‘प्रदीप’ के पत्रकार तो थे ही, ‘आज’ अखबार के पत्रकारों ने, खुलकर प्रदेश की व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाये। ‘प्रेस-बिल’ के विरुद्ध आंदोलन के दौरान डॉ जगन्नाथ मिश्र और कुमार शुभेश्वर सिंह की लड़ाई सड़क पर आ गई थी। डॉ मिश्र मिथिला नरेश के अख़बारों को बंद कर उन्हें घुटने पर लाना चाहते थे, और कुमार शुभेश्वर सिंह सरकार के खिलाफ, डॉ मिश्र के खिलाफ, प्रेस बिल के खिलाफ पत्रकारिता और पत्रकारों के साथ खड़े थे। यह भी कहा जाता है कि पटना से ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ का प्रकाशन करना डॉ जगन्नाथ मिश्र के मस्तिष्क का उपज था और इस अखबार के प्रकाशन में वे आर्थिक मेरुदंड थे। यह सर्वविदित था। इसका कारण यह था कि उन्हें अपने ‘प्रचार-प्रसार’ में बहुत विश्वास था।  

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कुसुम विशाल कहती हैं: “अंजनी जी को उस कहानी से नाम और प्रसिद्धि बहुत मिली। लेकिन पटना में अपने पेशे के अलावे जिस विषय पर उन्होंने कहानी लिखे थे, के क्षेत्र में लगे लोग पराये हो गए। पत्रकारिता के क्षेत्र में राष्ट्रीय अख़बारों में कार्य करने वाले पत्रकार बंधू-बांधव उनकी कहानी की खुलेआम आलोचना करने लगे। कुछ ‘खास मित्रों’ को छोड़कर, वे खुद को बिहार की पत्रकारिता में ‘अकेला’ पाने लगे। हम सबों पर चतुर्दिक खतरा मर्राने लगा। भय का वातावरण ग्रसित कर लिया था। चार छोटे-छोटे बच्चों के साथ कभी एक गली वाली मकान में, को दूसरे दिन किसी अन्य मकान में रहने लगे। किराये पर भी कोई मकान देना नहीं चाहता था। लेकिन वे गलत नहीं थे। सही तो सही होता है।”

कुसुम जी कहती हैं: “हम सभी जानते थे की अंजनी जी के परिवार को उस कांड से जुड़े लोग ‘एलिमिनेट’ करना चाहता है। उनके कुछ खास मित्र जिनका नाम आज भी मेरे ह्रदय के में सम्मान के साथ सुरक्षित है, अपने-अपने घरों में पनाह देते रहे। लेकिन उनका भी परिवार था, उनकी भी पत्नियां थीं, उनके भी बच्चे थे। उन्हें भी डर लगता था। इसलिए हम अपने बच्चों – कोमल, काजल और कोयल – के साथ अपने पिता के घर लखीसराय पहुँच गए। कुछ समय वहां भी रहते थे तो कभी अंजनी विशाल जी के घर भागलपुर चले जाते थे। उस समय और दृश्य को आज याद कर शरीर कांपने लगता है।  शरीर थरथराने लगता है। आत्मा रोने लगती है। आखिर सच लिखने के लिए, सच बोलने के लिए ऐसी सजा मिलती है।”

अवरुद्ध गला और भींगी आखों को पोछती कुसुम जी आगे कहती हैं: “उस खबर के प्रकाशन के बाद हमारा परिवार छत-विछत हो गया। हम अपने चार बच्चों को अपनी आँचल में ढक कर पटना, भागलपुर, मुंगेर, लखीसराय कर रहे थे। अंजनी जी रहते तो पटना में थे, लेकिन भूमिगत रहते थे। हमेशा भय होता था कि कब बुरी खबर आ जाय। संचार के साधन भी सीमित थे। वैसी पटना से लखीसराय की दूरी कुछ भी नहीं है, लेकिन हम दोनों मुद्दत तक नहीं मिले थे। वह इलाका भी तत्कालीन माफिआओं का गढ़ बना था।” 

कुछ देर रुक कर, लम्बी साँसे लेती कुसुम विशाल जी आगे कहती हैं: “हम दोनों के तीन बेटियां और एक बेटा था। बेटा सबसे छोटा था। हम अपने बच्चों को लेकर लखीसराय में अपने पिता के घर थे। बेटा घर के बाहर खेल रहा था। तभी वह कुछ खाते, लेकिन हिलते-डोलते घर की ओर आ रहा था। उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। समय हाथ से निकल रहा था। उसके मुंह से झाग आने लगा और साँसों की गिनती भी कम होने लगी। किसी ने उसे जहर खिला दिया था। चार साल के बच्चे का पार्थिव शरीर मैं अपनी आँचल में लिए मूक-बधिर बन गयी थी। उसके पिता पटना में थे, भूमिगत थे। वे अपने बच्चे के पार्थिव शरीर को भी नहीं देख पाए।” 

