अबकी बार केकर किरिया खईहन नितीश बाबू? क्योंकि ‘पैंतरे बदलने में तो महारथ हैं बिहार के कुमार साहेब’

नितीश कुमार (फोटो: पी टी आई के सौजन्य से)
नितीश कुमार (फोटो: पी टी आई के सौजन्य से)

पटना से धीरेन्द्र कुमार

हम को जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है, हम और भुला दें तुम्हें क्या बात करो हो;
यूँ तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो, जब वक्त पड़े है तो मदारत करो हो;
दामन पे कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग, तुम कत्ल करो हो के करामात करो हो ।।

कलीम अज़ीज साहब का ​यह गजल किसी भाजपाई के मुख से सुनने को मिले तो श्रोता बिना कुछ समझे कह देगा कि गायक नीतीश कुमार को सोच कर गा रहा ​है।

जब जैसा चाहा तब तैसा ​किया। एक बार गलतफहमी हो गई थी​, लेकिन समय रहते दूर किया​ और फिर साबित किया या कहें कि बार-बार साबित किया कि बिहार की राजनीति का चाणक्य कोई है तो ‘नीतीशे कुमार’ ​हैं।

2013 में नीतीश कुमार को लगा कि अगर नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए मैं चुनाव में गया तो 13 प्रतिशत अतिपिछड़ा का वोट और मोदी विरोध के कारण मुस्लिम वोट और निजी रूप से खड़ा किया हुआ सवर्ण ​वोट। इन तीन चुनावी मतझुण्डो के आसरे मैं दिल्ली को कदमों पर झुकने को मजबूर कर ​दूंगा। ये पहली और शायद इस शातिर राजनीतिज्ञ की अंतिम गलती ​थी। हालांकि एक दो गलतियां और हुई है लेकिन राजनीति में वो नगन्य है​, जिस शख्स ने बड़ी गलती को सुधार दिया वो छोटी गलती को ना सुधार सके ऐसा हो नहीं ​सकता।

2014 के लोकसभा चुनाव में सुशासन बाबू का गणित चुनावी चक्रव्यूह में औंधे मुंह धाराशायी हो ​गया। दिल्ली की उड़ान पर ब्रेक लगते ​ही। इस शातिर राजनीतिज्ञ ने प्रदेश की राजनीतिक चौसर पर मोहिनी अस्त्र का प्रयोग ​किया। वैराग्य भाव को चोला पहन इसने प्रदेश की सत्ता का प्रत्यक्ष परित्याग कर ​दिया। राजनीतिक और सामाजिक श्रेणी में जो सबसे नीचे खड़ा था​, उसे शासन के आसन पर बिठा खुद साधना में लग ​गए। तीर निशाने पर लगा ​था। इस बार जाल में बड़े भाई को फांसना था और विधानसभा चुनाव आते आते पूरी तरह से फांस ​लिया।

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दरअसल लोकसभा चुनाव के दरम्यान नीतीश कुमार को इस बात का अहसास हो गया था कि जिस 13-14 फीसदी पिछड़ा और अतिपिछड़ा वोट को ये अपना मान कर चल रहे थे​, वो इनका नहीं है​ ​और जातीय राजनीति के अखाड़े में इनकी अपनी हैसियत एक दर्जन से अधिक सीटों की नहीं ​है। लेकिन अति पिछड़ा वोट के नाम पर ऐंद्रजालिक छलावा करने में समय रहते हुजूर कामयाब हो ​गए।

​लालू प्रसाद यादव (फोटो वन इंडिया के सौजन्य से
​लालू प्रसाद यादव (फोटो वन इंडिया के सौजन्य से

लालू यादव के पास अधिक ताकत होने के बावजूद चुनाव पूर्व ही समझौता में तय करवा लिया कि कुर्सी की कमान इनके ही हाथ में ​रहेगी। लंबे अर्से से सत्ता से दूर रहने वाले लालू यादव ने चिमटा से ही सही सत्ता को छूना पसंद कर ​लिया। चूंकि चुनाव हुजूर के चेहरे पर लड़ना तय हुआ था इसलिए हुजूर ने जिस महादलित को शासन के आसन पर बिठाया था उस महादलित को सरेआम कुर्सी से उतार कर यह भी साबित कर दिया कि अभी प्रदेश में दलितोद्धार की राजनीति होनी बाकी ​है। महादलित वर्ग का यह नवोदित नेता सुशासन पर दलितोद्धार का छलावा करने का लांक्षण लगाते हुए उस गोद में जा बैठा जिस गोद में नीतीश कुमार पोषित होकर सुशासन कहलाये ​थे।

