पर्यटन की राजनीति : कैसे आए कोई बिहार में विहार करने ?

बोधगया बिहार
बोधगया बिहार

यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल आग्रेनाइजेशन (यूनेस्को) ने विश्व धरोहरों की संभावित सूची में जिन ऐतिहासिक विरासतों को शामिल किया है, उनमें बिहार की दो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहरें भी हैं। एक है-विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष और दूसरा है-शेरशाह सूरी का सासाराम स्थित मकबरा। इसके पहले, यूनेस्को की धरोहर-सूची में बिहार से एकमात्र बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर ही शामिल था।

इन स्मारकों का बिहार और देश के लिए जो खास महत्त्व है, वह है बिहार के गौरवपूर्ण अतीत के साक्ष्य के तौर पर इनकी उपस्थिति। इतिहास में बिहार जिन कारणों से अहमियत रखता है, उनमें से एक है-महात्मा बुद्ध की तपस्थली के रूप में इसकी पहचान। मौर्य और गुप्त साम्राज्य के साथ-साथ विश्व के संभवत: पहले गणराज्य के रूप में वैशाली का इतिहास बिहार की वह अहम पहचान है, जिसके आगे हर आख्यान, हर मिथक, हर किंवदती कम पड़ जाती है। बाद के वर्षो में अगर 1857 में कुंअर सिंह और पीर अली की भूमि के रूप में इसकी ख्याति रही तो आजादी के आंदोलन में चंपारण का विशेष महत्त्व रहा जिसने बैरिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी को महात्मा गांधी बनने की राह पर ला खड़ा किया।

आजादी के बाद एक बार फिर इस राज्य ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जयप्रकाश आंदोलन के रूप में संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया, जिसकी गूंज पूरे देश में सुनाई दी। लेकिन गौरवपूर्ण अतीत की परिणति कुछ दशक पहले इस रूप में हुई कि बिहार दीनता और आत्महीनता का प्रतीक बन गया। बिहार का तेजी से विकास हो, इस एक मुद्दे पर राजनीतिक दलों से लेकर आम जनता तक में सर्वसम्मति दिखती है।

विगत कुछ वर्षो से बिहार की गाड़ी को विकास की पटरी पर दौड़ाने के अथक प्रयास हो रहे हैं, प्रकाश पर्व, चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष जैसे कुछ बड़े आयोजन भी हुए हैं I किंतु इन सभी प्रयासों के बावजूद एक बात बेतरह खटकती है। वह है पर्यटन क्षेत्र में असीम संभावनाओं के बावजूद इसको बढ़ावा देने के सरकारी प्रयासों की कमी की। यह कोताही तब है जबकि यह राज्य परम्परागत रूप से सैलानियों का पसंदीदा रहा है; इस कदर कि सूबे के कई गांवों-कस्बों-नगरों के नामों से सराय शब्द जुड़ा हुआ है।

दूसरे बिहार में पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहरों की प्रचुर वेराइटी है। हिन्दू, जैन, बौद्ध एवं सिख धर्म से जुड़े उपासना स्थलों के साथ-साथ इस्लाम की सूफी परंपरा से जुड़े अनेक स्थल यहां मौजूद हैं। राज्य पर्यटन निगम ने इस आधार पर वर्गीकरण भी किया है-बुद्ध संभाग, जैन संभाग, रामायण संभाग, सूफी संभाग, गांधी संभाग और इको संभाग। ढाई सौ से ज्यादा ऐसे पर्यटन स्थलों की समृद्ध सूची से उत्तर प्रदेश छोड़कर शायद ही कोई अन्य राज्य बिहार से सानी कर सकता है।