एक माँ के लिए, एक भागती-छुपती पत्नी के लिए इससे करुणामय व्यथा और क्या हो सकती है। कुसुम जी आगे कहती हैं: “मैं बहुत अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन एक पत्नी के रूप में अपने सामर्थभार मैं उनके साथ हमेशा खड़ी रही। उनके बच्चों का देखभाल करती रही। उनके पास टाइपराइटर नहीं था। वे कहानियों को हाथ से लिखते थे। सैकड़ों पन्नों को फाड़ते थे, फेकते थे। वे कहानी लिखने के बाद मुझे बैठाकर कहानी सुनने को कहते थे। वे कहते थे जब तुम सुनोगी तब तुम अपना विचार बताना। संभव है जो बात मैं लिखा हूँ, एक पाठक के रूप में तुम्हे अच्छा नहीं लगे। फिर उसमें संशोधन करते थे। यह एक दिन की बात नहीं थी, यह एक दिनचर्या था।” 

कुसुम जी का मानना है कि “एक पत्नी के रूप में उन्होंने अपने पति के संघर्ष में ह्रदय से साथ दी। वे अपने पत्नी धर्म को सम्पूर्णता के साथ पालन की। उनके बहुत से घनिष्ट मित्र आज भी उन्हें उसी रूप में देखते हैं। यह अलग बात है कि उस कहानी ने पटना के पत्रकारों को समझने, पहचानने का अवसर भी दिया।” कुसुम जी का कहना है कि जीवन पर्यन्त हम सभी जिंदगी से, परिस्थियों से लड़ते है। हम सभी चाहते थे कि कलकत्ता में रहें।  एक फ्लैट भी ख़रीदा था वहां। लेकिन जब जाने को सोचे तो समय कुछ और चाहता था। जाने से दो दिन पहले अंजनी जी को कुछ तकलीफें हुई और वे हरिदय की गति अवरुद्ध हो जाने के कारण हम सबों को छोड़कर चले गए – साथ 2014 था। 

वरिष्ठ पत्रकार, खेलकूद और राजनीतिक समीक्षक दीपक कोचगवे

अंजनी विशाल को बहुत नजदीक से जानने वाले और पटना के वरिष्ठ पत्रकार, खेलकूद और राजनीतिक समीक्षक दीपक कोचगवे कहते हैं: “अंजनी विशाल ने बिहार और दिल्ली में जमकर पत्रकारिता की। शुरुआती दौर में बम्बई (अब मुम्बई) को भी आजमाया। बिहार में पाटलिपुत्र टाईम्स और संध्या प्रहरी में जमकर रिपोर्टिंग की। नरमुंड कांड की रिपोर्टिंग ने उन्हें चर्चित किया। भले उस समय राज्य के कुछ बड़े पत्रकारों ने संयुक्त रूप से उनकी रिपोर्ट (नरमुंड कांड) को ग़लत साबित किया था, परन्तु तब तक वह राष्ट्रीय स्तर तक जाने-जाने लगे थे। हम दोनों एक ही शहर (भागलपुर) से आते हैं अतः दोनों एक दूसरे को खुब पसंद करते थे। विशाल मौत से पहले संघर्ष कर रहे थे उन दिनों वह तापमान से जुड़ गए थे। विशाल के ही प्रयास से तापमान नाम हम सबको मिला था। आर्यन संदेश सांध्य दैनिक पटना के संपादक भी रहे। परंतु विशाल जी को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला।” 

भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व सदस्य राजीव रंजन नाग

अंत में, बिहार की पत्रकारिता के बारे में भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व सदस्य राजीव रंजन नाग कहते हैं कि “बीते दशकों से बिहार की पत्रकारिता और उसके तेबर दूसरे राज्यों के लिए एक नजीर की तरह थी। प्रेस, पत्रकार, पत्रकारिता और मीडिया प्रतिठान निर्भीक थे। वे प्रोफेशनल थे। सच लिखने में उन्हें गुरेज नहीं था और वे उन तमाम खबरों को लिखने के लिए स्वतंत्र थे जो जाने-अनजाने सत्ता प्रतिष्ठान के सुविधाजनक स्थिति पैदा करती थीं। मुख्यमंत्री, मंत्री और वरिष्ठ नौकरशाह संपादक से बात करने का साहस नहीं जुटा पाते थे। बिहार में पत्रकारों की दर्जनों ऐसी खबरों जिन पर पर संसद और विधान सभा में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को सफाई देनी पड़ी।उन पर कार्रवाई का भरोसा देना पड़ा। लेकिन आज परिस्थिति बिलकुल विपरीत हैं। यह बहुत ही शोध का विषय है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जिसके कारण उसी बिहार के पत्रकारों को समझौता करना पड़ा है। यही स्थिति दिल्ली और दूसरे राज्यों में भी है जहां महत्वपूर्ण पदों पर बिहारी पत्रकार तैनात हैं । लेकिन वे भी वही सब कुछ करने को अभिशप्त हैं जो उन्हें फरमाये जाते हैं। नौकरी बचाये रखने की जुगत में वे समझौते करने में ही सुरक्षित महसूस करते हैं। जाहिर है आज हालात बदल गए हैं। संपादक मैनेजर बन गए हैं और उनके रिपोर्टर हरकारे। बिहार में पत्रकारों पर हमले, हत्या और धमकी जैसी घटनायें बढ़ी हैं। जो पत्रकार कुछ लिखने दिखाने की साहस कर रहा है उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। इन अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होने के कारण वे और निरंकुश हुए हैं।” 

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