आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के, अपने भूतपूर्व अध्यक्ष-सह-प्रबन्ध निदेशक को 75 वें जन्मदिन पर बहुत-बहुत बधाई 

कुमार शुभेश्वर सिंह: आपके बच्चे उस भावना को नहीं समझेंगे कुमार साहेब क्योंकि मैं अवसरवादी नहीं हूँ, चाटुकार नहीं हूँ,  जी - हुजूरी नहीं कर सकता हूँ और ऊँची आवाज में न बोलता हूँ और ना ही सुनना पसन्द है आपके ही तरह 

दरभंगा / पटना : आज आप 75 वर्ष के होते कुमार साहेब (कुमार शुभेश्वर सिंह) अगर शरीर से जीवित होते। कोई बात नहीं, आत्मा से आज भी जीवित हैं। आपके सम्मानार्थ मैं भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रान्तिकारियों /शहीदों के 75 ‘जीवित’, परन्तु भारतीय समाज से उपेक्षित वंशजों को ढूंढा हूँ कुमार साहेब, आपको फक्र होगा, जिसे आपने 46-साल पूर्व पत्रकारिता की सबसे निचली सीढ़ी पर नौकरी दिया था। जिस दिन आप महादेव के पास प्रस्थान किये, भारत रत्न शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपने जीवन का अंतिम जन्मोत्सव मनाकर उसी वर्ष आपके पास पहुँचने के लिए रवाना हो गए। जाने से पहले महाराजा साहेब के बारे में, राजबहादुर साहेब के बारे में, आप सबों के बारे में बहुत चर्चा किये। वे दरभंगा में आपके पोखर में भी नहाना चाहते थे मरने से पहले। यह सभी बातें पता है आपके परिवार को – लेकिन जो ममता, मानवीयता आप में था, वह ढूंढने से भी नहीं मिल रहा हैं कुमार साहेब । जन्म-दिन मंगलमय हो। 

आज 20 फरवरी है और 2021 साल।  आज अगर दरभंगा के अन्तिम महाराजा कामेश्वर सिंह के चहेते भतीजा कुमार शुभेश्वर सिंह जीवित होते तो 75 वर्ष पूरे कर 76 वें वर्ष में प्रवेश करते। लेकिन विधि के विधान के आगे किसका चला है? सभी कहने को अंतिम सांस तक लड़ते हैं, लेकिन अगला सांस लेंगे अथवा नहीं, इसका निर्णय मनुष्य के हाथ में ईश्वर नहीं सौंपे हैं। आज से डेढ़ दसक पूर्व, यानि 22 मार्च 2006 को कुमार शुभेश्वर सिंह अपना अंतिम सांस लेकर 60 वर्ष की अवस्था में अपने दो पुत्र – श्री राजेश्वर सिंह और श्री कपिलेश्वर सिंह – को छोड़कर अग्नि को साक्षी मानकर महादेव के पास पहुँचने हेतु अनन्त यात्रा पर निकल गए। 

साठ के दसक के उत्तरार्थ से उन्हें पहले नाम से जानता था, जब पटना से दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के तहत प्रकाशित महाराजा दरभंगा के दो प्रमुख अखबार – आर्यावर्त / इण्डियन नेशन / मिथिला मिहिर – का अध्यक्ष-सह-प्रबन्ध निदेशक का पद उन्होंने संभाला था। बाद में कई बार मुलाक़ात भी हुई, बात भी हुई। साठ के दसक के उत्तरार्ध से सत्तर के दसक के मध्य तक मैं उनके ही संस्थान के द्वारा प्रकाशित दोनों अख़बारों को पटना की सड़कों पर बेचा करता था। उन दिनों दी इण्डियन नेशन पटना का ही नहीं, बिहार का सबसे मँहगा अखबार था, पंद्रह नए पैसे कीमत थी। जबकि उसी संस्थान में प्रकाशित आर्यावर्त की कीमत दस नए पैसे थे। पृष्ठों की संख्या आर्यावर्त में अधिक होता था, जबकि इण्डियन नेशन में आर्यावर्त की तुलना में कम पृष्ठ होते थे। वजह स्पष्ट था – हिन्दी अखबार में प्रदेश का विज्ञापन अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में अधिक होता था। इसलिए कीमत भी कम थी। 

