आज बिहार की एक बेटी का ‘पहला बरसी’ है, उसके पिता के नाम को 16 करोड़ में निचोड़ा गया था, वह दरिद्रता में अंतिम सांस ली थी, दशरथ मांझी नाम था उसके पिता का

ऐतिहासिक पिता दशरथ मांझी (मृत) की इकलौती बेटी लौंगिया देवी का पार्थिव शरीर 

पटना / नई दिल्ली : आज बिहार की एक बेटी की बरसी है। आज के ही दिन एक ऐतिहासिक पिता की इकलौती बेटी अंतिम सांस ली थी। नाम लौंगिया देवी था। बिहार की ही तो रहने वाली थी। किसी नेता, किसी अधिकारी, किसी धनाढ्य, किसी जमींदार, किसी राजा-महाराजा की वंशज भी नहीं थी। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा सुनते वह बचपन से जवान हो गई, लेकिन उसके गाँव से गरीबी नहीं खत्म हुई। जब बूढी हुई, तो शहर से आने वाली हवाओं में ‘बेटी बचाओ’ का नारा सुन रही थी। जैसे-जैसे आवाज उसके गाँव आ रहा था, लौंगिया देवी की साँसों की संख्या उत्तरोत्तर कम हो रही थी। बिहार के उस ऐतिहासिक, कर्मठ पिता की इकलौती बेटी के शरीर में बहने वाले रक्त का रंग बदल रहा था। लाल रक्त से सफ़ेद हो रहा था और शरीर ‘जीवित’ से ‘पार्थिव’ में बदल रहा था। अंततः लौंगिया देवी का शरीर पार्थिव हो गया। दिन था 4 दिसंबर और साल 2020 – आज से 365 दिवस पूर्व।

लौंगिया देवी आधुनिक भारत के एक निर्धन, दरिद्र, दीन, दीनहीन, कंगाल, मुफ़लिस, अभावग्रस्त हार मांस वाले मनुष्य जिसका नाम दशरथ मांझी था, की इकलौती बेटी थी। समयांतराल पैसे कमाने के होड़ में समाज के संभ्रातों में ‘दशरथ मांझी’ ‘माउंटेनमैन’ बना दिया। इतना ही नहीं, मरणोपरांत भी केतन मेहता नामक एक व्यक्ति उस निर्धन, दरिद्र, दीन, दीनहीन, कंगाल, मुफ़लिस, अभावग्रस्त हार मांस वाले मनुष्य दशरथ मांझी के नाम को निचोड़कर 16 करोड़ रुपये कमा लिए। दशरथ मांझी अपने जीवन का अंतिम सांस लेकर ईश्वर के पास, अपनी पत्नी के पास इतिहास रचकर पहले ही कूच कर गए थे । 

उस दिन लौंगिया देवी की मृत्यु की खबर भारत के लोगों के लिए बहुमूल्य नहीं था। न केतन मेहता के लिए और ना ही नवाजुद्दीन सिद्दिक्की के लिए। भागीरथ मांझी, जो दशरथ मांझी के पुत्र हैं, के दामाद मिथुन मांझी इस खबर को विगत वर्ष 4 दिसंबर को बताये थे। लौंगिया देवी के तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। सभी ईंट भठ्ठे पर कार्य करते हैं। लौंगिया देवी आर्थिक रूप से पिछड़े प्रदेश ही नहीं, मानसिक रूप से पिछड़े देश के लोगों के बीच गरीबी से लड़ते अंतिम सांस ली। दुर्भाग्य यह है कि आज 365 दिन बीत गए – न आमिर खान आये, ना सोनू सूद और ना ही केतन मेहता और ना ही बिहार के घुटने कद से लेकर आदम कद तक के नेता जिससे लौंगिया देवी और उसके जैसे लाखों बिहार की बेटियों के जीवित शरीर को पार्थिव होने से बचाने आते।

