कुछ वर्ष पहले रूइन्स ऑफ़ मिथिला किताब के सिलसिले में मिथिलांचल का भ्रमण-सम्मलेन कर रहा था। उसी क्रम में पहुंचा मधुबनी। मधुबनी का नाम लेते ही आज भी शरीर के सम्पूर्ण रोम खड़े हो जाते हैं। तकलीफ़ से, पीड़ा होती है। भले मधुबनी ले लोगबाग, प्रदेश की सरकार मधुबनी और मिथिला पेंटिंग को लेकर यमुना पार से लेकर ब्लेक चैनल तक दूकानदारी करे, लेकिन आज भी मधुबनी में दबाई के अभाव में, चिकित्सा के आभाव में प्रसव-पीड़ा करते महिलाएं ईश्वर को प्राप्त होती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं, स्थानीय लोग खैनी-चुनाते हैं। ठेंघुने कद के नेता से लेकर प्रदेश के मुख्य मंत्री तक इसे “प्रारब्ध” कहते हैं। और जो मिथिलांचल का मालिक थे, महाराजा थे, मानवीय थे, उनके आज की पीढ़ी के बारे में कुछ कहना, लिखना ब्यर्थ है।
मधुबनी में मेरी दिवंगत छोटी बहन भी रहती थी। इसी वर्ष फरवरी माह में वह अपने दिवंगत माता-पिता के पास चली गयी। वह अपने पिता की दुलारी तो थी ही, माँ भी बहुत पसंद करती थी उसे। अपने जीवन के अंतिम समय में माँ उससे मिलकर आयी थी दिल्ली । माँ, नितीश कुमार द्वारा संचालित मधुबनी जिला अस्पताल में कोई 12 घंटे के लिए भर्ती रही थी। गाँव में उसे स्ट्रोक आया था, पैरालाइज्ड हुई। लोगों ने उसे उठाकर मधुबनी अस्पताल में दाखिल करा दिए। माँ की बेटी सपरिवार वहां रहती थी। मैं देर रात कोई 12 बजे तक वहां पहुंचा था दिल्ली से। रास्ते में बिहार के पत्रकार मित्रों से लगातार संपर्क में था ताकि किसी भी समय कुछ जरूरत पड़ने पर उनका दरवाजा खटखटा सकूँ। विश्वास तो सभी दिलाये थे ऐसा ही।
मधुबनी अस्पताल में मधुबनी अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक की कुर्सी, आस-पास इलाके का सूअर और मरीज सभी एक साथ रहते हैं। शायद वही एक असपताल होगा जहाँ दरवाजा-खिड़की नहीं दिखा। ताला, सिक्कर की बात तो जाने दीजिये।चाहे प्रसूति कक्ष को या स्ट्रोक लगा मरीजों का कक्ष, ऊपर मरीज और नीचे सूअर रात्रि काल में सोते थे। सुबह सूर्योदय के साथ सूअर भी भोजन व्यवस्था में निकल जाता था। शायद उसी अस्पताल में मेरी माँ के आने के बाद किसी प्रसूति के नवजात शिशु को कोई जानवर अपना भोजन बना लिया था। स्थानीय अख़बारों में शायद छापा था। बिहार के मामले में ऐसा होता है। जो मजबूत है, उसके सामने सभी बौने।
खैर, बहुत बातें हैं जिला के बारे में लिखने के लिए मधुबनी/मिथिला पेंटिंग के अलावे।
असली बात यह है कि यह (उपरोक्त तस्वीरें) भवन मधुबनी का पुलिस लाईन है और इसका स्वामी महाराजाधिराज दरभंगा थे ही नहीं, आज की पीढ़ी ही इसका बारिस है, दिल्ली में रहते हैं। परन्तु मिथिलांचल में जीवित रहने के लिए मिथिलांचल की संस्कृति को बहाल, बरकरार करना, रखना चाहते हैं। अच्छी बात है। लेकिन वे “सुतल छी – विवाह होइत अछि”, में विश्वास रखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो महाराजाधिराज का, उनकी कीर्तियों का यह हाल नहीं होता, धरोहरों का यह हश्र नहीं होता – जो आज है।
कई वर्षों से इस भवन पर जिला पुलिस का अधिपत्य है। हो सकता है किराया भी मिलता हो राज दरभंगा को। लेकिन इतना तय है कि इस मकान पर दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ी पुनः कब्ज़ा नहीं कर सकता है। इस भवन के दाहिने तरफ एक पोखर है और पोखर के दाहिने तट पर माँ काली का ऐतिहासिक मंदिर। कहा जाता है कि पटना के दरभंगा हॉउस जैसा ही इस भवन से माँ काली के मदिर तक सुरंग है ताकि उन दिनों महाराजा के परिवार के लोग बाग़ स्नानोपरांत देवी का दर्शन, पुष्पांजलि कर सकें।
