कल तक चांदनी चौक का इतिहास था यह भवन जहाँ आज लाला हरदयाल पुस्तकालय स्थित है। कल यह हार्डिंग पुस्तकालय था। देश आज़ाद हुआ। क्रांतिकारियों के नामों का राजनीतिक बाजार में विपणन होना शुरू हो गया । हार्डिंग पुस्तकालय हरदयाल पुस्तकालय हो गया। अख़बारों के पन्नों पर छपा। नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री सभी खुश हुए। मतदान उनके पक्ष में हुआ।
उत्तरोत्तर शहर शिक्षा के गिरफ्त से निकलकर व्यापारियों के गिरफ्त में आ गया। विज्ञान का विकास होता गया। दिल्ली सल्तनत में विधान सभा से लेकर लोकसभा तक कुर्सियों पर नेताओं के चेहरे बदलते गए। देश की आज़ादी का वर्ष भी बीतता गया। आज़ादी का इतिहास भी किताबों के पन्नों से, पुस्तकालयों के आलमीरों से, दस्तावेजों से महत्वहीन होता गया।
दिल्ली के अपवाद स्वरुप पुस्तकालयों को छोड़कर, जहाँ आधुनिक भारत के बड़े-बड़े राजनेता, बड़े-बड़े अधिकारी, पदाधिकारी, नेता, कार्यपालिका, विधानपालिका, न्यायपलिका के लोग आते-जाते रहे, उसके गलियारे इत्रों से सुगन्धित रहे, वह फलता-फूलता रहा, फल-फूल रहा है। लेकिन लाला हरदयाल पुस्तकालय चांदनी चौक के तत्कालीन खुले माहौल से आज के संकीर्ण गलियों के नुक्कड़ पर चला आया। गलियों में रात के अँधेरे में लोग लघु शंका करने लगे।
उसके दीवार से पांच कदम आगे दिल्ली मेट्रो (चांदनी चौक स्टेशन) का द्वार बना। लाखों लोग नित्य उस द्वार से निकलते हैं, ढुकते हैं – लेकिन आज लाला हरदयाल पुस्तकालय को कोई नहीं जानता। वहां काम करने वाले कोई सौ कर्मचारियों को विगत 33 महीनों से वेतन नहीं मिला। पुस्तकालय की बिजली काट दी गयी। कल जहाँ हज़ारो लोग यहाँ आते थे किताबों, दस्तावेजों, पांडुलिपियों को देखने, पढ़ने, आज संख्या 20 से अधिक नहीं हो पा रही है। अब सवाल यह है कि आखिर वह कौन है जो इस पुस्तकालय को समाप्त करना चाहता है? कोई तो है, चाहे मंत्री हों, नेता हो, अधिकारी हो, पदाधिकारी हो या फिर बिचौलिया – भड़ुआ हो, इस पुस्तकालय को समाप्त करना चाहता है अपने होते के लिए।
वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव कहते हैं : “राजधानी के इतिहास का मूक गवाह यह संस्थान दिल्ली महानगरपालिका की अक्षमता और संवेदनहीनता का शिकार है। यह हेरिटेज संस्था है। कर्मचारी बिना वेतन के काम कर रहे हैं। बिजली कट गई है। रोशनदान के नीचे खड़े होकर लोग पढ़ते हैं। वाशरूम दो माह से साफ नहीं किया गया। पीने का पानी नहीं मिलता। लाइब्रेरी के फोन नं. 011-2396-3172 पर जवाब मिला : “उपयोग में नहीं है।” हालांकि मेयर इसके अध्यक्ष हैं।
यहां की पौने दो लाख पुस्तकों में आठ हजार तो दुर्लभ पांडुलिपियां हैं। अकबर के नवरत्न अबुल फजल (इब्न मुबारक) द्वारा लिखित आईने अकबरी और अकबरनामा है। इनमें मुगलकालीन समाज तथा सभ्यता का बेहतरीन वर्णन मिलता है। अबुल फजल का ही फारसी में महाभारत भी है, जिसमें आकृतियां सुनहरी हैं। सूफी संत ख्वाजा हसन निजामी का फारसी लिपि में लिखा कुरान है। महान ज्योतिष-ग्रंथ भृगु संहिता हैं, जिससे कुंडली तैयार होती है। यहां ब्रिटिश लेखक सर वाल्टर रेले द्वारा 1607 में लिखी : “हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड (1607) की मूल प्रतियां हैं।