सत्तर के मध्य में आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बारों में प्रूफ-रीडर और किरानी के पांच पदों के लिए आवेदन मांगे गए। नियुक्ति लिखित परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर होना था। कुमार शुभेश्वर सिंह का सम्भवतः अध्यक्ष-सह-प्रबन्ध निदेशक बनने के बाद यह पहला अवसर था नियुक्ति का, जिसे लिखित परीक्षा के आधार पर भरना था। न्यूनतम योग्यता “स्नातक” रखा गया था। मैं सन 1974 में 18 मार्च को जिस दिन कदमकुंआ वाले जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल पटना कालेज के सामने ब्रह्म-स्थान से फूंका गया था, अपने मैट्रिक परीक्षा का फिजिक्स पत्र का इम्तहान देने जा रहा था। उस दिन सुवह-सवेरे पटना के गाँधी मैदान से कोई 200 से अधिक अखबार – आर्यावर्त/इण्डियन नेशन/सर्चलाईट/प्रदीप – लेकर पहले उसे बांटा और फिर अपने घर से परीक्षा केंद्र पर पहुंचा। 

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उन दिनों मैं टी के घोष अकादमी में भी चार अखबार देता था। विद्यालय के सभी शिक्षक, कर्मचारी, प्राचार्य यही चाहते थे की जैसे ही मैं मैट्रिक परीक्षा पास किया, मुझे विद्यालय में किरानी की नौकरी मिल जाएगी, जिससे मेरा और मेरा परिवार का भरण-पोषण सुचारु रूप से होगा। लेकिन समय कुछ और चाहता था, विधाता कुछ और चाहते थे और मेरा प्रारब्ध पटना के अशोक राज पथ पर मेरे जीवन की लकीरें कुछ अलग तरह से खींच रहा था। 

मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद अखबार बेचने में साथ कार्य करने वाले  सहकर्मी, जो दिन में आर्यावर्त में कार्य भी करते थे रोटरी विभाग में; मुझे आवेदन देने को कहे। शैक्षणिक योग्यता मेरी उतनी नहीं थी, जितनी जरुरत थी। मुझे संस्थान के एक व्यक्ति से बाबूजी के साथ मिलने को भी कहे। मैं वैसा ही किया। तर्क सिर्फ यही था की जब प्रूफ-रीडिंग / किरानी का पद है, और नियुक्ति परीक्षा के आधार पर होगी, तो मुझे भी परीक्षा में बैठने की अनुमति मिलनी चाहिए – आखिर मैं भी आपके ही अख़बारों को कोई आठ वर्षों से बेच रहा हूँ। मेरी बात को आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के अख़बारों के एजेन्ट श्री मानदाता सिंह भी समर्थन किये। मेरी बात संस्थान के लगभग सभी वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुंची। सबों का एक ही जबाब था: “अगर कुमार साहेब [श्री कुमार शुभेश्वर सिंह] चाहेंगे तभी यह संभव है। संस्थान में कोई भी व्यक्ति इसका निर्णय नहीं ले सकता।” इन बातों को सुनकर मैं अपनी घर की ओर निकल गया पुनः अपने कार्य को करने। 

लेकिन समय कुछ और चाहता था। कुमार साहेब अगले दो दिन बाद पटना आए। वे जब भी पटना आते थे उनके दोनों बेटे और पत्नीजी साथ आते थे। उन दिनों उनके दोनों बेटे बहुत छोटे-छोटे थे। लेकिन महाराजा के परिवार के हैं, हमसे तो अधिक सम्मानित होंगे ही संस्थान के कर्मचारियों के नजर में। उन अधिकारियों में से किसी दो व्यक्तियों आगामी परीक्षा में मैं मैट्रिक पास करने के बाद अभ्यर्थी हो सकता हूँ अथवा नहीं – के बारे में श्री कुमार साहेब के कानों में डाल दिए। अगले दिन एक व्यक्ति साईकिल से पटना कालेज के सामने वाली गली के नुक्कड़ पर खड़ा था मेरे घर का पता पूछ रहा था। जब मैं उनसे मिला तो मुझे कहते हैं: “शिवनाथ जी, मुझे …. जी भेजे हैं। आप कल अपना आवेदन दे दीजिये  । चार दिन बाद रविवार को दस बजे से लिखित परीक्षा हैं। आप परीक्षा में बैठ सकते हैं। अगर पास कर गए तो नौकरी पक्की। कुमार साहेब का आदेश हुआ है।” वह रविवार मेरे जीवन का दिवाकर स्वरुप था।  मैं परीक्षा मैं बैठा, सबसे अब्बल आया, नौकरी मिली।  लेकिन प्रूफ-रीडर के पद पर नहीं, बल्कि “कॉपी-होल्डर” के रूप में शुरुआत हुई – एक नई पहचान के लिए, एक नए जीवन की शुरुआत के लिए, अंधरे में भी चलने का अभ्यास करने के लिए, नेपथ्य से बाहर निकलने के लिए। 