तभी एक सज्जन सामने खड़े हुए। उम्र से बड़े दिख रहे थे, लेकिन विचार उम्र से कई गुना अधिक था। महाशय कहते हैं: आप पत्रकार है? मैं हामी भरा। वे कहते हैं कि यह भवन महाराजाधिराज दरभंगा का है। आज इस पर स्थानीय पुलिस है । पुलिस तो सरकार की है, और सरकार जनता की (आज भी महाशय सदियों पुराने खयालात में विश्वास रखते हैं) . सरकार और ठिकाना सरकार बना सकती है। लेकिन अगर महाराजा के परिवार के लोग, राज दरभंगा के लोग इस भवन को पुलिस की चंगुल से मुक्त कर यहाँ के लोगों के लिए एक बेहतरीन सुपर-स्पेसिलिटी अस्पताल बना देते, तो न केवल लोगों को मदद मिलता, बल्कि उन्हें भी लोग बाग़ बहुत आशीष देते।” बहुत सकरात्मत्क सोच लेकर आये थे वे।
मैं उन्हें टकटकी निगाह से देख रहा था। फिर स्वयं पर काबू नहीं रख सका और कहा: “महोदय, महाराजाधिराज की मृत्यु 1962 में हुई। आप उस समय जरूर 20 वर्ष से अधिक के होंगे। ज्ञान का पटल भी खुल गया होगा। आप इन वर्षों में कभी यह सुने की दरभंगा, मधुबनी या मिथिलांचल के लोगों के लिए दरभंगा राज की आज की पीढ़ी कुछ की है? मैं जानता हूँ कि इस भवन में, इस सम्पूर्ण क्षेत्र के लिए एक बेहतरीन सुपर स्पेसिलिटी अस्पताल खुल सकता है। परन्तु, दिल्ली से आज एक नहीं, दर्जनों लोग दौड़कर आ जायेंगे जो इस कार्य को पूरा करेंगे। लेकिन सवाल यह है कि अगर घंटों में देखा जाय तो साल के 365 दिनों में 8, 760 घंटा होता है। जिसमें वे सभी 500 घंटा से अधिक समय विश्राम करने में बिताना श्रेयस्कर समझते हैं। स्वाभाविक भी है। वे हमलोगों जैसा मजदूर नहीं है। पैसे की किल्लत नहीं है। सेवा करने वाले पंक्तिबद्ध हैं। अब समय कहाँ है उनके पास की महाराजाधिराज के समय के प्रांतों के लोगों के लिए, उनकी सुरक्षा-स्वास्थ के लिए सोचें। अगर ऐसा नहीं होता तो आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अखबार बंद होता ? महाराजा के ऐसे – ऐसे भवन अनेक हैं, दिल्ली में भी है, मद्रास में है। हाँ कोई खरीददार हो तो बताएं, मैं आपको पता-ठिकाना दे देता हूँ।
मेरी बात सुनकर वे अश्रुपूरित हो गए । कहते है – आप बेबाक हैं। आप चौबीस-कैरेट की बात करते हैं।
सवाल यह है कि अगर दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ी के सम्मानित सदस्यगण, मधुबनी और दरभंगा के संभ्रांत लोगबाग प्रदेश के मुख्य मंत्री से मिलें और उनसे कहा जाय की सरकार अपनी पुलिस के लिए पुलिस लाईन अलग स्थान पर बनाये। इस भवन को खाली किया जाय एक बेहतरीन सुपर स्पेसिलिटी अस्पताल खोलने के लिए। दरभंगा चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल के निर्माण में महाराजाधिराज की भूमिका आज स्वर्णाक्षरों लिखा जा सकता है। सुपर स्पेसिलिटी अस्पताल में सभी प्रकारी आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध होंगी जिससे मधुबनी के अलावे, दरभंगा के लोगों के लिए, आस-पास के लोगों को, विशेषकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को अच्छी स्वास्थ सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सके।