पहाड़ी की तराई में बेस गेहलौर गाँव में दशरथ मांझी पैदा हुए। पिता मंगरु मांझी खेत मजदुर थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और पढाई लिखजे का चलन भी नहीं था। सो, दशरथ मांझी पढ़ नहीं सके। बचजपं से ही वे पिता के साथ खेतों में काम करने लगे। बड़े हुए तो पिता ने उनकी शादी फागुनी देवी के साथ कर दी। पिता की तरह ही काम करने दशरथ मांझी घर चलते रहे। मजदूरी के लिए उन्हें दूसरे गाँव में भी जाना पड़ता था। एक बार उन्हें पहाड़ी के दूसरी ओर की घाटी में काम मिला। वे रोज मजदूरी करने उस गाँव जाते थे। पत्नी कलेवा ९दोपहर का खाना) और घरे में पानी लेकर उनके पास जाती थी। उस पार घाटी में जाने का एक ही रास्ता था – पहाड़ी में डेढ़ फिर चौड़ी एक दरार ! सारे लोग, जिन्हे उस पार घाटी के गाँव में जाना होता, उसी रास्ते से जाते थे। संकरा रास्ता होने के कारण लोगों को तिरछे होकर उसमें से गुजरना होता था। इससे एक बार उनके बदन पर खरोचें भी लग जाती थी। एक दिन उनकी पत्नी उस संकरे रास्ते में फंस गयी। गहरा फुट गया और उन्हें चोट भी आयी। रोटी, बिलखती, खाना लेकर अपने पति के पास पहुंची। उन्हें साड़ी बात बताई। उस दिन दशरथ मांझी को प्यासा रह जाना पड़ा। रात उन्हें नींद नहीं आयी। दिमाग में विचारों की आंधी चल रही थी।और उससे एक नया निश्चय पैदा हो रहा था। …….

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दशरथ दास पर ‘पहली कहानी’ के लेखक हैं अरुण सिंह। पटना के हैं।‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ था। साल था 1989 और अंक था 1-7 जनवरी। आप तो नवाजुद्दीन सिद्दीकी को जानते होंगे ‘दशरथ मांझी’ के रूप में। अरुण सिंह एक दृष्टान्त हैं – भारत में लेखकों के शोषण का। भारत में ऐसे लाखों लेखक मिल जायेंगे जिनके बल पर भारत में “बॉयोपिक फिल्म” बनती है और वे सभी आर्थिक रूप से किल्लत की जिंदगी जी रहे हैं। यह आर्थिक शोषण सिर्फ लेखकों के साथ ही नहीं, बल्कि “विषय” के साथ भी आर्थिक बलात्कार होता आ रहा है। तकलीफ इस बात की है कि समाज में अनपढ़ों से लेकर शिक्षित विद्वान और विदुषी तक की मानसिकता इतनी कुंठित है कि वे वस्त्र में लगे इत्र और परफ्यूम के सुगंध के “फॉलोवर्स” हो जाते हैं, “ऑटोग्राफ” लेने के लिए क्या-क्या नहीं कर लेते। 

दशरथ दास थे पहाड़ तोड़ने वाले। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी पत्नी के लिए पहाड़ तोड़कर रास्ता नहीं बनाया, अलबत्ता, वे चाहते थे कि उनके गाँव, पंचायत में, अंचल में, प्रखंड में रहने वाले सभी लोग, चाहे चन्दनधारी, टीक धारी, जेनऊ धारी ब्राह्मण हों या तलवार उठाने वाल राजपूत या फिर मजदूरी कर पेट पालने वाले, अपने परिवार को जीवित रखने वाले समाज के अन्य लोग – सभी उस रास्ते का उपयोग करें। दूरी को कम करें। लेकिन सफ़ेद वस्त्रधारी नेता उसे “मांझी’ बना दिए और केतन मेहता तो प्रेम कहानी लिखकर 16 करोड़ रुपये एकत्रित कर लिए। दशरथ दास अपनी जीवन का अंतिम सांस लेकर ईश्वर के पास, अपनी पत्नी के पास इतिहास रचकर कूच कर गए। 