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दुखद है कि ˜अवश्य देखिए देखन जोगू की श्रेणी में सैकड़ों दर्शनीय स्थलों के बावजूद राज्य के नक्शे पर सिर्फ तीन ही धार्मिक-ऐतिहासिक स्थल पर्यटन केंद्रों के रूप में विख्यात हो सके हैं-बोधगया, राजगीर और नालंदा। यहां घरेलू और विदेशी सैलानी करोड़ों की तादाद में बेखटके आते रहे हैं। राज्य को पर्यटन से राजस्व में भी भारी इजाफा होता रहा है। पर्यटन क्षेत्र के विकास की बात आने पर इन्हीं तीन स्थलों पर जोर दिया जाता है। इनकी महत्ता के हिसाब से इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है। लेकिन ये ही तीन स्थल अगर पर्यटकों के दिमाग पर अंकित रह गए हैं तो इसलिए कि हमने बहुतेरे पर्यटन स्थलों के बारे में उन्हें बताया नहीं है। उनकी खासियत नहीं बताई है। इनके बारे में भी उसी तरह प्रचार-प्रसार और वहां आधारभूत सुविधाओं के विकास की एक दीर्घकालीन नीति बना कर चला गया होता तो बाकी सारे लुके-छिपे स्थल भी पर्यटन के नक्शे पर जगमग हो रहे होते। तब राज्य सरकार अपनी आय के मुख्य स्रोतों में कृषि, उद्योग और ग्रामीण बाजार को रख कर ही संतोष नहीं करती। पर्यटन को पहला मुख्य स्रोत बताती।

यह क्या संयोग है या सुविचारित कि पर्यटन को नियमित आय का महत्त्वपूर्ण जरिया हो सकने की संभावनाओं के दोहन पर अभी सोचा भी नहीं जा रहा है? पर्यटकों को वहां तक खींच लाने के लिए उन स्थलों का सुंदरीकरण, उनके ठहरने, उनके मनोरंजन एवं अन्य जरूरतों को ध्यान में रखकर आधारभूत ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है। उन स्थलों के आसपास उनके काल के परिवेश का सृजन कर भी हम पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं। निश्चित रूप से इसके लिए संसाधन, तकनीक और कलात्मक दिमाग के समन्वय और संयोजन की दूरदर्शिता दिखानी होगी। इस स्तर पर अभी भारी कमी दिख रही है।

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यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पहली जरूरत होती है पर्यटन स्थलों को उनके धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पर्यावरणीय महत्त्वों के आधार पर चिह्नित करना। उनकी महत्ताओं के बारे में अनेक माध्यमों से बार-बार बखान करना। इसमें राज्य के पर्यटन महकमे और सूचना प्रसार माध्यम की समन्वित भूमिका परिणामदायक होती है। इस मोर्चे पर आपराधिक उपेक्षा देखी जा रही है। राज्य के पर्यटन स्थलों के बारे में सम्यक जानकारी तक उपलब्ध नहीं है।

इस सूचना क्रांति के युग में जब हाथ पुस्तक पलटने से ज्यादा माऊस पर जाते हैं; राज्य के सूचना विभाग, पर्यटन मंत्रालय एवं संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइटें जानकारियों के लिहाज से निराश करती हैं। वहां आठवीं कक्षा के इतिहास की पुस्तक जितनी भी जानकारी नहीं है। सरकारी साइटों से ज्यादा जानकारी विकीपीडिया या बिहार खोजखबर डॉट कॉम पर मिलती है। पर्यटन विकास निगम की वेबसाइट पर सरसरी नजर डालते समझ में आ जाता है कि विभाग की मंशा पर्यटकों को आकर्षित करने की तो नहीं ही है।