स्थानीय लोगों का कहना है कि भारत में शिक्षा और चिकित्सा महाविद्यालयों की बुनियाद देख लीजिये, हर जगह दरभंगा राज और महाराजाधिराज का योगदान दिखेगा। लेकिन आज महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद ऐसी कोई पहल नहीं है जिससे उनका नाम ताम्बे में भी लिखा जाय । परिणाम यह है कि आज ठेंघुने – कद से आदम – कद के नेतागण आकार के शिलापट्ट पर अपना नाम गोदवाकर सड़कों पर घूम रहे हैं, अपने-
अपने तथाकथित-मनगढंत सेवाओं, योगदानों का नगारा पीट रहे हैं।
आज दिल्ली के राजपथ से पटना के सर्कुलर रोड के रास्ते दरभंगा के लाल बाग़ चौक तक रंग-बिरंगे परिधानों में लिपटे ठेंघुने-कद के नेता से लेकर आदम-कद के नेता तक, जिस तरह स्वहित में प्रदेश और
जिला के तथाकथित विकास में अपनी-अपनी भागीदारी की बात ढोल-नागरा पीटकर चिल्लाते हैं; उन्हें शायद यह मालूम नहीं है कि दरभंगा चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल की स्थापना और विकास में राज
दरभंगा और महाराजाधिराज दरभंगा का क्या योगदान है ! दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि न केवल दरभंगा के लोग, न केवल बिहार के लोग, बल्कि पूरे राष्ट्र के लोग आज भूल गए. निज़ाम का क्या योगदान रहा, दक्षिण भारत के लोग शिलापट्ट पर लिखकर, लिखवाकर अपने-अपने दरवाजों पर राष्ट्र के निर्माण में दक्षिण के राजाओं की गौरवगाथा लिखने में तनिक भी संकोच नहीं किये, हिचकी नहीं लेते; परन्तु, उत्तर भारत के लोग महाराजाधिराज दरभंगा और दरभंगा राज द्वारा उस समय की गयी सहायताओं को, जो तत्कालीन लोग शिलापट्ट पर लिखकर दरवाजे पर लगाए थे; आज सभी स्वहित में उसे नोचकर अपने-अपने नामों का गोदना गोदवा रहे हैं, ताकि वोटों संख्या चुनाव में कम न हो । यह गलत है।
शायद भारत के लोग, बिहार के लोग और दरभंगा के लोग भूल गये। बात सं 1925 की है। प्रिन्स ऑफ़ वेल्स बिहार यात्रा पर आये थे। स्वाभाविक है महाराजाधिराज से मिलना होगा ही, यही संस्कृति भी थी। आज भले
लोगबाग अपनी संस्कृति भूल गए – सम्मानार्थ भी मिलना। प्रिंस ऑफ़ वेल्स दरभंगा के तत्कालीन मेडिकल स्कूल भी देखे। यह मेडिकल स्कूल अंग्रेजी अधिकारियों द्वारा चलाये जाते थे। स्थानीय लोगों का सहयोग भी होता था। प्रिन्स ऑफ़ वेल्स ब्रिटिश सरकार के तरफ से महाराजाधिराज को एक निवेदन किये की इस मेडिकल स्कूल से प्रान्त के लोगों की भरपूर सेवा, देखरेख नहीं हो पाता है, अतः ब्रिटिश सरकार चाहती है कि इस स्कूल को मेडिकल कालेज और अस्पताल के रूप में बदला जाए ताकि स्थानीय लोगों के अलावे, इस प्रान्त के आस -पास के इलाके में रहने वाले लोगों को चिकित्सा के
मामले में लाभ मिले।
प्रिन्स वेल्स का अन्तिम शब्द समाप्त भी नहीं हुआ था की महाराजाधिराज सहर्ष घोषणा किये : तथास्तु फिर प्रिन्स ऑफ़ वेल्स तथा महाराजाधिराज एक-दूसरे की आँखों में आखें डालकर दरभंगा में चिकित्सा
सुविधा का भविष्य देखे। महाराजाधिराज ने तक्षण दरभंगा में चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल की स्थापना के लिए 300 एकड़ जमीन और 600,000 रुपये नकद दिए। इससे पहले यह कालेज पटना में था और चिकित्सा शिक्षा के मन्दिर के नाम से विख्यात था। लेकिन दरभंगा स्थित मेडिकल स्कूल को दरभंगा मेडिकल कॉलेज बनाकर इसे भी मेडिकल मंदिर के रूप में सरकार को सौंपा गया।
लेकिन ये सभी बातें किसे सुना रहे हैं? किसके लिए लिख रहे है यानि बहिरा नाचे अपने ताल !!!!!!