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सन 1975 से सन 1988 तक उस अखबार में कार्य किया। कॉपी-होल्डर से प्रूफ-रीडर बना, फिर अनुवादक बना, फिर उप-संपादक बना, फिर संवाददाता बना। प्रारंभिक छः-माह छोड़कर, सन 1976 से सन 1982 तक रात्रिकालीन सत्र में ड्यूटी किया।  दिन में पटना विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट, स्नातक, स्नातकोत्तर किया। बहुत लोग पीठ थपथपाते थे, आगे बढ़ने की प्रेरणा देते थे; बहुत मिथिला के धोती-धारी बनकर टांग खींचने में, चुगली करने में, रास्ते में पथ्थर बिछाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़े। लेकिन मैं भी समय के निगाहों में था और वे भी ईश्वर के सीसीटीवी के अधीन। 

सन 1988 आते-आते संस्थान के अध्यक्ष-सह प्रबन्ध निदेशक “अवसरवादी धोतीधारियों, चाटुकारों, जीहुजूरियों, चमचों, कलछुलों, बेलनों के गिरफ्त में गिरफ्तार होते चले गए। दरभंगा के राजा-महाराजा मिथिलांचल के जिन धोतीधारियों, ब्राह्मणों को जीवन का मकसद बताया था, आर्थिक-सामाजिक संरक्षण दिया वे ही न केवल आर्यावर्त-इण्डियन नेशन संस्थान को चतुर्दिक घेराबंद किया, बल्कि कुमार साहेब को भी पस्त और परास्त करने की दिशा में धकेलते गए। संस्थान बीमार होता चला गया। हमारे घर में भी सबों का पेट-पीठ एक होने लगा। हम सभी महाराजा घराने से तो थे नहीं और ना ही, दरभंगा राजा-महाराजा परिवार में किसी का विवाह हुआ था; जिससे हम सभी भी “धन-धान्य” होते। समय अपनी रेखाएं खींच रहा था। पटना से इस शरीर और आत्मा को उठाकर अपने सामनार्थ, परिवार और परिजनों के सम्मानार्थ, जीवित रहने, जीवित रखने के लिए। मैं सन 1988 में यहाँ से निकल गया धनबाद-आसनसोल-दुर्गापुर-कलकत्ता के रास्ते दिल्ली की यात्रा के लिए। सन 1988 से साढ़े-तीन वर्ष लगे दिल्ली के आई एन एस बिल्डिंग में पहुँचने के लिए, सन्डे पत्रिका के दफ्तर में एक सम्वादिक़ के रूप में। 

आज 20 फरवरी है। आज अगर कुमार साहेब आप जीवित होते तो 75 – वर्ष के होते। आपके दोनों पुत्र मुझे पहचानते भी नहीं हैं। एक जो जानते भी थे, वे अब जानते नहीं हैं। आखिर खून तो राजा परिवार का है। लेकिन उन्हें कैसे कहा जाय कि अब गाँव का मुसहर, दलित, अनपढ़, गवार, अशिक्षित, भिखमंगा, दरिद्र व्यक्ति भी सामाजिक-समानता की लड़ाई अंतिम सांस तक लड़ता है। आप भी लड़े थे सत्तर के दसक में तत्कालीन मुख्य मंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र के ख़िलाफ़। आप दोनों तो ब्राह्मण ही थे।  आपका उनके ख़िलाफ़ होना, आपके पतन की शुरुआत थी। यह आप जानते थे। जब प्रेस बिल आया, आप जमकर लड़े। जगन्नाथ मिश्र का प्रेस बिल और आपकी लड़ाई पर ही तो हम 2000-शब्द  में एक कहानी लिखे थे – एक लिखित परीक्षा के लिए नवभारत टाईम्स में पत्रकार बनने के लिए।  मेरा चयन भी हुआ उस लेख के आधार पर। मैं मुंबई में परीक्षा भी दिया, उत्तीर्ण भी हुआ, चयनित भी हुआ, विटी पर 15-दिन रहकर फिर वापस आ गया – समय कुछ और चाहता था, प्रारब्ध में कुछ और होना  था। 

आपको नहीं मालूम होगा कुमार साहेब, क्योंकि आपके पुत्र बताएँगे नहीं। आपके 75 वर्ष और हमारे एकलौते प्रयास से भारतीय आज़ादी के आंदोलन के गुमनाम क्रान्तिकारियों, शहीदों के 75 वंशजों की खोज, आज़ादी का 75 वर्ष – कितनी समानता हैं कुमार साहेब । यह सम्पूर्ण सम्मान आपके लिए ही तो है कुमार साहेब, आखिर आपने ही तो महज मैट्रिक पास बच्चा को पत्रकारिता की सीढ़ी पर रखे, चढ़ना सिखाये । इस सम्मान के असली हकदार तो आप ही हैं। 