दशरथ दास एक बेहद पिछड़े इलाके से आते थे । वे जिस गांव में रहते थे वहाँ से पास के कस्बे जाने के लिए एक पूरा पहाड़ (गहलोर पर्वत) पार करना पड़ता था। उनके गाँव में उन दिनों न बिजली थी, न पानी। ऐसे में छोटी से छोटी जरूरत के लिए उस पूरे पहाड़ को या तो पार करना पड़ता था या उसका चक्कर लगाकर जाना पड़ता था। रास्ता बहुत संकीर्ण था। एक दिन फाल्गुनी देवी, उनकी पत्नी,  अपने पति के लिए खाना ले जा रही थी, रास्ते में उसे चोट लगी, जिसके कारण मिट्टी के बर्तन में रखा पानी गिर गया। अपने पति से कही आज आप खाने के बाद पानी नहीं पी पाएंगे। यह बात दशरथ दस के ह्रदय को बेध दिया। दशरथ दास जैसे खेत में कार्य करने वाले अनेकानेक श्रमिक थे और लगभग सभी “श्रमिक जाति” के ही थे। सबों की पत्नियां, बच्चे अपने श्रमिक पिता, चाचा, दादा, भाई के लिए खाना-पानी लाते थे। अपनी पत्नी को बिना कुछ बताए वे पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने लगे। फाल्गुनी देवी, इस घटना के सात साल बाद ईश्वर को प्राप्त हुई, बीमारी, उपचार और भर-पेट भोजन की किल्लत के कारण। 

जिस दिन उनकी पत्नी इस पृथ्वी पर अंतिम साँस ली, दशरथ दास का गहलौर पहाड़ पर रास्ता का भविष्य दिखने लगा था। अपनी पत्नी की मृत्यु के अगले 15-16 साल तक गहलौर पहाड़ पर हथौड़ी-छेनी चलता रहा, पहाड़ कटते रहे, रास्ता बनता रहा। इस पुरे कार्य को करने में दशरथ दस को कोई 22+ वर्ष लगा जब वे सन 1982 में अत्रि और वजीरगंज की दूरी 40 किलोमीटर कम कर 55 किलोमीटर से 15 किलोमीटर कर दिए। कहते हैं बिना पागलपन से कोई काम नहीं हो सकता, खासकर जब हम-आप समाज में क्रांति लाने की बात करते हैं। दशरथ दास को भी गया के लोगों के अलावे मध्य बिहार के लोग बाग “पागल” कहते थे। स्वाभाविक भी है। लेकिन इस बात को लिखते समय न तो मैं हिचकी ले रहा हूँ, न मेरी कलम थरथरा रही है, न मैं तुतला रहा हूँ कि “बिहार के लोगों की मानसिकता स्वहित के लिए चाहे क़ुतुब मीनार जैसी हो, सामाजिक हित, सार्वजनिक हित की जब बात होती है तब सभी मानसिक रूप में दिव्यांग हो जाते हैं – चाहे नेता हों, अधिकारी हों, मंत्री हों संत्री हों। दशरथ दास कोई 78 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त किये। 

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आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते अरुण सिंह कहते हैं: “बहुत तकलीफ होती है जब समाज में ऐसे दृष्टान्त देखता हूँ। दशरथ ‘दास’ थे वे, न कि दशरथ ‘मांझी’। लोगों ने, नेताओं ने उन्हें ‘मांझी’ बना दिया। जिस पहाड़ को अपनी छेनी-हथौड़ी से तोड़कर समाज के लोगों को एक नया रास्ता दिया, एक नया वजूद दिया, अपनी मेहनत से यह सिद्ध कर दिया कि हम अकेले भी समाज में परिवर्तन ला सकते हैं, समाज में अपनी मेहनत से, अपनी परिश्रम से, अपनी सोच से एक नया मिशाल कायम कर सकते हैं, एक बदलाव ला सकते हैं; बिहार सरकार गहलौर में तीन किलोमीटर पक्की सड़क का नाम दशरथ ‘मांझी’ के नाम पर करने का प्रस्ताव रखी। यह भी कही उनके नाम पर (मांझी शब्द जोड़कर) अस्पताल बनाएंगे – जबकि वह व्यक्ति मांझी था ही नहीं। यह राजनिति है। बिहार के पूर्व मुख़्यमंत्री जीतनराम ‘मांझी’ उन्हें अपने ‘समुदाय’ में जोड़ लिए। लेकिन बहुत विश्वास के साथ कह सकते हैं कि जीतनराम मांझी कभी दशरथ दास से मुखातिब भी नहीं हुए होंगे। उन्हें देखे भी नहीं होंगे। उन्हें जानते भी नहीं होंगे। सब राजनीति है। दशरथ दास की पत्नी उनके पहाड़ तोड़ने के संकल्प लेने के सात साल बात मृत्यु को प्राप्त की। उनका बेटा शरीर से लाचार था, अपाहिज था।  बेटी विधवा थी। किसी ने इन बातों को देखा भी नहीं। यह दुःखद है।” 