लेकिन इसे दलित नेता का दुर्भाग्य ही मानिए कि जिस गोद ने नीतीश कुमार को पल्लवित कर पाटलीपुत्र से दिल्ली तक का स्वप्न दिखाया था, उस गोद में अब इसके लिए जगह तो थी लेकिन पल्लवित करने वाली ऊर्जा का क्षय हो चुका ​था। नीतीश ने कुछ और पैंतरे बदले और लालू की करिश्माई छवि को हल्का करने के लिए उस शख्स को अपने साथ कर ​लिया। जिसके उपर इस बात का तमगा लगा हुआ है कि ‘नरेंद्र’ की छवि इसी ने चमकाई ​है। खैर​,​ चुनाव हुआ और सुशासन बाबू की राजनीति ने प्रदेश की सत्ता हथियाने में या कहिए बरकरार रखने में कामयाब ​हुए।

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समय के साथ शासन की गाड़ी चलने ​लगी। इस नूतन प्रयोग की सफलता ने सुशासन बाबू को और अधिक गंभीर कर ​दिया। लेकिन मां की गोद से उतर पिता की उंगली पकड़ राजनीति का ककहारा सिखने वाले लालू के दो लाल ने नीतीश की राजनीतिक पाठशाला में चिल्ला चिल्ला कर राजनीति का पाठ सीखाना शुरू ​किया। सुशासन बाबू को समझते देर ना लगी कि अगर इन बच्चों से जल्द ही पिंड नहीं छुड़ाया तो प्रदेश की बहरी जनता इसके शोर के आग मेरे मौन को कमजोरी मान मुझे खारिज कर ​देगी। अपनी शर्तों पर राजनीति करने का आदि यह शख्स एक बार फिर आचार के भ्रष्ट होने के नाम पर लालू से नाता तोड़ ​लिया।

राजनीतिक शरीर में मेरूदंड नहीं होता ​है, इस कहावत को सच साबित करते हुए नीतीश कुमार ने उस शख्स के आगे खुद को दंडवत कर दिया जिसके विरोध के नाम पर इनको दिल्ली का तख्तेताउश पाने की उम्मीद जगी ​थी। बिहार की बागडोर इन्हीं के हाथ ​रही। लालू, पत्नी-पुत्र समेत शासन से दूर ​हुए। जय श्रीराम वाले शासकीय आसन पर दुबारा ​बैठे। आम लोगों को लगा कि दिल्ली का राजा अपने दुश्मन के साथ सम्मान का व्यवहार ​करेगा। लेकिन ऐसा हुआ ​नहीं। कई मौकों पर दिल्ली ने नीतीश कुमार को साथ रखते हुए उनकी औकात उनके सामने बता दी…नीतीश शांत भाव से राजनीति का शांति पर्व मनाते ​रहे।

इसी बीच दिल्ली के लिए एक बार फिर से जोरआजमाईश का वक्त नजदीक आ ​गया। नीतीश ने एक बार फिर राजनीति का ककहारा उल्टा पढ़ना शुरू ​किया। दसो दिशाओं को सूचना दी गई कि नीतीश फिर से बड़े भाई लालू के साथ जा सकते ​हैं। भाजपा सकपका ​गई। उसने इस बड़े भाई और छोटे भाई का करामात 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में देखा ​था। लिहाजा​, वर्तमान में जिस शख्स की हैसियत दिल्ली में दो की है और प्रदेश में 12 लोकसभा के आस पास है उसे अपनी बराबरी में बैठाने को तैयार हो देश की सबसे बड़ी ​पार्टी। नीतीश ने एक बार फिर साबित किया कि दामन पर न कोई छींट ना खंजर पर कोई दाग तुम कत्ल करो हो कि करामात करो ​हो।

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