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यह बात आपका पुत्र नहीं समझेंगे कुमार साहेब  । अनेकानेक बार जिक्र किया था शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहेब के बारे में। अब देखिये न !! जिस दिन उस्ताद का जन्म (मार्च 21) हुआ  था (साल 1916), उसी दिवस के दिन (मार्च 22) को आप अपने शरीर को त्यागकर महादेव के शरण में अनंत यात्रा पर निकले थे, साल था 2006 और कुमार साहेब, जिस दिन आप महादेव के शरण में गए थे, उस्ताद अपने जीवन का अन्तिम 91 वां जन्म-दिन मनाये थे और इसका समस्त कार्य आपके द्वारा नियुक्त वही बच्चा किया था। सम्पूर्ण बनारस ही नहीं, सम्पूर्ण भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में वह दिन विख्यात हुआ – वजह था: बिस्मिल्लाह खान आपके घर के आगे वाले पोखर में नहाना चाहते थे और उनपर लिखित किताब (मोनोग्राफ ऑन उस्ताद बिस्मिल्लाह खान) में आपके दोनों सम्मानित समाचार पत्रों का जिक्र था, महाराजा की जिक्र था, दरभंगा का जिक्र था। कई बार कहा – लेकिन मैं तो मिथिलांचल का धोतीधारी चमचा नहीं हूँ, अवसरवादी भी नहीं हूँ, जी-हुजूरी भी नहीं करता हूँ – जो उन्हें पसंद है। खैर। 

एक बात और कुमार साहेब ! आपके मृत्यु के बाद आपका दोनों अखबार समाप्त हो गया। पटना से दरभंगा तक अगर ज़मीन की खुदाई 10 फीट भी कराएँगे तो शायद एक ईंट भी नहीं मिलेगी, जो आपकी उस ऐतिहासिक लड़ाई को बता सके, आज की पीढ़ी को अश्रुपूरित कर सके। हज़ारों परिवार बेघर हुआ।  मेरे बाबूजी, मेरी माँ सभी मृत्यु को प्राप्त किये। ऐसे अनेकानेक परिवार हैं, जो आज भी कुहर रहे हैं, रो रहे हैं। लेकिन श्रद्धेय कुमार साहेब, आपके 75 वे जन्म दिन का एक ऐतिहासिक महत्व यह है कि वर्षों तक मगध की राजधानी पटना की सड़कों पर आपके ही अख़बारों को बबेचने वाला, वर्षों तक आपके अख़बारों में कार्य करने वाला वही बच्चा “आपके, दरभंगा राज के, महाराजा के, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन में कार्य करने वाले हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों के समानार्थ अख़बारों का वेबसाइट लॉन्च किया है ताकि बिहार की भूमि से उन अख़बारों का नाम, आपका नाम, महाराजा का नाम समाप्त न हो। 

“आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम” नाम हैं वेबसाइट का कुमार साहेब और यह समर्पित है दरभंगा के अंतिम महाराजा सर कामेश्वर सिंह को, आपको। यह बात भी आपके बेटे को पता है कुमार साहेब, लेकिन … मैं जीहुजूरी तो करता नहीं और ऊँची आवाज में बात करना – सुनना मुझे पसंद नहीं है कुमार साहेब । इसलिए यहाँ लिखकर सीधा आपको स्पीड-पोस्ट से प्रेषित कर रहा हूँ, आपके वेबसाईट पर भी लिख रहा हूँ, ताकि मिथिलांचल के संवेदनशील लोगों के साथ-साथ मिथिलांचल के, दरभंगा राज के अवसरवादी धोतीधारी, चाटुकार, जी-हुजूरी करने वाले, चमचे, बेलन, कलछुल सभी पढ़ें – सच पढ़ें। 

आपके अपने वेबसाईट के तरफ से, हज़ारों द्रवित-अश्रुपूरित परिवारों के तरफ से, मेरे और मेरे परिवार के तरफ से 75 वां जन्म-दिन की शुभकामनायें स्वीकार करें। मेरे माँ-बाबूजी अगर मिलें वहां तो आप उन्हें जरूर बता देंगे (आप पर विस्वास है) की मैं आपके नाम को, महाराजा के नाम को ता-उम्र जीवित रखूँगा, उसे नेश्तोनाबूद नहीं करूँगा। जन्म-दिन की शुभकामनाएं। … 

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