जेल रोड (तिहाड़ जेल): आगामी 15 अगस्त को भारत अपना 78वाँ स्वाधीनता दिवस समाप्त कर 79वें वर्ष में प्रवेश करेगा। इन विगत वर्षों में भारत को 15 राष्ट्रपति, 17 प्रधानमंत्री , 18 संसद (लोकसभा) – मिला। इन वर्षों में देश के संविधान में कुल 106 संशोधन भी किए गए ताकि न केवल देश में संविधानिक गरिमा बरकरार रहे, बल्कि संविधान के प्रति लोगों का अटूट विश्वास भी क़ायम रहे। इतना ही नहीं, देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई में आईपीसी और सीआरपीसी के नियमों में भी आमूल परिवर्तन किए गए ताकि कोई दोषी या अपराधी कानून की गिरफ्त से बच नहीं सके; साथ ही, कोई बेकसूर को भी सजा नहीं मिले। इन तमाम बातों के बीच आज भी भारत के जेलों में करीब 561 अपराधी मृत्यु दंड की सजा भुगत रहे हैं और प्रत्येक सांस को अपने जीवन का अंतिम सांस समझकर फांसी के फंदे की ओर बढ़ रहे हैं। इन 561 की संख्या में सबसे अधिक 95 उत्तर प्रदेश के कारावास में मुद्दत से बंद हैं। इसके बाद गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र आदि राज्यों का नाम आता है। इन्हीं नामों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित तिहाड़ कारावास का भी है, जहाँ आज भी दर्जन के आस पास क़ैदी मृत्यु दंड को भोग रहे हैं। कई आशान्वित हैं जीवन मिलने का, दंड में परिवर्तन होने का, भारत के राष्ट्रपति से क्षमादान मिलने का – कई अपने गुनाहों की नजर में दंड को स्वीकार कर सांस ले रहे हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मृत्यु दंड से संबंधित जब आंकड़ों को देखता हूँ, उन दंडों में बदलावों को देखता हूँ या फिर दंड पर राष्ट्रपतियों की भूमिकाओं को देखता हूँ, तो संविधान बनने, गणतंत्र घोषित होने के बाद, यानी 1950-1982 कालखंड के दौरान, भारत छह राष्ट्रपतियों को देखा। इस कालखंड में केवल एक दया याचिका खारिज की गई, जबकि मृत्युदंड को आजीवन कारावास में 262 बार बदला गया। उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपने द्वारा तय की गई 181 दया याचिकाओं में से 180 में मृत्युदंड को कम किया, केवल एक को खारिज किया। डॉ राजेंद्र प्रसाद के बाद राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने द्वारा तय की गई सभी 57 दया याचिकाओं में मृत्युदंड को कम किया। राष्ट्रपति जाकिर हुसैन और राष्ट्रपति वीवी गिरी ने अपने द्वारा तय की गई सभी याचिकाओं में मृत्युदंड को कम किया, जबकि राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद और राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपने कार्यकाल में किसी भी दया याचिका पर विचार करने का मौका नहीं मिला। इस कालखंड के बाद 1982 और 1997 के बीच, तीन राष्ट्रपतियों ने 93 दया याचिकाओं को खारिज कर दिया और सात मृत्युदंड को कम किया। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने द्वारा तय की गई 32 दया याचिकाओं में से 30 को खारिज कर दिया, और राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने अपने द्वारा तय की गई 50 दया याचिकाओं में से 45 को खारिज कर दिया। इसके बाद राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अपने समक्ष प्रस्तुत सभी 18 दया याचिकाओं को खारिज कर दिया।