अरुण सिंह आगे कहते हैं: “आम तौर पर कोई भी व्यक्ति अगर बहुत लगन से कोई काम करता है तो समाज के लोग उसे पागल करार कर देते हैं। दशरथ दास के साथ भी यही हुआ। दशरथ दास के इस ऐतिहासिक कार्य को लोगों ने उसकी पत्नी की प्रेमगाथा से जोड़ दिया। उसकी पत्नी की मृत्यु सात साल बाद हुई। उन्होंने अपने कार्य को कभी नहीं छोड़ा। लोग कहते रहे और वह अनसुना करता रहा। उसकी सोच न केवल तत्कालीन समाज के, प्रदेश के लोगों से बहुत ऊँचा था; बल्कि आज भी लोग उसकी सोच को नहीं आंक सकते हैं। “मांझी: दी माउंटेन मैन” फिल्म बनाकर केतन मेहता ने जिस तरह समाज एक व्यक्ति का अपने परिवार, समाज, प्रदेश और मानवीयता के प्रति सम्मान और दायित्व का मजाक उड़ाए, यह केतन मेहता की सोच से परे हैं। लोगों ने दशरथ दास की सोच को ‘बहुत सीमित’ कर दिया। मेरा मानना है कि लोग दशरथ दास जैसी सोच के उत्कर्ष के बराबर सोच ही नहीं सकते हैं। वह कभी भी अपनी पत्नी, या अपने परिवार के बारे में नहीं सोचा – और लोगों की कुंठित सोच ने उसे पत्नी-प्रेम के साथ जोड़ दिया। आमिर खान तो हद ही कर दिए। ख्याति के लिए विश्व को क्या-क्या नहीं कहा, दशरथ दास के परिवार, परिजनों को क्या-क्या नहीं भरोसा दिलाया, उनका विश्वास जीता – सत्यमेव जयते के प्रसारण के बाद सभी बातें समाप्त हो गयी। यह अच्छी बात नहीं है।” सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोगबाग मृत्युशय्या पर पड़े लोगों का भी स्वहित के लिए व्यापार करना, उसके नाम और यश को भारत के बाज़ारों में बेचना अब ओछपन की श्रेणिओ में नहीं मानते। उन्हें इसके लिए निर्लज्जता नहीं होती। 