माना जाता है कि अगर आप मौलिक कुछ करने में सक्षम नहीं हों तो कोई बात नहीं, कम से कम अनुसरण की क्षमता तो होनी ही चाहिए। सरकारी साइटों पर जो जानकारी है, वह आधी-अधूरी है। पर्यटन निगम ने अपनी वेबसाइट पर जो जानकारी दी है, उसमें बौद्ध स्थल वैशाली, बोधगया, राजगीर,पावापुरी और नालंदा के साथ कुशीनगर का भी जिक्र है। कहना नहीं होगा कि कुशीनगर उत्तर प्रदेश में है। पहले यह गोरखपुर मंडल का हिस्सा हुआ करता था, अब स्वतंत्र जिला है। इसका बिहार से कोई मतलब नहीं है। अगर इसे बुद्ध के निर्वाण स्थल के रूप में बुद्ध संभाग से जोड़ा गया है तो फिर सारनाथ, श्रावस्ती के साथ-साथ कपिलवस्तु (नेपाल) एवं लुंबिनी (नेपाल) ने क्या गलती की, जिसके कारण वे वेबसाइट पर स्थान नहीं पा सके? होना चाहिए था कि बुद्ध से जुड़े स्थलों को एक पैकेज के रूप में दिखाया जाता। इससे दुविधा नहीं होती।

बापू ने तो यहां जगह बना ली है लेकिन कुंअर सिंह से लेकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण और जननायक कपरूरी ठाकुर से तक जुड़े स्थानों के लिए पर्याप्त जगह नहीं निकल पाई। इसे सूचनाओं का दुर्भिक्ष कहें या कमअक्ली? अपने देश में सूर्य मंदिरों की जो परंपरा रही, उसके तहत चार ज्ञात सूर्य मंदिरों में से दो बिहार में हैं। पहला देवार्क (देव का सूर्यमंदिर)एवं दूसरा पुण्यार्क (पंडारक)। इन दोनों मंदिरों के बारे में राज्य से बाहर के लोगों को काफी कम जानकारी है। इसके अलावा, कैमूर के प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों की बात करें तो इस वेबसाइट पर उतनी ही जानकारी है, जितनी प्रारंभिक इतिहास की पुस्तकों में पाई जाती है। देश में लघु चित्रशैली परम्परा की शुरुआत सामान्यतया मुगल काल से मानी गई है जबकि तथ्य यह है कि 11-12 वीं सदी में इसकी शुरुआत का श्रेय नालंदा और विक्रमशिला को है। इन दोनों विश्वविद्यालयों में पुस्तकों की रचना के क्रम में चित्र रचना के साक्ष्य मिलते हैं और इनमें अधिकांश उस दौर पर केंद्रित हैं जब बौद्धों की महायान शाखा ने अपने पर फैलाए थे। आर्यभट्ट, कालिदास, मंडन मिश्र-भारती मिश्र और विद्यापति की जन्मभूमि और कर्मभूमि का कोई साक्ष्य तलाशने का प्रयास भी यहां दृष्टिगत नहीं होता है। तिलका मांझी, जुब्बा साहनी से लेकर भिखारी ठाकुर और महिन्दर मिसिर से जुड़ी स्मृतियों के लिए भी यहां कोई जगह नहीं है। क्या इसके लिए भी हम किसी बुकानन और हेमिल्टन का इंतजार करें?

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देश के दूसरे हिस्सों की बात करें तो केरल ललित कला अकादमी कोट्टायम को म्यूरल सिटी के तौर पर विकसित करने जा रही है। 13 मई से 25 मई तक यहां एक कार्यशाला का आयोजन किया गया है,जिसमें देश भर से 350 कलाकार इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए जमा हो रहे हैं। दूसरी तरफ उदयपुर को एक नई पहचान देने के लिए एक मूर्तिशिल्प कार्यशाला चल रही है जिसमें देश-विदेश के ख्यातिनाम मूर्तिकार लगभग 60 विशाल मूर्तिशिल्पों का निर्माण कर रहे हैं, जिन्हें शहर के विभिन्न स्थानों पर स्थापित किया जाना है। यह वे राज्य हैं, जहां पर्यटन उद्योग की स्थिति काफी बेहतर है। इधर गुजरात भी पर्यटन राज्य के रूप में उभरा है। ऐसे में हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि जब बिहारमें भी पर्यटन संस्कृति विकसित करने की बेचैनी होगी और उसके माध्यम भी सैलानियों को यह कह कर बुलाएं-आइए न विहार करने बिहार में।

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