नब्बे के दशक के उत्तरार्ध और दो हज़ार के पूर्वार्ध के कालखंड यानी 1997-2007 के वर्षों में दोनों राष्ट्रपतियों ने तत्कालीन सरकार से प्राप्त लगभग सभी दया याचिकाओं को लंबित रखा, और इस अवधि के दौरान केवल दो दया याचिकाओं पर निर्णय लिया गया। राष्ट्रपति आर के नारायणन ने अपने समक्ष प्रस्तुत किसी भी दया याचिका पर कोई निर्णय नहीं लिया जबकि राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल के दौरान केवल दो बार कार्रवाई की, जिसके परिणामस्वरूप एक खारिज हुई और दूसरी कम्यूटेशन हुई। दस वर्षों के अपने संयुक्त कार्यकाल के दौरान, उन्होंने दया याचिकाओं के निपटान पर रोक लगा दी। बाद में, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपने राष्ट्रपति पद के दौरान पाँच दया याचिकाओं को खारिज कर दिया, और 34 मृत्युदंडों को कम कर दिया। प्रतिभा पाटिल के बाद राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अब तक उनके द्वारा तय की गई 33 दया याचिकाओं में से 31 को खारिज कर दिया है। राष्ट्रपतियों द्वारा निपटाए गए दया याचिकाओं को देखने से पता चलता है कि जीवन और मृत्यु के मामलों में मृत्युदंड की सजा पाए अपराधी का भाग्य न केवल तत्कालीन सरकार की विचारधारा और विचारों पर निर्भर करता है, बल्कि राष्ट्रपति के व्यक्तिगत विचारों और विश्वास प्रणालियों पर भी निर्भर करता है।

बहरहाल, वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने लाल किला हमले में शामिल आतंकी आरिफ की दया याचिका खारिज कर दी है। राष्ट्रपति मुर्मू ने पदभार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार दया याचिका खारिज की है। सुप्रीम कोर्ट ने भी 3 नवंबर, 2022 को आरिफ की समीक्षा याचिका खारिज कर दी थी, जिसमें उसके अपराध के लिए मौत की सजा बरकरार रखी गई थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत, कोई भी दोषी व्यक्ति राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर कर सकता है। राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का उद्देश्य क्षमादान का अवसर प्रदान करना है, जिससे दोषी व्यक्ति को क्षमादान या सजा में कमी की मांग करने की अनुमति मिलती है। राष्ट्रपति के पास किसी भी सजा को अस्थायी रूप से निलंबित करने का अधिकार है।
वैसे राज्यों के राज्यपालों के पास भी क्षमादान देने का अधिकार है। यह अधिकार उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत दिया गया है। राष्ट्रपति क्षमादान के मामलों में केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर विचार करते हैं, लेकिन अंतिम निर्णय पूरी तरह से उनके विवेक पर निर्भर करता है। भारत में, दया याचिका कानूनी प्रक्रिया के भीतर अंतिम सहारा है। अगर राष्ट्रपति किसी दोषी की दया याचिका खारिज कर देते हैं, तो उसके पास कोई और कानूनी रास्ता नहीं बचता। देश के 14वें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने कार्यकाल के दौरान उनके समक्ष प्रस्तुत सभी दया याचिकाओं को खारिज कर दिया। खास तौर पर, उन्होंने जगत राय की दया याचिका को खारिज कर दिया, जिसे बिहार के वैशाली जिले में छह लोगों की हत्या का दोषी ठहराया गया था। राय ने एक महिला और उसके पांच बच्चों को उनके घर में बंद करके आग लगाकर दुखद रूप से मार डाला था। इसके अलावा, राष्ट्रपति कोविंद ने निर्भया हत्याकांड के चार दोषियों मुकेश सिंह, विनय शर्मा, पवन गुप्ता और अक्षय कुमार सिंह की दया याचिकाओं को संबोधित किया। उन्होंने उनकी याचिकाओं को खारिज कर दिया और बाद में चारों को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई। राष्ट्रपति कोविंद के कार्यकाल के दौरान खारिज की गई अंतिम दया याचिका संजय की थी, जिसे जुलाई 2006 में मौत की सजा सुनाई गई थी