भारत की बात छोड़े, तो शायद बिहार के कोई 12 + करोड़ लोगों को यह नहीं मालूम होगा (वैसे भी मालूम क्यों करेंगे) कि धर्मयुग के 1-7 जनवरी, 1989 के अंक में दशरथ दास की कहानी के प्रकाशन के बाद महाराष्ट्र टाईम्स के बासुदेव दशपुत्रे एक पत्र के माध्यम से पहले अरुण सिंह से अनुमति मांगे और फिर उस कहानी को मराठी भाषा में अनुवाद कर महाराष्ट्र टाइम्स में प्रकाशित किये थे। उस कहानी का अंग्रेजी अनुवाद कर ‘दी हिन्दू’ समूह के तत्कालीन “दी वीक” पत्रिका में भी प्रकाशन हुआ था। इस विषय पर जब अरुण सिंह से पूछे तो वे कुछ पल रुके, एक लम्बी सांस लेते कहते हैं: “बासुदेव दशपुत्रे की चिठ्ठी आयी थी। वे चाहते थे कि उस कहानी का प्रकाशन मराठी भाषा में भी हो। वह कहानी महाराष्ट्र टाइम्स में बृहत् पैमाने पर प्रकाशित हुई। आप जानकार, सुनकर, देखकर हैरान हो जायेंगे की महाराष्ट्र टाइम्स में कहानी के प्रकाशन के बाद, धर्मयुग से और वासुदेव जी से मेरे घर का पता महाराष्ट्र के लोगों ने लेना प्रारम्भ किया। 
“महाराष्ट्र का शायद ही कोई जिला अछूता रहा होगा, जहाँ से मुझे पत्र नहीं आया था, जहाँ से मुझे दशरथ दास के लिए आर्थिक मदद नहीं आया था हर महीने। आर्थिक मदद पांच रुपये की भी थी, और 10, बीस, पच्चीस, पचास. सौ रुपये की भी। दशरथ दास महीने में एक बार अथवा दो महीने में एक बार अवश्य आते थे। जब उनके हाथों मैं महाराष्ट्र के दूर-दरस्त इलाकों से प्रेषित मनीऑर्डर का रसीद देता था, पैसा उनके हाथों में रखता था, वे अश्रुपूरित हो जाते थे। मैं उस वेदना और संवेदना को शब्दों में नहीं कह सकता। फिर कुछ पल के लिए अरुण सिंह शांत हो गए …. आगे कहते हैं….लेकिन बिहार के किसी कोने से एक व्यक्ति का भी हाथ नहीं उठा। दशरथ दास तो मध्य बिहार के गया जिले के ही तो रहने वाले थे।” 

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अरुण जी आगे कहते हैं: “इस कहानी के प्रकाशन के बाद कलकत्ता से राजकमल भारती ने संपर्क साधा। वे चाहते थे कि एक फिल्म बनायें और वे इस कार्य में मेरी मदद चाहते थे। वे कलकत्ता से दशरथ दास के गाँव गए और उन्हें लेकर पटना आ गए। वे पूरी कहानी सुने। वे पूरी कहानी को हूबहू रखकर फिल्म बनाना चाहते है। कोई भी फेरबदल, मिर्च-मसाला मिलाये बिना – एक मानवीय कहानी। दशरथ दास और राजकमल जी के साथ करारनामा बना, हस्ताक्षर हुए। उन दिनों में दशरथ दास को 50,000 नगद देने को तैयार हुए, साथ ही, 10,000 रुपये अग्रिम भी दिए। पुनः वापस आने के एक विश्वास के साथ वे दशरथ दास से बिदा लिए। लेकिन आज तक फिर कभी नहीं आए।  उनके द्वारा बताए गए पते पर कई बार पत्राचार किये, लेकिन जबाब नहीं मिला। 

अरुण सिंह की कथा-व्यथा सुनकर भारतीय पत्रकारिता और वर्तमान काल के मूर्धन्य पत्रकारों, संस्थान के मालिकों पर हंसी आ गयी। आम तौर पर जनवरी और अगस्त के प्रथम सप्ताह में मुझे सैकड़ों पत्रकारों के फॉर आते हैं। सुबह, शाम मोबाईल की घंटी टनटनाता है। सभी कहते हैं कि : “शिवनाथ जी आपने जो शहीदों के वंशजों को ढूंढा है, आप उन सबों का संपर्क नंबर और पता व्हाट्सएप आकर दें, प्लीज। हम सभी उन पर सीरीज में कहानी करना चाहते हैं। नए तरीके से उन्हें दिखाना चाहते हैं। पहले की सरकार के समय काल में उनकी बहुत उपेक्षा हुई है…… इत्यादि-इत्यादि।” मैं भी मूक-बधिर होकर उनकी बातों को सुनता रहता हूँ। जैसे ही उनकी सांस रूकती है अगले वाक्य को पकड़ने के लिए, मैं बीच में कुदककर कहता हूँ की आप अपने संपादक अथवा मालिक से कहें की वे सभी वंशजों के बैंक लेखा में न्यूनतम पांच-पांच लाख जमा करबा दें, मैं सभी का नाम आपको तत्काल प्रेषित कर दूंगा। फोन काट देती हैं। क्या समझे ?

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