इसमें मेसोपोटामिया पर रोम की फतह से क्रमबद्ध इतिहास लिखा गया है। वाल्टर रेले का लंदन में स्टुअर्ट बादशाह जेम्स प्रथम ने सर कलम करा दिया था। रेले को ब्रिटेन ट्यूडर वंश की अविवाहिता महारानी एलिजाबेथ प्रथम का आशिक बताया जाता है। अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों में हैं : 1705 की वोयेज अराउंड द वर्ल्ड (जॉन फ्रैंकिस जेनेली कोरिरि),1828 की तजकीरा अल वकयात(चाल्र्स स्टेवर्ड),1794 की ट्रेवल्स इन इंडिया(विलियम होजेज), 1854 में लिखी गई रिगवेद संहिता (एचएच विल्सन), 1881 में सत्यार्थ प्रकाश(स्वामी दयानंद सरस्वती), 1928 में लिखी गई कुरान ए मजिद और औरंगजेब की मूल रचना की अनुवादित रचना आयते ऑफ कुरान प्रमुख हैं। सवाल है कि यह सब अनमोल कृतियां कब तक बची रहेंगी ? सभी बेशकीमती धरोहर हैं।
अंग्रेजों के पढ़ने के शौक के चलते टाउन हॉल में छोटी सी लाइब्रेरी इंस्टीट्यूट शुरू हुई जो 1911 में यह मौजूदा भवन में स्थानांतरित हो गई। दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के 1919 में नाम से पहचाना जाने लगा। इसे पहले हार्डिग लाइब्रेरी के नाम से भी पुकारते थे। फिर हरदयाल लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है।
इस उपेक्षित लाइब्रेरी भवन का रुचिकर इतिहास जानकर वेदना और ज्यादा होती है। दो सदी बीते चांदनी चौक को इस भवन और 1866 में सवा लाख में निर्मित कर यूरोपियन क्लब बनाया गया था। मलका विक्टोरिया की प्रतिमा भी लगाई गई थी। यहीं पर दिल्ली कॉलेज और लाइब्रेरी भी बनी थी। फिर मलका विक्टोरिया की मूर्ति हटाकर स्वामी श्रद्धानंद की मूर्ति लगी थी। इसका नाम मूलतः लॉरेंस इंस्टिट्यूट था। पुस्तकालय 1902 में बना। इसी स्थल पर दिसंबर 1912 में हाथी पर सवार वायसराय हार्डिंग पर बम फेंका गया था। वे बच गये थे। बम कांड में स्वतंत्रता सेनानी मास्टर अमीरचंद, भाई बालमुकुंद, मास्टर अवध बिहारी और बसंत कुमार विश्वास को फांसी दे दी गई। ये स्वतंत्रता सेनानी हरदयाल के साथी थे। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद 1970 में हार्डिंग लाइब्रेरी का फिर नामकरण हुआ। स्वतंत्रता सेनानी हरदयाल का नाम दिया गया।
राष्ट्रीय धरोहर बचाने और विरासत के संरक्षण में हर समय सरकारें जुटी रहती हैं। मगर दिल्ली में नहीं। वर्ना यह लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी पर प्रशासनिक अनुकंपा कब की हो चुकी होती। अब क्या महापौर, दिल्ली के उपराज्यपाल और केंद्रीय गृहमंत्री को राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्य का बोध भी कराना पड़ेगा ?