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2023 के अंत तक भारत में 561 कैदी मौत की सजा के तहत रह रहे थे, जो लगभग दो दशकों में मौत की सजा पर सबसे अधिक संख्या है । केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक प्रश्न के लिखित उत्तर में यह भी कहा कि मौत की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या जिनकी फांसी अभी भी लंबित है और संबंधित अधिकारियों के पास दया याचिका दायर करने वाले व्यक्तियों की संख्या केंद्रीय रूप से नहीं रखी जाती है। सरकारी सांख्यिकी के अनुसार उत्तर प्रदेश के जेलों में बंद मौत की सजा वाले सबसे अधिक दोषियों की सूची में सबसे ऊपर 95 है, इसके बाद गुजरात (49), झारखंड और महाराष्ट्र (45-45), मध्य प्रदेश (39), कर्नाटक (32), बिहार (27), पश्चिम बंगाल (26), हरियाणा (21), राजस्थान और उत्तराखंड (20-20), केरल (19), आंध्र प्रदेश (15) और तमिलनाडु (14) हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, दिल्ली में नौ मौत की सजा वाले अपराधी हैं, जबकि जम्मू और कश्मीर में आठ अपराधी हैं। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में 13 अपराधों की तुलना में, भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में मृत्युदंड के साथ दंडनीय 15 अपराध हैं।
चलिए फांसी की बात हुई, अपराधी की बात हुई तो सबसे पहले इस कालखंड के सबसे वीभत्स अपराध के बारे में जिक्र करते हैं। उन दिनों राजनाथ सिंह भारत सरकार में गृह मंत्री थे। तारीख था मार्च 4 और साल था 2015 जब उन्होंने भारत में “इंडियाज डॉटर्स” नामक एक वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध लगाने के घोषणा की। यह वृत्तचित्र ब्रिटिश फिल्म निर्माता लेस्ली उडविन द्वारा बनाया गया है जो दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 के सामूहिक बलात्कार पर आधारित था। राजनाथ सिंह के बयान से भारतीय संसद के ऊपरी सदन “राज्यसभा” में गरमागरम बहस छिड़ गई थी । राजनाथ सिंह ने कहा था कि सरकार ने 16 दिसंबर के सामूहिक बलात्कार मामले में एक दोषी के साक्षात्कार पर आधारित वृत्तचित्र के प्रसारण को रोकने के लिए आवश्यक कार्रवाई की है। उल्लेखनीय है कि वृत्तचित्र में, मुकेश सिंह – दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ क्रूर सामूहिक बलात्कार और हत्या के लिए मौत की सजा पाए चार लोगों में से एक से बात करने की कानूनी अनुमति प्राप्त की थी।
उस समय राज्यसभा में एक बयान देते हुए, गृह मंत्री ने कहा कि सरकार 16 दिसंबर, 2012 की घटना की निंदा करती है तथा ऐसी घटनाओं का व्यावसायिक उपयोग नहीं होने देगी। राजनाथ सिंह ने कहा, “यह जानकारी में आया है कि उक्त साक्षात्कार को बीबीसी-4 द्वारा 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रसारित किया जाना था। सरकार ने आवश्यक कार्रवाई की है तथा फिल्म के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए अदालत से आदेश प्राप्त किया है।” उधर, राज्यसभा के कुछ सदस्यों ने वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध लगाने के भारत सरकार के कदम पर सवाल उठाया था। उसमें एक थीं अनु आगा। सुश्री अनु आगा एक प्रसिद्ध व्यवसायी और सामाजिक कार्यकर्ता है जिन्होंने ऊर्जा और पर्यावरण प्रबंधन में भारत की अग्रणी कंपनी थर्मैक्स लिमिटेड की अध्यक्ष के रूप में कार्य किया, भारत में कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व आंदोलन की अगुआई की, आकांक्षा फाउंडेशन और टीच फॉर इंडिया इनिशिएटिव से भी निकटता से जुड़ी हुई हैं जो भारत में शिक्षा में असमानता की खाई को पाटने का प्रयास करती है . सुश्री आगा को भारत सरकार पद्मश्री सम्मान से भी अलंकृत की थी और राज्यसभा में स्थान भी दी थी।
उनके अनुसार: “मैं मानती हूं कि इस बात पर विवाद है कि अनुमति किसने दी और इस तरह की अन्य बातें, लेकिन वास्तविकता यह है कि उस व्यक्ति ने जो कहा वह भारत में कई पुरुषों की राय को दर्शाता है और हम इससे क्यों कतरा रहे हैं? भारत का महिमामंडन करने और यह कहने में कि हम परिपूर्ण हैं, हम उन मुद्दों का सामना नहीं कर रहे हैं जिनका सामना करने की जरूरत है।” उन्होंने कहा कि डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाना इसका जवाब नहीं है। उन्होंने कहा, “हमें इस मुद्दे का सामना करना होगा कि भारत में पुरुष महिलाओं का सम्मान नहीं करते हैं और जब भी कोई बलात्कार होता है, तो महिला पर आरोप लगाया जाता है कि उसने अभद्र कपड़े पहने थे, उसने पुरुषों को उकसाया।”
इतना ही नहीं, गीतकार जावेद अख्तर, जो उन दिनों राज्यसभा के सदस्य थे, कहा: “यह अच्छी बात है कि यह डॉक्यूमेंट्री बनाई गई है। अगर किसी को यह आपत्तिजनक लगता है, तो उन्हें अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए।” लेकिन भाजपा सांसद मीकाशी लेखी ने डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध लगाने के सरकार के कदम का समर्थन किया। उन्होंने कहा, “इस सदन की भावना सरकार को यह संकेत दे रही है कि इस डॉक्यूमेंट्री को प्रसारित न होने दिया जाए। इस मामले में उचित जांच होनी चाहिए। इससे पर्यटन प्रभावित होता है… पुलिस को उचित कार्रवाई करनी चाहिए… उन पर उचित धाराओं के तहत आरोप लगाए जाने चाहिए।”
उस कालखंड में भारत में तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए ‘बीबीसी’ ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 की रात चलती बस में एक युवती के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म की घटना पर आधारित अपने विवादास्पद वृत्तचित्र का प्रसारण कर दिया है। कहा गया है कि उसने इसमें गहन सरोकार का समावेश किया है। एक घंटे के इस वृत्तचित्र को दुनियाभर में उपलब्ध कराने की नीयत से किसी अज्ञात व्यक्ति ने इसे यूट्यूब पर अपलोड कर दिया है। वैसे बीबीसी ने कहा कि वह न्यायालय के आदेश का पालन करेगी। इससे पहले इंदिरा गांधी सरकार ने भी दो बार बीबीसी पर प्रतिबंध लगाया था। 1970 के दशक की शुरुआत में भारत में बीबीसी मुश्किल में था। उस समय भी, यह विवादास्पद बीबीसी वृत्तचित्रों के कारण था। जब इंदिरा गांधी के भारत की प्रधानमंत्री रहते हुए कलकत्ता और फैंटम इंडिया नामक दो वृत्तचित्र रिलीज़ किए गए, तो ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय समुदाय में रोष फैल गया। यहाँ तक कि भारत सरकार ने भी फिल्मों पर आपत्ति जताई और कुछ समय के लिए बीबीसी को देश से बाहर निकाल दिया। लुई माले ने फ्रांसीसी डॉक्यूमेंट्री मिनीसीरीज फैंटम इंडिया का निर्देशन किया था, जो भारत के बारे में थी। भारत सरकार का मानना था कि माले ने विकासशील क्षेत्रों के बजाय अविकसित क्षेत्रों पर जोर देकर भारत की पक्षपातपूर्ण तस्वीर पेश की है।
मैले ने फ्रेंच डॉक्यूमेंट्री – कलकत्ता के निर्देशक के रूप में भी काम किया । शहर में गरीबी, झुग्गियों और रीति-रिवाजों के मैले के चित्रण ने बहस छेड़ दी। कलकत्ता के सबसे कठोर आलोचकों में से एक ऑस्कर विजेता फिल्म निर्माता सत्यजीत रे थे, जिन्होंने मैले की मंशा पर सवाल उठाए थे। 1975 में, कई कांग्रेस सांसदों ने एक साथ मिलकर मांग की कि सरकार बीबीसी को भारत में रिपोर्टिंग करने से प्रतिबंधित करे, साथ ही मीडिया कंपनी पर “भारत विरोधी” लेख प्रकाशित करने का आरोप लगाया। उनके बयान में कहा गया कि बीबीसी ने भारत को बदनाम करने और जानबूझकर देश को विकृत करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आपातकाल के दौरान बीबीसी को निष्कासित कर दिया गया था। वैसे, निर्भया के पिता ने कहा, ‘मुझे व्यक्तिगत तौर पर डॉक्यूमेंट्री दिखाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। यह समाज का आईना है। लेकिन अगर सरकार ने इस पर रोक लगाई है तो जरूर कोई ठोस कारण होगा।’ जबकि निर्भया की मां ने निराशा जाहिर करते हुए कहा, ‘लगता है कि लड़ते-लड़ते हम मर जाएंगे, लेकिन दोषियों को सजा नहीं मिलेगी।”
चलिए तिहाड़ जेल के पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता के पास चलते हैं तिहाड़ पर कहानी शृंखला में अगली कड़ी जोड़ने गुप्ता जी 35 वर्ष से अधिक तिहाड़ जेल की सेवा किये हैं और उस सेवा के दौरान उन्होंने वहां के अधिकारियों, सरकार के पदाधिकारियों, राजनेताओं के साथ-साथ खूंखार कैदियों का जो कारावास के अंदर अनधिकृत साम्राज्य स्थापित किए, कारावास प्रशासन के समानांतर अपना प्रशासन चलाए, का भी चश्मदीद गवाह रहे हैं। वे कहते हैं “2012 में जब वर्षाया एक मेडिकल छात्र के साथ राष्ट्रीय राजधानी में नृशंस बलात्कार किया गया था और जिसने समूचे देश को झकझोरकर रख दिया था। राम सिंह, मुकेश, विनय, अक्षय और पवन – पांच लोगों और एक नाबालिग के तिहाड़ जेल में क्रोधपूर्वक स्वागत के पीछे एक उचित कारण यह था की उन्होंने 16 दिसमबर, 2012 को एक स्त्री के साथ चलती बस में सामूहिक बलात्कार करने उसे और उसके प्रेमी को जान से मारने का प्रयास किया था। वह भारत जघन्य अपराधों में एक था।”
गुप्ता जी का कहना है कि “दिसंबर की उस सर्द रात युवती और उसके प्रेमी ने साकेत के सेलेक्ट सिटी मॉल में ऑस्कर विजेता फिल्म लाइफ ऑफ़ पाई देखी। फिल्म देखने के बाद वे दोनों द्वारका जाने के लिए किसी वाहन का इन्तजार कर रहे थे। भाड़े पर चलने वाले किसी एक निजी बस ने उन्हें द्वारका छोड़ने का प्रस्ताव दिया। जिसमें चालक समेत पांच और लोग सवार थे। 33 वर्षीय विदुर राम सिंह सिंह उस चार्टर्ड बस का चालक था और समूह का सबसे वरिष्ठ सदस्य भी था। जब दोनों बस में सवार हुए तो दोनों ने दस-दस रूपये किराये का भुगतान किया और बस आगे बढ़ी। तभी बस के अंदर की सारी बत्तियां बंद हो गई तत्काल बाद उस बस में सवार पांच लोगों ने दोनों मुसाफिरों को परेशान करना प्रारम्भ किया और पुछा की वे इतनी रात तक घर से बाहर क्यों हैं? जब प्रेमी ने उसका विरोध किया तो लोगों ने उसे थप्पड़ मारे और उसके कपडे उतार कर लोहे की सरिये से उसकी पिटाई कर दी। दोनों के फोन और बटुए छीनने के बाद राम सिंह और अक्षय उस युवती को पीछे वाली सीट पर ले गए जहाँ बारी बारी से उसे बलात्कार किया गया। पवन और विजय ने प्रेमी को दबोच रखा था जबकि मुकेश बस को सारे शहर में सड़कों पर घुमाता रहा और किसी को बस के अंदर होने वाली घटना की जानकारी नहीं हुयी। उसी शाम को इन्हीं लोगों ने मिलकर एक आदमी को लुटा था जिसने बस और उसके हमलावरों के बारे में पुलिस सहायता नंबर पर पहले ही घटना की सूचना दी थी।”

गुप्ता जी कहते हैं कि “तीनों ने युवती के साथ मार-पीट और सामूहिक बलात्कार करना जारी रखा। बीच में चलना छोड़कर उसके साथ दुष्कर्म किया, जबकि उसमें से दो लोगों ने प्रेमी की पिटाई जारी रखी। उन्होंने युवती के स्तनों, बाँहों, जांघों एवं उसके चेहरे सहित पुरे शरीर को काट काया था। यह सब करने के बाद उन्होंने अंततः लोहे के सरिये को युवती के जननांग एवं गुदा में बेहरमी से घुसेड़ दिया। जिनके पास सरिये नहीं थे, उन्होंने वह काम अपने हाथों से किया। इतना ही नहीं उन जल्लादों ने लड़की की आंत को भी बाहर खींच लिया था। जब डाक्टर ने उसका परीक्षण किया तो पाया की उसकी आतें फटकर एक जगह एकत्रित हो गयी थी और उनकी क्रूरता के कारण उनमें जगह जगह घाव हो गया था।”
“अदालत ने इस कृत्य को मृत्यु दंड देने का उचित कारण मानते हुए लिखा की ‘ ऐसे तीव्रतम मानसिक उत्पीड़न का प्रदर्शन किया है, जो किसी प्रकार के मानवीय संवेदना के योग्य नहीं था, क्योंकि ऐसा कौन सा नर पिचास होगा जो अपने एक हाथ में युवती की अंतड़ियाँ को उठाये हुए अपने दूसरे हाथ से उसके बाल पकड़कर बस की पिछली सीट से घसीटता हुआ बस के अगली दरवाजे तक ले जा सकता था, क्योंकि बस का पिछले दरवाजा जाम था। उन शैतानों ने युवती को उसी नग्न और जीर्ण शीर्ण स्थिति में उसके मित्र के साथ सड़क पर फेंक दिया और उन्हें कुचलने का प्रयास किया। लड़के में कुछ शक्ति शेष रहने के कारण वह उसे बस के टायरों के नीचे से खींचने में सफल हो गया था, जिसके कारण लड़की जीवित बच गयी थी। दो सप्ताह बाद उसकी मृत्यु हो गयी थी। बहरहाल, अपनी मृत्यु से पूर्व वह अपना बयान दर्ज कराने में सफल रही थी, पांच लोगों को हिरासत में तिहाड़ में पहुंचा दिया।”
इस बीच, गुप्ता जी आगे कहते हैं: “बिमला मेहरा दिल्ली की जेल महानिदेशक थी। बिमला मेहरा ने उन पाँचों के विरुद्ध सबसे पहला निर्णय यही लिया कि (किशोर को बाल सुधार गृह में भेजने के बाद) उन्हें सामान्य जेल में भेज दिया। मैंने उनके इस निर्णय के विरुद्ध आपत्ति जताते हुए तर्क दिया था कि उन्हें उच्च सुरक्षा वाले वार्ड में भेजा जाना चाहिए, क्योंकि तिहाड़ की सामान्य जनसँख्या से उनकी जान को गंभीर खतरा हो सकता है। उस समय जेल में उन लोगों के खिलाफ भरी गुस्सा था। मैंने उनसे कहा कि उनकी सुरक्षा की दृष्टिगत यही उचित होगा कि उन्हें अन्य कैदियों से अलग रखा जाए। बिमला मेहरा अपने फैसले पर अड़ी रहीं। उन्होंने पवन और विनय को वयस्कों के जेल में भेज दिया, क्योंकि उसकी उम्र उस समय 21 वर्ष से कम थी। राम सिंह को जेल नंबर 3 में भेजा गया, जबकि मुकेश और अक्षय को नियमित जेल नम्बर 4 में रखा गया।”
“मेरे मन में निश्चित हमदर्दी नहीं थी, फिर भी मैं उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहता था। मैंने उनसे पूछा, ‘यदि किसी ने उसकी हत्या कर दी तो क्या होगा? उन्होंने उत्तर दिया, ‘मार डालने दो। तुम्हे उससे क्या लेना देना है? वह कोई मामूली टिप्पणी नहीं थी। उनके द्वारा किए गए जघन्य कृत्य के अतिरिक्त राम सिंह की शारीरिक बनावट यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त थे कि वह किसी के हमदर्दी के लायक नहीं था। अनेक सामाजिक टिप्पणीकार रामसिंह की दुर्दांत और किये गए उसके अभद्र व्यवहार के पीछे उसके सामाजिक परिवेश -रवि दास कैम्प को दोषी मानते थे। प्रत्येक समीक्षा बैठक में यदि हम आवश्यक विशेष सुरक्षा प्रबंध किये जाने की चर्चा करते तो बिमला महरा तुरंत उसे ठुकरा देती थी। दरअसल, इस विषय में बार पक्षपाती हो जाती थीं। उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी थीं कि इस विशेष मामले में यदि बलात्कारियों को जेल की हिंसक भीड़ से गुस्से का भी शिकार होना पड़े तो उन्हें (बिमला महरा को) वह मंजूर होगा।”

सुनील गुप्ता का कहना है कि “घटना के विषय में खास तौर से बात करते हुए राम सिंह ने कहा कि वे दोनों बस की पिछली सीट पर बैठकर एक दूसरे का चुम्बन ले रहे थे, जिससे वे पांच उत्तेजित हो गए। राम सिंह के भाई मुकेश सहित अन्य चारो ने एक मत होकर कहा कि यदि रामसिंह ने उनके ऊपर हमला नहीं किया होता नहीं होता। उसके हमले ने अन्य लोगों को उसका साथ देने और युवती के साथ अभद्र व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसके हिरासत में जाने के तीन महीने से भी काम समय में, 11 मार्च 2013 को तिहाड़ में एलार्म बज उठा। मैं फ़ौरन भागकर जेल आया और राम सिंह के शव को लटकते पाया।”
“इस बात का कहीं कोई लिखित साक्ष्य नहीं है और मेरे पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट की प्रति भी नहीं है; परन्तु मैं या अवश्य मानता हूँ कि रामसिंह ने आत्महत्या नहीं की थी। पहली बात तो यह कि मैंने उसकी जो विसरा रिपोर्ट देखी थी, उसमें उसके शरीर में शराब की मात्रा थी। इस आधार पर संदेह उत्पन्न होना चाहिए था कि पुलिस को एक एफआईआर दर्ज करनी चाहिए थी। उसकी आत्महत्या के संदेहजनक होने का दूसरा कारण यह था कि जिस छत से वह लटका हुआ पाया गया था, उसकी ऊंचाई 12 फिट थी। इस तथ्य पर विचार कार्बन के बाद कि उसकी कोठरी में उसके अतिरिक्त तीन अन्य कैदी भी थे, मैंने महसूस किया कि राम सिंह के लिए इतनी ऊँची छत से इतनी शांतिपूर्वक तरीके से खुद को फांसी लगा लेना संभव नहीं था।”
“उसने स्पष्ट एवं कथित तौर पर खुद को फांसी लगाने के लिए अपने पैजामे के नाड़े का इस्तेमाल किया था। उसके पास ही प्लास्टिक का बाल्टी रखी थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की जैसे उसे शराब पिलाने के बाद लटका दिया गया था। वास्तव में उसके शरीर पर कुछ चोट के निशान भी थे। एक एसडीएम द्वारा उसकी आत्महत्या की जांच का आदेश दिया गया। परन्तु मैं जानता था की वह एसडीएम उसे हत्या करार नहीं कर सकता है चाहे वह स्वयं उसकी आँखों के सामने क्यों न की गयी हो। क्योंकि एसडीएम का रैंक जेल अधीक्षक के बराबर या कम होता है दोनों एक ही कैडर से होते हैं। वर्तमान जेल प्रणाली के अंतर्गत एसडीएम भी जेल कर्मचारियों के विरुद्ध विपरीत रिपोर्ट देने में लिप्त था।”
गुप्ता जी का कहना था कि “मैं पहले से जानता था कि उस जांच का नतीजा कोई निकलने वाला नहीं है। राम सिंह के वकीलों ने उसे गलत करार दिया और उसके पिता ने मिडिया को बताया कि उसके बेटे के लिए खुद को इतने ऊपर उठाना संभव नहीं था, क्योंकि उसकी एक भुजा ख़राब थी। लेकिन इन बातों को सुनना कौन चाहता था। उस समय कोई भी यह जानने को इच्छुक नहीं था कि राम सिंह की मौत संदेहास्पद क्यों थी? वे उसे मृत देखना चाहते थे और यदि वह कार्य जेल में किया गया, तो भी कोई बात नहीं थी। मैं तो यह सोचकर हैरान रह जाता हूँ कि अन्य चारों बलात्कारी जीवित कैसे बच गए? जब उन्हें पहली बार जेल लाया गया था तो उनकी जबरदस्त पिटाई की गयी थी, परन्तु वे लोग मारे जाने से कैसे बच गए थे? एसडीएम की रिपोर्ट से हमें कोई हैरानी नहीं हुई – उसका सार था कि वास्तव में राम सिंह की मृत्यु एक आत्मा हत्या थी।
कुछ समय पश्चयात, जुलाई 2013 में बिमला मेहरा ने बीबीसी की एक टीवी टीम को दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार और युवती की मृत्यु के बारे में एक डाक्यूमेंट्री बनाने की अनुमति दे दी। फ़िल्मी टीम न केवल जेल के अंदर शूटिंग की, बल्कि उसने मुकेश का साक्षात्कार लेने में भी सफलता प्राप्त की। ‘भारत की बेटी’ नमक उस डाक्यूमेंट्री को राम सिंह की मृत्यु के तत्काल बाद फिल्माया गया था और उसे अंततोगत्वा 2015 में रिलीज किया गया था। मुझे डाक्यूमेंट्री के निर्माण और फिल्म निर्माताओं को जेल के अंदर प्रवेश की अनुमति देने को लेकर गंभीर आपत्तियां थीं। मैंने महानिदेशक के साथ अपना यह विचार साझा किया कि किसी विदेशी टीम को तिहाड़ में अभूतपूर्व प्रवेश देने के कारण स्थानीय मिडिया और प्रेस बहुत क्षुब्ध होगा। मैं यह भी जानता था कि उस डाक्यूमेंट्री हमारी छवि अच्छी नहीं दिखाई जाने वाली थी।”
गुप्ता जी कहते हैं: “मरने से पहले रामसिंह ने मुझसे भी वही बातें कहीं थी, जो मुकेश ने बीबीसी टीम को बताई थी – का सारा दोष उस युवती का है। इतने जघन्य अपराध के बाद मामले को हल्का बनाने के लिए की गई ऐसी टिप्पणियां अत्यंत अलोकप्रिय समझी गई। इसलिए जब डाक्यूमेंट्री रिलीज हुआ तो बहुत हो हल्ला हुआ। बिमला मेहता ने उन्हें जेल के मंच का प्रयोग करने की अनुमति दी थी, जो बाद में व्यापक विवाद में परिणत हो गई और सरकार को इस बात का पता लगाने के लिए एक जांच बैठानी पड़ी कि किसी फ़िल्मी टीम को जेल के अंदर फिल्म बनाने और कैदी के साक्षात्कार की अनुमति कैसे और क्यों दी गई ?
इस समय तक बिमला मेहरा तिहाड़ से जा चुकी थी और वह हमारा, विशेष रूप में मेरा, सिरदर्द बन गया। इस मुद्दे पर संसद के अंदर होने वाली बहसें बड़े राजनितिक शक्ति प्रदर्शन का का माध्यम बन गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने सन 2015 में डाक्यूमेंट्री पर भारत में प्रतिबन्ध लगा दिया और केवल यह जाने में रूचि ली की फ़िल्मी टीम को अनुमति कैसे प्राप्त हुई ?
गुप्ता जी कहते हैं: “इस डाक्यूमेंट्री परियोजना के बारे में मेरी सारी आशंकाएं सही सिद्ध हुई। मैं अब भी नहीं जानता बिमला मेहरा बीबीसी को तिहाड़ के अंदर प्रवेश की अनुमति देने के लिए इतनी अधिक इक्षुक क्यों थीं? उसके बाद मिडिया साक्षात्कार, जो अंत्यंत सीमित होते थे, अब पूरी तरह तिहाड़ में प्रतिबंधित है। राम सिंह को भी फौरन भुला दिया गया था, परन्तु जिस समय किशोर अपनी सजा पूरी करने जेल से रिहा हुआ, उस समय मुकेश, पवन, विनय और अक्षय अपनी मृत्यु दंड की प्रतीक्षा कर रहे थे। हिरासत में होने वाली मौतों का सिलसिला आज भी जारी है।